फ्रांसीसी लगने वाला नाम होने के बावजूद भी 17वीं शताब्दी के मध्य तक फ्रांस में पेपिअर मेशे (Papier Mache) या पेपर मेशे (Paper Mache) नहीं बनाए गए थे। पेपर मेशे का प्रयोग उत्तर प्रदेश और उत्तर भारत के अन्य हिस्सों में विभिन्न सजावटी वस्तुओं को बनाने या वस्तुओं को सजाने के लिए व्यापक रूप से किया जाता है, विशेष रूप से त्योहारों के दौरान। कलम दान में छोटी व्यक्तिगत कलाकृतियों के कारण इसे मूल रूप से कर-आई कलमदान (Kar-i-kalamdan) के रूप में जाना जाता है। पेपर मेशे का शाब्दिक अर्थ 'चबाया हुआ' या 'कटा हुआ कागज' है, जिसकी नमनीयता और शक्ति बढाने के लिए मिट्टी, गोंद, स्टार्च (Starch) या अन्य कारकों का उपयोग किया जाता है। यह पहली बार ईरान से कश्मीर आया, जहाँ ट्रे (Trays), बॉक्स (Boxes), पुस्तक आवरण, लैंप (Lamps), कलम दान, खिलौने, दर्पण दान (Mirror cases), फूलदान आदि आज तक बनाए जाते हैं और जटिल रूप से चित्रित किए जाते हैं।
स्थानीय त्योहारों के खिलौने बनाने के लिए उड़ीसा, बिहार और उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर पेपर मेशे का उपयोग किया जाता है। यह एक अनूठा शिल्प है, जिसे मुगल काल के दौरान विकसित किया गया था और अब भी बड़ी संख्या में कारीगरों द्वारा इसका अभ्यास किया जा रहा है। मुगलों के समय में, इसका उपयोग बक्से, कटोरे आदि जैसे उपयोगितावादी सामान बनाने के लिए किया जाता था, जिनकी सतह को पारंपरिक लघु शैली में चित्रित किया जाता था। पेपर मेशे की वस्तुएं बनाने की प्रक्रिया में बेकार कागज का उपयोग और शिल्पकारों की रचनात्मकता शामिल होती है। पेपर मेशे वस्तुओं के निर्माण को दो अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है, पहला सख्तसाज़ी (Sakhtsazi) अर्थात वस्तु निर्माण और दूसरा नक्काशी (Naqashi) अर्थात सतह चित्रण। इस हस्तकला से संलग्न लोगों को सख्त निर्माता कहा जाता है। सख्तसाज़ी के अंतर्गत बेकार कागज, कपड़ा, चावल का भूसा और कॉपर सल्फेट (Copper Sulphate) को एक साथ लेकर इनका गूदा बनाया जाता है। लुगदी तैयार होने के बाद, इसे आवश्यक आकार देने के लिए लकड़ी या पीतल के सांचों का उपयोग किया जाता है। जब तक आवश्यक मोटाई प्राप्त नहीं हो जाती है और वस्तु उपयुक्त आकार नहीं ले लेती तब तक लुगदी की कई परतें एक के ऊपर एक रखी जाती हैं। जब लुगदी सूख जाती है, तो सतह को समान करने के लिए पत्थर की मदद से रगड़ा और चिकना किया जाता है। एक छोटे से उपकरण की मदद से वस्तु को सांचे से बाहर निकाल दिया जाता है। अब इसे आपस में ठीक से संयुक्त करने के लिए गाढे गोंद का इस्तेमाल किया जाता है। जब यह ठीक से संयुक्त हो जाती है तब इसे कठवा (Kathwa) नामक लकड़ी की फ़ाइल (File) के साथ धीरे से रगड़ा जाता है। इसके ऊपर गोंद और चॉक का द्रव मिश्रण ब्रश (Brush) की मदद से अंदर और बाहर लगाया जाता है। जब गोंद और चॉक मिश्रण सूख जाता है, तो शिल्पकार एक बार फिर से सतह को रगड़ता है। अब कागज के छोटे टुकड़ों को गोंद की मदद से इस पर चिपका दिया जाता है जिसका उद्देश्य सतह में आने वाली दरारों को दूर करना है। फिर जमीनी रंग प्राप्त करने के लिए वस्तु को फिर से रगड़ा जाता है। जमीनी रंग सुनहरा, सफेद, काला, लाल, नीला आदि हो सकता है। सख्तसाज़ी के बाद नक्काशी की बारी आती है जिसमें वस्तु पर चित्रकारी की जाती है। इसकी रूपरेखा आमतौर पर एक जर्दा या पीले रंग के साथ खींची जाती है। पुष्प कार्यों के चित्रण के लिए रिक्त स्थान बनाए जाते हैं। फूलों के कार्यों को विभिन्न रंगों में चित्रित किया जाता है। चित्रकारी के लिए ब्रश, रंग इत्यादि का प्रयोग किया जाता है। भारत में विभिन्न प्रकार के उपयोगी और सजावटी पेपर मेशे वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है। कश्मीर अपने उत्तम पेपर मेशे उत्पादों के लिए दुनिया भर में जाना जाता है। कश्मीर में यह कला भारतीय और फारसी कला का संगम मानी जाती है तथा यह 15वीं शताब्दी से कश्मीरी कला का पर्याय रही है। कश्मीरी पेपर मेशे हस्तकला 14वीं शताब्दी में मुस्लिम संत मीर सैय्यद अली हमदानी द्वारा फारस से मध्यकालीन भारत में लायी गयी। यह मुख्य रूप से कागज लुगदी पर आधारित है, जिसे समृद्ध रूप से रंगीन कलाकृतियों द्वारा सजाया जाता है। इससे बने उत्पाद श्रीनगर और कश्मीर घाटी के अन्य हिस्सों में घरों और कार्यशालाओं में होता है और मुख्य रूप से भारत के भीतर विपणन किए जाते हैं, हालांकि अब इसका एक महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय बाजार भी है। ‘कश्मीर पेपर मेशे’ शीर्षक के तहत इसे अप्रैल 2011 से मार्च 2012 की अवधि के दौरान भारत सरकार के भौगोलिक संकेतक अधिनियम 1999 के तहत संरक्षित किया गया और पेटेंट (Patent), डिजाइन और ट्रेडमार्क (Trademark) के नियंत्रक जनरल द्वारा पंजीकृत किया गया। यह एक नाजुक सजावटी कला है, जो कश्मीर में शिल्पकारों के कलात्मक उत्साह को दर्शाती है। कश्मीर में इस परंपरा की शुरुआत 15वीं शताब्दी में हुई, जब राजा ज़ैन-उल-आब्दीन ने मध्य एशिया के निपुण कलाकारों को यहां आमंत्रित किया। यह कला 15वीं और 16वीं शताब्दी के मुगल सम्राटों द्वारा बहुत पसंद की गई थी। मुगल संरक्षण के दौरान, दरबारियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली अधिकांश पालकी को कश्मीर में बनाया और चित्रित किया गया था। यूरोप और अमेरिका के संग्रहालयों में पेपर मेशे के सुंदर नमूने देखे जा सकते हैं।© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.