जौनपुर एक ऐसा जिला है जहां पांच प्रमुख नदियां बहती हैं। इन नदियों में कई जलीय जीव भी पाये जाते हैं रोहू मछली बड़ी संख्या में यहाँ पाई जाती है। लबियो रोहिता (रोहू) आमतौर पर भारतीय मछलियों में सबसे आम है और भोजन के रूप में इसकी उत्कृष्टता के कारण यह बहुत अधिक मात्रा में घरेलू मीठे पानी में पाली जाती है। यह मुख्य रूप से दक्षिण एशिया की नदियों में पाई जाती है। सर्वव्यापी होने के कारण इसे बड़े पैमाने पर जलीय पालन या एक्वाकल्चर (Aquaculture) के लिए उपयोग में लाया जाता है।
यह आकार में बड़ी, तथा चांदी के रंग जैसी मछली है, जिसका सिर धनुषाकार होता है। रोहू पूरे उत्तरी, मध्य और पूर्वी भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और म्यांमार की नदियों में पायी जाती है जोकि मुख्य रूप से एक शाकाहारी मछली है। दक्षिण एशिया में रोहू को एक महत्वपूर्ण प्रजाति के रूप में देखा जाता है, क्योंकि इसका जलीय पालन आसानी से किया जा सकता है। रोहू को आमतौर पर बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान और भारतीय राज्यों त्रिपुरा, नागालैंड, बिहार, ओडिशा, असम, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश और उत्तर प्रदेश में भोजन के रूप में खाया जाता है। इसकी स्वादिष्टता के कारण रोहू का मांस लोगों द्वारा बहुत पसंद किया जाता है। रोहू भारतीय प्रमुख कार्प में सबसे मूल्यवान मछली है। यह अन्य मछलियों के साथ रहने के आदी है इसलिए यह तालाबों और जलाशयों में पाले जाने के लिए उपयुक्त है। एक वर्ष के पालन-पोषण की अवधि में यह 500 ग्राम से 1 किलोग्राम वजन तक हो जाती है। इसका मीट स्वाद, स्वाद उपस्थिति और गुणवत्ता में सबसे अच्छा माना जाता है इसलिए इसे बाजारों में उच्च कीमत और प्राथमिकता पर बेचा जाता है। फ्राइड रोहू (Fried rohu), रोहू से सम्बंधित एक महत्वपूर्ण व्यंजन है जिसका उल्लेख 13 वीं शताब्दी की व्यंजन की पुस्तक और संस्कृत विश्वकोश, मानसोलासा में मिलता है। इस व्यंजन को बनाने के लिए रोहू की त्वचा पर हींग और नमक लगाया जाता है। फिर इसे पानी में घोली हुई हल्दी में डुबाकर तला जाता है। मुगल साम्राज्य की बात करें तो यहां रोहू न केवल भोजन के रूप में बल्कि एक सम्मान के प्रतीक के रूप में भी महत्वपूर्ण थी। इस सम्मान को माही-मरातीब के नाम से जाना जाता है, जिसे मुगल साम्राज्य का सर्वोच्च सम्मान माना जाता था। इस सम्मान की मान्यता ठीक वैसी होती है जैसे कि भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत-रत्न की और अन्य देश के प्रमुख सम्मान की। यह सम्मान प्रतिष्ठा, बहादुरी, और शक्ति का प्रतीक है जिसमें एक छड़ (pole) पर स्केल (scale) और लोहे के दांत के साथ रोहू मछली का बड़ा सा चेहरा लगा हुआ होता है। इसके पीछे एक लंबा कपड़ा लगा हुआ है जोकि रोहू के शरीर का प्रतीक है। जब हवा मछली के मुख से होते हुए जाती है तो यह कपड़ा लहराता है। इस सम्मान की पूरी संरचना को माही-ओ-मरातिब के नाम से जाना जाता है। यह सम्मान 1632 में मुग़ल शासक शाहजहां द्वारा पेश किया गया था किन्तु इसकी उत्पत्ति और भी पहले की बताई जाती है। इसकी उत्पत्ति के सन्दर्भ में कई मान्यताएं हैं जिनमें से एक के अनुसार इसकी उत्पत्ति दक्षिण भारत के हिन्दू राजाओं द्वारा की गयी थी। इस मान्यता को सहयोग शाहजहाँ के दरबारी अब्दुल हमीद लाहौरी द्वारा दिया गया था। उत्तर भारत में शाही सम्मान के रूप में रोहू मछली का पहला ज्ञात सन्दर्भ सुल्तान ग़ियासुद्दीन तुग़लक़ के समय (1320-1324) का है। दक्षिण भारत में रोहू शासन के प्रतीक का महत्वपूर्ण हिस्सा रही है क्यों की वहां पर इसे भगवान विष्णु के मत्स्य अवतार के साथ जोड़ा जाता है। अपने स्वाद और बाजार में अत्यधिक मांग के कारण रोहू मछली बहुत ही लोकप्रिय हो गयी है। यही कारण है कि वर्तमान में इसके जलीय पालन पर अत्यधिक ध्यान केंद्रित किया जा रहा है ताकि अधिक से अधिक रोहू की प्रजाति को उत्पादित किया जा सके। संसाधनों के बेहतर उपयोग के लिए मत्स्य पालन को कृषि, पशुपालन, और सिंचाई के साथ संयुक्त किया गया है जिसे एकीकृत मत्स्य पालन के नाम से जाना जाता है। रोहू मछली पालन के लिए सबसे पहले एक ऐसे तालाब का चयन किया जाता है जो बाढ़ संभावित क्षेत्र से दूर हो तथा इसकी जलीय धारण क्षमता पर्याप्त हो। तालाब में वह सारी सुविधा हो जो मछली की वृद्धि के लिए आवश्यक है। इसे शुरू करने के लिए तालाब में मौजूद उन सभी खरपतवारों, मलबे, मछली आदि को तालाब से बाहर निकाला जाता है, जो पहले मौजूद थी। सामान्यता रोहू तीन साल में परिपक्व हो जाती है। मादा रोहू लगभग 3 लाख अंडे देती है तथा अप्रैल से जुलाई का मौसम अंडे देने के लिए उपयुक्त होता है। तालाब की मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने के लिए तालाब में जैविक तथा अजैविक दोनों उर्वरकों का उपयोग किया जाता है। रोहू क्योंकि शाकाहारी है इसलिए तालाब में जलीय वनस्पतियों की सघनता होनी चाहिए ताकि रोहू को उचित पोषण प्राप्त हो सके। भोजन को ग्रहण करने की क्षमता मौसम, प्रजनन चक्र, मछली के आकार, पर्यावरण पर निर्भर करती है। परिपक्व अवस्था में भोजन को ग्रहण करने की क्षमता कम हो जाती है, किन्तु अंडे देने के बाद मछली भोजन को सक्रिय रूप से ग्रहण कर लेती है। उपयुक्त विधियों का अनुसरण करके प्रति हेक्टेयर औसतन करीब 4 से 5 टन मछलियां प्राप्त की जा सकती हैं। उपयुक्त विधियों के अनुसरण से तालाब के प्रति हेक्टेययर से 8 से 10 हजार मछलियां प्राप्त की जा सकती हैं। इस प्रकार 6 महीनों में मछलियों का औसत भार 750 ग्राम प्राप्त किया जा सकता है। इस हिसाब से मछलियों का कुल भार 6750 किलोग्राम होगा। रोहू के 1 किलोग्राम मीट की कीमत 60 रुपये है इसलिए 6750 किलोग्राम मीट की कीमत 4 लाख 5 हजार रुपये होगी। इस प्रकार रोहू मत्स्य पालन से 1,34,800 रुपये का लाभ कमाया जा सकता है।© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.