शून्य की खोज की रोचक कहानी, ऐसे बना था भारत गणित में विश्व गुरु

जौनपुर

 23-03-2024 11:08 AM
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा

हम जानते हैं कि, शून्य इस संख्या का अपने आप में कोई महत्व नहीं है। लेकिन, यदि इसके पहले या बाद में कोई संख्या रखी जाए, तो उस संख्या का महत्व बढ़ता या घट जाता है। शून्य की विशेषता यह है कि, इसे किसी भी संख्या से गुणा या भाग देने पर परिणाम शून्य ही रहता है। तो आइए आज, शून्य की कहानी का रोचक इतिहास जानते हैं और शून्य का महत्व समझते हैं। साथ ही, भारतीय दर्शन में शून्य के संबंध के बारे में भी जानिए।
हमारे पास शून्य का सबसे पहला प्रमाण, लगभग 5,000 साल पहले मेसोपोटामिया(Mesopotamia) की सुमेरियन संस्कृति(Sumerian culture) से है। शून्य की अवधारणा ने, न केवल गणित में बल्कि लोगों के सामान्य जीवन में भी बहुत सारे बदलाव लाए हैं। शून्य के कई अलग-अलग नाम हैं, उदाहरण के लिए, ‘शून्य(Null या Nil)’, अंक के रूप में ‘0’, संस्कृत में ‘शून्य’, इत्यादि। यह दिलचस्प है कि, शून्य के कारण गणित की उत्पत्ति कैसे बदल गई। जबकि, गणित में अब इसका एक अभाज्य अंक के रूप में उपयोग किया जाता है। आधुनिक शून्य के बारे में जानने से पहले, आइए भारत में शून्य की उत्पत्ति के बारे में जानें। माना जाता है कि, शून्य की उत्पत्ति 5वीं शताब्दी ईसवी के आसपास हिंदू सांस्कृतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में हुई थी। संस्कृत में शून्य के लिए ‘शून्य’ शब्द मौजूद है, जो शून्यता को दर्शाता है। भारत में शून्य की उत्पत्ति प्रसिद्ध खगोलशास्त्री और गणितज्ञ आर्यभट्ट के द्वारा हुई है। आर्यभट्ट ने शून्य का एक स्थानधारक संख्या के रूप में उपयोग किया था। फिर, 5वीं शताब्दी में, आर्यभट्ट ने दशमलव संख्या प्रणाली में शून्य की शुरुआत की और इसलिए, इसे गणित में पेश किया गया। आर्यभट्ट के बाद 7वीं शताब्दी में, ब्रह्मगुप्त ने शून्य के नियमों का वर्णन किया। दूसरी ओर, गणित में शून्य की उत्पत्ति का सबसे स्पष्ट प्रमाण, भारत की सबसे पुरानी पांडुलिपि में वर्णित है, जिसे ‘बख्शाली पांडुलिपि’ के नाम से जाना जाता है। इस पुस्तक में शून्य को एक बिंदु के रूप में इस्तेमाल किया गया था।
जब शून्य की अवधारणा अरब पहुंची, तो उस संख्या को एक अंडाकार आकार दिया गया जिसे आज हम ‘0’ अंक के रूप में जानते हैं। यही कारण है कि, शून्य हिंदू-अरबी अंक प्रणाली से संबंधित है। आर्यभट्ट के बाद शून्य का श्रेय ‘ब्रम्हपुत्र’ को दिया जाता है। ब्रम्हपुत्र’ ने 7वीं शताब्दी में गणितीय संक्रियाओं में शून्य का प्रयोग शुरू किया था। जबकि, आधुनिक शून्य को बाद में पेश किया गया, जब शून्य भारत से चीन(China) और इसके बाद में मध्य पूर्व(Middle East) तक पहुंच गया। लगभग 773 ईसवी में, गणितज्ञ मुहम्मद इब्न-मूसा अल- ख्वारिज्मी ने भारतीय अंकगणित का अध्ययन और संश्लेषण किया। तब उन्होंने दिखाया कि, सूत्रों की प्रणाली में शून्य कैसे कार्य करता है। इस अवधारणा को उन्होंने ‘अल-जबर’ कहा था, जिसे आज बीजगणित के रूप में जाना जाता है। 1200 ईसवी के आसपास, इतालवी गणितज्ञ फिबोनाची(Fibonacci) ने यूरोप(Europe) में शून्य की शुरुआत की थी। प्रारंभ में, मध्य पूर्व में इसे ‘सिफर (Sifar)’ कहा जाता था। जब यह इटली(Italy) में पहुंचा, तो इसे ‘ज़ेफ़ेरो(Zefero)’ नाम दिया गया, और बाद में अंग्रेजी में इसे ‘ज़ीरो(Zero)’ कहा गया।
पश्चिमी गणित में शून्य का परिचय, मध्य युग के दौरान अरबी ग्रंथों(Arabian books) के लैटिन(Latin) भाषा में अनुवाद के माध्यम से हुआ। फिबोनाची को उत्तरी अफ्रीका(North Africa) और मध्य पूर्व की अपनी यात्रा के दौरान, हिंदू-अरबी अंक प्रणाली का अध्ययन करना पड़ा, जिसमें शून्य भी शामिल था। उनकी प्रभावशाली पुस्तक “लिबर अबासी(Liber Abaci)” ने यूरोप में शून्य सहित कुछ अन्य हिंदू-अरबी अंकों के उपयोग को लोकप्रिय बनाने में मदद की। ईसाई धर्म के आगमन के बाद, यूरोप के कुछ धार्मिक नेताओं ने तर्क दिया था कि, चूंकि ईश्वर हर चीज़ में मौजूद है, इसलिए, जो कुछ भी किसी चीज़ का प्रतिनिधित्व नहीं करता है, वह शैतानी होना चाहिए। मानवता को शैतानों से बचाने के प्रयास में, उन्होंने तुरंत ही शून्य को अस्तित्व से मिटा दिया। क्योंकि, यह किसी चीज़ का प्रतिनिधित्व नहीं करता था। हालांकि, फिर भी व्यापारियों ने गुप्त रूप से इसका उपयोग करना जारी रखा।
इसके विपरीत, बौद्ध धर्म में शून्यता की अवधारणा न केवल किसी भी राक्षसी संपत्ति से रहित है, बल्कि, वास्तव में निर्वाण के मार्ग पर, अध्ययन के योग्य एक केंद्रीय विचार भी है। ऐसी मान्यता में, किसी भी चीज़ के लिए गणितीय प्रतिनिधित्व करना या न करना, चिंता की बात नहीं थी। वास्तव में, अंग्रेजी शब्द “जीरो (Zero)” मूल रूप से हिंदी “शून्यता” से लिया गया है, और यह बौद्ध धर्म में एक केंद्रीय अवधारणा है।
सनौबर या बर्च(Birch) की छाल के एक पुराने टुकड़े पर बना एक छोटा सा बिंदु, गणित के इतिहास की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक है। दरअसल, इस छाल का उपयोग प्राचीन भारतीय गणितीय दस्तावेज़ – बख्शाली पांडुलिपि के तौर पर किया जाता था। और, वह बिंदु ‘शून्य संख्या’ का पहला ज्ञात उपयोग है। इसके अलावा, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय(University of Oxford) के कुछ शोधकर्ताओं ने हाल ही में पाया है कि, यह दस्तावेज़ हमारे कुछ पूर्वानुमान से 500 साल पुराना अर्थात तीसरी या चौथी शताब्दी का है। आज, शून्य के बिना गणित की कल्पना करना कठिन है। स्थितिगत संख्या प्रणाली जैसे कि, दशमलव प्रणाली में शुन्य अंक का स्थान वास्तव में महत्वपूर्ण है। शून्य के आविष्कार ने संगणनाओं को अत्यंत सरलीकृत कर दिया है, तथा गणितज्ञों को बीजगणित और गणना जैसे महत्वपूर्ण गणितीय विषयों को विकसित करने के लिए मदद की है। और अंततः, यह कंप्यूटर का भी आधार बन गया। शून्य के आविष्कार, अंशों का वर्णन करने में भी सहायक है। किसी संख्या के अंत में शून्य जोड़ने से उसका परिमाण बढ़ जाता है, जबकि, दशमलव बिंदु की सहायता से किसी संख्या के आरंभ में शून्य जोड़ने से उसका परिमाण घट जाता है।

संदर्भ
https://tinyurl.com/pp5u4j5k
https://tinyurl.com/2s46ru6y
https://tinyurl.com/4kw54dd9
https://tinyurl.com/2t7ynwak

चित्र संदर्भ
1. शून्य को संदर्भित करता एक चित्रण (प्रारंग चित्र संग्रह)
2. सांबोर शिलालेख से खमेर अंकों में संख्या 605 (शक युग 605 ईस्वी सन् 683 से मेल खाती है)। इसे दशमलव अंक के रूप में शून्य का सबसे पहला ज्ञात भौतिक उपयोग माना जाता है। को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. बख्शाली पांडुलिपि में शून्य को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. शून्य के लिए प्रारंभिक यूनानी प्रतीक के उदाहरण को संदर्भित करता एक चित्रण (youtube)
5. शून्य को संदर्भित करता एक चित्रण (needpix)



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