किसी भी क्षेत्र, शहर या देश के लिये कानून व्यवस्था का होना अत्यंत महत्वपूर्ण है। कौटिल्य ने भी अर्थशास्त्र में कानून व्यवस्था के महत्व को समझाया है। भारत में भी कानून व्यवस्था प्राचीन काल से चली आ रही है। सिंधु सभ्यता, गुप्त काल, सल्तनत काल, मुगल साम्राज्य आदि की कानून व्यवस्था के विभिन्न रूप भी कानून की उपयोगिता को व्यक्त करते हैं। प्राचीन भारत में यह प्रक्रिया पहले किसी विशिष्ट जाति के बुजुर्गों, ग्राम पंचायतों या ज़मींदारों द्वारा चालायी जाती थी तथा किसी प्रकार की विसंगति होने पर राजा को न्याय पक्षधर माना जाता था। किंतु अग्रेजों के आगमन के साथ इस व्यवस्था में कई परिवर्तन किये गये जोकि लाभकारी भी थे।
ब्रिटिश भारत में भारतीय सामान्य कानून की शुरुआत 1726 में तब हुई जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने मद्रास, मुंबई और कलकत्ता में मेयर कोर्ट की स्थापना की। इसके बाद ब्रिटिशों ने इस प्रणाली में विभिन्न परिवर्तन किये जिसका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है:
• 1772-1785 ई में वारेन हेस्टिंग्स (Warren Hastings) ने विवादों को सुलझाने के लिए दो अदालतों, जिला दीवानी अदालत और जिला फौजदारी अदालत को स्थापित किया जो क्रमशः नागरिक विवादों और आपराधिक विवादों को सुलझाने के लिये बनाये गये थे। इन अदालतों को जिलाधिकारी के अधीन रखा गया था। जिलाधिकारी अदालत में हिंदू नागरिकों के लिये हिंदू कानून बनाये गये जबकि मुस्लिम नागरिकों के लिए मुस्लिम कानून थे। जिला फौजदारी अदालत में केवल मुस्लिम कानून को ही लागू किया गया था। 1773 में कलकत्ता में एक सर्वोच्च न्यायालय का गठन किया गया।
• 1786-1793 के दौरान कॉर्नवॉलिस (Cornwallis) ने जिला फौजदारी अदालत को समाप्त किया और कलकत्ता, डेका, मुर्शिदाबाद और पटना में सर्किट (Circuit) कोर्ट को स्थापित किया। यह नागरिक और आपराधिक दोनों मामलों की देखरेख के लिये स्थापित किये गये थे जिसे यूरोपीय न्यायाधीशों के अधीन किया गया था। कॉर्नवॉलिस ने जिला दिवानी अदालत का नाम बदलकर जिला न्यायालय किया और मुंसिफ कोर्ट, रजिस्ट्रार कोर्ट, डिस्ट्रिक्ट कोर्ट, सदर दीवानी अदालत आदि नागरिक अदालतों की स्थापना की। यहां का कानून हिंदू और मुस्लिम दोनों के लिए ही लागू किये गये थे।
• इसके पश्चात विलियम बेंटिक (William Bentinck) ने भारत के चार सर्किट न्यायालयों को समाप्त कर इनके कार्यों को जिलाधिकारियों के अधीन किया। विलियम बेंटिक द्वारा इलाहाबाद में सदर दीवानी अदालत और सदर निजामत अदालत की स्थापना भी की गई थी जिसमें अंग्रेजी भाषा को आधिकारिक भाषा बनाया गया था।
• 1934 में लार्ड मैकाले ने भारत में विधि आयोग की स्थापना कर भारतीय कानूनों को संहिताबद्ध किया। इसके आधार पर, 1859 की नागरिक संहिता, 1860 की भारतीय दंड संहिता और 1861 की अपराधिक प्रक्रिया संहिता तैयार की गयी।
न्यायालयों के इन परिवर्तनों को जौनपुर जिले में भी देखा जा सकता है जहां नागरिक न्यायालयों की स्थापना बहुत पहले ही की जा चुकी थी। 1770 में जब नवाब वज़ीर ने बनारस प्रांत को ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंपा तो एकमात्र मजिस्ट्रियल (magisterial) अदालत जौनपुर में ही थी। यह व्यवस्था 1788 तक चलती रही जिसमें शहरों और उपनगरों के मामलों को सुलझाने के लिए एक न्यायाधीश और मजिस्ट्रेट की नियुक्ति की गयी थी। नागरिक और आपराधिक दोनों मामलों को हल करने वाली ग्रामीण क्षेत्रों की मुल्की अदालतों को उच्च न्यायालय के रूप में पुनः स्थापित किया गया। विनियमन VII के तहत, 1795 में देशी अदालतों को खत्म कर सभ्य नागरिक को ज़िला न्यायालय का न्यायाधीश और मजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया। बनारस में प्रांतीय न्यायालय की स्थापना के बाद इसे 1797 में सर्किट कोर्ट बनाया गया। इलाहाबाद में उच्च न्यायालय के न्यायिक क्षेत्राधिकार के तहत जिला न्यायपालिका का नेतृत्व जौनपुर में जिला न्यायाधीश द्वारा किया जाता है। जिला न्यायाधीश सभी नागरिक और आपराधिक मामलों के लिए सर्वोच्च न्यायिक प्राधिकरण है। 2 अक्टूबर, 1967 को जौनपुर में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के लिये एक योजना बनायी गयी जिसके परिणामस्वरूप न्यायिक मजिस्ट्रेट को जिला और सत्र न्यायाधीश की अधीनता में रखा गया। 1 अप्रैल 1947 में भारतीय दंड संहिता को आपराधिक प्रक्रिया संहिता के रूप में परिवर्तित किया गया जोकि न्यायपालिका से कार्यपालिका को पूर्ण रूप से अलग करती है।
1911 में जौनपुर में एक अदालत का निर्माण कराया गया जहां पूरे जिले की न्यायिक गतिविधियों और विभिन्न अदालती कार्यवाहियों को किया जाता है। इस अदालत की ईमारत गोथिक कला के अनुसार बनायी गयी है जिसका प्रमाण इसके मेहराबों को देखकर आसानी से लगाया जा सकता है।
संदर्भ:
1. https://bit.ly/2ZPfQRs
2. https://districts.ecourts.gov.in/jaunpur
3. https://jaunpur.prarang.in/posts/1144/postname
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