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पूंजीवाद, समाजवाद और साम्यवाद ये मात्र तीन शब्द नहीं हैं बल्कि आज भारत में इनकी अपनी एक महत्ता और अर्थ है। एक स्वतंत्र लोकतंत्र के तहत आज भारत में हमारे पास अनेकों राजनैतिक दल हैं जो किसी न किसी विचार धारा से ओत प्रोत हैं। इन सभी राजनैतिक पार्टियों के घोषणापत्रों से हम उनकी विचार धारा के बारे में समूची जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। भारत के कुछ राज्य जैसे- बंगाल, केरल और त्रिपुरा ने कम्युनिस्ट पार्टियों को स्वतंत्रता के 70 साल बाद और कम्युनिस्ट देशों के पतन के बाद 30 से अधिक वर्षों तक चुनने के लिए आश्चर्यजनक रूप से संघर्ष किया है। विचार धाराएँ मानव जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। धर्मों में भी विभिन्न विचारधाराएँ होती हैं जो मानव को एक राह पर ले जाने का कार्य करती हैं जैसे बौद्ध, जैन आदि। राजनैतिक रूप से 3 विचार धाराएं प्रमुख हैं। आइए आज 3 राजनैतिक विचारों के बीच के जोड़ और भेद पर नज़र डालें, जो आज भी लोकतंत्र के तहत जीवित हैं –
1. पूँजीवाद-
पूँजीवाद क्या है इसको समझने के लिए इसकी परिभाषा समझना ज्यादा जरूरी है-
“पूंजीवाद एक सामाजिक व्यवस्था है, तथा यह व्यक्तिगत अधिकारों के सिद्धांत पर आधारित है। पूँजीवाद राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में आर्थिक स्वतंत्रता की बात करता है। यह पूर्णरूप से वस्तुनिष्ठ नियमों की बात करता है। पूँजीवाद एक खुले बाज़ार की बात करता है।”
पूँजीवाद को निम्नलिखित बिन्दुओं से समझा जा सकता है-
(i) पूंजीवादी विचारधारा में हम यह पाते हैं कि यहाँ पूंजीपति अपना धन व्यय करता है जिससे वह और अधिक धन बना सके।
(ii) पूंजीवादी विचारधारा में संपत्ति को विभिन्न प्रकार से संस्थाओं और तंत्रों के उपयोग से पूँजी या फायदे में परिवर्तित किया जाता है।
(iii) मजदूरी पूँजीवाद में एक अहम भूमिका का निर्वहन करती है। इसी के सहारे कई बड़े उद्योग कार्य करते हैं।
(iv) आधुनिक बाजार पूंजीवादी विचारधारा के आधार पर ही कार्य करता है।
(v) निजी संपत्ति और विरासत की व्यवस्था पूँजीवाद में दिखाई देती है। इसमें विरासत के रूप में संपत्ति एक से दूसरे तक जाती है।
(vi) पूंजीवादी विचारधारा में अनुबंध, आर्थिक स्वतंत्रता, किसी भी निर्णय को लेने व संपत्ति के मन मुताबिक़ प्रयोग की स्वतंत्रता पायी जाती है।
(vii) इस व्यवस्था में समस्त क्रेता, विक्रेता अपने हित के लिए कार्य करते हैं तथा इस व्यवस्था में प्रतियोगिता को देखा जाता है।
(viii) इस व्यवस्था में सरकार का हस्तक्षेप बेहद ही कम होता है या यूँ कहें कि न के बराबर होता है। इस प्रकार से हम देखते हैं कि इसमें बड़े पैमाने पर मुनाफा बनाने का अवसर मिलता है।
2. समाजवाद-
समाजवाद व्यवस्थित रूप से समाज के विभिन्न अंगों व समाज को साथ में ले चलने की वकालत करता है। इसको समझने के लिए सर्वप्रथम हमें समाजवाद शब्द पर ध्यान देने की आवश्यकता है। समाजवाद अंग्रेजी भाषा के सोशलिज़्म (Socialism) शब्द का हिन्दी अनुवाद है। सोशलिज़्म शब्द की उत्पत्ति ‘सोशियस’ (Socious) शब्द से हुर्इ जिसका अर्थ साथी होता है जो आगे चलकर ‘सोशल’ (Social) में बदला जिसका अर्थ समाज हुआ। इसी प्रकार से अध्ययन करने पर पता चलता है कि यह समाज के वाद या समाज के आधार पर कार्य करता है। समाजवाद को समझने के लिए मुख्य रूप से तीन बिन्दुओं को समझना होगा-
1. समाजवाद एक पूर्णरूपेण राजनैतिक सिद्धांत है।
2. समाजवाद एक राजनैतिक क्रांति के रूप में उभरा है।
3. समाजवाद को एक विशेष प्रकार की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था के लिए प्रयोग किया जाता है।
समाजवाद को समझने के लिए इसके प्रमुख सिद्धांत अथवा विशेषताओं को समझना महत्वपूर्ण है-
(i) इस व्यवस्था में किसी एक व्यक्ति की तुलना में समाज को अधिक तवज्जो दी जाती है। यह समाज के हर एक तबके को समाज में एक उत्तम स्थान देने की वकालत करता है।
(ii) समाजवाद पूर्ण रूप से पूंजीवाद का विरोधी है। यह मानता है कि समाज के अन्दर व्याप्त असमानता पूँजीवाद के कारण ही है। यह उत्पाद से लेकर कार्य को समाज के स्तर पर देखता है।
(iii) समाजवाद प्रतियोगिता से ज्यादा आपसी सहयोग की वकालत करता है और यह मानता है कि इससे समाज में व्याप्त प्रतिस्पर्धा कम हो जायेगी।
(iv) समाजवाद समाज में उपस्थित सभी तबकों को समान आर्थिक एकता प्रदान करने की वकालत करता है। इस विचार धारा के अनुसार समाज में उपस्थित सभी लोग समान हैं और सबको एक सी समानता मिलनी चाहिए।
समाजवाद की इन सभी विचारधाराओं को देखकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह समाज को एक आईने से देखने का कार्य करता है। समाजवाद के कुछ हानिकारक बिंदु है जिनको इस प्रकार से देखा जा सकता है- वस्तुओं के उत्पादन में कमी, पूर्ण समानता संभव नहीं है, समाजवाद हिंसा को बढ़ाता है, समाजवाद प्रजातंत्र का विरोधी है, आदि।
समाजवाद 19वीं शताब्दी में जन्मी एक प्रथा है जिसने क्रांतिकारी रूप से बड़े बदलाव को आमंत्रण दिया। महात्मा गाँधी से लेकर नेहरु, लोहिया आदि इस विचारधारा से प्रभावित थे। राम मनोहर लोहिया को भारत में समाजवाद फैलाने का श्रेय दिया जाता है।
3. साम्यवाद-
साम्यवाद ने समय के साथ कई परिवर्तनों को देखा है जिनके अनुसार इसमें कई बदलाव आये। आधुनिक काल में साम्यवाद, साम्यवादी आन्दोलन एवं साम्यवादी दलों का आधार मार्क्सवाद है। कार्ल मार्क्स और अन्य लेखकों के द्वारा लिखे तथ्यों के आधार पर यह व्यवस्था कार्यरत है।
साम्यवाद का असर 20वीं शताब्दी में सबसे अधिक देखने को मिला था जब दुनिया भर के कई देश इस व्यवस्था को अपना चुके थे। इन देशों में रूस, चीन, भारत व अन्य कई देश थे। आज भी भारत में कई स्थान पर इस व्यवस्था से प्रेरित राजनैतिक पार्टियों के वर्चस्व को देखा जा सकता है। इस विचारधारा के अनुसार समाज में व्याप्त असमानता पूंजीवादी व्यवस्था के कारण है और जब तक पूँजीवाद का बोलबाला रहेगा तब तक ये असमानता कभी कम नहीं हो सकती। इसके अनुसार समाज में दो प्रमुख वर्ग हैं 1- पूंजीपति और 2- शोषित या इनको बुर्जुआ और सर्वहारा वर्ग के रूप में भी माना जाता है। इसके अनुसार पूंजीपति सदैव शोषित वर्ग का शोषण करता है। यह तानाशाही पर भी भरोसा करता है जहाँ पर शोषित वर्ग कुलीन वर्ग को दबा कर अपने को स्वतंत्र करता है।
इस प्रकार से साम्यवाद को समझा जा सकता है। चीन और रूस साम्यवाद के बड़े उदाहरण हैं। साम्यवाद में भी कई प्रकार की कुरीतियाँ हैं तथा यह हिंसा के मार्ग को भी प्रशस्त करती है, इसकी मूल भावना यही है कि किसी भी प्रकार से कोई भी समाज कुपोषित न हो। भारत में केरल, बंगाल आदि में अभी भी साम्यवाद की विचारधारा अपनी एक अलग मिसाल के रूप में कार्यरत है।