ऋग्वेद सनातन धर्म के सबसे आरम्भिक स्रोतों में से माना जाता है। यह संसार के उन सर्वप्रथम ग्रन्थों में से एक है जिसकी मान्यता आज तक समाज में बनी हुई है। यह एक प्रमुख हिन्दू ग्रंथ है जिसमें ‘हिरण्यगर्भ’ की संकल्पना का भी उल्लेख किया गया है।
हिरण्यगर्भ संस्कृत भाषा से लिया गया है जिसका अर्थ है स्वर्ण गर्भ या स्वर्ण अंड। काव्यात्मक रूप से इसे सार्वभौमिक बीजाणु के रूप में भी अनुवादित किया गया है। वैदिक दर्शन के अनुसार यह वह स्रोत है जिसके द्वारा ब्रह्मांड की उत्त्पत्ति हुई। भागवत पुराण के अनुसार यह भगवान विष्णु का अवतार है। इसका उल्लेख ऋग्वेद के हिरण्यगर्भ सूक्त, में किया गया है जो ब्रह्मांड के एकल रचयिता के बारे में बताता है। सूक्त में इस रचयिता को प्रजापति कहा गया है। विश्वकर्मा सूक्त में भी इसका वर्णन किया गया है।
उपनिषद इसे ब्रह्माण्ड की आत्मा या ब्रह्मा कहते हैं, तथा यह बताते हैं कि हिरण्यगर्भ लगभग एक वर्ष तक शून्यता और अंधकार में तैरता रहा और फिर दो हिस्सों में टूट गया। एक हिस्से ने स्वर्ग तो दूसरे हिस्से ने पृथ्वी का गठन किया। शास्त्रीय पुराणिक हिंदू धर्म में हिरण्यगर्भ शब्द का प्रयोग “निर्माता- रचना करने वाला” के लिये किया जाता है। हिरण्यगर्भ को ब्रह्म भी कहा जाता है क्योंकि यह एक सुनहरे अंडे से उत्पन्न हुआ। कुछ शास्त्रीय योग परंपराएं इसे योग प्रवर्तक के रूप में भी मानती हैं जिसके अनुसार यह ऋषि कपिल का एक नाम भी हो सकता है।
मतस्य पुराण के अनुसार महाप्रलय के बाद सब कुछ सुप्तावस्था में था अर्थात न तो कुछ गतिहीन था और न ही गतिशील, तब स्वयंभु (इंद्रियों से परे एक रूप) प्रकट हुआ जिसने प्रारम्भिक जल बनाया और उसमें सृष्टी के बीज को स्थापित किया। उसके बाद बीज एक सुनहरे गर्भ (हिरण्यगर्भ) में बदल गया तथा अंत में उसके 2 टुकड़े हुए जिससे जीवन की शुरुआत हुई। नारायण सूक्त के अनुसार जो कुछ भी दृश्यमान या अदृश्य है वह सब नारायण में ही विद्यमान है। सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष और प्रकृति के संयोजन से एक गर्भ या अंडा पैदा हुआ जिससे ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई। वह गर्भ 4 सिरों वाला ब्रह्मा था। ब्रह्मा ने दुनिया का निर्माण किया।
शरीर के तीन निकाय हैं: स्थूल शरीर (भौतिक शरीर जिसमें 5 तत्व हैं), सूक्ष्म शरीर (मानसिक शरीर जिसमें प्राण, मन, अहंकार, बुद्धि और स्मृति हैं) और कर्ण शरीर (करणीय शरीर, व्यक्तिगत आत्मा)। ब्रह्मांड में सभी मानसिक निकायों का कुल योग ही हिरण्यगर्भ कहलाता है। हालांकि कुछ स्थानों पर करनीय निकायों के योग को भी हिरण्यगर्भ (ईश्वर) कहा जाता है।
ऋग्वेद में उल्लेखित हिरण्यगर्भ संकल्पना को एक चित्र के साथ संप्रेषित करना कोई साधारण उपलब्धि नहीं थी। लेकिन इस उपलब्धि को 1740 में ही मणकू ने हासिल किया। मणकू उत्तर भारत के प्रमुख चित्रकारों में से एक थे जिन्होंने हिरण्यगर्भ की एक उत्कृष्ट कृति का निर्माण किया। संकल्पना की जटिलता को सरल बनाती यह पेंटिंग (Painting) जौनपुर से कुछ ही दूरी पर स्थित वाराणसी के भारत कला भवन में रखी गयी है। बी. एन गोस्वामी (भारतीय लघु चित्रकला के प्रमुख विद्वान) ने इस पेंटिंग का वर्णन 2014 में प्रकाशित उनकी पुस्तक स्पिरिट ऑफ इंडियन पेंटिंग्स (Spirit of Indian Paintings) में किया। उनके अनुसार इस पेंटिंग का 3-डी प्रभाव है। जब इसे सपाट रखा जाता है, तो यह भूरे रंग की दिखाई देती है लेकिन अगर हाथ में पकड़कर देखा जाये तो यह सुनहरी हो जाती है। पृष्ठभूमि में समुद्र की जलतरंगों और अग्रभूमि में पूरी तरह से अंडाकार सुनहरे अंडे में विपरीत रंगों की स्पष्टता मणकू की प्रतिभा को दर्शाती है।
पेंटिंग के विषय में गोस्वामी जी ने जो कुछ भी उल्लेखित किया उससे यह स्पष्ट होता है कि यह अनिवार्य रूप से भारतीय कला के पूरे इतिहास के सबसे अच्छी चित्रों में से एक है।
संदर्भ:
1. http://www.theheritagelab.in/manaku-egg/
2. https://bit.ly/303v31h
3. https://www.quora.com/What-is-the-Hiranyagarbha
4. https://en.wikipedia.org/wiki/Hiranyagarbha
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