अकबर के समय में जौनपुर केवल प्रान्तीय राजधानी नहीं रह गयी थी बल्कि एक सरकार के रूप में देखी जाने लगी थी। लेकिन अकबर की मृत्यु के बाद जौनपुर के इतिहास में क्रमिक रूप से पतन को देखा गया है। जौनपुर एक महत्वहीन प्रान्तीय शहर के रूप में विलीन हो गया और नाजिम तथा फौजदार ही केवल महत्व के व्यक्ति यहाँ रह गये।
उस समय जौनपुर इलाहाबाद के अधीन था और जौनपुर में केवल 41 उपशाखा थी। जिनमें 27 या तो अवध या आजमगढ में और कुछ अन्य वाराणसी में चले गये। साथ ही इनकी सीमाओं में भी परिर्वतन किया गया था और अंत में यहां जहांगीर के समय तक केवल दो बड़े जागीरदार (मिर्जा चिनकुली जो कुलीच खां के पुत्र थे और जहांगीर कुली खां जो खानी आजम मिर्जा कोकाह के पुत्र थे) रह गये थे।
वहीं औरंगजेब की मृत्यु के बाद सम्पूर्ण मुगल साम्राज्य बिखरने लगा और प्रान्तीय शासन स्वतन्त्र होने लगे। सन् 1719 ईस्वी में जब मुहम्मद शाह दिल्ली के बादशाह बने तो उन्होंने अपने एक दरबारी मुर्तजा खां को पूरब के अनेक स्थानों का शासक बनाकर भेजा। मुर्तजा खान द्वारा रुस्तम अली खां को पांच लाख वार्षिक अदायगी के साथ इन स्थानों की व्यवस्था के लिए उत्तरदायी बनाने का सुझाव रखा गया। 1722 में सादात खान जब अवध के सूबेदार बने तो एक विचारणीय परिवर्तन सामने आया और लगभग डेढ़ शताब्दी तक मुगल सल्तनत का अंग रहने के बाद 1722 ईस्वी में जौनपुर अवध के नवाबों के हाथ सौंपा दिया गया।
वहीं 1778 में जब डंकन जौनपुर आये तो उसकी दयनीय स्थिति देख उन्होंने अपनी पूरी सहानुभूति व्यक्त की और जौनपुर में सर्वप्रथम न्यायाधीश और मजिस्ट्रेट को नियुक्त किया और तत्पश्चात् डंकन ने मालगुजारी का बन्दोबस्त किया तथा 1795 ईस्वी में इसे स्थायी कर दिया। मालगुजारी प्राप्त न होने के कारण यहां सन् 1818 ईस्वी में डिप्टी कलेक्टर की नियुक्ति की गयी और बाद में इसे एक जिला बना दिया गया।
साथ ही जब जौनपुर ब्रिटिश शासन के अधीन आया तो जौनपुर के लोग काफी कष्टों से गुजर रहे थे। अंतः अंग्रेजों के खिलाफ आन्दोलन प्रारम्भ किया गया। वहीं सन् 1781 में चेत सिंह को अंग्रेजों द्वारा पराजित कर दिया गया और उनके उत्तराधिकारी महीप नारायण सिंह अंग्रेज सरकार को निश्चित अदायगी देते रहे, जबकि अंग्रेज सरकार किसी दूसरे राजा की तलाश में थे लेकिन महीप सिंह अपने स्थान पर बने रहे। द्वैत शासन की यह नीति प्रशासनिक दृष्टि से ठीक नहीं थी, अतः प्रशासन में अपूर्णता निरन्तर बढ़ने लगी। इन परिस्थितियों को देख 1787 में कार्नवालिस ने डंकन को वाराणसी भेजा। उन्होंने जौनपुर के पक्ष में लिखा- ‘वह स्थान जो मुस्लिम विज्ञान का केन्द्र और विद्वानों का गढ़ी रहा हो, जो भारत का सिराज रहा हो, उसके लिए बहुत कुछ करना चाहिए।‘ उन्होंने इसके उत्थान के लिए अनेक सुझाव दिये और यहां के मुक्ती करीम उल्लाह को प्रथम जज के रूप में नियुक्त किया गया। उनकों 450 रूपये प्रतिमास का वेतन और रहने के लिए चहल खातून पैलेस दिया गया। प्रशासन की देखरेख और मजिस्ट्रेट के कार्य भी इन्हें पर सौंपे गए।
डंकन द्वारा कृषि उत्पादन को भी प्रोत्साहित किया गया और बंजर भूमि को भी खेती के योग्य बनाने का निर्देश दिया और ऐसी नई जोत पर तीन साल के लिए मालगुजारी माफ थी। इस प्रकार जौनपुर एक व्यवस्थित तथा शान्त शहर बन गया। यह शान्ति और व्यवस्था सन् 1857 के विद्रोह तक बनी रही, इससे पहले शान्ति ऊपर – ऊपर ही थी, क्योंकि लोगों के भीतर ही भीतर विद्रोह की आग सुलग रही थी, जो अंतः 1857 में अकस्मात ज्वाला के रूप में भभक उठी।
संदर्भ :-
1. पुस्तक का संदर्भ: शरतेन्दु, डॉ. सत्य नारायण दुबे जौनपुर का गौरवशाली इतिहास(2013) शारदा पुस्तक भवन इलाहाबाद
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