जौनपुर में इस्लामी वास्तुकला के अनेक उदाहरण दिखायी देते हैं। यहां के अधिकांश कार्यों में वास्तुकला की एक बहुत ही सामान्य विशेषता देखी जा सकती है, जो इंटरलेसिंग पैटर्न (Interlacing Pattern) और इस्लामिक ज्यामितीय है। ये पैटर्न उन पंक्तियों और आकृतियों के पैटर्न हैं जिनमें पारंपरिक रूप से इस्लामी कला का वर्चस्व है। उन्हें मोटे तौर पर घुमावदार पादप आधारित तत्वों का उपयोग करके अरबस्क (Arabesque) में तथा ज्यादातर सीधी रेखाओं या नियमित वक्रों या वृत्तों के साथ ज्यामितीय रूपों का उपयोग करके गिरिह (Girih) में विभाजित किया जा सकता है। इस्लामिक कला के यह दोनों रूप बीजान्टिन (Byzantine) साम्राज्य (पूर्वी रोमन) और कोप्टिक (Coptic) कला (क्रिश्चियन पूर्वी रोआन - Roan - कला) के समृद्ध इंटरलेसिंग पैटर्न से विकसित हुए। जौनपुर में इस्लामी वास्तुकला के कई अद्भुत उदाहरण हैं। इस्लामिक ज्यामितीय और इंटरलेसिंग पैटर्न की पुनरावृत्ति इस्लामी और मूरिश कला की पहचान हैं। इस तरह के पैटर्न के विभिन्न संग्रहों के अध्ययन के माध्यम से, यह सत्यापित करना आसान है कि, डिजाइन (Design) की काफी जटिलता के बावजूद, अधिकांश इंटरलेसेस आकृतियों के स्ट्रेंडों (Strands) जो कि कम संख्या में होते हैं, के द्वारा निर्मित किये जाते हैं- डिजाइनों के कई दोहरावों पर सिर्फ एक एकल आकार खींचा जाता है। यह अवलोकन लेखकों द्वारा वर्णित और प्रलेखित है, जो इस घटना के लिए एक सरल व्याख्या प्रस्तुत करते हैं।
शर्की सम्राटों के तहत, जौनपुर इस्लामी कला, और वास्तुकला सीखने का एक महत्वपूर्ण केंद्र बना। यह एक ऐसे विश्वविद्यालय शहर के रूप में उभरा जिसे ईरान में शिराज शहर के बाद 'शिराज-ए-हिंद' के रूप में जाना गया। शैली के अधिकांश ढांचे तब नष्ट हो गए जब दिल्ली के सिकंदर लोदी ने जौनपुर पर पुनः विजय प्राप्त की। यह शैली मुख्य रूप से सुल्तान शम्स-उद-दीन इब्राहिम (1402-36) के तहत बनाई गई थी।
प्रवेश द्वारों तथा इमारतों के मुख पर बनाये गये स्तम्भ इन शैलियों की विशेषता है। इस्लामिक अरबस्क कलात्मक सजावट का एक रूप है, जिसमें सपाट सतहों की सजावट को शामिल किया जाता है। यह सजावट कुण्डलित और एक दूसरे से जुडे हुए पर्ण समूहों, तंतुओं और रेखाओं के लयबद्ध रैखिक पैटर्न पर आधारित होती है। इसकी एक अन्य परिभाषा इस्लामिक दुनिया में इस्तेमाल होने वाला पत्ती अलंकरण (Foliate Ornament) है, जिसमें आमतौर पर पत्तियों का उपयोग किया जाता है और उन्हें सर्पिलाकार तनों से जोडा जाता है। इसमें आमतौर पर एक एकल डिज़ाइन होता है, जिसे या तो एक बार या फिर कई बार दोहराया जा सकता है। इसी प्रकार से गिरिह या गिरिह-साजी भी एक इस्लामी सजावटी कला है, जिसका उपयोग वास्तुकला और हस्तशिल्प (पुस्तक आवरण, छोटी धातु की वस्तुओं आदि) में किया जाता है। इसमें मुख्य तौर पर ज्यामितीय रेखाओं को शामिल किया जाता हैं। गिरिह को ज्यामितीय (अक्सर सितारे और बहुभुज) डिजाइनों के रूप में परिभाषित किया गया है, जो उन बिंदुओं के सरणियों से निर्मित या उत्पन्न होते हैं जिनसे निर्माण रेखाएं विकीर्णित होती हैं और जिस पर वे प्रतिच्छेद करते हैं। प्राकृतिक वस्तुओं के प्रतिनिधित्व के विपरीत मुस्लिम कला अपनी शुद्ध अमूर्त रूपों पर एकाग्रता द्वारा पहचानी जाती है। इस्लामी सजावट कला में मानव या जानवरों के जीवित रूपों के उपयोग की मनाही करता है तथा आलंकारिक छवियों का उपयोग करने से बचता है। इस्लामी कला और वास्तुकला में कई प्रकार के ज्यामिति पैटर्न शामिल हैं जिनमें किलिम कालीन, फ़ारसी गिरीह और मुकर्नस सजावटी वॉल्टिंग (Mukarnas Decorative Vaulting), चीनी मिट्टी की चीज़ें, चमड़ा, स्टेंड ग्लास (Stained Glass), काष्ठकला, और धातुकार्य सम्मिलित हैं।
इस्लामी संस्कृति में, पैटर्न को आध्यात्मिक क्षेत्र के लिए पुल के रूप में देखा जाता है, जो कि मन और आत्मा को शुद्ध करने का साधन भी है। इस्लाम की अधिकांश कला, एक सजावट कला है जिसे परिवर्तन की कला भी कहा जा सकता है। यह वास्तुकला, चीनी मिट्टी की कला, कपड़ा या किताबों की कला आदि सभी मुस्लिम कलाओं में परिलक्षित होती है। इसका उद्देश्य मस्जिदों को प्रकाशमान या चमकीले और पैटर्न रूप में परिवर्तित करना है।
इसके अलावा कुरान के सजाए गए पृष्ठ अनंत में झांकने के लिए सहायक बन सकते हैं। मध्यकालीन यूरोप और इस्लामी दुनिया की दार्शनिक सोच के बीच एक प्रमुख अंतर ठीक यही है कि अच्छे और सुंदर की अवधारणाएं अरबी संस्कृति में अलग हो जाती हैं।
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