अक्सर हम केवल उन्हीं किताबों को पढ़ते हैं जो बहुत चर्चित होती हैं। किंतु कई अच्छी किताबें ऐसी भी हैं, जिनकी तरफ ध्यान कम ही जा पाता है। ‘अर्धकथानक’ या ‘द हाफ स्टोरी’ (The Half Story) भी एक ऐसी ही किताब है जिसकी तरफ लोगों का ध्यान शायद कम ही गया है। यह जानकर आपको हैरानी हो सकती है कि, यह किताब भारतीय भाषा में लिखी गयी पहली आत्मकथा है जिसे 1641 में बनारसीदास द्वारा तत्कालीन ब्रजभाषा में लिखा गया था। मध्यकाल तक किसी भी लेखक या कवि ने अपने बारे में नहीं लिखा किंतु ऐसा पहली बार हुआ जब बनारसीदास द्वारा अपनी आधी जिंदगी की पूरी कहानी को पुस्तक के रूप में वर्णित किया गया। हिंदी की इस आरंभिक आत्मकथा में पहली बार किसी लेखक ने अपने आत्म जीवन को प्रकट किया।
बनारसी दास एक जौनपुरी लेखक, कवि, दार्शनिक और व्यापारी थे जो आगरा में निवास करते थे। उनकी यह आत्मकथा 17वीं शताब्दी में पूरे उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हुई। इस आत्मकथा को लिखने का उनका एक ही मकसद था कि वे अपनी कहानी सबको बताएं। यह आत्मकथा पारदर्शिता और स्पष्टता के साथ उनके जीवन को प्रकट करती है तथा मानव अस्तित्व की प्रकृति पर विचार करने के लिए प्रेरित करती है। यह बात आश्चर्यजनक है कि पुस्तक का लहजा मध्ययुग की तरफ ना होकर काफी अधिक आधुनिक है। पुस्तक के माध्यम से उनके जीवन के उतार-चढ़ाव तथा बौद्धिक और आध्यात्मिक संघर्षों को जाना जा सकता है। उस समय बनारसीदास आगरा में रहते थे और उनकी उम्र 55 साल थी। उनका जन्म एक श्रीमल जैन परिवार में हुआ था तथा उनके पिता खड़गसेन जौनपुर में जौहरी का कार्य करते थे। उन्होंने अपना बचपन जौनपुर में बिताया लेकिन बाद में वे आगरा आ गए।
इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद रोहिणी चौधरी द्वारा किया गया है तथा उन्होंने ही इस पुस्तक की भूमिका भी तैयार की। जैन शास्त्रों के अनुसार मनुष्य का पूर्ण जीवनकाल 110 वर्षों का होता है, किंतु क्योंकि इसमें केवल आधे जीवन की ही व्याख्या की गयी है इसलिए इसे ‘अर्ध कथानक’ कहा गया है। लेखक वैश्य परिवार से सम्बंधित थे तथा उनकी आपबीती उनके समाज की भी व्याख्या करती है। लेखक बताते हैं कि कैसे उनके समाज में बचपन से ही बच्चों को व्यापार में पारंगत किया जाता था। लेकिन बनारसीदास न केवल व्यापार में बल्कि छंद, शास्त्र, और प्रेम में भी पारंगत हुए। उन्होंने लिखा कि अपने प्रेमालंबन की उनके ऊपर ऐसी धुन सवार थी कि वे अपने पिता से मानिक, मणि आदि चुराते और खूब पान और मिठाइयां खरीदते तथा अपनी प्रेमिका को पेश करते। अपने प्रेम के ऊपर उन्होंने हज़ार दोहे और चौपाइयां लिखीं हैं। एक बार जब वे बुरी तरह बीमार हुए तब परिवार के सब लोगों ने उनका साथ छोड़ दिया। उस कठिन समय में अपनी पत्नी की सेवा से वे ठीक हुए और उनका ह्रदय परिवर्तन हो गया। बाद में उन्होंने जैन धर्म का गहरा अध्ययन किया और अध्यात्म से जुड़ गये।
बनारसीदास की यह कहानी जौनपुर, बनारस, आगरा, और इलाहाबाद में फैली हुई है। वे यह जानते थे कि आपबीती बताते हुए व्यक्ति को पूरी इमानदारी बरतनी चाहिए और इसलिए उन्होंने बिना गुण-दोष विवेचन के यह कहानी बड़ी स्पष्टता से व्यक्त की है। पुस्तक में अनेक स्त्रियों का भी वर्णन है जैसे - उनकी नानी, बूढ़ी दादी जो उनकी पहली कमाई पर मिठाई बांटती हैं, उनकी पत्नी, प्रेमिका आदि। यह दिलचस्प बात है कि इन स्त्रियों के नाम नहीं बताये गये हैं जिससे पता चलता है कि तत्कालीन समाज में सार्वजनिक रूप से महिलाओं का नाम नहीं लिया जाता था। उन्होंने अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ तीन मुग़ल बादशाहों का दौर देखा। पुस्तक में मुगलों के आतंक और उनके इन्साफ का वर्णन तो है ही, समाज में उनकी व्याप्ति के भी प्रसंग हैं। वे लिखते हैं कि जब बादशाह अकबर की मृत्यु हुई उस समय लेखक जौनपुर में थे तथा मौत की खबर सुनकर सीढ़ियों से गिर पड़े और उनके सिर पर चोट लग गयी। अकबर के न रहने के समाचार से पूरे शहर में दंगे भड़क उठे और लोगों में असुरक्षा की भावना भर गयी। तब लोगों ने अपने अच्छे वस्त्र और कीमती आभूषण ज़मीन में गाड़ दिए तथा नकद पैसा सुरक्षित स्थानों में छिपा दिया। दस दिनों तक जौनपुर में भय का ऐसा ही माहौल व्याप्त रहा किंतु जब आगरा से खबर आई कि अकबर का बेटा सलीम शाह गद्दी पर बैठ गया है, तब सब कुछ ठीक हो गया और शहर में शांति लौटी। तीनों बादशाहों के दौर में उनके परिवार को अपमानित होना पड़ा था। लेकिन किताब में मुगलिया सल्तनत को लेकर अच्छी ही बातें कही गई हैं।
निम्नलिखित श्लोक 1605 में अकबर की आकस्मिक मृत्यु के प्रभाव का वर्णन करते हैं कि कैसे उत्तराधिकार की अनिश्चितता ने धनी वर्गों के बीच व्यापक भय पैदा किया -भले वस्त्र अरु भूषण भले,
ते सब गड़े धरती तले।
अर्थात सुन्दर वस्त्रों और आभूषणों को ज़मीन के नीचे गाड़ दिया गया।
घर घर सबने विसाहे सशस्त्र,
लोगन पहिने मोटे वस्त्र।
अर्थात लोगों ने अपने हथियार तैयार कर लिये तथा मोटे (खुरदुरे) वस्त्र धारण किये।
हालांकि लेखक ने इसके अलावा अन्य किताबें भी लिखी हैं किंतु उनके नाम के साथ अर्धकथानक ही लोकप्रिय रूप से जुड़ी है। इसकी भाषा को लेखक ने ‘मध्यदेश की बोली’ कहा है जिसके बारे में विद्वानों का कहना है कि वह आज की खड़ी बोली के अधिक करीब है। इसीलिए शायद इसे हिंदी की पहली आत्मकथा कहा जाता है।
संदर्भ:
1. https://www.goodreads.com/en/book/show/10509627-ardhakathanak
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Banarasidas
3. https://www.jankipul.com/2010/11/blog-post_03-2.html
4. http://shabdavali.blogspot.com/2009/04/4.html
चित्र सन्दर्भ:-
1. https://www.rohinichowdhury.com/Translations/39-/Ardhakathanak
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