संगम साहित्य के रत्न

विचार I - धर्म (मिथक/अनुष्ठान)
03-05-2018 01:04 PM
संगम साहित्य के रत्न

किसी भी जगह का साहित्य उस जगह के व्यक्तित्व के बारे में हमें बताता है, भारतीय साहित्यकृति खास कर पुराने समय की और भारतीय लेखक आदि लेखन अथवा कथा-कलयों द्वारा कुछ बयां करते हुए अपने आस-पास के वातावरण के बारे में भी लिखते हैं, उनके लेखन पर, कला पर वे जहाँ पले बड़े हैं वहाँ का थोड़ा-बहुत प्रभाव दिखता है। मुन्शी प्रेमचंद, कवी बनारसीदास (जौनपुर में जन्मे) इनके लेखन में उस समय की झांकी हमें दिखती है, चाहे वो धर्म की हो अथवा समाज की, ऐतिहासिक रीती से भी यह बहुत महत्वपूर्ण होता है।

ऐसे ही संगम साहित्य प्राचीन भारत की एक खूबसूरात देन है। ईसा पूर्व दूसरी-तीसरी शताब्दी से लेकर दूसरी शती तक दक्षिण भारत में लिखे गए तमिल साहित्य को संगम साहित्य कहते हैं। संगम साहित्य का निर्माण चेर-चोल और पाण्ड्य साम्राज्य के समय हुआ था।

मान्यता है कि यह राजा अपने साम्राज्य में साहित्य सम्मेलन आयोजित करते थे। इन सम्मेलनों के समय जिस साहित्याक्रुतियों की निर्मिती हुयी उसे संगम के नाम से बुलाते हैं। इसमें पांच महाकाव्य प्रमुख माने जाते हैं, शिलप्पादिकारम, जीवक चिंतामणी, मणिमेखले, कुंडलंकेसी और वालायपाठी। इन सभी मे हमें काव्य रस के साथ इतिहास का भी अनुभव मिलता है।

शिलप्पादिकारम को तमिल राष्ट्रीय काव्य माना गया है। शिलप्पादिकारम अथवा शिलपत्तिकारम इसका मतलब होता है नुपुर/ पायल की कहानी। इस काव्य को इलांगो अडिगल नाम के कवी ने लिखा है, यह उनका उपनाम था। मान्यता है कि इलांगो चेर राजवंश के राजा वेलू केलु कुतुवन के भाई थे, इस राजकुमार ने संन्यास ले लिया था। यह काव्य कन्नगी नामक एक औरत की कहानी है। इसके पति कोवलम को धोके से मार दिया जाता है, दुःख में डूबी कन्नगी फिर राजा और पूरे राज्य को श्राप देती है कि पूरा राज्य अग्नि देवता की वजह से जलकर राख हो जायेगा। कोवलम माधवी नामक नृत्यागणिका के पाश मे बंध गया था लेकिन फिर उसे अपनी भूलों का एहसास होता है और वो अपनी पत्नी के पास वापस चला जाता है, इसी समय यह शोकपूर्ण घटना घटती है। इलांगो ने काव्य के शुरुवात में ही इसका मुख्य उद्देश्य अधोरेखित किया है कि धर्म के अनुसार अगर राजा भी गलत है तो असे भी योग्य सजा मिलेगी।

मणिमेखले/ मणिमेखलाई यह माधवी और कोवलम (शिलप्पादिकारम का मुख्य किरदार) की पुत्री की कथा है, इसका नाम मणिमेखले है इसीलिए इस काव्य का नाम मणिमेखले है। मणिमेखले बौद्ध धर्म स्वीकार कर लेती है और आगे जाकर बौद्ध भिक्खुनी बन जाती है। यह काव्य बौद्ध भिक्षु सतनार द्वारा लिखा गया है। वह इलांगो का समकालीन था। यह काव्य लिखने के पीछे सतनार का मुख्य उद्देश्य बौद्ध धर्म का प्रचार और प्रसार था, शायद इसीलिए इस काव्य की गुणवत्ता मणिमेखले की तुलना में इतनी अच्छी नहीं है।

जीवक चिंतामणी यह जैन साधू तिरुतक्कतेवर ने लिखी है, जीवक चिंतामणी का मतलब है अप्रतिम मणी। इसका मुख्य उदेश्य जैन धर्मप्रचार था लेकिन यह काव्य भी बहुत सुंदरता से लिखा गया है।

वालायपाठी तमिल-जैन काव्य है और कुंडलंकेसी तमिल-बुद्ध काव्य है। यह दोनों काव्य परिपूर्ण रूप में उपलब्ध नहीं हैं। इनके अलावा भक्ति साहित्य भी इस समय से हमे मिलता है, तिरुमुरै 12 खंडो में बटे हुए शिव का भक्ति-काव्य जो नयनारो ने लिखा है, इसके पहले 7 खंडो को तेवरम बुलाया जाता है। तेवरम का भक्ति संगीत आज भी तमिलनाडू के बहुत से शैव मंदिरों में गाया जाता है। दिव्य-प्रबन्धम यह 12 आलवारों द्वारा लिखित 4000 पद्यों से बना हुआ है।

इन सभी साहित्यों का मुख्य उदेश्य कला के साथ धर्म प्रचार एवं प्रसार भी था लेकिन यह इतिहास जानने के लिए भी काफी मददगार है। यह काव्य उस समय का भरपूर वर्णन करते हैं और उनपर भाष्य भी, औरंतों की अवस्था, राजा और राजघरानों के बारे में, पर्यावरण, नगर निवेश आदी इसी के साथ उस वक़्त की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक जानकारी देती है। हालाँकी जैसे हर काव्य में रहता है वैसे बहुत अतिरंजक्ता इन में भी है मगर इसे नजरंदाज कर तर्कयुक्त तरीके से देखें तो उस समय के चित्र अच्छे से उभर के आता है।

1. आलयम: द हिन्दू टेम्पल एन एपिटोमी ऑफ़ हिन्दू कल्चर- जी वेंकटरमण रेड्डी
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Silappatikaram