पृथ्वी पर यदि कोई सबसे चमत्कारी चीज़ है तो वो है जीवों में पायी जाने वाली विविधता। एक ही समूह के जीवों में इतनी विवधताएं देखने को मिलती हैं कि उन्हें अलग-अलग वर्गों में विभाजित किया जाता है और विभाजन के आधार पर उनकी पहचान की जाती है। इनमें से एक वर्ग उभयचरों का भी है। उभयचर कशेरूकी प्राणियों का एक समूह है, जिन्हें मत्स्यों और सरीसृपों के बीच की श्रेणी में रखा गया है। इनकी विशेषता यह है कि ये जल और थल दोनों में निवास कर सकते हैं। आधुनिक उभयचर लिस्साम्फिबिया (Lissamphibia) हैं जिनमें चार पैरों वाले उभयचरों को शामिल किया गया है।
आमतौर पर उभयचर प्रारम्भिक अवस्था में पानी के अंदर लार्वा (Larva) के रूप में होते हैं, लेकिन कुछ प्रजातियां इस स्थिति से बाहर आने के लिए अनुकूलन करती हैं, जिसके फलस्वरूप लार्वा रूपांतरण (मेटामोर्फोसिस-Metamorphosis) प्रक्रिया से होकर गुज़रता है तथा विकसित फेफड़ों के साथ वायु में श्वसन करने वाले वयस्क के रूप में उत्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त उभयचर श्वसन के लिए दूसरे माध्यम के रूप में अपनी त्वचा का उपयोग करते हैं। कुछ छोटे स्थलीय सैलामैंडर (Salamanders) और मेंढकों में फेफड़े नहीं होते, वे श्वसन अपनी त्वचा के माध्यम से ही करते हैं। क्या आप जानते हैं कि सबसे पहले उभयचर डेवोनियन (Devonian) काल में सार्कोटेरिजिअन (Sarcopterygian) मछली से विकसित हुए थे? इस मछली में विकसित फेफड़े तथा हड्डीदार पंख मौजूद थे।
कार्बोनिफेरस (Carboniferous) और पर्मियन (Permian) काल के दौरान ये उभयचर और भी अधिक विविध और प्रभावी हुए लेकिन बाद में सरीसृप और अन्य कशेरुकियों द्वारा विस्थापित कर दिये गये। समय के साथ उभयचरों के आकार और विविधता में कमी आयी जिससे केवल आधुनिक उपवर्ग लिस्साम्फिबिया शेष रहा। उभयचर के तीन आधुनिक उपवर्ग एन्यूरा (Anura- मेंढक और टोड), उरोडेला (Urodela - सैलामैंडर), और अपोडा (Apoda -सीसिलियन) हैं। अभी तक ज्ञात उभयचर प्रजातियों की संख्या लगभग 8,000 है, जिनमें से लगभग 90% मेंढक हैं। दुनिया का सबसे छोटा उभयचर न्यू गिनी (New Guinea) का एक मेंढक पैडोफ्राइन अम्यूएंसिस (Paedophryne amauensis) है, जिसकी लंबाई केवल 7.7 मिमी है जबकि सबसे बड़ा जीवित उभयचर दक्षिण चीन का विशाल सैलामैंडर है जिसकी लम्बाई 1.8 मीटर है।
आधुनिक युग में पाये जाने वाले परिचित मेंढक, टोड और सैलामैंडर सम्भवतः जुरासिक (Jurassic) काल में विकसित हुए थे। सबसे पहला प्रसिद्ध उभयचर इकथियोस्टेगा (Ichthyostega) है जो ग्रीनलैंड में डेवोनियन काल में पाया गया था। यह लगभग 36.3 करोड़ वर्ष पुराना था। आज तक खोजे गए सबसे पहले उभयचर एल्जिनेरपेटन (Elginerpeton) हैं, जो डेवोनियन काल में स्कॉटलैंड की चट्टानों पर पाए गये थे। ये उभयचर लगभग 36.8 करोड़ वर्ष पहले विकसित हुए थे। इस प्रकार उभयचरों का विकास 300 मिलियन वर्ष पहले हुआ था। कार्बोनिफेरस काल के अंत और शुरुआती पर्मियन काल में उभयचर पृथ्वी पर धरती के प्रमुख जानवर थे। इनमें से कुछ 15 फीट लंबे थे जिनका आकार मगरमच्छ के जितना बड़ा था।
वर्तमान समय में ऐसे कई कारक हैं जिनकी वजह से उभयचरों की संख्या में कमी आने लगी है। अब उभयचरों की प्रजातियां कुछ विशेष स्थान तक ही सीमित हैं जोकि अन्य स्थानों पर नहीं पायी जाती। ऐसी प्रजातियों को एंडेमिक (Endemic) प्रजाति कहा जाता है। धरती पर पश्चिमी घाट (Western Ghats) एक ऐसा स्थान है जहां बहुत अधिक जैविक विविधता देखने को मिल सकती है। इस स्थान में उभयचरों की अति संवेदनशील और आकर्षक 179 प्रजातियां पायी जाती हैं।
पश्चिमी घाट के सभी मेंढक या 87% मेंढक एंडेमिक हैं तथा किसी अन्य स्थान पर नहीं पाये जा सकते हैं। इन मेंढकों में निक्टीबैट्रेकस केम्फोलेयेंसिस (Nyctibatrachus kempholeyensis), रेकोफोरस लेट्रेलिस (Rhacophorus lateralis), निक्टीबैट्रेकस मिनिमस (Nyctibatrachus minimus- भारत का सबसे छोटा ज्ञात मेंढक), रेकोफोरस मालाबारिकस (Rhacophorus malabaricus) आदि शामिल हैं जिनमें कई विशेषताएं पायी जाती हैं। दुर्भाग्य से, इनमें से अधिकांश प्रजातियों को इन क्षेत्रों में मानव गतिविधियों के कारण खतरे का सामना करना पड़ रहा है। हम कीटों को मारने के लिए कीटनाशकों का उपयोग करते हैं किंतु यह भूल गये हैं कि मेंढक की उपलब्धता कीटों की संख्या को कम करती है तथा प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
सामान्यतः मानसून के मौसम में पाये जाने वाले विभिन्न मेंढक अब कहीं गायब से हो गये हैं। इन्हें सबसे अच्छे जैविक संकेतकों में से एक माना जाता है क्योंकि ये जीव पर्यावरण में हो रहे मामूली बदलावों के प्रति संवेदनशील होते हैं। विश्वभर में उभयचरों में खतरनाक गिरावट देखी गयी है जो वैज्ञानिकों के लिए एक चिंता का विषय है। मच्छरों और कीटों को नियंत्रित करने में उभयचरों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और वे विभिन्न पक्षियों और सांपों के लिए भोजन का स्रोत भी बनते हैं तथा खाद्य श्रृंखला को संतुलित रूप देते हैं। यही कारण है कि इन्हें पर्यावरणीय स्वास्थ्य के महत्वपूर्ण संकेतक माना जाता है।
इंटरनेशनल यूनियन ऑफ कंज़र्वेशन ऑफ नेचर (International Union of Conservation of Nature-IUCN) ने इन्हें संकटग्रस्त प्रजातियों की लाल श्रेणी में सूचीबद्ध किया है। लगभग 1,856 उभयचर प्रजातियां ऐसी हैं जिन्हें विलुप्त होने का खतरा है। इनमें से 427 प्रजातियां गंभीर रूप से संकटग्रस्त मानी जाती हैं जबकि 761 को संकटग्रस्त की श्रेणी में रखा गया है। हालांकि ऐसी प्रतिकूलताओं का सामना करते हुए, 2000 के बाद से भारत में 114 नई उभयचर प्रजातियों की खोज की गई है। 2006 में भारत की वर्तमान उभयचर प्रजातियों की संख्या 342 थी। संरक्षण मूल्यांकन और प्रबंधन योजना (CAMP) के तहत भारत की उभयचर आबादी में 32 प्रजातियां गंभीर रूप से संकटग्रस्त, 71 संकटग्रस्त, 52 असुरक्षित और 9 खतरे की श्रेणी में हैं।
संदर्भ:
1. https://ucmp.berkeley.edu/vertebrates/tetrapods/amphibfr.html
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Amphibian
3. https://www.thoughtco.com/300-million-years-of-amphibian-evolution-1093315
4. https://bit.ly/2qSxpEn
5. https://bit.ly/33ke0cJ
चित्र सन्दर्भ:
1. https://www.flickr.com/photos/130140542@N03/32512465847
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Amphibian#/media/File:Amphibians.png
3. https://bit.ly/2OQDeKf
4. https://www.maxpixels.net/Small-Amphibious-Nature-Anura-Wild-Life-Animalia-3108912
5. https://bit.ly/2XOYggF
6. https://commons.wikimedia.org/wiki/File:Ichthyostega_sp._-_MUSE.jpg
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