अद्भुत इतिहास से भरे हमारे इस देश भारत में आज भी जौनपुर के रोचक इतिहास के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। 1359 में सुल्तान फिरोज़ शाह जब जौनपुर आये तो शहर का निरीक्षण करते वक्त वे यहां के दृश्य को देख काफी आकर्षित हुए और उन्होंने नए शहर के निर्माण का फैसला किया। जिसका नाम उन्होंने अपने चचेरे भाई मलिक जुना खान (सुल्तान मुहम्मद शाह बिन तुघलक) के नाम पर जुनापुर रखा, जिसे आज हम जौनपुर के नाम से जानते हैं। कुछ सालों में ही जौनपुर शहर तुगलक साम्राज्य का एक अभिन्न हिस्सा बन गया।
जौनपुर ने समय के साथ-साथ कई उतार चढ़ाव देखे, जिनमें से कुछ थे, सिकंदर लोदी द्वारा की गयी तबाही और जौनपुर में 1871 में आयी विशाल बाढ़ (12 सितंबर) और भूकंप (26 सितंबर), जिन्होंने पूरे शहर को बहुत गंभीरता से प्रभावित किया और उसकी इमारतों को भी काफी क्षतिग्रस्त कर दिया। 19वीं शताब्दी के अंत तक जौनपुर काफी हद तक अपनी ऐतिहासिक भव्यता को खो चुका था। लेकिन आज भी कई ऐसी इमारतें और मूर्तियां हैं जो जौनपुर के खूबसूरत इतिहास को दर्शाती हैं। जौनपुर के शाही पुल के पास स्थित एक पुरानी और अद्भुत शेर और हाथी की मूर्ति, प्राचीन भारत के गजसिंह का रूपांतर है।
गजसिंह दक्षिण पूर्व एशिया का एक पौराणिक काल्पनिक पशु है। अधिकांश गजसिंह की मूर्तियों में शेर के शरीर से एक हाथी का सर जोड़ा हुआ होता है। हालांकि हमारे जौनपुर में इसका एक अलग स्वरुप देखने को मिलता है जहाँ शेर और हाथी दोनों अलग हैं। परन्तु ख़ास बात यह है कि यदि इनके आकार को देखा जाए तो ये काफी अवास्तविक लगते हैं क्योंकि हाथी का आकार शेर से काफी छोटा दिखाया गया है।
गजसिंह को प्रचीन काल में कंबोडिया में शस्त्रों को पकड़े हुए दर्शाया गया है। हाथी हमेशा से ही वृहदाकार, नुकीले दांत और शक्तिशाली सूंड से काफी शक्तिशाली माने जाते हैं। वहीं दूसरी तरफ एक और ऐसा जीव है जिसके बारे में सोचते ही भय से हमरी रूह काँप उठती है। वह जीव है शेर, जो हाथी पर हमला करने वाला एकमात्र साहसी जानवर है। इसलिए कई प्राचीन मूर्तियों में शेर और हाथी (संभवतः हाथी का छोटा बच्चा) की लड़ाई दिखाई गयी है, जिसमें शेर को विजय प्राप्त करते हुए दर्शाया गया है। गजसिंह उपमहाद्वीप में धार्मिक वास्तुकला और कला के रूप में सजावट के लिए प्रसिद्ध थे। कई वास्तुकला में शेर को कुछ काल्पनिक (शेर में सींग और छोटी आंखों के साथ) बनाया गया और हाथी में कोई बदलाव नहीं किए गये थे।
एलोरा गुफा के कैलाशनाथ मंदिर में भी हाथी और शेर की लड़ाई की वस्तुकला का प्रयोग वैकल्पिक तत्व के रूप में किया गया है। उसमें दोनों जानवरों को उनके वास्तविक रूप में दर्शाया गया है, और दोनों जानवरों के पैर मूर्तितल पर रखे हुए हैं। वहीं एक दृश्य में शेर को हाथी की सूंड काटते हुए दिखाया है, चूंकि हाथी की सूंड बड़ी नाज़ुक होती है, तो शेर आमतौर पर उसे जल्दी घायल करने के लिए वहीं हमला करता है। हाथी और शेर की लड़ाई की वस्तुकला का दूसरा उदाहरण कोर्णाक, उड़ीसा में स्थित दो विचित्र स्वतंत्र खड़ी मूर्तियां है।
शेर में किए गये इन रूपांतर को ‘याली’ या ‘व्याला’ भी कहा जाता है। इसमें कई बार शेर, हाथी और अन्य किसी जानवर के शरीर के कुछ हिस्सों को एक साथ जोड़कर चित्रित किया जाता था। इस प्रकार की वास्तुकला आमतौर पर दक्षिण भारत के मंदिरों में देखने को मिलती है। इन वास्तुकलाओं को बनाने के पीछे भी एक विशेष कारण था। दरसल ये वस्तुकला मंदिर में प्रवेश और बाहर निकलने का रास्ता बताती है। हाथी की सूंड की दिशा प्रवेश का मार्ग दर्शाती है, वहीं सर्प के समान पूँछ बाहर निकलने के मार्ग के बारे में बताती है।
वास्तव में यदि इन छोटी छोटी चीज़ों पर गौर किया जाए, तो यह ज्ञात होता है कि इन प्राचीन वास्तुकलाओं में कोई भी कार्य बिना सोचे समझे नहीं किया जाता था तथा हर चीज़ अपने आप में किसी न किसी बात का प्रतीक होती थी।
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