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आमतौर पर परीक्षा में अस्सी प्रतिशत अंक लाना एक बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। लेकिन यदि बात भारत में सीवेज प्रबंधन की हो तो "अस्सी प्रतिशत" का यही आंकड़ा हमारे लिए चिंताजनक भी हो सकता है। दरअसल, पर्यावरण की निगरानी करने वाली एक संस्था द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार "भारत में अस्सी प्रतिशत सीवेज का उचित तरीके से प्रबंधन नहीं किया जाता है, और यह सीधे देश की नदियों में प्रवाहित होता है।" जिससे हमारे देश में पीने के पानी के मुख्य स्रोत प्रदूषित हो रहे हैं। पीने योग्य पानी को प्रदूषित करने में फ्लश शौचालय (Flush Toilet) से निकला दूषित जल बहुत बड़ा योगदान देता है।
फ्लश शौचालय की अवधारणा हमारे बीच लंबे समय से मौजूद है। हालांकि आज हम फ्लश शौचालय के जिस संस्करण से परिचित हैं, उसका आविष्कार एक अभिजात और लेखक सर जॉन हैरिंगटन (Sir John Harington) द्वारा 1590 के दशक में किया गया था। हैरिंगटन, महारानी एलिजाबेथ प्रथम (Queen Elizabeth) के गॉडसन (Godson) भी थे। हालांकि उनका यह डिज़ाइन ठीक-ठाक था, लेकिन उस समय यह व्यावहारिक नहीं था क्योंकि इसे संचालित करने के लिए बहुत अधिक पानी की आवश्यकता पड़ती थी। साथ ही उस समय इसे जोड़ने के लिए कोई उचित सीवर प्रणाली (Sewer System) भी मौजूद नहीं थी।
लेकिन अगली दो शताब्दियों के बाद, तेज़ी से बढ़ते औद्योगीकरण और वाणिज्यिक विकास के साथ ही, फ्लश शौचालय सहित सफाई उपकरणों की एक नई श्रंखला उपलब्ध हो गई। 1851 की महान प्रदर्शनी में प्रदर्शन के बाद उनकी लोकप्रियता आसमान छू गई, जिसके बाद वे मध्यमवर्गीय घरों में एक आवश्यक वस्तु बन गए। हालाँकि, 20वीं सदी तक भी फ्लश शौचालय, आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए एक विलासिता की वस्तु माने जाते थे, क्यों कि अधिकांश लोग इसके खर्च को वहन नहीं कर सकते थे।
हालाँकि पहली नजर में आपको भी लंदन जैसे शहर में फ्लशिंग टॉयलेट (Flushing Toilet) का आगमन स्वच्छता के क्षेत्र में एक बड़ी उपलब्धि की तरह लग सकता है, लेकिन वास्तव में इसने परिस्थितियों को और भी बदतर बना दिया।
दरअसल शुरू-शुरू में शौचालयों को फ्लश करने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला पानी नालियों में भर जाता था, और अक्सर ओवरफ्लो (Overflow) हो जाता है। इसके बाद दूषित अपशिष्ट वाला पानी सीवरों से जुड़ी स्थानीय जल आपूर्ति को भी प्रदूषित कर देता था। आपको जानकर हैरानी होगी कि 1858 की गर्मियों में हालात इतने खराब हो गए कि मानव अपशिष्ट के कारण टेम्स नदी (River Thames ) से आने वाली गंध को द ग्रेट स्टिंक (Great Stink) के नाम से जाना जाने लगा।
लेकिन इसके बाद भूमिगत सीवर नेटवर्क (Underground Sewer Network ) बनाने के लिए एक विशाल इंजीनियरिंग परियोजना शुरू की गई जो इस समस्या का समाधान बनकर उभरी। यह परियोजना, मुख्य रूप से इंजीनियर जोसेफ बाज़लगेट (Joseph Bazalgette) द्वारा डिजाइन की गई। 1859 में शुरू हुई इस परियोजना का अधिकांश भाग दस साल से भी कम समय में पूरा हो गया। इस परियोजना के तहत पहले से मौजूद प्रणाली के अधिकांश हिस्से को बदल या अपग्रेड कर दिया गया और लगभग 1,100 मील नए सीवर का निर्माण किया था। ये नए सीवर 82 मील लंबे बड़े नए 'इंटरसेप्टिंग सीवर ('intercepting Sewer)' से जुड़ गये। लेकिन दुर्भाग्य से, कच्चा मानव अपशिष्ट अभी भी नदी में डाला जा रहा रहा था, जिससे टेम्स मुहाने के किनारे पर रहने वाले समुदाय परेशान हो रहे थे।
1878 में, एसएस प्रिंसेस ऐलिस (SS Princess Alice) नामक एक जहाज टेम्स नदी में कोलियर एसएस बायवेल कैसल (Ss Bywell Castle) के साथ टकराव के बाद डूब गया, जिसके साथ ही मौजूद लाखों गैलन सीवेज भी समुद्र में बह गया, जिसके परिणामस्वरूप 650 लोगों की जान चली गई। इस त्रासदी ने अनुपचारित सीवेज को नदी में डालने की समस्या को उजागर किया।
वर्षों की बहस के बाद यह निर्णय लिया गया कि सीवेज को फेंकने से पहले उसका उपचार किया जाना चाहिए। सीवेज के भंडारण और रासायनिक उपचार के लिए मुख्य पंपिंग स्टेशनों के पास बड़े टैंक स्थापित किए गए थे। हालांकि तरल भाग को अभी भी नदी में बहा दिया जाता था, लेकिन 1887 से ठोस कचरे को जहाजों पर लादकर खुले समुद्र में फेंक दिया जाने लगा।
अपशिष्ट निपटान की यह पद्धति अगली शताब्दी तक जारी रही। लेकिन 1990 के दशक में, ब्रिटेन के जलक्षेत्र में इसे बड़े पैमाने पर प्रतिबंधित कर दिया गया था, हालांकि समुद्र अभी भी दुनिया के सीवेज के लिए एक प्रमुख डंपिंग ग्राउंड (Dumping Ground) बना हुआ है।
नियमों में बदलाव के बावजूद, हर साल बड़ी मात्रा में अनुपचारित कचरा अभी भी ब्रिटिश समुद्र में छोड़ा जाता है। आज, जब ब्रिटेन में कचरा बहाया जाता है, तो यह आमतौर पर हमारे घरेलू पाइपों के माध्यम से निकटतम भूमिगत सीवर पाइप में चला जाता है। फिर यह अन्य घरों और सड़क की नालियों के अपशिष्ट जल के साथ घुल जाता है। अखिरकार सीवेज को उपचार संयंत्र में ले जाया जाता है। यहाँ पर संयंत्र में, सीवेज से बड़ी वस्तुएं और गंदगी हटा दी जाती है। 2013 में, यह अनुमान लगाया गया था कि पृथ्वी पर 7 अरब से अधिक लोगों के साथ, सालाना लगभग 400 अरब किलोग्राम गंदगी पैदा हो रही थी।
इसलिए आज पानी की कमी से निपटने और हमारे पर्यावरण को स्वच्छ रखने के लिए सीवर के गंदे पानी का उपचार करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। शोध के अनुसार भारतीय शहरों में आज भी प्रतिदिन अपने द्वारा निर्मित लगभग 28% सीवेज ही साफ़ किया जाता है। दिसंबर 2022 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा जारी नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, भारतीय शहर वर्तमान में प्रतिदिन उत्पन्न होने वाले 72,368 मिलियन लीटर सीवेज में से केवल 28 प्रतिशत का ही ठीक से निपटारा अथवा उपचार करते हैं।
भारत को वास्तव में सीवेज उपचार की अपनी क्षमता को बढ़ावा देने की आवश्यकता है, और इसके द्वारा उपयोग की जाने वाली पुरानी विधियों को भी अद्यतन करने की आवश्यकता है। सीवेज उपचार की वर्तमान तकनीक काफ़ी पुरानी हो चुकी है और केवल ठीक-ठाक काम करती है। हालाँकि पहले के बजाय चीज़ें बेहतर हो रही हैं। कुछ राज्य सीवेज की सफाई के लिए नई तकनीक का उपयोग शुरू कर रहे हैं, जिससे 80-90% सीवेज को साफ किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, 2018 के बाद आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में स्थापित लगभग सभी सीवेज उपचार संयंत्र, दो ऐसी प्रौद्योगिकियों- अनुक्रमण बैच रिएक्टर (Sequencing Batch Reactor (Sbr) और मूविंग बेड बायोफिल्म रिएक्टर (Moving Bed Biofilm Reactor (MBBRS) पर आधारित हैं। हैदराबाद ने अपने एक संयंत्र को इस नई तकनीक के साथ अपग्रेड भी किया है। बिहार, महाराष्ट्र, गोवा, हरियाणा, पश्चिम बंगाल और उत्तराखंड जैसे अन्य राज्य भी इसी तरह का उन्नयन कर रहे हैं।
ये नई प्रौद्योगिकियां सार्थक मानी जा रही हैं क्योंकि इनसे न केवल बेहतर सफाई की जा सकती है साथ ही यह कचरे में अचानक हुई वृद्धि को संभाल सकती हैं, संसाधनों का बुद्धिमानी से उपयोग कर सकती हैं, और इनकी मदद से साफ किए गए पानी का दोबारा उपयोग किया जा सकता है।
मेम्ब्रेन बायोरिएक्टर (Membrane Bioreactors), पानी की सफाई के लिए हमारे पास मौजूद एक हाई-टेक विकल्प (High-Tech Options) है, जो जीव विज्ञान और मेम्ब्रेन दोनों का उपयोग करके पानी को वास्तव में अच्छी तरह से फ़िल्टर करता है। यह अत्यंत कुशल है और इसके लिए अधिक जगह की आवश्यकता नहीं है। लेकिन यह महंगा भी है, और इसे संचालित करने के लिए सचेत रहने तथा बहुत अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
चूंकि यह बहुत उच्च रखरखाव की मांग करता है, इसलिए सभी जगहों में एमबीआर का उपयोग नहीं किया जा सकता हैं।
हालांकि मूविंग बेड बायोफिल्म रिएक्टर नामक एक अन्य विधि का उपयोग शहर के सीवेज के लिए व्यापक रूप से किया जाता है। मूविंग बेड बायोफिल्म रिएक्टर अपशिष्ट जल को साफ करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक है। इसमें छोटे प्लास्टिक के टुकड़ों से भरे एक टैंक का उपयोग किया जाता है जो छोटे जीवों के लिए घर प्रदान करता है। जैसे ही अपशिष्ट जल टैंक से बहता है, ये जीव उसमे मौजूद अपशिष्ट को खा लेते हैं और पानी को शुद्ध करते हैं। यह तकनीक बहुत प्रभावी है क्योंकि यह प्लास्टिक के टुकड़ों पर रहने वाले विविध जीवों के कारण विभिन्न प्रकार के कचरे से निपट सकती है। यह कम अपशिष्ट कीचड़ पैदा करता है, कम ऊर्जा का उपयोग करता है, और बार-बार रखरखाव की आवश्यकता नहीं होती है।
भारत में भी बढ़ती जनसंख्या, शहरी विकास और औद्योगिकीकरण के कारण कई क्षेत्र पानी की कमी का सामना करने लगे हैं। विशेष आर्थिक क्षेत्रों (एसईजेड ) में स्थापित व्यवसाय अक्सर बहुत अधिक पानी का उपयोग करते हैं। उदाहरण के लिए, 200 कर्मचारियों वाली एक कंपनी 2 मिलियन लीटर तक पानी का उपयोग कर सकती है। हमारे पास पानी की मात्रा सीमित है और भारत को समस्या की गंभीरता को समझने की जरूरत है। कृषि, विनिर्माण और घरेलू उपयोग जैसे विभिन्न क्षेत्रों के कारण मीठे पानी की मांग बढ़ रही है। इससे टिकाऊ प्रथाओं को अपनाना और जल प्रबंधन के प्रति हमारे दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करना और भी जरूरी हो जाता है।
एक स्थायी भविष्य सुनिश्चित करने के लिए, हमें अपशिष्ट जल का भी प्रभावी ढंग से प्रबंधन करने की आवश्यकता है। सीवेज से निपटने के तरीके में बदलाव करके, हम पानी की कमी को दूर कर सकते हैं और भारत के भविष्य को बेहतर बना सकते हैं। पानी की कमी से लड़ने के लिए हमें बेहतर जल प्रबंधन की ओर बढ़ना होगा। इसमें अपशिष्ट को कम करना, पानी के उपयोग को अनुकूलित करना और अपशिष्ट जल के उपचार और पुनर्चक्रण के लिए उन्नत तकनीक का उपयोग करना शामिल है।
नहाने और बर्तन धोने जैसी गतिविधियों से आने वाले गंदे पानी को सीवेज उपचार संयंत्रों और अल्ट्राफिल्ट्रेशन तकनीकों (Ultrafiltration Techniques) का उपयोग करके उपचारित किया जा सकता है। उपचारित जल का उपयोग गैर-पीने योग्य उद्देश्यों जैसे सिंचाई और शौचालय में फ्लशिंग के लिए किया जा सकता है, जिससे मीठे पानी के संसाधनों पर दबाव कम करने में मदद मिलेगी।
पानी का पुनर्चक्रण भी इस दिशा में एक स्थाई कदम साबित हो सकता है। शोध बताते हैं कि भारत में लगभग 90% अपशिष्ट जल का हर दिन पुनर्नवीनीकरण किया जाता है। रिवर्स ऑस्मोसिस (Reverse Osmosis) जैसी तकनीकें पीने के पानी के मानकों को पूरा करने के लिए अपशिष्ट जल को फिर से उपयोगी बना सकती हैं, जिससे मीठे पानी के स्रोतों पर हमारी निर्भरता कम करने में मदद मिलती है।
टिकाऊ जल प्रबंधन को बढ़ावा देने में सरकार भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सरकार की प्रमुख भूमिकाओं में बुनियादी ढांचे में निवेश करना, वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करना और जल आपूर्ति की सुरक्षा के लिए कानून पारित करना शामिल है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/y232radz
https://tinyurl.com/46byy6n2
https://tinyurl.com/4yufu968
चित्र संदर्भ
1. 'ऑप्टिमस' टॉयलेट जिसका अविष्कार1870 में स्टीवंस हेलियर द्वारा किया गया कों संदर्भित करता एक चित्रण (lookandlearn)
2. सिस्टर्न फ्लश टॉयलेट आरेख को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. टेम्स नदी को संदर्भित करता एक चित्रण (lookandlearn)
4. नदी में मिलते सीवर के पानी को संदर्भित करता एक चित्रण (wallpaperflare)
5. समुद्र के कचरे को संदर्भित करता एक चित्रण (2Fndla)
6. अनुक्रमण बैच रिएक्टर को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
7. सीवेज जल सफाई संयंत्र को संदर्भित करता एक चित्रण (wallpaperflare)
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