जौनपुर का इतिहास बहुत ही स्वर्णिम रहा है, इसको शिराज-ए-हिंद के खिताब से भी नवाजा गया था। आइए जानते हैं आखिर क्यों कहा जाता है जौनपुर को शिराज-ए-हिंद।
शरकी शासनकाल के दौरान जौनपुर शरकियों की राजधानी बन गयी थी। उन्होंने किले के भीतर और शहर चारों ओर सैकड़ों मस्जिदों और मदरसों का निर्माण किया। और इनमें दुनिया के विभिन्न हिस्सों से विद्वान पुरुषों और भक्तों को बुलाया गया। साथ ही शहर के राजा और राज्यपाल द्वारा शिक्षकों को उपनिवेश और पदकों से नवाजा गया, ताकि शिक्षक निश्चिंत रूप से छात्रों का पठन पाठन करा सकेे।
मुहम्मद शाह के समय में जौनपुर के गवर्नरों को विद्वानों और भक्तों का सम्मान करने के लिए हमेशा आदेश जारी किए जाते थे। साथ ही स्थानीय राजकोश के मुखिया को मदरसों की रक्षा करने के लिए नियुक्त किया गया था। राजाओं द्वारा लेखकों को मदरसों की स्थिती और शिक्षकों के वेतन की जांच करने और उसमें एक रिपोर्ट तैयार करने के लिए बुलाया जाता था। वहीं राजाओं को खुश रखने के लिए मदरसों और मठ में आने वाले राजकुमारों और रईसों का बड़े उपहार देकर सम्मान किया जाता था।
मुहम्मद शाह के बाद अवध प्रांत, बनारस और जौनपुर सरकार को नवाब बुरहान-उल-मुल्क सादत खान की देखभाल के लिए सौंप दिया गया था। जब नवाब जौनपुर आए तो सभी उनके दरबार में पहुंचे, चुंकि धार्मिक विद्वान और शिक्षकों का राज दरबार में उपस्थित होना अनिवार्य नहीं था, इसलिए उनमें से कोई भी दरबार नहीं गया। संयोग से एक दिन नवाब खुद ही उस समय के सम्मानित प्रसिद्ध पुरूषों के नेता से मिलने चले गए।
एक दिन राजा हुमायूं और शाह ताहमास (फारस के सम्राट) की पहली मुलाकात मे जब शाह ताहमास ने हुमायूं से जौनपुर की जनसंख्या और प्रसिद्ध पुरुषों का मूल्यांकन करने को कहा, तब हुमायूं ने जौनपुर के राज्य के अधिकारियों को मदरसों की खोज करने को कहा और वहाँ के शिक्षित व्यक्तियों का सम्मान करने का आदेश दिया। और इसफान में भी मदरसे और मठ बनवाए, साथ ही शिक्षित और विद्वान लोगों को बच्चों को शिक्षा प्रदान करने के लिए बुलाया गया। इसके कई सालों बाद, शाहजहां द्वारा जब जौनपुर और ईरान के इस संबंध के बारे में पता चलता है तो वे जौनपुर के लिए "भारत के शिराज" का वर्णन करते हैं। यह "तारीख-ए-शाहजहानी" में भी दर्ज किया गया, और उन्होंने जौनपुर को ‘दार-उल-लम’ का नाम भी दिया था।
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