भारत एक लम्बे समय तक अंग्रेजों के अधीन रहा, और उनसे आज़ादी पाने के लिए कई क्रांतिकारियों को अपनी जान तक की कीमत चुकानी पड़ी। स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए कई क्रांतियां की गईं, जिनमें महात्मा गाँधी के नेतृत्व में हुआ “भारत छोड़ो आंदोलन” भी शामिल है।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब भारत में वायसराय लॉर्ड (Viceroy Lord) लिनलिथगाओ ने किसी से परामर्श किए बिना घोषणा की, कि भारतवासी ग्रेट ब्रिटेन और उसके सहयोगियों का पूरा समर्थन करेंगे, तो इस घोषणा ने सारे भारतवासियों को हिलाकर रख दिया। हालांकि, कांग्रेस को नाजी के आक्रमण से पीड़ितों के प्रति सहानुभूति थी, परंतु वे इस फैसले के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं थे। साथ ही बिना भारतवासियों की सहमति से लिए गये इस फैसले ने भारतियों के मन में विरोध की चिंगारी को उत्पन्न कर दिया।
8 अगस्त, 1942 में गांधी जी द्वारा शुरू किये गए और सरदार वल्लभाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू द्वारा नेतृत्व किए गए इस आंदोलन ने देश को स्वतंत्रता की ओर कदम बढ़ाने में मदद की। वहीं दूसरी ओर इसका असर लोगों के दिलों पर इस तरह पड़ा कि वे एकजुट होकर देश की स्वतंत्रता में आगे आए। ब्रिटिश सरकार द्वारा आंदोलन को रोकने के लिए अगले ही दिन, गांधी, नेहरू, पटेल और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कई अन्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। नेताओं की गिरफ्तारी ने लोगों में आक्रोश की भावना को उत्पन्न कर दिया और साथ ही बनारस, इलाहाबाद, मेरठ, जौनपुर, मिर्जापुर और नैनीताल जैसे प्रांत के लगभग सभी हिस्सों में नेताओं की गिरफ्तारी के लिए सरकार के विरोध में कई बड़ी बैठकें हुईं।
9 अगस्त को, छात्रों द्वारा कई सरकारी भवनों और ब्रिटिशों पर हमला किया गया। इस तरह भारत छोड़ो आंदोलन की चिंगारी समूचे देश में फैल गई। जौनपुर में इस चिंगारी का असर 10 अगस्त 1942 में शुरू हुआ। वहीं 11 अगस्त 1942 में कांग्रेस के कई नेताओं, छात्रों, युवाओं और दुकानदारों द्वारा दोपहर में एक जुलूस निकाला गया जिससे एक बड़ी भीड़ ने कलेक्टरेट परिसर में प्रवेश किया और तिरंगे को फहराने की कोशिश की, लेकिन तभी भीड़ को हटाने के लिए पुलिस द्वारा गोलीबारी शुरू कर दी गई। जिले के विभिन्न हिस्सों में लोगों द्वारा विभिन्न तरीके से अपना गुस्सा व्यक्त किया गया, जैसे सुजानगंज के थाने को जला दिया गया और शाहगंज, सराय ख्वाजा, जलालगंज की टेलीफोन लाइनों को तोड़ दिया गया तथा मड़ियाहूं, बिलावाई, बादशापुर और दोभी के रेलवे स्टेशनों को भी क्षतिग्रस्त कर दिया गया। और कई जगहों पर सड़कों को भी काफी नुकसान पहुंचाया गया।
16 अगस्त, 1942 को क्रांतिकारियों द्वारा धनियामऊ के पुल को ध्वस्त किये जाने पर पुलिस और क्रांतिकारियों के बीच द्वंद्व हुआ, जिसके दौरान सिंगरामऊ के छात्र जमींदार सिंह, राम आधार सिंह, राम पदरथ चौहान और राम निहोर काहर पुलिस की गोलियों के पीड़ित बन गए। धनियामऊ में हर साल 16 अगस्त को इस स्थान पर बनाए गये शहीद स्मारक पर उनकी याद में शहीदी मेले का आयोजन किया जाता है। मछलीशहर और उचौरा में गोलाबारी की वजह से 11 लोग मारे गए और 17 लोग घायल हुए थे। हरगोविंद सिंह, दीप नारायण वर्मा, मुजतबा हुसैन और अन्य प्रभावशाली नेताओं और उनके साथ 196 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस द्वारा रामानंद और रघुराई की बर्बरता से पिटाई की गयी और 23 अगस्त, 1942 को उन्हें अगरौरा गांव में एक पेड़ पर लटकाया गया और गोली मार कर उनकी जान ले ली। उनके शव को वहाँ तीन दिनों तक लटके रहने दिया गया था।
अतः इस सब से हमें समझ आता है कि आज़ादी की लड़ाई कोई बच्चों का खेल नहीं थी बल्कि कई वीरों का खून बहने के बाद हमारा देश आज़ाद हुआ है। हम यह तो नहीं कह सकते कि हमें भी उन वीरों की तरह आज के समय में भी आज़ादी के लिए जंग लड़नी चाहिए, क्योंकि इसके लिए वे पहले ही सब कुछ कर गए। परन्तु आज हमारा इतना कर्त्तव्य ज़रूर बनता है कि इन वीरों के बलिदान को हम आपसी तुच्छ लड़ाइयों में उलझकर बेकार न जाने दें और सदा इसके लिए शुक्रगुज़ार रहें।
संदर्भ:
1.http://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/115834/6/06_chapter%202.pdf
2.http://sardarpatel.nvli.in/satyagraha-freedom
3.https://www.jaunpurcity.in/2012/05/freedom-fighters-of-jaunpur.html
4.https://www.amarujala.com/uttar-pradesh/jaunpur/15339262811616-1942-jaunpur-news
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