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मानव का अब तक का जीवन काल कई कहानियों और उतार चढ़ाव से होकर के गुजरा है। यह कई लाख सालों का नतीजा है कि आज हम इस प्रकार से जीवन व्यतीत कर रहे हैं। पाषाण कालीन मानव पत्थरों आदि के औजार बना कर अपना जीवन यापन करता था। मानव का शुरूआती जीवन यायावरी में गुजरा लेकिन धातु की खोज ने इसके जीवन को एक नयी दिशा प्रदान की। सर्वप्रथम मानवों ने कांसे के बारे में जाना। कांसे के ज्ञान के बाद ही पूरे विश्व भर में कई सभ्यताओं ने जन्म लिया ये सभ्यताए सिन्धु सभ्यता, मेसोपोटामिया की सभ्यता, मिश्र की सभ्यता आदि हैं। कांसे की खोज जिस काल में हुई और उस काल में जो भी सभ्यताएं बसी उनको कांस्ययुगीन सभ्यता का नाम मिला। कांसे के बाद जिस युग की शुरुआत हुयी उसने वर्तमान विश्व की नीवं रखने में सबसे अहम योगदान का निर्वहन किया। यह खोज थी लोहे की खोज। लोहे की खोज ने मानव जीवन को एक नया आयाम दे दिया। जौनपुर के आस पास के क्षेत्रों में हुयी विभिन्न पुरातात्विक खुदाइयों में इसके ठोस प्रमाण मिले हैं।
उत्तर प्रदेश पुरातत्त्व विभाग ने चंदौली, सोनभद्र आदि जिलों में खुदाइयां कर के दो प्रमुख पुरास्थल खोज निकाले जहाँ पर लोहे के खोज या प्रयोग के प्राचीन साक्ष्य प्राप्त होते हैं। ये पुरातात्त्विक स्थल हैं राजा नल का टीला और मल्हार। इन पुरातात्त्विक स्थलों की खुदाई तत्कालीन निदेशक उत्तर प्रदेश पुरातत्त्व विभाग डॉ राकेश तिवारी के नेतृत्व में की गयी थी। राजा नल के टीले और इससे प्राप्त अवशेषों में चित्रित काले और लाल मृद्भांड मिले हैं जो कि शुरूआती लौह युग से सम्बंधित हैं। ये अवशेष यहाँ के पीरियड 2 के डिपाजिट से मिले हैं। राजा नल के टीले और मल्हार के उत्खनन के पहले जो तिथियाँ प्रस्तुत की गयी थीं वे करीब 700-600 ईसा पूर्व की थी। कालान्तर में चित्रित धूसर मृद्भांड परंपरा के अवशेष मिलने के बाद ये तिथियाँ करीब दूसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व तक चली गयी। रेडियो कार्बन तिथि के अनुसार जो कि अतरंजिखेडा, हल्लूर, कौशाम्बी, जाखेरा और नागदा से लोहे के जो स्तरीकृत अवशेष प्राप्त हुए उनकी तिथियों को देखते हुए मध्य भारत के एरण आदि को 1000 ईसा पूर्व का माना गया। लोहे को लेकर सदैव से ही भारतीय विद्वानों में मतभेद था। ऐसा माना जाता है कि भारत प्रारम्भिक लोहे का निर्माण करने वाला एक स्वतंत्र केंद्र था। ताम्रपाषाण काल से सम्बंधित पुरास्थल अहाड़ से उस काल की जमाव में लोहे की उपस्थिति ने एक अलग ही तथ्य प्रस्तुत कर दिया और यह सुझाव प्रस्तुत कर दिया की हो ना हो भारत में सोलहवीं शताब्दी में लोहे के गलाने का कार्य शुरू हो चुका था। हांलाकि यह एक मानक ही था लेकिन यह तो सिद्ध हो ही गया था की हो ना हो भारत में 1300 ईसा पूर्व में लोहे को बड़े पैमाने पर गलाया जाता था। यहाँ से जो तिथियाँ भी प्राप्त हुयी रेडिओ कार्बन डेटिंग के बाद वे 1300 से 1200 ईसा पूर्व की थी। हांलाकि ये जो भी तिथियाँ सामने आयीं वे मध्य भारत आदि की थीं लेकिन मध्य गंगा घाटी की तिथियाँ करीब 800 ईसा पूर्व के आगे नहीं जा रही थी।
इलाहाबाद के समीप झूंसी से मिले लोहे के अवशेष को 1107 से 844 ईसा पूर्व तक माना गया है। इस तिथि ने मध्य गंगा घाटी में लोहे के इतिहास के नए दरवाजों को खोलने का कार्य किया। राजा नल के टीले के पीरियड 1 या काल एक के डिपाजिट में किसी भी प्रकार के धातु के अवशेष नहीं प्राप्त हुए थे। अवधि या पीरियड 2 के मृद्भांड के सम्बन्ध में देखा जाए तो यहाँ चित्रित उत्तरी काली मृद्भांड अवशेष 1.5 से 2 मीटर मोटी परत या जमाव में मिलते हैं। इसी जमाव में लोहा प्राप्त हुआ था। यहाँ से लोहे की तिथियाँ करीब 1400 ईसा पूर्व तक की मापी गयी है। यहाँ से मिले अवशेषों में कील, तीर, चाक़ू, छेनी, पिघले हुए लोहे के अवशेष आदि प्राप्त हुए हैं। यहाँ से प्राप्त इन अवशेषों ने मध्य गंगा घाटी में लौह युग की तिथियों को एक नया आयाम दे दिया। इन तिथियों से यह तो सिद्ध हो गया की सम्पूर्ण भारत भर में लोहे का कार्य नहीं ज्यादा तो 1600 से 1400 ईसा पूर्व के काल में होता रहा था।
सन्दर्भ:-
1. http://www.rediff.com/news/jan/23iron.htm
2. https://archaeologyonline.net/artifacts/iron-ore.html
3. http://www.bhu.ac.in/aihc/research.htm