समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः।
भावार्थ :- जिसके दोष-वात, पित्त, कफ, अग्नि (जठराग्नि), रसादि सात धातु, सम अवस्था में तथा स्थिर रहते हैं, मल-मूत्र क्रिया ठीक होती है। उसे स्वस्थ माना जाता है!
आधुनिक चिकित्सा के इस युग में भी, कई जौनपुर वासियों के लिए, आयुर्वेदिक चिकित्सा अधिक प्रभावी साबित हो रही है। आयुर्वेद, एक पारंपरिक भारतीय चिकित्सा प्रणाली है। इसकी शुरुआत आज से हजारों वर्षों पहले वैदिक युग में हुई थी। औषधियों के रूप में जड़ी-बूटियों का उपयोग वैदिक काल में ही प्रारंभ हुआ। आज विश्व फ़ार्मेसिस्ट दिवस (World Pharmacist Day) के इस अवसर पर, हम आयुर्वेद की ऐतिहासिक जड़ों की खोज करेंगे। इस क्रम में सबसे पहले, हम तीन आयुर्वेदिक ऊर्जा प्रकारों के बारे में जानेंगे। इसके बाद, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता और अष्टांग संग्रह जैसे महत्वपूर्ण आयुर्वेदिक ग्रंथों का अध्ययन करेंगे। अंत में, वेदों में वर्णित कुछ औषधीय जड़ी-बूटियों और पौधों का अवलोकन किया जाएगा।
आयुर्वेद एक प्राचीन भारतीय चिकित्सा विज्ञान है। इसका इतिहास, 5000 वर्षों से भी अधिक पुराना बताया जाता है। इसे अथर्ववेद की एक शाखा माना जाता है। दुनिया के सबसे पुराने लिखित ग्रंथों में से एक, ऋग्वेद में भी औषधियों के रूप में जड़ी-बूटियों के उपयोग का उल्लेख मिलता है। ।
'आयुर्वेद' शब्द दो भागों से मिलकर बना है:
१. 'आयु,' जिसका अर्थ जीवन, होता है।
२. 'वेद,' जिसका अर्थ “विज्ञान” होता है।
इस प्रकार, आयुर्वेद का संक्षिप्त अर्थ, केवल बीमारियों का अध्ययन नहीं बल्कि “जीवन का विज्ञान” होता है। आयुर्वेद का प्रमुख उद्देश्य, मानव स्वास्थ को बेहतर करना और बीमारियों का उपचार प्रदान करना है। इस अर्थ को 'स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणं, आतुरस्य विकार प्रशमनं' वाक्यांश से समझा जा सकता है। इस वाक्यांश का अर्थ होता है: “आयुर्वेद स्वास्थ्य को बनाए रखने और बीमारियों को ठीक करने पर ध्यान केंद्रित करता है।” आयुर्वेद के सिद्धांतों में विश्वास और भारत में जड़ी-बूटियों की प्रचुरता के कारण आज भी आयुर्वेद को एक प्रभावी उपचार पद्धति के रूप में मान्यता प्राप्त है। आयुर्वेद, सार्वभौमिक सिद्धांतों और मन एवं शरीर के बीच संबंध की गहरी समझ पर आधारित है। यह प्रकृति के उन नियमों पर भी ध्यान देता है, जो जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित करते हैं। हैरानी की बात है कि हज़ारों सालों का यह प्राचीन ज्ञान आज भी मानवता का कल्याण कर रहा है।
⦁ आयुर्वेद का समूचा ज्ञान इस विश्वास पर आधारित है कि “प्रत्येक व्यक्ति में ऊर्जा का एक अनूठा पैटर्न होता है। यह पैटर्न एक फ़िंगरप्रिंट (fingerprint) के समान होता है। यह ऊर्जा शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक लक्षणों से मिलकर बनी होती है। आयुर्वेद के अनुसार, ऊर्जा के तीन मुख्य प्रकार होते हैं, जिन्हें दोष कहा जाता है। ये दोष हम सभी में मौजूद होते हैं। ये तीनों दोष हमारे स्वास्थ्य और कल्याण को गहराई से प्रभावित करते हैं।
तीनों दोष क्रमशः इस प्रकार हैं:
१. वात: वात दोष, शारीरिक गतिविधियों से संबंधित कार्यों को नियंत्रित करता है। इन गतिविधियों में रक्त परिसंचरण, श्वास, पलक झपकाना और दिल की धड़कन आदि शामिल है। जब वात संतुलित होता है, तो यह हमारी रचनात्मकता और ऊर्जा को बढ़ाता है। लेकिन यदि यह असंतुलित हो जाए तो हमारे भीतर भय और चिंता की भावनाएं विकसित होने लगती हैं।
२. पित्त: पित्त दोष, शरीर की चयापचय प्रक्रियाओं को नियंत्रित करता है। इन प्रक्रियाओं में पाचन, पोषक तत्वों का अवशोषण और शरीर के तापमान का विनियमन शामिल है। जब पित्त संतुलित होता है, तो हम संतोष और बुद्धिमत्ता से भर जाते हैं। लेकिन असंतुलित होने पर, पित्त दोष, अल्सर और क्रोध जैसी समस्याओं को बढ़ावा दे सकता है।
३. कफ: कफ दोष शारीरिक वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार होता है। यह हमारे शरीर के सभी अंगों को नमी प्रदान करता है, त्वचा को हाइड्रेट रखता है और प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूती देता है। जब कफ संतुलित होता है, तो यह प्रेम और क्षमा के रूप में व्यक्त होता है। लेकिन इस दोष के असंतुलित होने पर हमारे भीतर असुरक्षा और ईर्ष्या की भावनाएं जन्म लेने लगती हैं।
आयुर्वेदिक मान्यताओं के अनुसार, ये तीनों दोष न केवल हमारे शारीरिक स्वास्थ्य बल्कि भावनात्मक स्थिति को भी नियंत्रित करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति में इन दोषों का एक अनूठा संयोजन होता है। यही संयोजन तय करता है कि उस व्यक्ति की प्रकृति कैसी होगी। यदि आप अपने भीतर विकसित हो रहे दोष को समझ लेते हैं तो आप उसे बढ़ावा देने या उसे कम करने के मार्ग खोज ही लेंगे।
आयुर्वेद के ऐसे ही दुर्लभ ज्ञान को सदियों से मानवता की पहुँच में बनाए रखने में आयुर्वेदिक ग्रंथों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इन ग्रंथों को प्रमुख (बृहत्त्रयी) और लघु ग्रंथों (लघुत्रयी) में विभाजित किया गया है।
आइए आगे इन्हीं दुर्लभ ग्रंथों और इनकी विशेषताओं के बारे में पढ़ते हैं:
प्रमुख आयुर्वेदिक ग्रंथ: बृहत्त्रयी
⦁ महर्षि चरक द्वारा लिखित चरक संहिता: चरक संहिता को आयुर्वेदिक चिकित्सा सिद्धांत और अभ्यास से जुड़ा एक महत्वपूर्ण संग्रह माना जाता है। इसका संकलन महर्षि चरक द्वारा लगभग 800 ईसा पूर्व में तक्षशिला विश्वविद्यालय में किया गया था। चरक संहिता संस्कृत में लिखी गई है। इसके 120 अध्यायों में 8,400 से अधिक श्लोक वर्णित हैं। इसे काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है। आज भी आधुनिक आयुर्वेदिक चिकित्सक, प्रशिक्षण के लिए, इस ग्रंथ का उपयोग करते हैं। इसका व्यापक रूप से अनुवाद भी किया गया है।
⦁ महर्षि सुश्रुत द्वारा लिखित सुश्रुत संहिता: शल्य चिकित्सा ग्रंथ सुश्रुत संहिता का इतिहास, लगभग 700 ईसा पूर्व का बताया जाता है। इस ग्रंथ में स्वास्थ्य की आयुर्वेदिक परिभाषा, रक्त के बारे में विवरण और पित्त के पाँच उपदोषों के साथ-साथ मर्म बिंदुओं (शरीर में महत्वपूर्ण बिंदु) का वर्णन जैसी आवश्यक जानकारियां भी वर्णित हैं। त्वचा प्रत्यारोपण और पुनर्निर्माण सर्जरी से जुड़ी महत्वपूर्ण तकनीकें भी सुश्रुत संहिता में ही बताई गई हैं।
⦁ अष्टांग संग्रह और अष्टांग हृदय: इन दोनों ग्रंथों को लगभग 400 ईसा पूर्व के आसपास लिखा गया था। इनकी रचना भारत के सिंध क्षेत्र के एक आयुर्वेदिक चिकित्सक द्वारा की गई थी। अष्टांग संग्रह को मुख्य रूप से कविता के स्वरूप में लिखा गया है। वहीं अष्टांग हृदय को गद्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है। दोनों ग्रंथों में कफ के पाँच उपदोषों पर विस्तार से चर्चा की गई है। साथ ही ये जीवन के भौतिक मूल्य पर भी प्रकाश डालते हैं। अष्टांग हृदय को एक अत्यधिक सम्मानित आयुर्वेदिक पाठ्यपुस्तक माना जाता है।
लघु आयुर्वेदिक ग्रंथ: लघुत्रयी
⦁ शारंगधर द्वारा रचित सारंगधर संहिता: 13वीं शताब्दी ईसा पूर्व में लिखे गए इस ग्रंथ को आयुर्वेद में मेटेरिया मेडिका (Materia Medica) की विस्तृत व्याख्या और इसके औषधीय गुणों के लिए मूल्यवान माना जाता है। इसे नाड़ी निदान पर अग्रणी ग्रंथ के रूप में भी मान्यता प्राप्त है।
⦁ भावमिश्र द्वारा रचित भाव प्रकाश निघंटु: 16वीं शताब्दी के इस ग्रंथ के विभिन्न छंदों में लगभग 10,278 श्लोक दिए गए हैं। यह हर्बल विवरण, भोजन, ट्रेस धातुओं के चिकित्सीय उपयोग और कायाकल्प चिकित्सा पर केंद्रित है। इसमें यौन संचारित रोगों, विशेष रूप से सिफ़लिस (Syphilis) के बारे में भी जानकारी दी गई है।
⦁ माधव कारा द्वारा रचित माधव निदान: 700 ई. से 1100 ई. के बीच रचित इस ग्रंथ को विविध रोगों और उनके कारणों के सटीक वर्गीकरण के लिए जाना जाता है। माधव निदान को अक्सर आयुर्वेदिक नैदानिक निदान की बाइबिल के रूप में संदर्भित किया जाता है।
हिन्दू धर्म के चार मुख्य वेदों में से एक, अथर्ववेद को ऋग्वेद के बाद की वेदांत अवस्था माना जाता है। इस ग्रंथ में मन्त्रों के साथ विभिन्न प्रायोगिक उपयोग, उपचार, व्याधि निवारण, वशीकरण और प्रभावशाली मंत्र आदि दिए गए हैं। अथर्ववेद में हमें कई औषधीय जड़ी-बूटियों और पौधों के बारे में बताया गया।
चलिए आज हम भी हज़ारों वर्षों से कारगर कुछ बहुपयोगी जड़ी-बूटियों के बारे में जानते हैं।
⦁ अजश्रृंगी: अथर्ववेद में अजश्रृंगी का उल्लेख मिलता है। जिसे मेषशृंगी के नाम से भी जाना जाता है। यह एक विरुत पौधा है जिसकी गंध बहुत तेज़ होती है। इसका एक नाम अजश्रृंगी या तीक्ष्ण शृंगी भी है, जो इसके सींग के आकार के फल को दर्शाता है। यह पौधा कई प्रकार की बीमारियों और कीटाणुओं को नष्ट करने में मदद करता है।
⦁ अतिविद्धाभेषजी: अथर्ववेद में अतिविद्धाभेषजी का भी उल्लेख मिलता है। इसके अन्य नामों में पिप्पली, क्षिप्ताभेषजी और बटीकृत भेषजी शामिल हैं। गठिया और ऐंठन के लिए, इसी औषधि का उपयोग करने का सुझाव दिया जाता है। कौशिक सूत्र में वर्णन मिलता है कि प्रतिभा को बढ़ाने के लिए इसे अन्य औषधियों के साथ दिया जा सकता है। औषधि को पत्थरों से कुचलकर स्तन पर लगाने से दूध उत्पादन में वृद्धि होती है।
⦁ अदृष्टदाहनी: अदृष्टदाहनी का उल्लेख अथर्ववेद और पैप्पलाद संहिता में मिलता है। यह पौधा कीटाणुओं से लड़ने में मदद करता है। इसे मुंहासे और पुराने ऑस्टियोआर्थराइटिस (osteoarthritis) के इलाज के लिए उपयोगी माना गया है।
⦁ अरुंधती: अथर्ववेद में अरुंधती दो संदर्भों में दिखाई देती है। सबसे पहले, यह मुंहासे के इलाज और टूटे हुए अंगों को ठीक करने में मदद करती है। अरुंधति, पलाश वृक्ष की लाख से प्राप्त होती है। दूसरे संदर्भ में यह विषहरण, नमी शोधक और रसायन के रूप में कार्य करती है। अरुंधति को सहदेवी के नाम से भी जाना जाता है। इसके अन्य नामों में जिबला, जीवंती, सहमना और सहस्वती शामिल हैं।
⦁ अरुश्रण: अरुश्रण का उल्लेख, अथर्ववेद और पैप्पलाद संहिता दोनों में मिलता है। इसे आश्रवभेषज के नाम से भी जाना जाता है। यह औषधि रक्तस्राव, दस्त और मूत्र असंयम जैसी विषमताओं का इलाज करती है। अरुश्रण शब्द का अर्थ "पका हुआ मुंहासा" होता है। जहाँ "अरु" मुंहासे को दर्शाता है और "श्रण" पकने को दर्शाता है!
⦁ दूर्वा: बरमूडा घास के नाम से जानी जाने वाली दूर्वा को भारत में एक पवित्र जड़ी बूटी माना जाता है। इसे वैदिक काल से ही पवित्र माना जा रहा है। हिंदी में, इस जड़ी बूटी को आमतौर पर दूर्वा कहा जाता है। दूर्वा के अन्य अंग्रेज़ी नामों में काउच ग्रास (couch grass), दूब ग्रास (duba grass) और स्टार ग्रास (star grass) शामिल हैं। प्राचीन और मध्यकालीन हर्बलिस्ट (herbalist) भी कई स्वास्थ्य समस्याओं के इलाज के लिए, दूर्वा का ही इस्तेमाल करते थे। इसका उपयोग दर्दनाक पेशाब और मूत्राशय की सूजन को ठीक करने के लिए किया जाता था। दूर्वा का उल्लेख, ऋग्वेद और अथर्ववेद दोनों में मिलता है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/257flwlf
https://tinyurl.com/2b2w8ota
https://tinyurl.com/2ypqv5uu
https://tinyurl.com/23zsmsqn
https://tinyurl.com/2d3pwhec
चित्र संदर्भ
1. महर्षि चरक को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. भगवान ब्रह्मा द्वारा बांटे गए आयुर्वेद के आठ भागों या तंत्रों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. विष्णु के अवतार माने जाने वाले आयुर्वेद के देवता धन्वंतरि को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. आयुर्वेद में तीन द्रव्य और पांच महाभूतों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. मेलबर्न में महर्षि सुश्रुत की एक प्रतिमा को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
6. बरमूडा घास को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)