भारत में ज़्यादातर किसान छोटे और सीमांत हैं, जिन्हें अक्सर महज एक से लेकर दो हेक्टेयर (Hectare) तक की भूमि पर कृषि करके ही अपना जीवनयापन करने के लिये विवश होना पड़ता है। भारत में जितने भी ग्रामीण परिवार हैं उनमें से अधिकतर सिर्फ कृषि क्षेत्र के भरोसे ही अपना गुज़ारा कर रहे हैं। विभिन्न अनुमानों के अनुसार, भारत में 1995 और 2014 के बीच 3,00,000 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की थी। भारत के ग्रामीण परिवार, कृषि क्षेत्र में या तो किसान या कृषि मजदूरों के रूप में काम करते हैं। वर्तमान में कृषि पर आधी से अधिक आबादी की निर्भरता के बावजूद राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 14% तक गिर गया है। जहां तक कम उत्पादकता का सवाल है, यह प्रतिकूल मौसम सहित विभिन्न कारकों का नतीजा है। आज कृषि क्षेत्र में विकास के अभाव ने ग्रामीण आबादी को गैर-कृषि क्षेत्र की ओर अग्रसर होने पर विवश कर दिया है।
हाल के दिनों में, महाराष्ट्र, राजस्थान, और तमिलनाडु सहित देश भर के किसानों ने कृषि उपज के बेहतर और पारिश्रमिक मूल्यों के लिए आंदोलन किया। कुछ वर्ष पूर्व, महाराष्ट्र में लघु, सीमांत और भूमिहीन श्रेणियों के हजारों किसानों ने नासिक से मुंबई तक वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत भूमि अधिकार की मांग की। यह स्पष्ट है कि किसान को कृषि क्षेत्र में संकट का सामना करना पड़ रहा है। ये लोग देश में किसी तरह से अपना गुजर-बसर कर रहे हैं। इस समस्या को देखते हुए भारतीय सांख्यिकी संस्थान के आर्थिक विश्लेषण इकाई में प्रोफेसर मधुरा स्वामीनाथन और संदीपन बक्षी द्वारा लिखित 2017 की एक पुस्तक ‘हाउ डू स्मॉल फार्मर्स फेयर (How do small farmers fare)’ में उन किसानों पर एक अध्ययन किया गया है जो महज़ एक से लेकर दो हेक्टेयर तक की भूमि पर कृषि करते हैं और उनके लिए आर्थिक रूप से जीवित रहना कैसे चुनौतीपूर्ण बनता जा रहा है। इसके अलावा इस पुस्तक में उन समस्याओं से निजात पाने के लिए सरकार से कुछ विशिष्ट सिफारिशें की गई हैं जिनके कारण देश में किसी तरह से गुजर-बसर कर रहे किसानों को घोर दरिद्रता का सामना करना पड़ रहा है।
ऊपर दिए गये चित्र में प्रोफ़ेसर (Professor) मधुरा स्वामीनाथन और उनकी पुस्तक को दिखाया गया है।
यह पुस्तक भारत के विभिन्न कृषि-पारिस्थितिक क्षेत्रों में छोटे एवं सीमांत किसानों के जीवन को प्रकाशित करती है। इस पुस्तक में बताया गया है कि भारत भले ही पूरी दुनिया के लिए अनाज के एक प्रमुख स्रोत के रूप में उभर कर सामने आया है, क्योंकि विगत दशकों में इसका कृषि उत्पादन और यहां से अनाज की फसलों का निर्यात कई गुना बढ़ गया है। परंतु ये लाभ सभी किसान परिवारों के बीच समान रूप से नहीं बंट पाए। गाँवों के भीतर और कृषि-पारिस्थितिक क्षेत्रों में असमानताएँ और भिन्नताएँ हैं। छोटे व सीमांत किसानों के समक्ष मौजूद कई बाधाओं पर गौर करने से यह साफ पता चल रहा है कि उनके संघर्ष का दौर अब भी जारी है। हालांकि बड़े किसानों की तुलना में छोटे किसान अधिक कुशल और पारिस्थितिक रूप से योग्य उत्पादन करते हैं।
इस पुस्तक में 9 राज्यों में स्थित 17 गाँवों के घरेलू और कृषि अर्थव्यवस्था सर्वेक्षणों को ध्यान में रखते हुये ग्रामीण आबादी के छोटे किसानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति की जांच की हुई है। ये सर्वेक्षण फाउंडेशन फॉर एग्रेरियन स्टडीज़ (Foundation for Agrarian Studies – एफ.ए.एस.) द्वारा किए गए भारत में कृषि संबंधों पर परियोजना (PARI) का एक हिस्सा हैं। किसानों के स्थिति मूल्यांकन सर्वेक्षण (2003) के निष्कर्षों से यह तथ्य उभर कर सामने आया है कि किसान अपने पेशे के प्रति उदासीन हो गए हैं। किसी तरह से जीवन निर्वाह कर रहे लगभग 40% ग्रामीण किसान परिवार खेती को नापसंद करते हैं और किसी अन्य व्यवसाय को अपनाने को तवज्जों देते हैं और इसमें से 90% किसान छोटे और सीमांत कृषि परिवारों की श्रेणियों से हैं।
भारत में 85 प्रतिशत किसान, छोटे और सीमांत अर्थात 2 हेक्टेयर से भी कम की कृषि जोत भूमि के मालिक हैं जो कि दुनिया के छोटे और सीमांत किसानों की आबादी का लगभग एक चौथाई हिस्सा हैं। आज देश में किसी तरह से अपना जीवन बिता रहे किसानों की चिंताओं को दूर करने के लिए सरकार को कई योजनाओं को बनाने की आवश्यकता है। वैसे तो सरकार ने किसानों की दुर्दशा सुधारने के लिए अनेक कदम उठाए हैं, लेकिन छोटे किसानों की समस्याओं को सुलझाने पर सरकार को और अधिक ध्यान देना होगा।
संदर्भ:
1.http://ras.org.in/the_crisis_of_the_small_farm_economy_in_india
2.http://tulikabooks.in/book/how-do-small-farmers-fare/9789382381976/
3.https://www.isibang.ac.in/~eau/Madhura_Swaminathan/Madhura_Swaminathan.html
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