आज संतान को देखते ही अनुमान लगा लिया जाता है कि यह अपने पिता के समान है या माता के समान है। कुछ-कुछ तो ऐसे होते हैं जो अपने दादा-दादी के समान होते हैं। किंतु ऐसा कैसे संभव होता है? एक समय में यह एक बहुत बड़ा प्रश्न था, जिसकी पुष्टि अनुवांशिकी के पिता ग्रेगर जॉन मेंडल द्वारा मटर के पौधे में लम्बे समय तक अध्ययन के बाद की गयी। जिसके पश्चात इनके द्वारा अनुवांशिकी के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया गया।
जर्मनी के सामान्य से कृषक परिवार में जन्मे जॉन मेंडल को बचपन से ही पेड़ पौधों में रूचि थी, उन्हें एक प्रश्न हमेशा परेशान करता था कि समान बीज के पौधे तथा फूल इत्यादि भिन्न-भिन्न कैसे हो जाते हैं। किंतु उस समय तक उनके पास इसका कोई जवाब नहीं होता था। बचपन का यह प्रश्न वे मन में ही रखकर 21 वर्ष की अवस्था में एक मठ में प्रविष्ट हुए। जहां से इन्हें ग्रेगर की उपाधि प्राप्त हुयी। इनका विज्ञान के प्रति रूझान देखते हुए मठ ने इन्हें दो वर्ष तक भौतिकी के अध्ययन के लिए विश्व विद्यालय भेज दिया।
वहां से लौटने के बाद इन्हें भौतिकी की देखरेख का कार्य सौंपा गया। किंतु जब इन्होंने यहां की मटर को देखा तो इनके मन में वही प्रश्न पुनः जागृत हो गया क्योंकि यहां की मटर चिकनी थी जबकि इनके पिता के खेत में उगने वाली मटर खुरदुरी थी। इसके पश्चात इन्होंने इसका अध्ययन करने का निर्णय लिया। इन्होंने 1856 से 1863 के मध्य लगभग 10,000 मटर के पौधों में अध्ययन किया। लम्बे समय की सतर्कता और गहनता से अध्ययन के बाद इन्हें ज्ञात हुआ कि पौधों की अनुवांशिकता स्थिर और अपरिवर्तनशील नियम के अनुसार कार्य करती है। इसके पश्चात इनके द्वारा तीन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया:
प्रभाविता का सिद्धान्त:
जब दो विषम युग्मों का एक साथ संकरण किया जाता है, तो उनमें से एक गुण प्रभावी होता है तथा दूसरा अप्रभावी। जिस कारण नया पौधा प्रभावी गुण वाले पौधे के समान होता है।
उदाहरण:
इसके लिए इन्होंने एक ऊंचे नर पौधे (TT) के पुष्प से पराग कण को लेकर छोटे मादा पौधे (tt) के पुष्प से मिलाया। इससे उत्पन्न बीज के पौधे नर पौधे के समान ही ऊंचे हुए। जिससे इन्होंने ऊंचेपन को प्रभावी लक्षण बताया किंतु जब इन ऊंचे पौधों के बीज को पुनः उगाया गया तो सभी पौधे ऊंचे नहीं थे अर्थात प्रत्येक चौथा पौधा छोटा था। जिसमें प्रथम छोटी मादा पौधे के लक्षण प्रभावी हुए। इस प्रकार इन्होंने छोटेपन को अप्रभावी लक्षण बताया।
द्विसंकरण का सिद्धान्त:
दो विषम युग्मों के गुणों को ध्यान में रखकर उनका संकरण कराया जाता है, जिसे द्विसंकरण कहते हैं।
उदाहरण:
इन्होंने दो भिन्न रंगों (हरा, पीला) वाले बीज के पौधों के मध्य संकरण कराया। जिसमें उत्पन्न पौधे पीले हुए। अगली पीढ़ी में भी 75% पीले तथा 25% हरे उत्पन्न हुए। जिससे पीला प्रभावी लक्षण निर्धारित किया गया।
पृथक्करण का नियम:
संकरण में दो लक्षण एक साथ आते हैं किंतु एक दूसरे से स्वतंत्र होते हैं। इस कारण गुणसूत्रों के अर्धसूत्रीविभाजन के दौरान युग्मक एक ही एलील (Allele) को प्राप्त करता है। इसलिए इसे युग्मकों की शुद्धता अथवा वियोजन का नियम भी कहा जाता है।
इस प्रकार मेंडल ने एक पादरी और वैज्ञानिक का जीवन व्यतीत करते हुए, मानव जगत को एक अतुल्नीय उपहार दे दिया। इनके जीवनकाल के दौरान इन्हें वह स्थान तो प्राप्त नहीं हुआ किंतु इनके मरणोपरांत जब इनके इस शोध पर गहनता से अध्ययन किया गया तो ज्ञात हुआ कि यही सिद्धान्त मानव के वंशानुक्रम पर भी कार्य करता है।
संदर्भ:
1.http://www.dnaftb.org/1/bio.html
2.https://www.toppr.com/guides/biology/principles-of-inheritance-and-variations/laws-of-inheritance/
3.https://goo.gl/3BHBi1
4.https://goo.gl/URhPhc
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