भारतीय धर्म, संस्कृति और सभ्यता का असर प्राचीन काल से ही अन्य देशों पर देखा जा रहा है जहां कोरिया भी इस प्रभाव से अछूता नहीं है। कोरिया भी विश्व के उन देशों में से एक है जो भारतीय संस्कृति और सभ्यता से बहुत अधिक प्रभावित है। इस प्रभाव की शुरुआत सबसे पहले बौद्ध धर्म से हुई। 65 ईसवी में बौद्ध धर्म भारतीय बौद्धों द्वारा चीन में पहुंचा जहां से यह पूर्वी एशिया को आवरित करते हुए कोरिया, जापान आदि में फैला। 374 ईसवी में पहला बौद्ध भिक्षु भारत से कोरिया गया। 673 ईसवी में आइ चेंग (I-chang) नाम के एक कोरियाई विद्वान भारत आये जो लगभग एक दशक तक भारतीय शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए नालंदा में रहे तथा उन्होंने पूरे भारत की यात्रा करने के साथ-साथ संस्कृत ग्रंथों का संग्रह भी किया। कोरिया लौटते वक्त वे अपने साथ भारत के 400 से अधिक संस्कृत ग्रंथों को ले गये।
कोरिया में बौद्ध धर्म की शुरुआत के लिए पाली और संस्कृत में बौद्ध धर्मग्रंथों का अध्ययन और कोरियाई भाषा में ग्रंथों का लेखन चुनौतीपूर्ण था क्योंकि कोरिया में मूल भाषा की कोई राष्ट्रीय लिपि नहीं थी। 1446 में यी वंश (yi dynasty; 1392-1910) के राजा सेजोंग ने लेखन की कोरियाई प्रणाली विकसित की जिसे हांगुल (Hanggul) कहा गया। इस लिपि में कई बौद्ध धर्मग्रंथ प्रकाशित हुए थे। कुछ विद्वानों का मत है कि हंगगुल लिपि 28 अक्षरों से मिलकर बनी थी जिन्हें संस्कृत भाषा से लिया गया था। इससे यह सिद्ध होता है कि ज्ञात संस्कृत वर्णों का अध्ययन कोरिया में भी शुरू किया गया था और यह प्रचलन आज भी जारी है।
डायजांग-ग्युंग (Daejang-gyung) हस्तलिपि कोर्यो वंश की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। यह बौद्ध धर्मग्रंथों की हस्तलिपि थी जिसे मूल रूप से संस्कृत में लिखा गया था तथा बाद में चीनी और मंगोलियाई भाषा में अनुवादित किया गया था। भारत के बौद्ध धर्म का प्रभाव कोरियाई साहित्य पर भी देखने को मिलता है। यहां की कुछ कविताओं में बौद्ध दर्शन और तत्वमीमांसा की झलक भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। भारत की कथाओं और दंतकथाओं का भी यहां खूब प्रचार-प्रसार हुआ। जहां अधिकांश कोरियाई लोक गीत भारतीय धुनों से प्रभावित हैं, वहीं भारतीय कला और वास्तुकला की शैलियों और सिद्धांतों ने भी कोरिया पर अपनी छाप छोड़ी है।
आज उत्तर कोरिया में करीब 360 भारतीय हैं (अधिकतर एम्बेसी/Embassy कार्यकर्त्ता) जबकि दक्षिण कोरिया में करीब 10,414 भारतीय हैं और इनमें से अधिकतर हिंदू हैं। इसके अतिरिक्त दक्षिण कोरिया के सियोल क्षेत्र में कई हिंदू मंदिर जैसे श्री राधा श्यामसुंदर मंदिर और श्री-श्री राधा कृष्ण मंदिर भी स्थापित हैं। राधा श्यामसुंदर मंदिर में हिंदू समुदाय के लिए विभिन्न सेवाएं जैसे बच्चों की कक्षाएं, धार्मिक पाठ्यक्रम, त्यौहार और समारोह आदि भी आयोजित किये जाते हैं। हाल ही के वर्षों में भारत के योग ने भी यहां बहुत लोकप्रियता प्राप्त की है। भगवान राम के जन्मस्थान के रूप में जाना जाने वाला उत्तर प्रदेश का अयोध्या कुछ दक्षिण कोरियाई लोगों के लिए विशेष महत्व रखता है क्योंकि इनके अनुसार वे इस शहर में अपने वंश का पता लगा सकते हैं। कुछ चीनी भाषा के ग्रंथों में यह उल्लेख किया गया है कि भगवान के आदेश के अनुसार अयोध्या के तत्कालीन राजा ने अपनी 16 वर्षीय बेटी सुरीरत्ना (या हिओ ह्वांग-ओक) की शादी दक्षिण कोरियाई राजा किम सुरो से की तथा उसे दक्षिण कोरिया भेज दिया। एक लोकप्रिय दक्षिण कोरियाई पुस्तक सैमगुक युसा (Samguk Yusa) में भी यह वर्णित किया गया है कि रानी ह्वांग-ओक ‘अयुता’ साम्राज्य की राजकुमारी थी। माना जाता है कि अयुता वास्तव में ‘अयोध्या’ का ही नाम है। सुरीरत्ना के इस विवाह के उपरांत दक्षिण कोरिया में करक वंश की उत्पत्ति हुई। इस बात पर जहां कुछ कोरियाईओं का विश्वास है तो कुछ इसे मिथक ही समझते हैं।
हाइबंगचोन (Haebanghchon) में इस्कॉन (ISKON) की एक शाखा है, जिसे 1966 में श्रीला प्रभुपाद ने शुरू किया था। इस संगठन की मुख्य पुस्तक भगवदगीता है जिसका कुछ वर्षों पहले कोरियाई अनुवाद भी किया गया था। केंद्र का उद्देश्य आध्यात्मिक कार्य के साथ-साथ विदेशी भारतीय समुदाय के सदस्यों के लिए एक सांस्कृतिक केंद्र प्रदान करना है। अतः यह स्पष्ट होता है कि कोरियाई लोगों में आज भी भारतीय संस्कृति और सभ्यता का वर्चस्व बना हुआ है।
संदर्भ:
1. https://www.esamskriti.com/e/History/Indian-Influence-Abroad/China-Korea-Japan-2.aspx
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Hinduism_in_Korea
3. https://www.bbc.com/news/world-asia-india-46055285
4. http://www.worldhindunews.com/2013/11/03/11168/hinduism-in-korea/
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