किसी भी देश में निवास करने के लिए वहां की नागरिकता प्राप्त करना अत्यंत आवश्यक होता है। किंतु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो बिना नागरिकता प्राप्त किये किसी कारणवश अपने देश से किसी विशेष देश में आ जाते हैं। एक प्रकार से वे लोग शरणार्थी कहलाते हैं। शरणार्थी वे लोग हैं जो उत्पीड़न, युद्ध या हिंसा के कारण अपने देश से किसी अन्य देश में भागने के लिए मजबूर हुए हैं। उनका उत्पीडन नस्ल, धर्म, राष्ट्रीयता, राजनीतिक राय या सदस्यता पर आधारित हो सकता है। वे लोग मुख्य रूप से अपने घर नहीं लौट सकते हैं या फिर ऐसा करने से डरते हैं। मुख्य रूप से दुनिया भर में दो-तिहाई शरणार्थी सिर्फ पांच देशों से आते हैं सीरिया, अफगानिस्तान, दक्षिण सूडान, म्यांमार और सोमालिया।
1951 का जिनेवा कन्वेंशन (Geneva Convention) शरणार्थी कानून का मुख्य अंतर्राष्ट्रीय साधन है। कन्वेंशन में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि शरणार्थी कौन है और वे किस प्रकार की कानूनी सुरक्षा, अन्य सहायता और सामाजिक अधिकार उन देशों से प्राप्त कर सकते हैं जिन्होंने जिनेवा कन्वेंशन के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए हैं। कन्वेंशन पोषित सरकार के प्रति शरणार्थियों के दायित्वों को भी स्पष्ट करता है। शुरूआती समय में कन्वेंशन केवल द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मुख्य रूप से यूरोपीय शरणार्थियों की रक्षा करने के लिए सीमित था, लेकिन एक अन्य दस्तावेज, 1967 के प्रोटोकॉल (protocol) ने कन्वेंशन के दायरे का विस्तार किया क्योंकि दुनिया भर में विस्थापन की अत्यधिक समस्या फैल गई थी।
भारत भी इस विस्थापन या पलायन की समस्या से ग्रसित है। अतीत में पलायन मुख्य रूप से पश्चिम में हिंदुकुश पर्वत और पूर्व में पटकोई पर्वतमाला के कारण हुआ। भारत-पाकिस्तान के विभाजन के परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में लोग पलायन कर रहे थे। लगभग 20 मिलियन शरणार्थी भारत को आजादी मिलने के बाद भारत आए जिनके लिए राहत शिविर स्थापित किए गये। इनमें मुख्य रूप से बांग्लादेश और पाकिस्तान के लोग शामिल थे। इन मुद्दों के लिए वर्ष 1948 में पुनर्वास वित्तीय प्रशासन अधिनियम पारित किया। इसी प्रकार से दूसरी बार 1959 में दलाई लामा और उनके अनुयायियों ने शरणार्थियों के रूप में भारत का रुख किया और भारत ने उन्हें एक राजनीतिक शरण प्रदान की। 1971 के वर्ष में कई शरणार्थियों को पूर्वी पाकिस्तान से भारत आते देखा गया। इसके बाद 1983 और 1986 में भारत में क्रमशः श्रीलंका और बांग्लादेश से शरणार्थी आए। 1992 के अंत में, भारत ने 2,000,000 प्रवासियों और 237,000 विस्थापित व्यक्तियों की मेजबानी की। 1951 के शरणार्थी सम्मेलन में 144 हस्ताक्षरकर्ता हैं हालांकि भारत उनमें से एक नहीं है।
राजनीतिक, आर्थिक, नैतिक आदि कारक भारत को 1951 शरणार्थी सम्मेलन का हिस्सा होने से रोकते हैं। लेकिन फिर भी भारत 1951 के सम्मेलन से कुछ अनुच्छेदों को लागू कर रहा है। उसका मानना है कि भले ही वह हस्ताक्षरकर्ता न हो, लेकिन वह शरणार्थी के लिए न्यूनतम सहायता प्रदान करेगा। भारत को सीमा साझा करने वाले देशों के साथ कई समस्याएं हैं, जिसके कारण उसने यह निर्णय लिया है। भारत के संविधान में शरणार्थियों के लिए कुछ अनुच्छेद बनाए गये हैं जिनमें अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार ), अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता का अधिकार), अनुच्छेद 5, 6, 7, 8, 9, 10,11,12, 20, 22,25-28, 32, 226 को शामिल किया गया है। इसके अलावा 2009 में रिफ्यूजी और शरण (संरक्षण) विधेयक भी पारित किया गया है।
भारत में शरणार्थियों से संबंधित निम्नलिखित कानून है:
• नागरिकता अधिनियम, 1955
• प्रत्यर्पण अधिनियम, 1962
• विदेशी अधिनियम, 1946
• अवैध प्रवासी (न्यायाधिकरण द्वारा निर्धारण) अधिनियम, 1983
• भारत दंड संहिता अधिनियम, 1860
• पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम, 1920
• पासपोर्ट अधिनियम, 1967
• मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993
• विदेशियों का पंजीकरण अधिनियम, 1939
हाल ही में भारत में नागरिकता (संशोधन) अधिनियम पारित किया गया है जिसको लेकर कई शरणार्थियों के लिए समस्याएं उभरती हुई नजर आ रही हैं। अधिनियम में कई दोष बताये जा रहे हैं। विरोधियों का कहना है कि भारत को एक उचित शरणार्थी कानून की आवश्यकता है। अधिनियम इस बात पर खरा नहीं उतरता तथा देश में कई लोगों के लिए भेदभावपूर्ण स्थिति को उत्पन्न करता है या उसका समर्थन करता है।
संदर्भ:
1. https://legaldesire.com/human-rights-refugees-refugee-laws-india-globally/
2. https://www.unrefugees.org/refugee-facts/what-is-a-refugee/
3. https://bit.ly/34VSprF
4. https://www.indianbarassociation.org/indias-refugee-policy/
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