तकरीबन 5,000 वर्ष पहले सिंधु घाटी सभ्यता में उपयोग किए जाने वाले कुल्हड़ को वर्तमान समय में भारत के प्रमुख रेलवे स्टेशनों (Railway Stations), बस डिपो (Bus Depots), हवाईअड्डों और मॉल (Malls) में अनिवार्य किया जा सकता है। कुल्हड़ पेय पदार्थों के लिए उपयुक्त होने के साथ कागज़ और प्लास्टिक (Plastic) के उपयोग को कम करके पर्यावरण के लिए अनुकूल भी है। यह स्थानीय कुम्हारों को विशाल बाज़ार तक पहुंच प्रदान करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाएगा।
हम सब जानते ही हैं कि कुल्हड़ को रंगा नहीं जाता है और इसकी यही विशेषता इसे अन्य कप (Cup) जैसे चीनी मिट्टी के कप आदि से अलग करती है। कुल्हड़ का कप अंदर और बाहर से अकाचित होता है। चूँकि कुल्हड़ अकाचित होते हैं, एक गर्म पेय जैसे कि चाय कुल्हड़ की आंतरिक दीवार में आंशिक रूप से घुल जाती है। इससे पेय के स्वाद और सुगंध पर एक गहरा प्रभाव पड़ता है, जिसे कभी-कभी सौंधी ख़ुशबू के रूप में वर्णित किया जाता है। इन्हें भट्ठे में जलाकर बनाया जाता है और इनका पुन: उपयोग नहीं किया जाता है, जिससे ये स्वाभाविक रूप से रोगाणुहीन और स्वच्छ होते हैं।
2018 में खादी और ग्रामोद्योग आयोग ने 10,000 इलेक्ट्रिक (Electric) पहियों (कुम्हार का पहिया) का वितरण किया गया था, लेकिन दुकानदारों और ग्राहकों में कुल्हड़ की मांग न होने की वजह से इसे विभिन्न परिवहन क्षेत्रों में अनिवार्य करने पर विचार किया गया। कुल्हड़ के उपयोग को अनिवार्य बनाने के लिए पहले भी कई कदम उठाए गए थे लेकिन सभी विफल रहे। 1977 में, उद्योग मंत्री ने रेलवे में कुल्हड़ों के उपयोग को अनिवार्य किया था। इसके बाद 2004 में, रेल मंत्री ने गरीब गाँव के कुम्हारों के रोज़गार को बढ़ाने के लिए रेलवे में चाय परोसने के लिए फिर से कुल्हड़ के उपयोग को अनिवार्य कर दिया था।
लेकिन ये सभी प्रयास विफल क्यों हुए? इसका कारण कुल्हड़ के बढ़ते दाम हैं। पहले कुल्हड़ की मिट्टी और श्रम काफी प्रचुर मात्रा में पाई जाती थी जिस वजह से कुल्हड़ की लागत काफी कम थी और इसका उपयोग काफी व्यापक रूप से किया जाता था। लेकिन हर बीतते दशक के साथ, मजदूरी में वृद्धि और मिट्टी के दुर्लभ होने के कारण इसके दाम में भी वृद्धि हो गई। दूसरी ओर, कुछ आलोचकों का कहना है कि रेलवे में इसके उपयोग से लगभग एक वर्ष में 1.8 अरब कुल्हड़ का ढेर हो जाएगा, जिसका अर्थ है कि कुल्हड़ बनाने वाले भट्टों में भारी ईंधन की खपत होगी और इनके द्वारा काफी अधिक मात्र में प्रदूषण फैलाया जाएगा।
सिंधु घाटी के खंडहरों से हज़ारों साल पुराने टुकड़ों की खोज से ये दावे किए गए थे कि कुल्हड़ का तेज़ी से जैवअवक्रमण हो ऐसा ज़रूरी नहीं है। यदि कुल्हड़ को उच्च तापमान पर जलाया जाता है तो परिणामी वस्तु का पर्यावरण में अवक्रमण होने में एक दशक तक का समय लग सकता है। सिर्फ इतना ही नहीं कुछ आशंकाए ये भी व्यक्त की जा रही हैं कि कुल्हड़ को बनाने के परिणामस्वरूप प्रति दिन प्रति राज्य में 100 एकड़ की दर से ऊपरी मिट्टी में गिरावट होने की संभावनाएं हैं और ग्रामीण कारीगरों को आर्थिक लाभ ज़्यादा नहीं होगा।
संदर्भ:
1. https://en.wikipedia.org/wiki/Kulhar
2. https://bit.ly/2Uo2jk9
3. https://bit.ly/394EUbK
4. https://bit.ly/3b6lgxQ
चित्र सन्दर्भ:-
1. https://torange.biz/work-potter-42395
2. https://www.needpix.com/photo/1240827/people-potter-clay-man
3. https://pxhere.com/en/photo/1145649
4. https://www.pexels.com/photo/potter-and-clay-2892269/
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