इस्लाम में मुख्यतः दो पंथ सर्वप्रचलित हैं, शिया और सुन्नी। किंतु एक पंथ और भी है, जिसे आज शायद कुछ लोग भुला चुके हैं, तो कुछ आज भी इसके अनुयायी हैं। वह है महदाविया समुदाय, इसकी शुरूआत सैय्यद मुहम्मद जौनपुरी ने की थी। अपने शुरूआती दौर में यह एक आंदोलन के समान फैला, जिसके प्रचारक सैय्यद ही थे। सैय्यद मुहम्मद जौनपुरी का जन्म 14वीं जमादी-उल अव्वल 847 हिजरी अर्थात 9 सितम्बर 1443 (सुल्तान महमूद शर्की के शासनकाल के दौरान) उत्तर प्रदेश के जौनपुर में हुआ। उनके दादा, सैयद उस्मान, शर्किया राजा के निमंत्रण पर अपने परिवार के साथ जौनपुर आकर बस गए थे। वे इमाम मूसा अल-काज़िम के वंशज थे।
सैय्यद शेख दानियाल खिज़री के शिष्य थे तथा उनके पिता भी खिज़री के ही शिष्य थे। सैय्यद बचपन से ही बहुत विद्वान थे, उन्होंने मात्र सात वर्ष की अवस्था में ही पूरी कुरान याद कर ली थी। 12 वर्ष की अवस्था में उनके गुरू ने उन्हें असद-उल-उलामा की उपाधी से नवाज़ा। युवा अवस्था में ही उन्होंने उपदेश देना प्रारंभ कर दिया। इसके पश्चात उन्होंने देश के अन्य हिस्सों में अपने उपदेश देना प्रारंभ किया। सैय्यद का मुख्य उद्देश्य इस्लाम पवित्रता की पुनःस्थापना करना था। अपनी यात्रा के दौरान 892 हिजरी/1486-87 में सैय्यद मोहम्मद कालपी और चंदेरी से गुज़रते हुए मांडू पहुंचे और इस दौरान उनकी मुलाकात गियास-उद-दीन खिलजी से हुई। खिलजी सैय्यद से काफी प्रभावित हुए और उन्होंने इन्हें कीमती सोना और मोती भेंट स्वरूप दिए, जिसे सैय्यद ने ज़रूरतमंदों में बांट दिया। इसके बाद उनके अनुयायियों की संख्या में वृद्धि हुई।
सैय्यद ने भारत की ही नहीं वरन् बड़े पैमाने पर अरब और खोरासन की यात्रा भी की। जब वे 53 साल के थे, तो उन्होंने मक्का की हज यात्रा की, जहाँ 1496 (901 हिजरी) को काबा की परिक्रमा करने के बाद घोषणा की, कि वे ही महदी हैं और जो कोई भी उन्हें मानता है वो मोमिन (आस्तिक) है। किंतु उन्हें मक्का के उलेमा द्वारा अनदेखा कर दिया गया। इसके सात या नौ महीने मक्का में रहने के बाद वे भारत लौट आए, जहां उन्होंने अहमदाबाद और बाधली में खुद को महदी घोषित किया तथा महदाविया नाम से नए मुस्लिम समुदाय की शुरूआत की, जिसे पाकिस्तान में ‘ज़िकरी’ के रूप से जाना जाता है।
गुजरात के अहमदाबाद में अपनी घोषणा को दोहराने के बाद उन्हें कुछ अनुयायियों का समूह प्राप्त हुआ, जिनके द्वारा खलीफाओं की एक पंक्ति स्थापित हुई। 1505 में जौनपुरी के निधन के बाद महदावी आंदोलन एक उग्रवादी दौर से गुज़रा, जो पहले पांच महदावी खलीफाओं के शासनकाल के दौरान चला। गुजरात सल्तनत के सुल्तान मुज़फ्फर शाह द्वितीय के तहत महदावी आंदोलन को नष्ट करने के प्रयास किए गये। 1980 के दशक के बाद से इस्लामी चरमपंथ और जिहादवाद के सामान्य उदय के साथ, पाकिस्तान में सुन्नी आतंकवादियों द्वारा महदाविया समुदाय के साथ भेदभाव और हत्याएं की गयीं। परिणामस्वरूप, मारे गए कई लोगों के साथ, महदाविया समुदाय सिकुड़ रहा है और कम दिखाई दे रहा है।
महदावी समुदाय को पाकिस्तान में ज़िकरी के नाम से जाना जाता है। कुछ मात्रा में शेष महदाविया पंथ के अनुयायी महदावी को अल्लाह के अंतिम दूत तथा कुरान को अपने पवित्र ग्रंथ के रूप में मानते हैं। वे इस्लाम के पांच स्तंभों, सुन्नत परंपरा और शरीयत का दृढ़ता से पालन करते हैं। महदावी इस्लामी न्यायशास्त्र के सभी चार विद्यालयों का सम्मान करते हैं तथा हनफ़ी न्यायशास्त्र के समान परंपराओं का व्यापक रूप से पालन करते हैं। वे अपने मुर्शिद या आध्यात्मिक मार्गदर्शक के नेतृत्व में एक दिन में पांच बार प्रार्थना करते हैं, रमज़ान के दौरान उपवास रखते हैं तथा उपवास के दौरान आधी रात को दुगना लैलात अल-क़द्र पर विशेष धन्यवाद देते हैं। महदावी इस्लाम के पांच स्तंभों का पालन करने के अलावा संतों के सात दायित्वों (जिन्हें फ़ारिज़-ए विलया मुहम्मदिया के नाम से जाना जाता है) का भी पालन करते हैं। जौनपुरी के अनुयायी आज भी अपने दैनिक जीवन में इन दायित्वों का सख्ती से पालन करते हैं।
संदर्भ:
1. https://en.wikipedia.org/wiki/Mahdavia
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Muhammad_Jaunpuri
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