सर्दियां आते ही बाजारों में गर्म कपड़ो की भरमार हो जाती है। हालांकि भारत में ऊनी वस्त्र उद्योग, सूती और मानव निर्मित रेशा (fiber) पर आधारित वस्त्र उद्योग की तुलना में अपेक्षाकृत छोटा है, परंतु ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बड़े उत्पादन-संबंधी उद्योगों से जोड़ने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 65.07 करोड़ (दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी भेड़ जनसंख्या) भेड़ें पाली जाती है, जिनसे हमें 2017-18 में 4.35 करोड़ किलोग्राम कच्चे ऊन का उत्पादन प्राप्त हुआ था।
इसमें से 85% ऊन का उपयोग कार्पेट बनाने में, 5% परिधान बनाने में हो जाता है और शेष 10% ऊन का उपयोग कंबल आदि बनाने में किया जाता है। भारत में ऊन के विशिष्ट फाइबर की गुणवत्ता की छोटी मात्रा पश्मीना बकरी और अंगोरा खरगोश से प्राप्त की जाती है। परंतु फिर भी हमारे देश का घरेलू उत्पादन पर्याप्त नहीं है, इसलिए यह उद्योग आयातित कच्चे माल पर निर्भर है और ऊन एकमात्र प्राकृतिक फाइबर है जिसकी हमारे देश में कमी है। देश में ऊनी उद्योग का आकार 11484.82 करोड़ रूपए का है और मुख्य रूप से यह संगठित और विकेंद्रीकृत क्षेत्रों के मध्य विभाजित और फैला हुआ है। फिलहाल यह उद्योग फार्मिंग सेक्टर (farming sector) से संबंधित 20 लाख लोगों के अतिरिक्त लगभग 12 लाख लोगों को रोजगार प्रदान कर रहा है। इसके अतिरिक्त कालीन क्षेत्र में 3.2 लाख बुनकर कार्यरत हैं।
ऊन उत्पादन और खपत
भारत में कुल ऊन उत्पादन, ऊनी उद्योग की कुल आवश्यकता को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है। भारतीय ऊन की अधिकांश मात्रा मोटी गुणवत्ता की है और अधिकांशतः इसका उपयोग हस्तनिर्मित कालीन उद्योग के लिए किया जाता है, और ऊन की उत्तम गुणवत्ता का स्वदेशी उत्पादन बहुत सीमित है। इसलिए भारत अधिकांशतः विशिष्ट रूप से आयात पर निर्भर है। कृषि मंत्रालय, पशुपालन विभाग के अनुसार स्वदेशी ऊन का उत्पादन निम्नवत है:
प्रमुख ऊन उत्पादन राज्य-
प्रसंस्करण
ऊनी उद्योग अपर्याप्त और पुरानी प्रसंस्करण सुविधाओं से नुकसान उठा रहा है। गुणवत्तायुक्त तैयार उत्पाद सुनिश्चित करने के लिए करघा पूर्व और करघा पश्चात सुविधाओं को आधुनिक किया जाना अपेक्षित है। ऊनी उद्योग के समग्र आकार और प्रसंस्करण के लिए अपेक्षित विशिष्ट प्रकृति के उपकरणों के कारण यह उद्योग स्थानीय सोतों से कुछेक मानार्थ उपकरणों को छोड़कर आयातित संयंत्र और मशीनरी (machinery) पर आश्रित है। कच्ची ऊन के रेशे से लेकर फैब्रिक, इसके बाद निटिंग और गारर्मेंटिंग के प्रसंस्करण के लिए अपेक्षित मशीनरी अधिकांशतः यूरोपीय देशों, अमेरिका और जापान से आयातित की जाती है।
आयात
देश में ऊन का उत्पादन ऊनी उद्योग विशेष रूप से परिधान क्षेत्र की मांग को पूरा करने के लिए अपर्याप्त है और अधिकांशतः इसका आयात आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और कई दूसरे देशों से किया जा रहा है। भारतीय ऊनी उद्योग के विभिन्न सेगमेंटों की वर्तमान आवश्यकता आगे बढ़ने की संभावना है क्योंकि ऊनी मदों की घरेलू और निर्यात मांग बढ़ी है। हाल के वर्षों में उत्तम गुणवत्ता की ऊन का आयात से निम्न गुणवत्ता की ऊन में बदलाव हुआ है। यह बदलाव अमरीका और दूसरे पश्चिमी बाजारों में हाथ से बनाई कालीनों के लिए उपभोक्ता वरीयता के कारण है।
आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और कई दूसरे देशों से कच्ची ऊन का आयात निम्नलिखित है:
प्रमुख देशों से कच्ची ऊन आयात
ऊनी उद्योग द्वारा अपेक्षित कच्ची सामग्री अर्थात कच्चे ऊन और ऊनी/सिंथेटिक रेग्स का आयात ओपन सामान्य लाइसेंस (Open General License) के अंतर्गत होता है।
निर्यात
भारत विभिन्न ऊनी उत्पाद जैसे टॉप्स, यार्न, फैब्रिक, सिले-सिलाए परिधान और कालीन का निर्यात करता है। कुल निर्यात में अधिकतम हिस्सेदारी कालीन की होती है। 12वीं योजना अवधि के दौरान विभिन्न कारकों के कारण वृदधि में बाधा उत्पन्न हुई थी। हालांकि निर्यात वृदधि में अच्छे अवसर हैं। प्राथमिक क्षेत्र जो वस्त्र, बुने हुए कपड़े, निटवेअर (knitwears) और कालीन की निर्यात वृदधि में संभावना दे सकते हैं। वृदधि दर को बनाए रखने के लिए सुधार संबंधी कार्रवाई तत्काल की जानी चाहिए जो प्रमुख बाजारों में बेहतर पहुंच के लिए संयुक्त उद्यमों के माध्यम से निर्यात आउटलुक को सुदृढ़ करने के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आकर्षित भी कर सकता है।
डी.जी.सी.आई.एंड.एस (DGCI&S), कोलकाता के अनुसार निर्यात का मद-वार विवरण निम्नलिखित है:
ऊनी क्षेत्र द्वारा सामना की गई बाध्यताएं
(i) कच्ची ऊन का उत्पादनः
• ऊनी क्षेत्र के विकास में राज्य सरकारों की कम प्राथमिकता।
• जागरूकता की कमी, परंपरागत प्रबंधन प्रक्रियाएं और शिक्षा का अभाव
• ऊन उत्पादको की खराब आर्थिक स्थितियां।
• भेड़ - पालकों को उनके उत्पादों जैसे कच्ची ऊन की बिक्री, जीवित भेड़, खाद, दूध, मांस, चमड़ा का कम लाभ।
• भेड़ प्रबंधन, भेड़ की मशीन से बाल उतराई, कच्ची ऊन की धुलाई एवं ग्रेडिंग आदि की आधुनिक पद्धतियों को अपनाने के लिए प्रेरणा का अभाव।
(ii) कच्ची ऊन का विपणन
• अपर्याप्त बाजार सुविधाएं और अवसंरचना।
• ऊन उत्पादन करने वाले राज्यों में राज्य ऊन विपणन संगठनों की अप्रभावी भूमिका।
• पारिश्रमिक लाभ सुनिश्चित करने के लिए संगठित विपणन का अभाव और न्यूनतम सहायता मूल्य प्रणाली।
• ऊन उत्पादकों द्वारा ऊन की बिक्री से प्राप्त न्यूनतम आय।
(iii) ऊन का प्रसंस्करण
• अच्छी गुणवत्ता वाली कच्ची ऊन की अपर्याप्त मात्रा।
• पुरानी और अपर्याप्त करघा पूर्व एवं करघा पश्च प्रसंस्करण सुविधाएं।
• ऊन संभावित क्षेत्रों में अपर्याप्त रंगाई की सुविधाएं।
• ऊनी हथकरघा उत्पादों की डिजाइनिंग (designing) एवं विविधीकरण की आवश्यकता।
(iv) शिक्षा, अनुसंधान एवं विकास, मानव संसाधन विकास
• ऊन प्रौद्योगिकी के लिए कोई शिक्षण संस्थान नहीं है जिसके कारण ऊन क्षेत्र में विशेषज्ञता की कमी है।
• अन्य फाइबरों के साथ कच्ची ऊन के मिश्रण तथा ऊनी उत्पादों के विविधीकरण पर आरएंडडी (R&D) कार्य की आवश्यकता।
• दक्षिणी क्षेत्र में उत्पादित डेक्कनी ऊन के मूल्य की वृधि के लिए आरएंडडी कार्य का अभाव।
संदर्भ:
1.http://ministryoftextiles.gov.in/sites/default/files/Textiles_Sector_WoolandWoollen_1.pdf
© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.