संग्रहालय एक ऐसा स्थान है, जहां विभिन्न सांस्कृतिक धरोहरों को संरक्षित रूप प्रदान किया जाता है। दुनिया तथा भारत के कई हिस्सों में ऐसे संग्रहालय मौजूद हैं, जहां इतिहास की उन अमूल्य वस्तुओं को संग्रहित किया गया है, जो अब मुश्किल से ही देखने को मिलती हैं। न्यूयॉर्क (New York) शहर में स्थित मेट्रोपॉलिटन म्यूज़ियम ऑफ़ आर्ट (Metropolitan Museum of Art) भी इन्हीं में से एक है, जोकि संयुक्त राज्य अमेरिका (United States of America) का सबसे बड़ा कला या आर्ट संग्रहालय है। 2018 में यहां लगभग 70 लाख आगंतुकों का आगमन हुआ था, जिसके साथ यह दुनिया का तीसरा सबसे अधिक दौरा किया जाने वाला कला संग्रहालय बना। इसके स्थायी संग्रह में दो मिलियन से अधिक कार्य शामिल हैं, जोकि 17 प्रबंधकीय विभागों के बीच विभाजित है। संग्रहालय को 1870 में अमेरिकी लोगों के लिए खोला गया था, जिसका उद्देश्य अमेरिकी लोगों के लिए कला और कला शिक्षा के उदाहरण पेश करना था। इसके स्थायी संग्रह में प्राचीन मिस्र और शास्त्रीय पुरातनता की कला, पेंटिंग और मूर्तियां शामिल हैं, जोकि लगभग सभी यूरोपीय कलाकारों, अमेरिकी और आधुनिक कला का एक व्यापक संग्रह है। इसके अलावा अफ्रीकी, एशियाई, ओशियानियन (Oceanian), बीजान्टिन (Byzantine) और इस्लामी कला के व्यापक उदाहरण भी यहां मौजूद हैं।
संग्रहालय में संगीत वाद्ययंत्र, वेशभूषा और सहायक उपकरण के साथ दुनिया भर के प्राचीन हथियार और कवच भी मौजूद हैं। संग्रहालय की एक और विशेष बात यह भी है, कि यहां जौनपुर की सचित्र जैन कल्पसूत्र पांडुलिपि को भी प्रदर्शित किया गया है। कल्पसूत्र में जैन तीर्थंकरों के जीवनचरित्र का वर्णन किया गया था। पारंपरिक रूप से यह माना जाता है कि इसकी रचना महावीर स्वामी के निर्वाण (मोक्ष) के 150 वर्ष बाद हुई थी। कल्पसूत्र की अनेक पाण्डुलिपियां तैयार की गईं, जो कि विभिन्न भागों में पायी गईं। जौनपुर की सचित्र जैन कल्पसूत्र पांडुलिपि में जैन तीर्थंकरों की आत्मकथाएँ हैं। मेट्रोपॉलिटन म्यूज़ियम ऑफ़ आर्ट में संरक्षित किया गया फोलियो या पृष्ठ भगवान महावीर की मां के उन चौदह शुभ सपनों को दर्शाता है, जो कि उन्होंने भगवान महावीर के जन्म लेने से पहले देखे थे। तीनों कल्पसूत्र पांडुलिपियों में से जौनपुर की कल्पसूत्र पांडुलिपि को सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। इसमें 86 फोलियो शामिल हैं, जिसे सहसराज नामक व्यापारी की पुत्री तथा संघवी कालिदास की पत्नी श्राविका हर्शिनी द्वारा बनवाया गया था। यह पांडुलिपि उस समय के जैन संरक्षण को अभिव्यक्त करती है जो गुजरात, राजस्थान और उत्तरी भारत में फैली हुई थी।
कल्पसूत्र पांडुलिपि में सुनहरी स्याही तथा लैपिस लज़ुली (lapis lazuli) से व्युत्पन्न नीले रंग का प्रभावी उपयोग देखने को मिलता है, जो कि ईरानी चित्रकला को प्रदर्शित करता है। पश्चिमी भारत की पुरातन शैली के व्यापक सम्मेलन को बरकरार रखते हुए, यह पांडुलिपि रंगों और अलंकरण का भी साहसिक दृष्टिकोण प्रदर्शित करती है, जो इसे उभरते उत्तर भारतीय स्कूलों से जोड़ती है, जिसने दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में अपनी पूर्ण अभिव्यक्ति प्राप्त की। राजकुमारों, मंत्रियों और अमीर जैन व्यापारियों द्वारा 12वीं से 16वीं शताब्दी तक जैन धार्मिक पांडुलिपियों को एक बड़ी संख्या में पुनः बनावाया गया था, जिनकी मुख्य विशेषता पश्चिमी भारतीय शैली थी। ऐसी कई पांडुलिपियां जैन पुस्तकालयों में उपलब्ध हैं, जोकि कई स्थानों पर पाए जाते हैं। 1465 ईस्वी में शर्की शासक हुसैन शाह द्वारा कल्पसूत्र की सचित्र पांडुलिपि को बढ़ावा दिया गया था। लगभग 1100 से 1400 ईस्वी तक हस्तलिपियों के लिए ताड़ के पत्तों का उपयोग किया जाता था, किंतु बाद में इन्हें कागज पर पेश किया जाने लगा।
संदर्भ:
1. https://www.metmuseum.org/en/art/collection/search/37788
2. https://deccanviews.wordpress.com/category/kalpasutra/
3. https://www.academia.edu/7978437/Aspects_of_Kalpasutra_Paintings
4. https://jaunpur.prarang.in/1810101933
5. http://www.harekrsna.com/sun/features/12-11/features2305.htm
6. https://en.wikipedia.org/wiki/Metropolitan_Museum_of_Art
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