मध्यकालीन जैन धर्म के अनुयायी के आर्थिक जीवन के संबंध में भारतीय और यूरोपीय भाषा सूत्रों से जानकारी प्राप्त की जा सकती है, जिनके व्यापार का उल्लेख यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों के दस्तावेजों में मिलता है, जिनमें जैन व्यापारियों के साथ उनके व्यवहार का वर्णन किया गया है। इन दस्तावेजों में जैन व्यापारियों की तुलनात्मक स्थिति पर उनके व्यापार संपर्कों की सीमा, उनकी वस्तु विविधता, तरल पूंजी पर उनका नियंत्रण, बैंकिंग कार्यों में उनकी भागीदारी आदि के बारे में जानकारी की चर्चा की गयी है या कहें इनके दस्तावेजों में जैनियों की आर्थिक गतिविधियों और भारत में उनके व्यापार के विस्तार की चर्चा की गयी है। जैनियों को व्यापार में हुए मुनाफे ने बैंकरों, साहूकारों के रूप में कार्य करने में सक्षम बनाया। सभी जैन व्यापारी ने छोटे व्यापारियों के रूप में कार्य किया तथा अपनी व्यवसायिक यात्रा के दौरान कई उतार चढ़ाव देखे और अपने आत्मबल के कारण इसमें कामयाब रहे। कुछ जैनियों ने सरकारी नौकरी भी की, विशेषकर राजस्व विभाग में, जहाँ साक्षरता और लेखांकन का ज्ञान आवश्यक होता था। जैन प्राचीन काल से प्रसिद्ध व्यापारी रहे हैं। मध्यकाल में भी व्यापारियों के रूप में कार्यरत रहे। जग्दु नामक व्यापारी गुजरात में तेरहवीं शताब्दी का सबसे प्रसिद्ध जैन व्यापारी था। जैन राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर व्यापार करते थे।
अंग्रेजी और डच ईस्ट इंडिया कंपनियों के दस्तावेजों से हमें अखिल भारतीय व्यापार सभा के विषय में पता चला जिसे सूरत के जैन व्यापारी वीरजी वोरा द्वारा संचालित किया जाता था, सत्रहवीं शताब्दी में यह भारत के सबसे बड़े व्यापारी थे। 1660 के दशक में भारत आने वाले फ्रांसीसी यात्री थेवेनोट ने सूरत में विरजी वोरा से दोस्ती की। 1664 में सूरत पर शिवाजी के हमले के परिणामस्वरूप वीरजी वोरा को मौद्रिक हानि का समना करना पड़ा। वीरजी वोरा की हिदायत हमें पूंजी पर विचार करने तथा भारी नुकसान झेलने के लिए सक्षम बनाती है। आमतौर पर विरजी वोरा कपास, अफीम, मसाले, हाथी दांत, मूंगा, सीसा, चांदी और सोने जैसी विभिन्न वस्तुओं की खरीद या बिक्री करते थे। वह थोक में भारतीय वस्तुओं की खरीद करने में भी सक्षम थे और वे इन सामानों के लिए यूरोपीय कंपनियों की मांगों को पूरा करने की क्षमता रखते थे। 1625 में अंग्रेजों को उनसे 10,000 रुपये की काली मिर्च खरीदनी पड़ी क्योंकि वे ही अंग्रेजों की आवश्यकता की मात्रा की आपूर्ति कर सकते थे। जब अतिरिक्त मात्रा में काली मिर्च सूरत पहुंची, तो अंग्रेजों ने इसे खरीदने की कोशिश की, लेकिन वीरजी वोरा ने अंग्रेजों को ज्यादा दाम बोले और पूरा स्टॉक(Stock) सुरक्षित कर लिया। अंग्रेजों ने विरजी वोरा की एकाधिकारवादी प्रवृत्ति से बचने की कोशिश की और अपने एजेंटों को मिर्च खरीदने के लिए दक्षिण भेज दिया। वोरा ने अपने व्यक्तियों को अंग्रेजों को उच्च दाम पर सामाग्री देने के लिए मना लिया। अंततः अंग्रजों को इनसे ही सामान खरीदना पड़ा। वीरजी वोरा का मालाबार मिर्च पर एकाधिकार बन गया था। यह इनके प्रभूत्व को दर्शाता है।
भारत की अधिकांश व्यापारिक मंडियों पर इनका नियंत्रण था। उत्तरी मालाबार और कोरोमंडल तटों आदि पर व्यापारिक केंद्रों में ब्रोच, बड़ौदा, अहमदाबाद, आगरा, बुरहानपुर, गोलकुंडा तक इनकी पहुंच थी। उन्होंने अरब प्रायद्वीप, इराक, ईरान, जावा आदि के व्यापार दल में अपने लोगों को रखा था। इन्होंने माल भेजने या लाने के लिए यूरोपीय शिपिंग का उपयोग किया। एजेंटों की इस तरह की स्थिति ने इन्हें उत्पादन स्रोतों से बहुत सस्ती कीमतों पर वस्तुओं को खरीदने के लिए सक्षम बनाया और इसलिए, इस प्रकार की वस्तुओं के मूल्य निर्धारण में वीरजी वोरा दूसरों को पछाड़ सकते थे। उनकी संपत्ति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1664 में शिवाजी ने सूरत पर आक्रमण कर इनकी संपत्ति का बहुत बड़ा हिस्सा लूट लिया। इसके बाद भी इन्होंने जल्दी स्वयं को संभाला और एक बार फिर सूरत के प्रमुख व्यापारी के रूप में कार्य करने लगे।
इन्होंने यूरोपीयों को बड़ी मात्रा में लोन भी दिये, 1635 में 20,000 रुपये, 1636 में 30,000 रुपये जैसी छोटी रकम के अलावा, उन्होंने 1636 में 2 लाख रुपये और अहमदाबाद में 1642 में 1 लाख रुपये जैसे भारी रकम उधार दी। वीरजी वोरा न केवल सूरत में, बल्कि अधिकांश महत्वपूर्ण वाणिज्यिक केंद्रों में भी पैसे उधार देने में सक्षम थे, जहां यूरोपीय लोग काम कर रहे थे। बेशक, वे अपने द्वारा दिये गये ऋणों के लिए भारी मात्रा में ब्याज लिया करते थे। अंग्रेजों को ना चाहते हुए भी ब्याज भूगतान करना पड़ता था। संक्षेप में, वीरजी वोरा, जब तक सक्रिय थे, सूरत में सबसे महत्वपूर्ण व्यापारी बने रहे; यह उनके समकालीनों द्वारा स्वीकार किया गया था।
जैन व्यापारियों की सूची में एक ओर प्रसिद्ध गहनों के व्यापारी थे शांतिदास। हीरे प्राप्त करने के लिए वे बीजापुर, हीरे के खनन और व्यापार के केंद्र में जाते थे। चूंकि मुगल शासक गहनों के शौकीन थे, वे प्रमुख जौहरी के संपर्क में रहते थे। यह एक महत्वपूर्ण कारण था कि शाहजहाँ शान्तिदास को मामा या चाचा कहकर संबोधित करते थे। जहाँगीर ने उन्हें अपना जौहरी नियुक्त किया था और उनसे यह अपेक्षा की गई थी कि वे बादशाह को उपहार और भेंट में हर तरह के आभूषण दें। उन्होंने नूरजहाँ के भाई और सम्राट शाहजहाँ के ससुर आसफ खान को गहने बेचे। राजकुमार दारा शिकोह ने भी उनसे गहने खरीदे।
आगे चलकर एक ओर प्रसिद्ध जैन व्यापारी आये खरगसेन इनके पिता मूलदास एक सरकारी अधिकारी थे, जिन्होंने मुगल अधिकारी को दी गई नरवर की जागीर में सेवा की थी। यह बताया गया है कि आय के संग्रह के साथ-साथ, वे लोगों को ऋण भी देते थे और उनसे अतिरिक्त धन अर्जित करते थे। नरवर (ग्वालियर के पास) में मूलदास की मृत्यु के बाद, उनका बेटा खड़गसेन (बनारसीदास का पिता) अपनी माँ के साथ उस जगह को छोड़कर जौनपुर आ गए, जहाँ बादशाह का भाई मदन सिंह कीमती पत्थरों का जौहरी था। कीमती पत्थरों का व्यापार जैनियों का एक महत्वपूर्ण पेशा था। खड़गसेन बड़े होते ही 1569 में आगरा चले गए और वहॉ रिश्तेदारों के साथ मिलकर, मुद्रा परीक्षण (विभिन्न किस्मों के सिक्कों का आदान-प्रदान) का व्यवसाय शुरू किया, जो मध्यकाल में बहुत लोकप्रिय व्यपार था। कुछ समय बाद वह जौनपुर वापस आ गए और रामदास अग्रवाल के साथ साझेदारी मेँ मुद्रा परीक्षण का व्यवसाय करने लगे, और साथ ही दुसरी ओर मोती और कीमती पत्थर भी बेचते थे। चूंकि स्थानीय गवर्नर कुलीच खान द्वारा जोहरियों पर अत्याचार किया जाने लगा था, तो खड़गसेन और अन्य जौहारी जौनपुर से भाग गए। खड़गसेन ने अपने परिवार को अपने बेटे बनारसीदास के साथ शाजादपुर गाँव में छोड़ दिया और स्वयं इलाहाबाद में कुछ कमाने के लिए चले गए।
बनारसीदार जिन्होंने पिता की अनुपस्थिति में, कौड़ी-कौड़ी बेचकर कुछ पैसे कमाने की कोशिश की। यह व्यवसाय उनकी पहली सफलता थी, जिसमें इन्हें अच्छा लाभ मिला। बनारसीदास के पिता ने अपने बेटे को व्यवसाय की कला में प्रशिक्षित करने का निर्णय लिया। वह उसे अपने साथ इलाहाबाद ले गए, उसे अपने अध्ययन के तहत रखा और सूदखोरी और प्याऊ की वस्तुओं के पेशे से बनारसीदास को परिचित कराया। आम तौर पर, पारिवारिक व्यवसाय में भाग लेकर और व्यावहारिक अनुभव प्राप्त करके, जैनियों के व्यवसाय की कला सीखी। 1610 में खड़गसेन को विश्वास हो गया कि उसका बेटा स्वतंत्र रूप से व्यवसाय करने में सक्षम है। उन्होंने उसे व्यापार में मौका देने का फैसला किया, और उन्होंने उसे कुछ गहने, कुछ रत्न, बीस घी के घड़े, दो बैरल तेल और कुछ स्थानीय स्तर पर निर्मित वस्त्र जिनमें (सभी की कीमत केवल दो सौ रुपये थी।) दे दिये। इस राशि का एक हिस्सा उधार लिया गया था। उन्होंने कागज के एक टुकड़े पर कीमतें लिखीं और उन्हें आगरा जाने के लिए कहा। उन्होंने आगरा जाकर व्यापार शुरू कर दिया, और यहीं से इनका व्यापार आगे बढ़ा।
संदर्भ :
1. http://jainworld.com/literature/jainhistory/chapter14.asp
© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.