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फ्रांसीसी (French) और ब्रिटिश (British) औपनिवेशिक शक्तियों ने, हमारे देश भारत में कई युद्ध लड़े हैं। कर्नाटक में, टीपू सुल्तान ने ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company)की ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ने के लिए, एक बार फ्रांस (नेपोलियन बोनापार्ट(Napolean Bonaparte) के समय) का समर्थन भी लिया था। आइए, आज हम भारत-फ्रांसीसी इतिहास के ऐसे ही कुछ महत्वपूर्ण किस्सों को देखते हुए, अलग-अलग समय काल में दक्षिण भारत व कर्नाटक में प्रस्थापित फ्रांस और भारत के संबंधों पर भी जोर देंगे।
कई शताब्दियों तक भारत, फ्रांसीसी आधिपत्य, बहुमूल्य वस्तुओं, महत्वपूर्ण गठबंधनों, साहित्यिक प्रेरणा और आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि का स्रोत था। प्रारंभिक-आधुनिक भारत के सूती कपड़े (जिसे फ्रांसीसी भाषा में “भारतीय(Indians)” के रूप में जाना जाता था), फ्रांसीसी तटों पर व्यापार का एक प्रमुख उत्पाद थे। १७८८ में, पेरिस(Paris) के लोग, टीपू सुल्तान के मैसूर के राजदूतों को देखने के लिए हमारे देश में एकत्रित हुए थे। यह भी कहा जाता है कि, फ्रांसीसी क्रांति के दौरान, टीपू सुल्तान की राजधानी में तैनात फ्रांसीसी ‘भाड़े के सैनिकों’ ने, टीपू को “नागरिक-सुल्तान” के रूप में सम्मानित किया था।
साथ ही, फ्रांसीसी साहित्य भारत के बारे में की गई कल्पनाओं से भरा पड़ा है व इसके कुछ सबसे उल्लेखनीय पात्रों का भारत के साथ संबंध भी है। भारत की आध्यात्मिक विरासत ने, बीसवीं शताब्दी की दो सबसे विलक्षण फ्रांसीसी महिलाओं को भी आकर्षित किया था। वे महिलाएं मीरा अल्फासा(Mirra Alfassa)(जो बाद में श्री अरबिंदो के आश्रम की प्रमुख बनी थी) और गणितज्ञ मैक्सिमियानी पोर्टाज़(Maximiani Portaz) थी। पोर्टाज़ तो आश्वस्त हो गईं थी कि,एडॉल्फ हिटलर(Adolf Hitler) विष्णु का अवतार था।
दरअसल, अठारहवीं सदी के कुछ शुरुआती दशकों तक ऐसा लगता था कि, फ्रांस भारत में एक प्रमुख शक्ति हो सकता है। फ्रांसीसी उपनिवेश तब आधुनिक तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना के अधिकांश हिस्सों पर अपना प्रभाव डाल रहे थे।
१७४० में, यूरोप में ऑस्ट्रियाई उत्तराधिकार का युद्ध(War of the Austrian Succession) छिड़ गया था। १७४४ में फ्रांस और उसके सहयोगियों के विरोध में ग्रेट ब्रिटेन(Great Britain) को युद्ध में शामिल किया गया था। दोनों देशों की व्यापारिक कंपनियों ने भारत में सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखा, जबकि, उनके मूल देश यूरोपीय महाद्वीप पर कट्टर दुश्मन थे।
अंग्रेजों और फ्रांसीसीयों के बीच ऐसे मैत्रीपूर्ण संबंध थे कि, फ्रांसीसियों ने अपना माल सुरक्षित रखने के लिए पुदुच्चेरी से मद्रास भेजा था। परंतु, अंग्रेजों द्वारा शुरू में कुछ फ्रांसीसी व्यापारी जहाजों पर कब्जा करने के बाद, फ्रांसीसीयों ने ‘आइसले डी फ्रांस(isle de france)(वर्तमान मॉरीशस(Mauritius))’ जैसे सुदूर क्षेत्र से नौसैनिक बलों को बुलाया था। जुलाई १७४६ में, फ्रांसीसी कमांडर ला बॉर्डोनिस(Commander La Bourdonnais) और ब्रिटिश एडमिरल एडवर्ड पेटन(Admiral Edward Peyton) ने नेगापट्टम(तमिलनाडू) के पास, एक अनिर्णायक कार्रवाई की, जिसके बाद ब्रिटिश बेड़ा बंगाल वापस चला गया। फिर, २१ सितंबर १७४६ को फ्रांसीसियों ने मद्रास में ब्रिटिश चौकी पर कब्ज़ा कर लिया। बॉर्डोनिस ने मद्रास को अंग्रेजों को लौटाने का वादा किया था, लेकिन, जोसेफ फ्रांकोइस डुप्लेक्स(Joseph François Dupleix) ने वह वादा वापस ले लिया, और कब्जे के बाद वह मद्रास को अनवर-उद-दीन के हाथो में देना चाहता था। इसके बाद, नवाब ने मद्रास को फ्रांसीसियों से छीनने के लिए, १०,००० लोगों की सेना भेजी, लेकिन अडयार की लड़ाई में, एक छोटी फ्रांसीसी सेना ने उसे निर्णायक रूप से खदेड़ दिया। परंतु, बाद में भी मद्रास को लेकर कुछ छोटे-छोटे युद्ध चलते रहे।
यूरोप में ऑस्ट्रियाई (Austrian) उत्तराधिकार के युद्ध की समाप्ति के साथ, प्रथम कर्नाटक युद्ध भी समाप्त हो गया। ऐक्स-ला-चैपेल की संधि(Treaty of Aix-la-Chapelle) में, उत्तरी अमेरिका में लुइसबर्ग(Louisbourg) के फ्रांसीसी किले के बदले में मद्रास को अंग्रेजों को वापस दे दिया गया था, जिस पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया था। यह युद्ध भारत में मुख्य रूप से रॉबर्ट क्लाइव(Robert Clive) के पहले सैन्य अनुभव के रूप में उल्लेखनीय था, जिन्हें मद्रास में बंदी बना लिया गया था। लेकिन, वे वहां से भागने में सफल रहे, और उन्होंने फिर कुड्डालोर की रक्षा और पुदुच्चेरी की घेराबंदी में भाग लिया। तब, फ्रांसीसियों ने हैदराबाद के निज़ामों के संरक्षक के रूप में अपना पद भी हालांकि बरकरार रखा था।
एक तरफ, 18वीं सदी से नेपोलियन (napoleon) के सत्तासीन होने तक, फ्रांस और विभिन्न भारतीय राज्यों के बीच विभिन्न गठबंधन बने थे। टीपू सुल्तान द्वारा भी, गठबंधन के कई प्रस्ताव दिए गए थे, जिससे उनकी मदद के लिए स्वयंसेवकों का एक फ्रांसीसी बेड़ा भेजा गया था। और, यहां तक कि, नेपोलियन ने मिस्र में अपने १७९८ के अभियान के माध्यम से, मैसूर साम्राज्य के साथ एक संबंध बनाने के प्रयास को प्रेरित किया था।
१७८३ की वर्साय की संधि(Treaty of Versailles) और फ्रांसीसी समर्थन को हटाने के बाद, टीपू सुल्तान, मैंगलोर को अंग्रेजों से वापस लेने में असमर्थ रहे। हालांकि, बाद में १७८४ में, वह १० महीने की घेराबंदी के बाद नियंत्रण हासिल करने में कामयाब रहे। आख़िरकार उन्होंने १७८४ में अंग्रेज़ों के साथ शांति स्थापित कर ली।
१७८६ में, टीपू सुल्तान ने फिर भी कॉन्स्टेंटिनोपल(Constantinople) के माध्यम से फ्रांस में एक दूतावास का प्रस्ताव भेजा था, लेकिन इसे रद्द करना पड़ा। हालांकि जुलाई १७८७ में, टीपू सुल्तान ने सीधे पेरिस में, एक नया दूतावास प्रस्ताव भेजा, जिसमें तीन राजदूत मोहम्मद डेरविच खान, अकबर अली खान और मोहम्मद उस्मान खान शामिल थे। उनके साथ पुदुच्चेरी के फ्रांसीसी व्यापारी एम. मोनेरॉन(M. Monneron) भी थे।
अक्टूबर १७९४ और अप्रैल १७९६ में, टीपू सुल्तान ने फिर से फ्रांस के सामने एक आक्रामक और रक्षात्मक गठबंधन का प्रस्ताव रखा। फ्रांसीसी क्रांति के कारण, फ्रांस को भारत को समर्थन देने में बाधा उत्पन्न हुई, लेकिन, नेपोलियन के उदय के साथ संपर्क फिर से शुरू हो गए।
१७९४ में, फ्रांसीसी रिपब्लिकन अधिकारियों के समर्थन से, सुल्तान ने ‘गणतंत्र के कानूनों के अनुरूप कानून बनाने’ के लिए, मैसूर के जैकोबिन क्लब(Jacobin Club of Mysore) की स्थापना में मदद की। उन्होंने इस स्वतंत्रता का जश्न मनाने हेतु, एक पेड़(Liberty Tree) भी लगाया और खुद को नागरिक टीपू घोषित किया था।
संदर्भ
https://tinyurl.com/2wh7jr2s
https://tinyurl.com/vz59hae3
https://tinyurl.com/4bdecbzk
चित्र संदर्भ
1. फ़्रांस की सेना और टीपू सुल्तान को संदर्भित करता एक चित्रण (Look and Learn, wikimedia)
2. मीरा अल्फासा और श्री अरबिंदो को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. फ़्रांस की संसद में विद्रोह को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. 1870 में फ़्रांस के दृश्य को संदर्भित करता एक चित्रण (picryl)
5. पोलिलुर की लड़ाई (1780) के दृश्य को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
6. टिप्पू सुल्तान के शव को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
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