क्या वृक्षों के उपचार के लिए भी है कोई आयुर्वेद?

जौनपुर

 12-02-2020 02:00 PM
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा

जौनपुर का वन्यावरण लगभग 1.46 प्रतिशत है जबकि उत्तर प्रदेश का वन्यावरण लगभग 6 प्रतिशत है जोकि भारत में किसी भी राज्य के लिए निम्नतर चतुर्थ स्थान पर है। भारत की बढ़ती हुई आबादी का पेट भरने के लिए ज्यादा पैदावार का दबाव लगातार उपजाऊ ज़मीन के अस्तित्व को खतरे में डाल रहा है। हरित क्रांति की नई आंधी अपनी ही सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को मार रही है। खेतों में बढ़ती उर्वरकों की मात्रा का ही दुष्परिणाम है कि ज़मीन के पोषक तत्व जिंक (Zinc), लोहा, तांबा, मैंगनीज़ (Manganese) आदि गायब होते जा रहे हैं। दूसरी तरफ कीटनाशकों के बढ़ते इस्तेमाल से खाद्य पदार्थ ज़हरीले हो रहे हैं। यह बात साबित हो चुकी है कि भारतीय लोग दुनिया भर के लोगों के मुकाबले कीटनाशकों के सबसे ज्यादा अवशेष अपने भोजन के साथ पेट में पहुंचाते हैं। हमारी अर्थव्यवस्था के मूल आधार खेती और पशुपालन की इस दुर्दशा से निराश वैज्ञानिकों की नज़र अब प्राचीन मान्यताओं और पुरातनपंथी मान लिए गए हमारे शास्त्रों पर गई है। यह एक रोचक जानकारी है कि प्राचीन भारत में सिर्फ मनुष्यों के इलाज के लिए आयुर्वेदिक पद्धति नहीं थी बल्कि पौधों के उपचार के लिए भी ‘वृक्षायुर्वेद’ था। वृक्षायुर्वेद पेड़ पौधों की दुनिया का एक प्राचीन चिकित्सा विज्ञान है। इसका मतलब है – वृक्षों का आयुर्वेद।

‘दस कुएं एक तालाब के बराबर, दस तालाब एक झील के बराबर,
10 झील एक पुत्र के बराबर और 10 पुत्र मिलकर एक पेड़ के बराबर होते हैं’
                                                                                                                    -सुरपाल

वृक्षआयुर्वेद के रचयिता सुरपाल कोई एक हज़ार साल पहले दक्षिण भारत के शासक भीमपाल के राज दरबारी थे। वे वैद्य के साथ-साथ अच्छे कवि भी थे। तभी चिकित्सा जैसे विषय पर लिखे उनके ग्रंथ को समझने में आम देहाती को भी कोई दिक्कत नहीं आती है। उनका मानना था कि युवावस्था, आकर्षक व्यक्तित्व, सुंदर स्त्री, बुद्धिमान मित्र, सुरीला संगीत, सभी कुछ एक राजा के लिए बेकार है अगर उसके महल में खूबसूरत बगीचे नहीं हैं।

10वीं शताब्दी में लिखी वृक्षायुर्वेद का हाल ही में अंग्रेज़ी में अनुवाद हुआ है। एशियन एग्री-हिस्ट्री फाउंडेशन (Asian Agri-History Foundation) के चेयरमैन (Chairman) श्री. वाई. एल. नेने ने यह अनुवाद करवाया है। इन्होंने वृक्षायुर्वेद की ऑक्सफोर्ड, युनाइटेड किंगडम (Oxford, United Kingdom) की बोडलियन लाइब्रेरी (Bodleian Library) में रखी वृक्षायुर्वेद की पांडुलिपी हासिल की और इसका अंग्रेजी में अनुवाद कराया। यह मूल पांडुलिपि ताड़पत्र पर नगरी लिपि के एक पुराने प्रकार में लिखी गई है। इसमें 60 पृष्ठ हैं, एक पेज पर 6 पंक्तियां लिखी हैं, एक पंक्ति में 30 अक्षर हैं जो एक मोटे नुकीले कलम से बड़े-बड़े अक्षरों में लिखे गए हैं। वृक्षायुर्वेद में सुरपाल ने अनेक तकनीक बताई हैं कि कैसे मिट्टी को उपजाऊ बनाया जाये और बड़े आकार के फल-फूल उगाए जायें। इसमें 170 के आसपास पैधों की प्रजातियां तैयार करने की विधि बताई गई है। वृक्षायुर्वेद बहुत व्यवस्थित ढंग से लिखा गया है। शुरू में पेड़ों की महिमा और वृक्षारोपण के महत्व को बताया गया है। उसके बाद बीज की उत्पत्ति और संरक्षण, बोने से पहले बीज शोधन, पौधे लगाने के लिए गड्ढों की तैयारी, मिट्टी का चुनाव, तराई का तरीका ,पोषक उर्वरक, पौधों के रोग और उनसे बचाव का तरीका, एक बाग का नक्शा, खेती और फल उत्पादन से जुड़े कुछ आश्चर्य, ज़मीन से पानी मिलने के साधन, आदि सभी विषय बड़ी स्पष्टता से कई भागों में बांटे गए हैं और अंदर से एक दूसरे से जुड़े हैं। पीपल, धात्री, आम, नीम आदि पेड़ों को लगाना बहुत पवित्र बताया गया है।

कुछ साल पहले चेन्नई के एक संस्थान के 50 से ज्यादा आम के पेड़ बीमार पड़ गए थे। आज के ज़माने के कृषि डॉक्टरों को कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी वृक्षायुर्वेद का ज्ञान काम आया। नीम और कुछ अन्य जड़ी बूटियों का इस्तेमाल काम आया। सुरपाल के कई नुस्खे अजीब भी हैं जैसे - अशोक के पेड़ को कोई महिला अगर पैर से ठोकर मारे तो वह अच्छी तरह फलता-फूलता है। कोई सुंदर महिला मकरंद के पेड़ को नाखूनों से नोच ले तो वह कलियों से लद जाता है। पंचामृत यानि गाय से उत्पन्न दूध, दही, घी, गोबर, और गोमूत्र के उपयोग से पेड़-पौधों के कई रोग जड़ से दूर किए जा सकते हैं। भारतीय वैज्ञानिकों ने इस सलाह को आज़माया तो पाया कि टमाटर के मुरझाने और केले के पनामा रोग को दूर करने में पंचामृत की सस्ती दवा ने पूरा असर दिखाया। वृक्षायुर्वेद का दावा है मानव शरीर की भांति पेड़-पौधों में भी वात, पित्त और कफ जैसे लक्षण होते हैं। ज्ञातव्य है कि हींग भारतीय रसोई का एक आम मसाला है और इसका प्रयोग मनुष्य के वात दोष निवारण में होता है। एक भारतीय वैज्ञानिक एक अनुभव बताते हुए कहते हैं कि उनके घर पर लौकी की एक बेल में फूल तो खूब लगते थे, लेकिन फल बनने से पहले झड़ जाते थे। एक बूढ़े माली ने उस पौधे के पास एक गड्ढा खोदकर उसमें हींग का टुकड़ा दबा दिया। दो हफ्ते में ही फूल झड़ना बंद हो गए और उस साल सौ से अधिक लौकी तैयार हुई। दरअसल वृक्षआयुर्वेद के अनुसार हींग का करामाती गुण होता है वातदोष निवारण। फूल से फल बनने की प्रक्रिया में वातदोष का मुख्य योगदान होता है। इसकी मात्रा में थोड़ा भी असंतुलन होने से फूल झड़ने लगते हैं।

वृक्षायुर्वेद में दिए गये कुछ नुस्खे हैं, जिन्हें कुछ कृषि संस्थानों को जांचना चाहिए। अगर ये ठीक निकलते हैं तो इन्हें नियमित रूप से प्रयोग में लाना चाहिए-
मिट्टी संबंधी-

• जिस ज़मीन में जहरीले तत्व, बड़ी मात्रा में पत्थर, चींटियों की बड़ी संख्या, और कंकड़ बजरी होते हैं और जहां पानी की आसानी से पहुंच नहीं होती, वह ज़मीन पेड़ों के उगाने लायक नहीं होती।
• नीलम की तरह नीली, तोते के पंख जैसी मुलायम, शंख, कमल, चमेली या चांद की तरह सफेद, और तपते सोने जैसी पीली ज़मीन हो तो उस मिट्टी पर पेड़ लगाए जा सकते हैं।
• ज़मीन जो समतल है, जिस तक पानी की पहुंच है और जो हरे वृक्षों से ढकी हुई है, वह हर तरह के पेड़ों के लिए उगने के लिए अच्छी है।
• सूखी और दलदली ज़मीन खेती के लिए ठीक नहीं होती। साधारण ज़मीन ठीक होती है क्योंकि उसमें सभी प्रकार के पेड़ बेहिचक उगाये जा सकते हैं।
प्रवर्धन-
• पौधों के चार प्रकार होते हैं - वनस्पति, द्रुम, लता और गुल्म। इनका विकास बीज, डंठल या बल्ब (Bulb) से होता है। इस प्रकार पौधारोपण तीन प्रकार होता है।
• जिन पौधों में फल बिना फूल आये तैयार होते हैं उन्हें वनस्पति कहते हैं, और जिन पौधों में फल और फूल दोनों आएं उन्हें द्रुम कहते हैं।
• जो पौधे नसों जैसी पतली डंडियों के सहारे बढ़ते हैं उन्हें लता कहते हैं। जो पौधे आकार में काफी छोटे होते हैं लेकिन उनमें शाखाएं होती हैं उन्हें गुल्म कहते हैं।
• बड़े बीज एक-एक करके बोने चाहिए लेकिन छोटे बीज कई एक साथ बोने चाहिए।
• तना 18 अंगुल का होना चाहिए, न बहुत मुलायम, न ही बहुत कड़ा। इसका आधा हिस्सा गाय के गोबर से अच्छी तरह लीपा हुआ होना चाहिए। उसके बाद इसके तीन चौथाई भाग को गड्ढे में बोकर इसके ऊपर मुलायम रेतीली मिट्टी मिले पानी का छिड़काव करना चाहिए।
• बल्ब की बुआई के लिए कोहनी तक के हाथ की लंबाई – चौड़ाई और गहराई की मिट्टी और मोटी रेत से भरा गड्ढा बनाना होता है।

उपचार संबंधी-
• कफ संबंधी बीमारियों के इलाज के लिए कड़वा, तेज़ और कठोर काढ़ा जो पांच पौधों की जड़ों (श्रीफल, सर्वतोभद्र, पटाला, गणिकरिका और स्योनाक) के साथ सुगंधित जल मिलाकर तैयार होता है, बहुत फायदा करता है।
• अगर पेड़ कफ से पीड़ित हो तो उसके नीचे की ज़मीन बदलकर उसकी जगह ताज़ी, सूखी ज़मीन रखकर पेड़ का इलाज किया जाना चाहिए।
• एक बुद्धिमान व्यक्ति पित्त से पीड़ित सभी पेड़ों का इलाज ठंडी और मीठी चीजों से कर सकता है।
• दूध, शहद, यस्तीमधु और मधुका से तैयार काढ़े का छिड़काव करके पित्त की बीमारी से पीड़ित पेड़ों का इलाज किया जा सकता है।
• जिन लताओँ को कीड़ों ने खा लिया है, उन पर तेल मिले पानी का छिड़काव करना चाहिए। राख और ईंट की धूल से बने पाउडर (Powder) का छिड़काव करने से पत्तियों पर लगे कीड़े नष्ट हो जाते हैं।

संदर्भ:
1.
https://medium.com/@Kalpavriksha/vrikshayurveda-the-science-of-plant-life-5e91ffaad7fd
2. https://www.infinityfoundation.com/mandala/t_es/t_es_agraw_surapala_frameset.htm
3. https://bit.ly/3bw1Fr7
4. Agrawal D.P. 1996 Surapala's Vrikshayurveda: an Introduction https://bit.ly/2vtNCBC



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