यदि आज की पीढ़ी के सामने ‘गिल्ली डंडा’ नाम के खेल का ज़िक्र किया जाये तो उन्हें इस खेल का नाम सुनकर बहुत आश्चर्य होगा। क्योंकि कंप्यूटर (Computer) और मोबाइल (Mobile) में खेल आने के बाद शायद ही उन्होंने देशी खेलों का कभी नाम भी सुना होगा। नई पीढ़ी के बीच अब इस तरह के देशी खेलों का ना तो कोई महत्त्व रहा है, ना ही कोई रुचि।
गिल्ली डंडा भारतीय उपमहाद्वीप का एक प्राचीन खेल है। ऐसा माना जाता है कि यह खेल मौर्य साम्राज्य के दौरान 2500 साल पहले विकसित हुआ था। गिल्ली डंडा के नाम की उत्पत्ति ‘घाटिका’ से हुई थी। इसे सामान्यतः एक बेलनाकार लकड़ी से खेला जाता है जिसकी लंबाई बेसबॉल (Baseball) या क्रिकेट (Cricket) के बल्ले से थोड़ी छोटी होती है। इसी की तरह की छोटी बेलनाकार लकड़ी को गिल्ली कहते हैं जो किनारों से थोड़ी नुकीली या घिसी हुई होती है।
कुछ वर्षों पहले तक अक्सर भारत की कई गलियों में बच्चे हाथ में एक डंडा और गिल्ली लेकर खेलते हुए नज़र आते थे, किंतु समय के साथ-साथ यह खेल लगभग लुप्त होने की कगार पर आ गया है। इस खेल की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि इसमें कोई खर्चा नहीं आता है, बस इसमें केवल एक 2-3 फीट की लकड़ी का डंडा और एक गिल्ली (जिसके दोनों किनारों को नुकीला कर दिया जाता है) की आवश्यकता होती है।
खेल के नियम भी बिल्कुल आसान हैं। यह चार या उससे अधिक खिलाड़ियों के साथ खेला जा सकता है। इसमें खिलाड़ियों की कोई सीमा नहीं होती है। खिलाड़ी इसे एक छोटा सा घेरा बनाकर खेलते हैं, जिसमें वे गिल्ली को पत्थर पर संतुलित करते हैं और उसे इस तरह रखते हैं कि गिल्ली का एक छोर ज़मीन को छूता है जबकि दूसरा छोर हवा में होता है। इसके बाद खिलाड़ी गिल्ली को डंडे के द्वारा चोट करता है, जब गिल्ली हवा में उछलती है तो खिलाडी डंडे की मदद से इसे फिर मारता है और जितना हो सके दूर पहुंचता है। प्रतिद्वंद्वी द्वारा यदि गिल्ली को हवा में पकड़ लिया गया तो खिलाड़ी हार जाता है, वहीं अगर प्रतिद्वंद्वी द्वारा गिल्ली नहीं पकड़ी गई तो खिलाड़ी को एक अंक मिल जाता है। वहीं यदि खिलाड़ी तीन बार गिल्ली को मारने में असफल रहता है तो वह हार जाता है। यह नियम बेसबॉल के स्ट्राइक आउट (Strike Out) के समान है।
प्रेमचंद ने भी गिल्ली-डंडा के संबंध में "गिल्ली-डंडा" नामक एक छोटी कहानी लिखी थी, जिसमें वे पुराने समय और भावनाओं की तुलना आधुनिक मूल्यों से करते हैं और भारत में जातिगत असमानताओं के बारे में भी संकेत देते हैं। इस कहानी का नायक और कथाकार अपनी युवावस्था में अपने मित्रों के साथ खेले गये गिल्ली-डंडा खेल का स्मरण करते हुए बताता है कि उनके मित्रों में एक मित्र था जो गिल्ली डंडा की प्रत्येक बारी में जीतता था। नायक एक दिन अपने उस मित्र (गया) के साथ खेल रहा था और उसको उसकी बारी दिये बिना वह घर लौट जाता है। कुछ दिनों बाद नायक के पिता का तबादला किसी शहर में हो जाता है। अब काफी सालों बाद जब नायक वापिस अपने पुराने शहर आता है तो अपने पुराने मित्रों की खोज करता है। वह अपने सभी मित्रों से तो नहीं मिल पाता लेकिन उसे गया मिल जाता है।
जब नायक गया को साथ में गिल्ली डंडा खेलने का प्रस्ताव रखता है तो गया बड़ा हिचकिचाता है, क्योंकि उसकी नज़र में अब नायक एक बड़ा अफसर है और वह उसके सामने कुछ भी नहीं। जब नायक और गया गिल्ली डंडा खेलने पहुंचे तो वहाँ गया नायक से हार गया। जिससे उन्हें लगने लगा शायद गया खेल भूल गया। लेकिन अगले दिन गया को खेलते देख नायक को यह महसूस हो गया कि अब उन दोनों के बीच जात-पात की दीवार खड़ी हो गई है।
संदर्भ:
1. https://en.wikipedia.org/wiki/Gillidanda
2. https://bit.ly/2kn7jpP
3. https://www.sportskeeda.com/sports/gilli-danda-a-dying-indian-traditional-game
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