लाला हर दयाल, भीकाजी कामा और राव् तुला राम जैसे स्वतन्त्रता सैनानियों की यादगार भूमिका

औपनिवेशिक काल और विश्व युद्ध : 1780 ई. से 1947 ई.
19-07-2024 09:29 AM
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लाला हर दयाल, भीकाजी कामा और राव् तुला राम जैसे स्वतन्त्रता सैनानियों की यादगार भूमिका
जौनपुर में कई लोगों ने लाला हर दयाल के बारे में कभी नहीं सुना होगा।  कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय(University of California) में संस्कृत के प्राध्यापक – लाला हर दयाल, उन कम याद किए जाने वाले स्वतंत्रता सेनानियों में से एक हैं, जिन्होंने विदेशों में लड़ते हुए भारत की  आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ी और अपनी जान दे दी। तो, आज हम इस लेख में,   यह जानने की कोशिश करेंगे कि, लाला हर दयाल ने ‘गदर क्रांति’ का नेतृत्व कैसे किया था और उस समय साथी नागरिकों और समाज पर इसका क्या प्रभाव पड़ा  । आगे, हम इस बारे में भी चर्चा करेंगे कि, राव तुला राम और मैडम भीकाजी कामा जैसी महत्वपूर्ण हस्तियों ने, ब्रिटिश उत्पीड़न के खिलाफ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन कैसे किया।
लाला हर दयाल (जन्म 14 अक्टूबर, 1884, दिल्ली) एक भारतीय क्रांतिकारी और विद्वान थे, जो भारत में ब्रिटिश प्रभाव को हटाने के लिए जाने जाते  हैं । स्वदेशी राजनीतिक संस्थाओं को आगे बढ़ाने और ब्रिटिश शासन के खिलाफ अपने देशवासियों को जागृत करने के लिए, वह 1908 में विदेश से भारत लौट आए। लेकिन, सरकार ने उनके काम को विफल कर दिया, और वह जल्द ही यूरोप लौट आए। उन्होंने फ्रांस(France) और जर्मनी(Germany) की यात्रा की, ब्रिटिश विरोधी प्रचार किया और एक सफल उपनिवेश विरोधी संघर्ष की कुंजी के रूप में, पश्चिमी विज्ञान और राजनीतिक दर्शन की सराहना की। 
1913 में, उन्होंने भारत की ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह आयोजित करने के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका में गदर(Gadar) पार्टी का गठन किया। इस पार्टी के सदस्य, प्रवासी भारतीय थे, जो भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन शुरू करना चाहते थे। जबकि, मार्च 1914 में, उन्हें अमेरिकी अधिकारियों द्वारा  गिरफ़्तार कर लिया गया।  ज़मानत पर रिहा होकर, वह  स्विट्ज़रलैंड (Switzerland) और फिर बर्लिन(Berlin) गए, जहां उन्होंने उत्तर-पश्चिमी भारत में ब्रिटिश विरोधी लहर को भड़काने की कोशिश की।
प्रथम विश्व युद्ध में, जर्मनी की हार के बाद, हर दयाल भारतीय दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक के रूप में स्टॉकहोम(Stockholm) में बस गए और ‘फोर्टी-फोर मंथ्स इन जर्मनी एंड टर्की(Forty-Four Months in Germany and Turkey)’ लिखी, जिसमें, उन्होंने अपने युद्धकालीन अनुभवों को कुछ अरुचि के साथ जोड़ा है।
1 नवंबर, 1913 को उन्होंने अपनी पत्रिका ‘ग़दर’ भी प्रकाशित की। अखबार के मुखपृष्ठ पर “भारत में ब्रिटिश शासन का शत्रु” लिखा हुआ था। इसमें ब्रिटिश शासन के तहत रहने वाले भारतीयों और विदेशों में भारतीयों की आजीविका को प्रभावित करने वाले मुद्दों, जैसे नस्लीय हमले और पूर्वाग्रह के बारे में लेख शामिल थे।
इसने भारतीयों को एकजुट होने और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने के लिए उकसाया। ग़दर का उर्दू, पंजाबी, हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया था। ग़दर के अलावा, ग़दर पार्टी के मुख्यालय – ‘युगांतर आश्रम’ ने जन जागरूकता बढ़ाने और लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए प्रेरित करने के लिए, कई किताबें भी प्रकाशित कीं। पार्टी के सदस्यों ने 1913 में अपने विचारों और लक्ष्यों को दुनिया भर में  फ़ैलाया। इसका मुख्य उद्देश्य, भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त करने के लिए बल का प्रयोग करना और समान अधिकारों के साथ एक स्वतंत्र भारत की स्थापना करना था।
दूसरी ओर, मैडम भीकाजी कामा, 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गहराई से शामिल हो गईं। वह दादाभाई नौरोजी और उनकी लंदन इंडियन सोसाइटी(London Indian Society) जैसे नेताओं से जुड़ी थीं। उन्होंने श्यामजी वर्मा और लाला हर दयाल जैसे अन्य भारतीय राष्ट्रवादियों से भी मिलना शुरू किया, और जल्द ही आंदोलन के सक्रिय सदस्यों में से एक बन गईं।
वह 1904 में भारत लौटने की तैयारी कर रही थीं, जब वह श्यामजी कृष्ण वर्मा के संपर्क में आईं, जो लंदन के भारतीय समुदाय में जाने जाते थे। उनके माध्यम से, उनकी मुलाकात भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ब्रिटिश समिति के तत्कालीन अध्यक्ष दादाभाई नौरोजी से हुई, जिनके लिए वह निजी सचिव के रूप में काम करने  लगीं ।
नौरोजी और सिंह रेवाभाई राणा के साथ मिलकर, कामा ने फरवरी 1905 में वर्मा की ‘इंडियन होम रूल सोसाइटी(Indian Home Rule Society)’ की स्थापना का समर्थन किया। उन्होंने अमेरिका का भी दौरा किया, जहां उन्होंने ब्रिटिश शासन के दुष्प्रभावों पर भाषण दिया, और  अमरीकियों से भारत की  आज़ादी के लिए समर्थन करने का आग्रह किया। मैडम कामा ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्थन जुटाने के लिए अपने अंतर्राष्ट्रीय मंच का उपयोग किया। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के तहत, भारत की दुर्दशा के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए उन्होंने यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका में सम्मेलनों सहित विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों को भी संबोधित किया।
जबकि, एक तरफ़, राव तुला राम  का योगदान भी भुलाया नहीं जा सकता। राव तुला राम   रेवाडी के सरदार और तेज सिंह राव की जागीर के उत्तराधिकारी थे।  उनहोंने   1857 के महान विद्रोह के आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कुछ सैनिकों को इकट्ठा किया और  रामपुरा के किले के पास ब्रिटिश सेना से मुकाबला किया। थोड़े समय के बाद, उनके सैनिकों ने नारनौल के पास नसीबपुर में एक बड़ी लड़ाई लड़ी और वह कर्नल गेरार्ड(Colonel Gerrard) की ब्रिटिश सेना के खिलाफ जीत की कगार पर थे। हालांकि, अंग्रेजों को अपने बचाव के लिए गलता (जयपुर) के नागा साधुओं और जिंद, कपूरथला और पतिला की सिख सेना का समर्थन प्राप्त हुआ। तब, राव तुला राम   ने पीछे हटने का आदेश दिया। 

संदर्भ 
https://tinyurl.com/y8ubuedf
https://tinyurl.com/5f66c7hv
https://tinyurl.com/yfjyws57
https://tinyurl.com/5n8b24yy

चित्र संदर्भ
1. मैडम भीकाजी कामा को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
2. 1987 में भारत के एक टिकट पर लाला हर दयाल को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. लाला हर दयाल को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. मैडम भीकाजी कामा को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. राव तुला राम की प्रतिमा को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)