भारत में सूफियों के कई सम्प्रदाय विकसित हुए जिनको सिलसिला कहा जाता है। शत्तारिया भी इन्हीं सिलसिलों या सम्प्रदायों में से एक है जिनके प्रवर्तक शाह अब्दुल्लाहह शत्तार थे। इस सम्प्रदाय के सदस्यों को शत्तारिया कहा जाता है। इसकी शुरूआत 15वीं शताब्दी में फारस (ईरान) से हुई थी किंतु औपचारिक रूप से यह भारत में विकसित, पूर्ण और संहिताबद्ध हुई। शत्तारी दावा करते हैं कि उनके पास कुरान के अर्थ और उसके रहस्यों की कुंजी है और उन्हें ‘हर्फ़-ए-मुक़त्तियत' अर्थात गुप्त अक्षरों का पूर्ण ज्ञान है।
सार्वजनिक रूप से इस ज्ञान का खुलासा करना निषिद्ध है क्योंकि यह शेर-ए-खुदा मौला मुश्किल कुशा अली और मुहम्मद की `बार-ए-अमानत' (एक विश्वसनीय गोपनीय अमानत) है। इस ज्ञान के विश्वास का कोई भी उल्लंघन करना या दुरुपयोग करना सभी पापों में से सबसे बड़ा (गुनाह-ए-कबीरा) है। अन्य सूफियों के विपरीत शत्तारिया ‘फना’ अर्थात अहंकार के विनाश की अवधारणा की सदस्यता नहीं लेते हैं। यह एक ऐसी साधना पद्धति को इंगित करते हैं, जो ‘पूर्णता’ की ओर तेज़ी से बढ़ती है।
शत्तारी संप्रदाय की स्थापना शेख सिराजुद्दीन अब्दुल्लाहह शत्तार द्वारा की गयी थी। कहा जाता है कि इस सिलसिला की आध्यात्मिक वंशावली का विस्तार बायज़िद बस्तमी (753-845 ई.पू) के माध्यम से हुआ। इस प्रकार शत्तारी संप्रदाय तैफुरी खानवाड़ा (Tayfuri Khanwada) की एक शाखा है। अब्दुल्लाहह शत्तारी बायज़िद बस्तमी के 7वें वंशज शिष्य थे और उन्हें 14 सूफी तैफुरिया आदेशों में से खिलाफत (आध्यात्मिक उपकार) से सम्मानित किया गया था। उन्हें उनके शिक्षक शेख मुहम्मद तैफूर द्वारा शत्तार नाम से सम्मानित किया गया।
भारत आने के बाद शत्तारी जौनपुर में बस गए, उस दौरान यहां के शासक सुल्तान इब्राहिम शर्की थे। भारत में इनके अभियान को महान सफलता मिली। इनके अनुयायियों की संख्या में तीव्रता से वृद्धि हुयी, हालांकि इन्हें अपने अभियान के दौरान कुछ नकारात्मक पहलुओं का भी सामना करना पड़ा किंतु फिर भी वे अभियान में कामयाब रहे। एक बार सुल्तान इब्राहिम अब्दुल्लाहह शत्तार के पास गये और उनसे उनकी शिक्षाओं को अपने तरीके से समझाने को कहा किंतु अब्दुल्लाहह ने यह कहकर मना कर दिया कि वे आध्यात्मिक रूप से इस काबिल नहीं थे। क्योंकि सुल्तान ने उपदेशों की सराहना नहीं की इसलिए शत्तार ने जौनपुर को छोड़ दिया जिसके बाद अब्दुल्लाहह चित्तौड़ गये जहां उन्होंने अपने कार्य में अपार सफलता हासिल की।
अपने उपदेशों के अतिरिक्त उन्होंने कई किताबें जैसे सिराज-उल-सलिकिन, अनिस-उल-मुसाफिरिन आदि भी लिखीं। अब्दुल्लाह के कई शिष्य थे जिनमें से शेख हफीज़ जौनपुरी, शेख काज़ान बंगाली आदि प्रमुख थे। शेख काज़ान बंगाली ने इस सम्प्रदाय की बंगाली शाखा स्थापित की और शेख हफीज़ जौनपुरी ने इस सम्प्रदाय को आगे मज़बूत बनाया। उनके पास शेख बोधन नाम का एक योग्य शिष्य भी था जो सुल्तान हुसैन शर्की और सुल्तान सिकंदर लोदी के समकालीन था तथा उन्होंने इस सम्प्रदाय को उत्तर भारत में फैलाया। शेख बोधन के बाद अन्य योग्य खलीफा बदौलि के शेख वली हुए जिन्होंने अपने शिष्यों को सिलसिला के प्रसार के लिए भारत के विभिन्न भागों में भेजा। इनके शिष्यों द्वारा लिखी गयी किताबें मुगल काल में बहुत लोकप्रिय हुईं। सैय्यद अली कवाम और सैय्यद इब्राहिम इराजी इस सम्प्रदाय के अन्य योग्य संत हुए। इस सम्प्रदाय के एक अन्य शिष्य सैय्यद मुहम्म्द गौस थे जिनके द्वारा लिखी गयी अंतिम किताब में मुस्लिम रह्स्यवाद पर हिंदू विचारकों के प्रभाव को संदर्भित किया गया है।
अब्दुल्लाह शत्तारी ने तैमूर सुल्तानों के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए रखे और उन्हें आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान किया। तारिकाह ने भारत के सांस्कृतिक समुदायों और हिंदू विचारों को अपनाया विशेष रूप से यहां के योगिक विचारों को। शत्तारियों ने योग का अध्ययन किया तथा भारतीय भाषाओं में गीतों की रचना की। इस सम्प्रदाय ने धनी और विद्वान लोगों को तो प्रभावित किया किंतु सामान्य लोगों को प्रभावित करने में ये असफल रहे क्योंकि इनके सिद्धांत तथा विचार सामान्य लोगों की सोच से परे थे।
संदर्भ:
1. https://en.wikipedia.org/wiki/Shattari
2. Saeed, Mian Muhammad The Sharqi Sultanate Of Jaunpur 1972 The Inter Service Press Limited, Karachi(Pakistan)
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