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सनातन धर्म में जीवन का हर पड़ाव 16 संस्कारों में बंटा हुआ है और प्रत्येक संस्कार का अपना एक अलग महत्व होता है चाहे वह गर्भधारण संस्कार हो या अन्त्येष्टि संस्कार। बच्चा जब पैदा होता है तभी से वह कई संस्कारों से होकर गुजरता है और एक समय आता है जब वही बच्चा बुजुर्ग होकर परलोक सिधार जाता है। अब उसका अंतिम संस्कार किया जाता है जिसे अन्त्येष्टि संस्कार कहा जाता है जिसका सम्बन्ध यही है कि मानव 5 तत्वों से मिल कर बना है और अन्तोगत्वा वह उन्हीं 5 तत्वों में मिल गया। जिस घर में भी किसी की मृत्यु होती है उसके यहाँ 16 दिन तक कई विभिन्न कर्मकांड किये जाते हैं जिनमें प्रमुख है गरुण पुराण की कथा कहा जाना, सूतक या शुद्धक (शुद्ध), तेरही या त्रयोदशः और अंत में सोरही। इन तमाम कर्मकांडों का अपना एक अलग महत्व होता है।
मृत्यु के बाद अंत्येष्ठी से आने के बाद पीपल या अन्य किसी एक पेड़ में दो मटके बांधे जाते हैं जिनमें प्रतिदिन सुबह और शाम को पानी दिया जाता है तथा दीपक जलाया जाता है। इस कर्मकांड को सनातनी में बहुत महत्वपूर्ण माना गया है, सनातनी परंपरा के अनुसार मृतक की आत्मा अभी तक स्वर्ग नहीं गयी है तथा वो सब के बीच में ही स्थित है इसलिए आत्मा को पानी व दीप दिखाया जाता है। 11 वें या 12 वें दिन परिपाटी होती है जिसमें सभी ग्रामवासी व सगे सम्बन्धी अपने सर का मुंडन कराते हैं। उसी दिन आत्मा को एक गाय के जरिये वैतारना नदी पार करवाया जाता है। तथा उस बंधे मटके को फोड़ा जाता है। इस कर्मकांड को शुद्धक इस लिए भी कहा जाता है क्यूंकि इस दिन पूरे घर की सफाई की जाती है तथा पूरे घर को शुद्ध किया जाता है।
अन्त्येष्टि के 13वें दिन मरणोत्तर संस्कार किया जाता है। यह शोक-मोह की पूर्णाहुति का विधिवत् आयोजन है। मृत्यु के कारण घर में शोक- वियोग का वातावरण रहता है, बाहर के लोग भी संवेदना- सहानुभूति प्रकट करने आते हैं- यह क्रम तेरह दिन में पूरा हो जाना चाहिए, ताकि भावुकतावश शोक का वातावरण लम्बी अवधि तक न खिंचता जाए। इस दिन विभिन्न ब्राह्मणों व लोगों को बुला कर विभिन्न पकवानों को खिलाया जाता है जिसका सीधा तात्पर्य यह है कि परिवार में व्याप्त दुःख कम हो सके और कई दिनों से जो शोक में खाना आदि न खाए हों 13वें दिन अच्छे से खा लें ताकि उनकी तबियत सही रहे। अब 16 वें दिन जाकर पूरा कर्मकांड पूर्ण होता है।
1. अवध संस्कृति विश्वकोष-1, सूर्यप्रसाद दीक्षित