संकुचित सिर और मुलायम खोल वाला कछुआ अविश्वसनीय रूप से कछुआ की बड़ी प्रजाति का होता है। अक्सर इनकी पीठ की हड्डी 110 सेंटीमीटर लंबी होती है। ये चित्रा जीन्स (Chitra Genes) की 3 प्रजातियों में से एक हैं। यह तीनों प्रजातियां एक साथ दूसरे कछुओ से 40 मिलियन साल पहले अलग हुई थी। लगभग उसी समय मानव अपने पूर्वज टामरीन्स (Tamarins) और कापूचिन (Capuchin) बंदरों के अंतिम रूप से अलग हुआ था। इस अद्भुत कछुए को अंतरराष्ट्रीय पालतू जानवरों के व्यवसाय और भोजन के लिए फसलों की कटाई से बड़ी चुनौतियां मिली। इनके अंडे वही समुद्र तट पर ही नष्ट हो जाते थे, जहां वे दिए जाते थे। बांधों के निर्माण के कारण जल्दी जल्दी आने वाली बाढ़ ने कछुओं के निवास स्थान को तहस-नहस कर दिया। चित्रा कछुए उत्तर प्रदेश में भी मिल जाते हैं। लंबी गर्दन, मुलायम खोल आदि खूबियां उनकी पहचान है।
चित्रा इंडिका (Chitra Indica) प्रजाति के कछुओं को छोटे सिर और मुलायम खोल वाले कछुए भी कहते हैं। यह भारतीय उपमहाद्वीप की नदियों में पाए जाने वाले लुप्तप्राय कछुए हैं, जो आकार में बड़े होते हैं। मछलियां, मेंढक, क्रुस्टेचिअन(Crustacean) और मोलूसकस(Mollusks) इनके भोजन होते हैं। पहले यह दक्षिण पूर्व एशिया में पाई जाने वाली चित्रा प्रजाति में आते थे। संरक्षण की दृश्टि से यह खतरे में गिने जाते हैं।
प्रमुख लक्षण
आकार में बड़े होते हैं और पीठ की हड्डी काफी लंबी होती है।
जैतून से लेकर गहरे जैतून तथा हरे रंग की त्वचा होती है।
रीढ़ या मिडलाइन(Midline) बहुत जटिल होती है।
जटिल विकीर्ण कोस्टल पट्टियां होती हैं।
गर्दन की परामीडियन(Paramedian) पट्टियां घंटी की तरह की आकृति बनाती हैं।
गर्दन की पट्टियां करापेस (Carapace) के चारों तरफ पूरा घेरा नहीं बनाती।
गर्दन पर पट्टियां नहीं होती।
सिर और गर्दन की धारियों पर गहरे रंग के धब्बे होते हैं।
गर्दन पर वी(V) की तरह का विभाजक निशान होता है।
3-4 फोरलिम्ब लमैला(Forelimb Lamellae) होते हैं।
कोई पेरी-ऑर्बिटल x पैटर्न (Peri-orbital x Pattern) नहीं होता है।
कोई प्रमुख नैसो-ऑर्बिटल (Naso-orbital) त्रिकोणीय आकार नहीं होता।
ठोड़ी पर कुछ काले धब्बे होते हैं।
मिलने के प्रमुख स्थान
यह प्रजाति सतलज और इंडस(Indus) नदियों की पाकिस्तान स्थित घाटियों, गंगा, गोदावरी, महानदी और अन्य भारतीय नदियों की घाटियों, नेपाल और बांग्लादेश में मिलती है। यह कम घनत्व वाले सुरक्षित इलाकों में मिलती है, शिकार और प्राकृतिक निवास के नुकसान से इन्हें खतरा रहता है। यह प्रजाति साफ, बड़ी या मध्यम नदियों को पसंद करती है, जिनके तल पर रेत हो। यह अधिकतर समय रेत में दुबके रहते हैं। कभी-कभी तो सिर्फ नाक की नोक ही बाहर रहती है।
खाने की आदतें
रेत में धंसे हुए, यह मुलायम खोल वाले कछुए अपने शिकार के नजदीक आने का इंतजार करते हैं। जैसे ही ऐसा होता है, कछुए का सिर खोल से बाहर बड़ी तेजी से आता है ताकि वह जल्दी से अपने शिकार को मुंह से खा सके।
खतरे में जीवन:
यह मुलायम खोल वाले कछुए, पानी में पाए जाने वाले अन्य कछुओं के मध्य महाकाय होते हैं। इनका पारंपरिक दवाइयों और सूप के निर्माण के लिए खूब शिकार किया जाता है, जिसमें इनके कैलीपी(Calipee) और फाइब्रो कार्टिलेज(Fibro Cartilage) का उपयोग किया जाता है तथा बांग्लादेश या नेपाल के रास्ते चीन को भेजा जाता है।
ट्राईनाइकिडे(Trionychidae) परिवार के संकरे सिर,कोमल खोल वाले कछुए बहुत बड़े तो होते ही हैं, साथ ही बहुत ज्यादा पानी में रहने वाली प्रजाति के होते है। इन्हें भारतीय वन्य जीव संरक्षण एक्ट 1972 के दूसरे चरण में रखा गया है, जिससे ये एनडेंजरड(Endangered) श्रेणी में आते हैं।
ये ऊंचे घनत्व वाले स्थानों में कहीं नहीं दिखाई देते। इनकी विशिष्ट खाने और रहने की मांगों के चलते, इनके रहने की जगह में बार-बार परिवर्तन किए जाते हैं।
इन कछुओं की खुराक में भी मछलियां, मेंढक, क्रुस्टेचिअन(Crustacean) और मोलूसकस(Mollusks) शामिल है। दिलचस्प बात है कि यह मानसून के दौरान केवल मध्य भारत में प्रजनन करते हैं और सूखे मौसम में बाकी और जगहों में। यह बड़ी संख्या(65-193) में अंडे देते हैं।
इस कछुए के जीवन को मनुष्यों से गोश्त और दूसरे अंगों के लिए बहुत खतरा है। भारत में इन्हें सुईया चुभोकर और नदियों के मुहानो में बड़े बड़े जाल लगाकर पकड़ने का प्रयास होता है। इनका मांस अपरिष्कृत और खुरदरा होता है और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में दूसरे मुलायम खोल वाले जानवरों के मुकाबले कछुओं के मांस का चलन भी नहीं था, तब भी सन 1980 तक अच्छी खासी संख्या में इनका भारत में व्यापार होता था।
एक पूर्ण विकसित 30 किलोग्राम वजन के कछुए से केवल 650 ग्राम कैलीपी मिलती है। 2009 में, 1 किलो सूखी कार्टिलेज की कीमत स्थानीय कछुआ व्यापारियों ने ₹2000 आंकी थी जबकि बिचौलिए ने ₹3500 रुपए। गंगा नदी किनारे के स्थानीय लोग कछुए के अंडे और मांस का सेवन करते हैं। कछुए को पकड़ कर प्रजनन कार्यक्रम के अलावा भारत में कोई इनके संरक्षण के लिए ठोस कदम नहीं उठा रहा है।
दिव्य संरक्षण में मंदिरों के तालाब में चढ़ते हैं कछुए
यह केवल मनुष्य का ही सौभाग्य नहीं है कि वे उत्तर पूर्वी क्षेत्र के मंदिरों के तालाबों का पवित्र जल ग्रहण करते हैं, बल्कि यह सुरक्षित तालाब जीवन के लिए अनेक चुनौतियां झेल रहे कछुओं के लिए भी सुरक्षित स्वर्ग की भांति सामने आया है। वैज्ञानिकों का प्रवेश यहां पूरी तरह प्रतिबंधित होने के कारण पर्यावरणीय डीएनए (DNA) की तकनीक से तालाबों के कचरे का परीक्षण किया जाता है।
यहां निल्सोनिअ गेंगेटिका(Nilssonia Gengetica) जो भारतीय मुलायम खोल वाले कछुए और चित्रा इंडिका या दक्षिण एशियाई संकरे सिर वाले कछुए भी प्राप्त हुए। इस शोध की रिपोर्ट हाल ही में प्रकाशित जर्नल हेरपेटोलौजी नोट्स (Journal Herpetology Notes) में जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (Zoological Survey of India), कोलकाता के वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गई थी।
दूसरे चित्र में भारतीय मुलायम खोल वाले कछुए के कंकाल को दिखाया गया है। (Wikipedia)
तीसरे चित्र में भारतीय मुलायम खोल वाले कछुए और पीछे का पृष्ठ चित्रण है। (Publicdomainpictures)
https://www.conservationindia.org/gallery/the-endangered-narrow-headed-softshell-turtle