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मूक से 3डी फ़िल्मों तक, कैसा रहा फ़िल्मों का अद्भुत सफ़र?

जौनपुर

 03-10-2024 09:10 AM
द्रिश्य 2- अभिनय कला
2018 में ऑनलाइन वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म (Streaming Platform)में " मिर्ज़ापुर " नामक एक वेब सीरीज़ (Web Series) रिलीज़ (Release) हुई। क्या आप जानते हैं कि इस वेब सीरीज़ के कई दृश्य हमारे जौनपुर में फ़िल्माए गए थे। इस सीरीज़ को दर्शकों ने ख़ूब सराहा और फ़िल्म निर्माताओं ने भी ख़ूब पैसे बटोरे। लेकिन क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि आज से एक या दो दशकों पहले तक वेब सीरीज़ का अस्तित्व भी नहीं था। वेब सीरीज़ के बजाय, लोगों का मनोरंजन फ़िल्में किया करती थीं। हालांकि आज भी वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स की लोकप्रियता के बावजूद, फ़िल्मी जगत की चमक फीकी नहीं पड़ी है। आज के इस लेख में हम फ़िल्मों और सिनेमा के शुरुआती सफ़र पर चलेंगे। इस सफ़र में हम बिना आवाज़ वाली मूक फ़िल्मों (Silent Films) से लेकर अत्याधुनिक 3डी फ़िल्मों (3D Movies) में आए बड़े परिवर्तन का भी विश्लेषण करेंगे। साथ ही हम दादावाद (Dadaism), अतियथार्थवाद (Surrealism), जर्मन अभिव्यक्तिवाद (German Expressionism) और सोवियत असेंबल सिद्धांत (Soviet Montage Theory) जैसे कुछ शुरुआती फ़िल्म आंदोलनों का पता लगाएंगे।
सिनेमा के आविष्कार का श्रेय किसी एक व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता। 1891 में, एडिसन कंपनी (Edison Company) ने काइनेटोस्कोप (Kinetoscope) का एक प्रोटोटाइप पेश किया। काइनेटोस्कोप की मदद से एक व्यक्ति एक समय में चलती हुई तस्वीरें देख सकता था। 1893 में पहली बार इसे सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया गया। 1894 तक यह व्यावसायिक रूप से भी एक सफ़ल आविष्कार साबित हो गया। इस खोज की बदौलत दुनिया भर में लोगों के मनोरंजन के लिए सार्वजनिक पार्लर (Public Parlors) खुलने लगे। दिसंबर 1895 में, लुमियर बंधुओं (Lumière Brothers) ने पहली बार दर्शकों के सामने प्रोजेक्टेड मूविंग पिक्चर्स (Projected Moving Pictures) का प्रदर्शन किया। उन्होंने इसके लिए अपने अनोखे उपकरण, सिनेमैटोग्राफ़ (Cinematograph), का इस्तेमाल किया। सिनेमैटोग्राफ़ एक कैमरा, प्रोजेक्टर और फ़िल्म प्रिंटर (Film Printer) तीनों का काम करता था। इस खोज ने सिनेमा की दुनिया में एक नई क्रांति का आगाज़ किया।
इन खोजों के बाद वैश्विक फ़िल्म इंडस्ट्री ने अपना जो फ़िल्मी अभियान शुरू किया वह आज भी जारी है:
मूक युग (Silent Era) (1880-1920): फ़िल्मों का इतिहास मूक फ़िल्मों के साथ शुरू हुआ था। इन फ़िल्मों में कोई आवाज़ नहीं होती थी। लेकिन बिना आवाज़ के भी इनकी कहानी और भावनाएँ दर्शकों के दिलों में गहरी छाप छोड़ गईं। चार्ली चैपलिन (Charlie Chaplin), मैरी पिकफ़ोर्ड (Mary Pickford), डी.डब्ल्यू. ग्रिफ़िथ (D.W. Griffith) और डगलस फ़ेयरबैंक्स (Douglas Fairbanks) जैसे दिग्गजों ने 1919 में यूनाइटेड आर्टिस्ट्स (United Artists) की स्थापना की। यूनाइटेड आर्टिस्ट्स ने अभिनेताओं के करियर को स्थिर रखने में बड़ी भूमिका निभाई। रूस के सर्गेई ईसेनस्टीन (Sergei Eisenstein) ने "बैटलशिप पोटेमकिन (Battleship Potemkin)" जैसी क्लासिक फ़िल्म भी इसी युग में बनाई। यह फ़िल्म, आज भी सिनेमा की दुनिया में एक मील का पत्थर (MIlestone) मानी जाती है।
द (Talkies) (1927): 1927 में, "द जैज सिंगर (The Jazz Singer)" नामक एक फ़िल्म रिलीज हुई। यह फ़िल्म पहली ऐसी फ़िल्म थी जिसमें ध्वनि और छवियों को मिलाया गया था। फ़िल्मों में छवियों और ध्वनि के मिलाप के बाद कई मूक फ़िल्म सितारों को काम मिलना मुश्किल हो गया। नई फ़िल्में बॉडी लैंग्वेज (Body Language) और चेहरे के भावों की तुलना में आवाज अभिनय (Voice Acting) पर अधिक निर्भर होने लगीं।
डरावनी फ़िल्मों का उदय (Rise of Horror Films) (1931): डरावनी फ़िल्मों का इतिहास बहुत पहले शुरू हो गया था, लेकिन ये फ़िल्में, 1930 के दशक में लोकप्रिय होने लगीं। इस दौरान "ड्रैकुला (Dracula)", "फ्रेंकस्टीन (Frankenstein)", "द ममी (The Mummy)", "द इनविजिबल मैन (The Invisible Man)", "किंग कांग (King Kong)", "द ब्राइड ऑफ़ फ्रैंकस्टीन (The Bride of Frankenstein)", और "द वेयरवोल्फ ऑफ़ लंदन (The Werewolf of London)" जैसी कई प्रसिद्ध हॉरर फ़िल्में, सिर्फ़ चार साल में बनकर तैयार हो गईं।
वॉल्ट डिज़्नी का प्रभाव (Walt Disney's Influence) (1920 का दशक): 1920 के दशक में हॉलीवुड में वॉल्ट डिज़्नी (Walt Disney) का आगमन होता है। शुरुआत से ही उन्होंने फ़िल्म सेल पर एनिमेटेड कार्टून (Animated Cartoons) बनाना शुरू कर दिया। 1928 में, उन्होंने "स्टीमबोट विली (Steamboat Willie)" नामक एनिमेटेड फ़िल्म (Animated Film) बनाई, जिसमें मुख्य क़िरदार मिकी माउस (Mickey Mouse) था। 1940 के दशक तक, डिज्नी ने " पिनोकियो (Pinocchio)", " फ़ैंटासिया (Fantasia)" और "बांबी (Bambi)" जैसी पूर्ण लंबाई वाली फ़िल्में बना दीं । जॉर्जेस मेलिएस (Georges Méliès) की तरह, डिज्नी ने ऐसी फ़िल्में बनाईं जो लोगों को वास्तविक घटनाओं को दोहराने के बजाय वास्तविकता से दूर ले जाती थीं।
स्टूडियो सिस्टम (Studio System) (1927-1948): 1910 से 1969 तक के समय को "हॉलीवुड का स्वर्ण युग (Golden Age of Hollywood)" माना जाता है। इस दौरान, अधिकांश फ़िल्मों को बड़े स्टूडियो नियंत्रित करते थे। पूरे उद्योग पर एम जी एम (MGM), पैरामाउंट (Paramount), आर के ओ (RKO), कोलंबिया (Columbia) और वार्नर ब्रदर्स (Warner Bros) जैसे स्टूडियोज़ का नियंत्रण था। वे आसानी से किसी के भी करियर को बना या बिगाड़ सकते थे। 1940 के दशक के अंत में, एंटीट्रस्ट मुकदमों (Antitrust Lawsuits) ने इस शक्ति को कम कर दिया।
स्टूडियो पर टेलीविज़न का प्रभाव (Impact of Television on Studios) (1950): टेलीविज़न के आगमन ने फ़िल्म इतिहास को काफ़ी हद तक बदल कर रख दिया। 1950 के दशक तक, कई अमेरिकी घरों में टेलीविज़न सेट (Television Sets) आ चुके थे। तब तक, प्रसारण टीवी स्टेशन (Broadcast TV Stations) आम हो चुके थे। स्टीव विएगैंड (Steve Viegand) की पुस्तक "यू.एस. हिस्ट्री फ़ॉर डमीज़ (U.S. History for Dummies)" के अनुसार, 1950 के दशक की शुरुआत में लगभग तीन मिलियन टीवी मालिक थे। साल ख़त्म होते-होते यह संख्या 55 मिलियन तक पहुंच गई। टेलीविज़न की कीमत भी $500 से घटकर लगभग $200 हो गई।
द न्यू हॉलीवुड (The New Hollywood): आज कई फ़िल्म समीक्षक मानते हैं कि हॉलीवुड का असली स्वर्ण युग 1970 का दशक था। इस दौरान, "द गॉडफ़ादर (The Godfather)", "द एक्सॉर्सिस्ट (The Exorcist)", "जॉज़ (Jaws)", "एपोकैलिप्स नाउ (Apocalypse Now)" और "स्टार वार्स (Star Wars)" जैसी बेहतरीन फ़िल्में रिलीज़ हुईं। इस अवधि के दौरान स्टेनली कुब्रिक (Stanley Kubrick), स्टीवन स्पीलबर्ग (Steven Spielberg), फ़्रांसिस फ़ोर्ड कोपोला (Francis Ford Coppola) और मार्टिन स्कोरीज़ (Martin Scorsese) जैसे निर्देशकों ने फ़िल्म निर्माण में महत्वपूर्ण शक्ति और गहरा प्रभाव स्थापित किया।
जब फ़िल्म निर्माताओं का समूह ऐसी फ़िल्में बनाता है, जो किसी विशेष समय अवधि के दौरान विशिष्ट सांस्कृतिक, सामाजिक या कलात्मक विचारों को दर्शाती है, तो इसे फ़िल्म आंदोलन (Film Movement) कहा जाता है।
अब हम सिनेमा के इतिहास के कुछ सबसे प्रभावशाली फ़िल्म आंदोलनों के बारे में जानेंगे।
दादावाद और अतियथार्थवाद (Dadaism and Surrealism): दादावाद और अतियथार्थवाद की शुरुआत, 1915 में प्रथम विश्व युद्ध (World War I) के दौरान स्विटज़रलैंड (Switzerland) के ज़्यूरिक (Zurich) में हुई थी। इस कला आंदोलन ने पारंपरिक सत्ता को खारिज कर दिया। इसने अतियथार्थवादी सिनेमा (Surrealist Cinema) की नींव रखने में मदद की। दादावाद के प्रमुख फ़िल्म निर्माताओं में लुइस बुनुएल (Luis Buñuel), साल्वाडोर डाली (Salvador Dalí) और जर्मेन डुलैक (Germaine Dulac) शामिल हैं। इस आंदोलन से जुड़ी उल्लेखनीय फ़िल्मों में "रिटर्न टू रीज़न" (Return to Reason) (1923), "द सीशेल एंड द क्लर्जीमैन " (The Seashell and the Clergyman) (1928) और "अन चिएन एंडालू" (Un Chien Andalou) (1929) शामिल हैं। हालाँकि दादावाद की शुरुआत ज़्यूरिक में हुई थी, लेकिन कुछ साल बाद यह पेरिस, फ़्रांस (Paris, France) में ज़्यादा लोकप्रिय हो गया। 1920 तक, फ़्रांस में बहुत से लोग अपनी सरकार और अर्थव्यवस्था से नाखुश थे। इस बार, फ़्रांसीसी लोगों ने कला के ज़रिए अपना असंतोष व्यक्त किया। उन्होंने अपरंपरागत और बेतुके कला रूपों का इस्तेमाल किया। डाली और बुनुएल की "अन चिएन एंडालू" (Un Chien Andalou) (1929), इस आंदोलन से उपजी एक प्रमुख फ़िल्म है।
जर्मन अभिव्यक्तिवाद (German Expressionism): जर्मन अभिव्यक्तिवाद को भव्य संरचनाओं और मज़बूत विचारों के लिए जाना जाता है। यह आंदोलन, प्रथम विश्व युद्ध (World War I) से पहले शुरू हुआ था, लेकिन युद्ध के बाद दादावाद की तरह ही अधिक लोकप्रिय हो गया। जर्मन अभिव्यक्तिवाद के प्रमुख फ़िल्म निर्माताओं में फ़्रिट्ज़ लैंग (Fritz Lang), एफ़.डब्ल्यू. मुर्नौ (F.W. Murnau) और रॉबर्ट विएन (Robert Wiene) शामिल हैं। इस आंदोलन की कुछ उल्लेखनीय फ़िल्मों में "द कैबिनेट ऑफ़ डॉ. कैलीगरी" (The Cabinet of Dr. Caligari) (1920), "नोस्फेरातु" (Nosferatu) (1922), और "मेट्रोपोलिस" (Metropolis) (1927) शामिल हैं। जर्मन अभिव्यक्तिवाद ने सिनेमा की दृश्य शैली कई मायनों में बदल दिया। इस आंदोलन के बारे में सोचते समय, मज़बूत विरोधाभास और गहरे चित्र दिमाग में आते हैं। इस दौरान, रंगीन फ़िल्टर (Colored Filters) का भी उपयोग किया गया था। इस आंदोलन की फ़िल्मों का एक प्रमुख उदाहरण, फ़्रिट्ज़ लैंग की "एम" (M) है, जो जर्मन अभिव्यक्तिवाद के प्रमुख शैलीगत तत्वों को दर्शाती है।
सोवियत मोंटाज सिद्धांत (Soviet Montage Theory): सोवियत मोंटाज सिद्धांत, सोवियत रूस (Soviet Russia) में प्रचलित फ़िल्म आंदोलन था। यह आंदोलन फ़िल्म संपादन सिद्धांतों (Editing Techniques) पर केंद्रित था। यह आंदोलन, 1910 के दशक से 1930 के दशक तक सक्रिय रहा। सोवियत मोंटाज सिद्धांत के प्रमुख फ़िल्म निर्माताओं में लेव कुलेशोव (Lev Kuleshov), सर्गेई ईसेनस्टीन (Sergei Eisenstein) और डिज़िगा वर्टोव (Dziga Vertov) शामिल हैं। इस आंदोलन की देन रही कुछ उल्लेखनीय फ़िल्मों में "किनो-आई" (Kino-Eye) (1924), "बैटलशिप पोटेमकिन" (Battleship Potemkin) (1925) और "मैन विद अ मूवी कैमरा" (Man with a Movie Camera) (1929) शामिल हैं।
सोवियत मोंटाज सिद्धांत ने केवल फ़िल्म बनाने के, बल्कि फ़िल्मों के काम करने के तरीके का विश्लेषण करने पर भी ध्यान केंद्रित किया। इसने फ़िल्म निर्माताओं को दर्शकों तक भावनाओं को प्रभावी ढंग से पहुँचाने के लिए कई प्रभावी कदम उठाने के लिए प्रेरित किया। इस सिद्धांत का प्रभाव, आज भी कुलेशोव प्रभाव (Kuleshov Effect) और आधुनिक मोंटाज (Modern Montage) जैसी तकनीकों में देखा जाता है। इस आंदोलन की सबसे प्रसिद्ध फ़िल्म "बैटलशिप पोटेमकिन" (Battleship Potemkin) है।

संदर्भ
https://tinyurl.com/2yn4yfcs
https://tinyurl.com/yofrldhc
https://tinyurl.com/yxzaby9v

चित्र संदर्भ
1. 1929 में आई फ़िल्म राजा हरिश्चंद्र के एक दृश्य और एक 3डी फ़िल्म के दृश्य को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. एडिसन कंपनी के काइनेटोस्कोप को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. सिनेमैटोग्राफ़ को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. द जैज़ सिंगर के पोस्टर को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
5. वॉल्ट डिज़्नी को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
6. लुइस बुनुएल को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
7. बैटलशिप पोटेमकिन के एक दृश्य को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)


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