1990 और 1980 के दशक में अक्सर सड़कों और गलियों में विभिन्न कलाकारों द्वारा विभिन्न प्रकार के मनोरंजक प्रदर्शन दिखाए जाते थे। उस दौर में ये प्रदर्शन मनोरंजन का बेहतरीन साधन तो थे ही, साथ ही विभिन्न जनजातियों के रोज़गार का भी साधन थे। तलवार निगलना भी इन्हीं प्रदर्शन कलाओं का एक हिस्सा है, जिसमें एक कलाकार करीब 36 इंच की तलवार को भी अपने मुख से नीचे निगल लेता है। भारत में यह कला हज़ारों साल पहले उत्पन्न हुई थी जिसे फकीरों और जादूगरों ने अन्य कलाओं जैसे गर्म अंगारों पर चलना, साँपों को नियंत्रित करना, अन्य तपस्वी धार्मिक प्रथाओं के साथ अपनी अजेयता, शक्ति और देवताओं के साथ संबंध के प्रदर्शन के रूप में विकसित किया था।
तलवार निगलने का प्रदर्शन अभी भी भारत के कुछ हिस्सों में लोकप्रिय है। कहा जाता है कि आंध्र प्रदेश राज्य में तलवार निगलने वालों की एक जनजाति है, जो इस कला को पिता से पुत्र अर्थात एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाती है। भारत से, यह कला चीन, ग्रीस (Greece), रोम (Rome), यूरोप (Europe) और दुनिया के बाकी हिस्सों में फैली। प्राचीन रोमन साम्राज्य में त्यौहारों पर अक्सर इस कला का प्रदर्शन किया जाता था। रोम में ट्यूटोनिक लड़ाई (Teutonic Fight) के दौरान तलवार निगलने वालों का उल्लेख 410 ईस्वी में किया गया था जबकि चीन में यह कला उत्तर भारत से 750 ईस्वी के आसपास पहुंची। जापान में तलवार निगलने की कला 8वीं शताब्दी में लोकप्रिय हुई थी जहां अक्सर इसे मनोरंजक एक्रोबैटिक (Acrobatic) के रूप में देखा जाता था। वहां इस प्रथा या अभ्यास को संगाकू (Sangaku) के नाम से जाना जाता था। इसके अंतर्गत जगलिंग (Juggling), रस्सी पर चलना आदि कौशल भी शामिल थे।
इस तरह की प्रदर्शन कला "स्ट्रीट थिएटर (Street Theater)" थी। इस कला को सूफियों के दरवेश क्रम में भी देखा गया। दरवेश समूह 8वीं शताब्दी में इस्लाम और हिंदू विचार के सम्मिलन को दर्शाता है। दरवेश, ‘भिखारी’ के लिए फ़ारसी शब्द है जो मुख्य रूप से उन्मादी कार्यों तथा ताकत के महान कारनामों के लिए जाने जाते हैं। 1182 में दरवेश का एक क्रम कांच खाने, गर्म अंगारों पर चलने तथा तलवार निगलने जैसे प्रदर्शनों में संलग्न था। यूरोप में 17वीं शताब्दी के मध्य तक, ये कलाकार अधिक स्वतंत्र रूप से अपनी कला का प्रदर्शन करते तथा त्यौहारों पर सड़क के किनारों का आम दृश्य बन जाते थे। 1800 के दशक के अंत में तथा 1893 में तलवार निगलने का यह प्रदर्शन क्रमशः यूरोप और स्वीडन में औपचारिक रूप से बंद कर दिया गया।
भारत में न केवल तलवार निगलना बल्कि अन्य कई पारंपरिक लोक प्रदर्शन कलाएं भी मौजूद हैं, जिसके अंतर्गत कलाकार चाकुओं या अन्य चीज़ों को लगातार हवा में उछालकर एकाएक उन्हें पकड़ते हैं, रस्सी पर अपना संतुलन बनाते हुए चलते हैं, कठपुतलियां नचाते हैं, जादू दिखाते हैं, विभिन्न प्रकार के करतब करते हैं आदि। भारत में लोक कलाकार सदियों से मौजूद हैं। पुराने दिनों में जब डाकू ग्रामीण इलाकों में घूमते थे, संचार मुश्किल था और ज्यादातर लोग निरक्षर थे, लोक कलाकारों ने छोटे गांवों के लोगों को बाहरी दुनिया के बारे में सूचित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लोक कलाकारों को स्थानीय राजाओं द्वारा संरक्षण दिया गया था, जिन्होंने उन्हें अपने न्यायालयों में प्रदर्शन करने के लिए काम पर रखा था और उन्हें आय का आश्वासन दिया था। स्वतंत्रता के बाद, जब राजाओं ने अपनी शक्ति और अपनी बहुत सारी संपत्ति खो दी, तो उनके पास लोक कलाकारों को भुगतान करने के लिए धन नहीं बचा। इसके बाद ये कलाकार यात्रा करने लगे। आज जो भी समूह मौजूद हैं, वे एक निश्चित यात्रा कार्यक्रम में वर्ष का अधिकांश समय बिताते हैं।
वे मेलों, त्यौहारों, तीर्थ स्थलों, शहरों, कस्बों और गांवों में जाते हैं, तथा अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। ये कलाकार मुख्य रूप से ग्रामीण पृष्ठभूमि से होते हैं, जो वर्षा ऋतु में अपने गांवों में रहते हैं, लेकिन गर्मी और सर्दियों के दौरान भारत के विभिन्न हिस्सों का दौरा करते हैं। टेलीविज़न (Television), फिल्मों (Films) और औद्योगीकरण की शुरुआत के साथ, कई लोक कलाकार अब गाँव से गाँव जाकर अपना जीवन यापन नहीं कर सकते। वे शहर में अपनी किस्मत आज़माते हैं, जहां कई गरीब लोग फिल्मों या नाटकों के लिए टिकट (Ticket) नहीं ले सकते हैं, लेकिन सड़क के इन कलाकारों के प्रदर्शन के लिए कुछ सिक्कों का भुगतान कर सकते हैं।
पूरे भारत में करीब 50 लाख से 1 करोड़ के बीच खानाबदोश या यात्री मौजूद हैं जो किसी न किसी प्रदर्शन कला में संलग्न हैं। इस समूह को वेदों में भी वर्णित किया गया है। ऋग्वेद में यात्रा करने वाले नर्तकों, सपेरों, बांसुरी वादकों, भाग्य बताने वालों और भिखारियों का वर्णन है। ब्रिटिश (British) औपनिवेशिक काल में इन लोगों को अक्सर जिप्सियों (Gypsies) के रूप में वर्णित किया जाता था। इनके अलावा भारत में कलंदर, कंजर आदि ऐसे समूह हैं जो गांव-गांव जाकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। कंजर दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया से फैले कलाकारों और मनोरंजनकर्ताओं का एक व्यापक रूप से फैला हुआ समूह है, जिन्हें नर्तक, गायक, संगीतकार आदि के रूप में जाना जाता है। इसी प्रकार से कलंदर भी यात्रा करने वाले लोग हैं जो गांव-गांव जाकर जानवरों के साथ अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। ये पूरे दक्षिण एशिया में, विशेष रूप से उत्तरी भारत और पाकिस्तान में पाये जाते हैं, जो प्रशिक्षित जानवरों के साथ रस्सी पर चलना, जादू करना, कठपुतली का खेल दिखाना, गाना-बजाना आदि करते हैं।
सन्दर्भ:
1. http://www.swordswallow.com/history.php
2. http://factsanddetails.com/india/Arts_Culture_Media_Sports/sub7_5e/entry-4263.html
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