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भारत में आपको ऐसे कई उदाहरण देखने को मिल जायेंगे, जहां फ्लॉप से फ्लॉप फिल्म ने भी कमाई के रिकॉर्ड तोड़े है । दरअसल देश में कई फ़िल्में केवल इसलिए भी सुपरहिट हुई हैं, क्यों कि इन फिल्मों के गाने बेमिसाल थे। गानों को एक तरह से भारतीय फिल्मों की आत्मा कहा जा सकता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि देश की कुछ शुरूआती फिल्मों में आत्मा यानी आवाज ही नहीं थी। किंतु जब से फिल्मों को आवाज मिली है तब से फिल्मों को देखने का अनुभव और फिल्मों का सार ही बदल गया। जब फिल्मों में समकालिक संवाद शामिल होने लगे, तो उन्हें "बोलती हुई तस्वीरें" या टॉकीज़ “(Talkies)" कहा जाने लगा। उससे पहले मूक फिल्मों का ही चलन हुआ करता था।
"द जैज़ सिंगर (The Jazz Singer)" को टॉकीज़ के रूप में बनाई गई पहली पूर्ण-लंबाई वाली फिल्म माना जाता है। 1927 में रिलीज हुई इस फिल्म के साथ ही मूक फिल्मों का भी अंत हो गया। पहले की फ़िल्में मूक होती थी, और श्यामश्वेत होती थी। लेकिन इसके बाद ध्वनि और रंगीन फिल्मों के आगमन ने पूरे फिल्म उद्योग को ही बदल कर रख दिया।
1908 में बनी फिल्म "ए विजिट टू द सीसाइड (A Visit To The Seaside)" को पहली रंगीन फिल्म माना जाता है। लगभग आठ मिनट की इस लघु ब्रिटिश फिल्म (Short British Film) में दक्षिणी इंग्लैंड के ब्राइटन (Brighton) में समुद्र तट के खूबसूरत दृश्यों को कैद करने के लिए किनेमैकोलर (Kinemacolor) नामक एक विशेष तकनीक का उपयोग किया गया था।
1914 में द वर्ल्ड, द फ्लेश एंड द डेविल (The World,The Flesh And The Devil) नामक एक लंबी फिल्म बनाई गई थी। यह पहली पूर्ण-लंबाई वाली ड्रामा फिल्म (Drama Film) थी। दुर्भाग्य से, यह फ़िल्म अब उपलब्ध नहीं है, लेकिन इसे रंगीन फिल्मों की शुरुआत के रूप में याद किया जाता है। 1899 में, पेरिस में सिनेमैक्रोफोनोग्राफ (Cinemacrophonograph) की शुरुआत हुई, जो कि एक ध्वनि-फिल्म प्रणाली थी। इस प्रणाली में व्यक्तिगत रूप से सुनने के लिए इयरफ़ोन (Earphones) की आवश्यकता पड़ती थी। इसके बाद 1900 में फोनो-सिनेमा-थिएटर (Phono-Cinema-Theatre) नामक एक बेहतर प्रणाली ने पेरिस प्रदर्शनी (Paris Exhibition) में ध्वनि के साथ लघु प्रदर्शन दिखाने की अनुमति दी।
लेकिन इसके बावजूद सिंक्रनाइज़ेशन (Synchronization), वॉल्यूम (Volume) और ध्वनि की गुणवत्ता से जुड़ी कई बड़ी चुनौतियों के कारण फिल्मों और रिकॉर्डेड ध्वनि का मिलन नहीं हो पाया। 1900 में लियोन गौमोंट (Leon Gaumont) ने एक सिंक्रोनाइज्ड फिल्म (Synchronized Film) और टर्नटेबल सिस्टम (Turntable System) का प्रदर्शन किया। बाद में उन्होंने एल्गेफोन (Algephon) पेश किया, जो संपीड़ित हवा का उपयोग करके ध्वनि के स्तर को बढ़ा देता था। लेकिन यह भी व्यावसायिक रूप से लोकप्रिय नहीं हुआ। 1910 तक, ध्वनि फिल्मों के प्रति उत्साह कम हो गया था, क्योंकि ये प्रणालियाँ मुद्दों को पूरी तरह से हल नहीं करती थीं पूरी तरह से संतुष्टि जनक नहीं थी और महंगी साबित होती थीं।
वापस पीछे चलते हुए 20वीं सदी की शुरुआत में, थॉमस एडिसन (Thomas Edison) के एक पूर्व कर्मचारी, यूजीन लाउस्टे (Eugene Louste) ने एक ऐसी विधि के लिए पेटेंट प्राप्त किया, जो ध्वनि को प्रकाश तरंगों में बदल देती थी, जिसे बाद में फिल्म में रिकॉर्ड किया जा सकता था। इस प्रणाली में छवियों से अलग पट्टी पर ध्वनि मौजूद होती थी। हालाँकि, लाउस्टे का आविष्कार भी व्यावसायिक रूप से आगे नहीं बढ़ पाया।
इस बीच, एडिसन भी अपने स्वयं के आविष्कारों में सुधार करते रहे। 1913 में, वह एक अद्यतन किनेटोफोन (Kinetophone) लेकर आए, जो फिल्मों को प्रदर्शित करता था और फिल्मों के दृश्यों के तालमेल यानी सिंक (Sync) में ध्वनि बजाता था। लेकिन कुछ खामियों के कारण यह अविष्कार भी लंबे समय तक नहीं चला। लगभग उसी समय, फिनिश आविष्कारक (Finnish Inventor) एरिक टाइगरस्टेड (Eric Tigerstedt) को अपनी साउंड-ऑन-फिल्म (Sound-On-Film) तकनीक के लिए पेटेंट प्राप्त हुआ।
हालांकि इन प्रगतियों के बावजूद भी फिल्म उद्योग में ध्वनि फिल्मों को अपनाने का चलन विकसित नहीं हुआ। अधिकांश शुरुआती ध्वनि फिल्मों में अभी भी अभिनेता केवल पहले से रिकॉर्ड किए गए ऑडियो पर अपने लिप-सिंक (Lip-Syncing) कर रहे थे, और उनकी गुणवत्ता भी बड़े स्क्रीन के लिए पर्याप्त अच्छी नहीं थी।
लेकिन 1919 में एक अमेरिकी आविष्कारक ली डी फॉरेस्ट (Lee De Forest) ने कुछ ऐसे पेटेंट दाखिल किये, जिससे पहली सफल साउंड-ऑन-फिल्म तकनीक का उदय हुआ। उन्होंने ध्वनि को सीधे फिल्म स्ट्रिप पर रिकॉर्ड किया। ऐसा उन्होंने इसलिए किया क्योंकि यदि रिकॉर्डिंग के समय इसे ठीक से सिंक किया जाए, तो यह पूरी तरह से सिंक में बजती रहेगी। वह एक अन्य आविष्कारक, थियोडोर केस (Theodore Case) की मदद से अपने सिस्टम को और बेहतर बनाते रहे।
इस बीच, इलिनोइस विश्वविद्यालय के एक पोलिश इंजीनियर जोसेफ टाइकोसिन्स्की-टाइकोसिनर (Joseph Tykosinski-Tykosiner) भी एक ऐसी ही तकनीक पर काम कर रहे थे। उन्होंने 1922 में अपनी साउंड-ऑन-फिल्म मूवी दिखाई, लेकिन यह डी फॉरेस्ट की तरह लोकप्रिय नहीं हो पाई।
साउंड-ऑन-फिल्म के क्षेत्र में एक बड़ा क्षण 15 अप्रैल, 1923 को न्यूयॉर्क शहर में देखा गया, जब डी फ़ॉरेस्ट की ध्वनि वाली लघु फ़िल्में पहली बार रिवोली थिएटर (Rivoli Theater) में दिखाई गईं। बाद में, डी फ़ॉरेस्ट को अपनी एक साउंड फ़िल्म के पेटेंट के लिए अदालत में भी लड़ना पड़ा, लेकिन इस केस को वह जीत गए। 1924 में, उनके स्टूडियो ने ध्वनि के साथ पहली ड्रामा फिल्म (First Drama Film) प्रदर्शित की, जिसका नाम "लव्स ओल्ड स्वीट सॉन्ग (Love's Old Sweet Song)"था।
इसके बाद ध्वनि फिल्में एक बड़े प्रयोग के रूप में शुरू हुईं, लेकिन जल्द ही इन्होनें आधुनिक फिल्मों का रूप ले लिया जहां ध्वनि और चित्र एक दूसरे से पूरी तरह मेल खाते थे।
1926 में एलन क्रॉस्लैंड (Alan Crosland) द्वारा निर्देशित फिल्म डॉन जुआन (Don Juan) पहली ऐसी फिल्म बनी, जिसमें संगीत और ध्वनि प्रभाव, स्क्रीन पर चल रहे दृश्यों से पूरी तरह से मेल खा रहे थे । हालाँकि, इसमें डायलॉग नहीं बोले गए थे।
यदि आप फिल्म में क्रिएटिव डायरेक्टर (creative director) बनना चाहते हैं, तो आप डॉन जुआन द्वारा इस्तेमाल किए गए साउंड-ऑन-डिस्क सिस्टम (Sound-On-Disc Systems) जैसी तकनीकों के बारे में और अधिक जान सकते हैं। इस प्रणाली ने ध्वनियों को दृश्यों के साथ पूरी तरह से समयबद्ध करने की अनुमति दी। यह इस क्षेत्र में पहले के तरीकों की तुलना में एक बड़ा सुधार था।
इसके बाद 1927 में फिर “द जैज़ सिंगर” नामक फिल्म आई, जिसका निर्देशन भी क्रॉस्लैंड ने किया था। इस फिल्म को अक्सर वास्तविक संवाद वाली पहली फिल्म माना जाता है। हालाँकि इसमें केवल लगभग 281 शब्द बोले गए थे। यह पहली फिल्म थी जिसने फिल्म उद्योग को मूक फिल्मों से टॉकीज़ फिल्मों का रास्ता दिखाया।
जब फिल्मों में पहली बार समकालिक भाषण प्रदर्शित होना शुरू हुआ, तो उन्हें “ टॉकीज़ " कहा जाने लगा। 1930 के दशक तक, टॉकीज़ फ़िल्में दुनिया भर में लोकप्रिय हो गई थी। अमेरिका में, इन फिल्मों ने एक प्रमुख सांस्कृतिक और व्यावसायिक शक्ति के रूप में हॉलीवुड (Hollywood) उद्योग की स्थिति को मजबूत किया। हालाँकि, यूरोप में, कुछ फिल्म निर्माता और आलोचक इस बात से परेशान थे कि बोले गए शब्दों पर जोर देने से मूक फिल्मों की कलात्मक सुंदरता कम हो सकती है। वहीँ जापान में बहुत बाद तक, मूक फिल्मों में आमतौर पर सजीव वर्णन ही होता था। वहां पर टॉकीज फिल्मों को लोकप्रिय होने में थोड़ा समय लगा। लेकिन भारत में, फिल्मों में ध्वनि की शुरूआत ने फिल्म उद्योग में क्रांति ला दी, जिससे इस उद्योग का बड़े पैमाने पर विकास हुआ। इस प्रकार भारत 1960 के दशक से ही दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म निर्माता रहा है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/5cr8ztx9
https://tinyurl.com/2ssu39ys
https://tinyurl.com/mwfbrvk8
चित्र संदर्भ
1.1934 में किसी अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में प्रदर्शित होने वाली पहली भारतीय टॉकीज फिल्म सीता' की शूटिंग को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
2. डब्ल्यू.के.एल. द्वारा निर्मित द डिक्सन एक्सपेरिमेंटल साउंड फिल्म (1894 या 1895 से प्राप्त छवि को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. 1908 में बनी फिल्म "ए विजिट टू द सीसाइड" को पहली रंगीन फिल्म माना जाता है, के एक दृश्य को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. लियोन गौमोंट के एक ध्वनि आधारित आविष्कार को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
5. एडिसन के किनेटोफोन को दर्शाता एक चित्रण (picryl)
6. रिवोली थिएटर में लगे एक फिल्म के पोस्टर को दर्शाता एक चित्रण (picryl)
7. द जैज़ सिंगर के पोस्टर को दर्शाता एक चित्रण (picryl)
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