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हर साल 28 फरवरी को भारत में ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ मनाया जाता है। सन् 1928 में इसी दिन भारतीय भौतिक विज्ञानी सर चन्द्रशेखर वेंकट रमन, जिन्हें सर सी.वी. रमन के नाम से भी जाना जाता है, द्वारा रमन प्रभाव (Raman Effect) की खोज की घोषणा की गई थी, जिसके लिए 1930 में उन्हें भौतिकी में नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया, जिससे वह वैज्ञानिक क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहले भारतीय बन गए। यह दिन भारतीय विज्ञान के इतिहास में एक ऐसा स्वर्णिम दिन है जिसके माध्यम से भारतीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी ने पूरे विश्व में अपनी एक अमिट छाप छोड़ कर हमारे देश को गौरवान्वित किया।
हमारा जिला जौनपुर अपने राजनीतिक एवं ऐतिहासिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन हमारे जौनपुर ने विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी अहम भूमिका निभाई है। हमारे जौनपुर जिले के ही दो वैज्ञानिकों, लालजी सिंह और अमित कुमार, ने इसरो में अहम पदों पर कार्य करते हुए क्रमशः डीएनए फिंगरप्रिंटिंग और चंद्रयान-3 मिशन में अपना अहम योगदान देकर जिले को गौरवान्वित किया है। तो आइए राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के मौके पर दोनों के योगदान को समझें और उनकी यात्रा से प्रेरणा लें।
हमारे जौनपुर जिले के एक छोटे से गाँव कलवारी में जन्मे लालजी सिंह को "भारतीय डीएनए फिंगरप्रिंटिंग के जनक" (Father of Indian DNA fingerprinting) के रूप में जाना जाता है। सिंह ने लिंग निर्धारण के आणविक आधार, वन्यजीव संरक्षण फोरेंसिक (forensics) और मनुष्यों के विकास और प्रवासन के क्षेत्रों में भी कार्य किया। 2004 में, भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी में उनके योगदान के लिए उन्हें ‘पद्म श्री’ पुरस्कार से नवाजा गया। लालजी सिंह ने भारत में विभिन्न संस्थानों और प्रयोगशालाओं की स्थापना की, जिनमें 1995 में ‘डीएनए फ़िंगरप्रिंटिंग और डायग्नोस्टिक्स केंद्र’ (Centre for DNA Fingerprinting and Diagnostics), 1998 में 'लुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण के लिए प्रयोगशाला' (Laboratory for the Conservation of Endangered Species (LaCONES) और 2004 में ‘जीनोम फाउंडेशन’ (Genome Foundation), जिसका उद्देश्य भारतीय आबादी को विशेष रूप से ग्रामीण भारत में रहने वाले वंचित लोग प्रभावित करने वाले आनुवंशिक विकारों का निदान और उपचार करना है, शामिल हैं।
सिंह ने अगस्त 2011 से अगस्त 2014 तक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (Banaras Hindu University (BHU) के 25वें कुलपति और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (Indian Institute of Technology (BHU) वाराणसी के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में अपने कार्यकाल से पहले, उन्होंने मई 1998 से जुलाई 2009 तक 'सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी' (Centre for Cellular and Molecular Biology (CCMB) के निदेशक और 1995-1999 तक सेंटर फॉर डीएनए फिंगरप्रिंटिंग एंड डायग्नोस्टिक्स (DNA Fingerprinting and Diagnostics (CDFD), हैदराबाद, के विशेष कर्तव्य अधिकारी (Officer on Special Duty (OSD) के रूप में भी कार्य किया। 1970 के दशक के दौरान, सिंह और उनके सहयोगियों ने भारतीय सांप की एक प्रजाति बैंडेड क्रेट banded krait और अन्य कशेरुकियों में एक अत्यधिक संरक्षित दोहराए गए डीएनए अनुक्रम की पहचान की, जिसे उन्होंने 1980 में "बैंडेड क्रेट माइनर" (Banded Krait Minor" (Bkm) अनुक्रम नाम दिया। इन Bkm अनुक्रमों को विभिन्न प्रजातियों में संरक्षित किया गया और मनुष्यों में इसके बहुरूप पाए गए। 1987 से 1988 तक, CCMB में काम करते हुए, सिंह ने सिद्ध किया कि इस Bkm-व्युत्पन्न जांच का उपयोग फोरेंसिक जांच के लिए मनुष्यों के व्यक्तिगत विशिष्ट डीएनए फ़िंगरप्रिंट उत्पन्न करने के लिए किया जा सकता है; और 1988 में, उन्होंने भारत में माता-पिता संबंधी विवाद के एक मामले को सुलझाने के लिए पहली बार उस जांच का उपयोग किया। इसके बाद सैकड़ों नागरिक और आपराधिक मामलों का डीएनए फिंगरप्रिंटिंग आधारित समाधान किया गया, जिसमें बेअंत सिंह और राजीव गांधी की हत्या के मामले, नैना साहनी तंदूर हत्याकांड, स्वामी प्रेमानंद मामला, स्वामी श्रद्धानंद मामला और प्रियदर्शिनी जैसे मामले शामिल थे। लालजी सिंह के इस सिद्धांत ने भारत की कानूनी प्रणाली में साक्ष्य के रूप में उपयोग किए जाने वाले डीएनए फ़िंगरप्रिंटिंग की स्थापना की।
अपने 45 साल शानदार वैज्ञानिक करियर में, सिंह ने लगभग 219 शोध पत्र प्रकाशित किए, जिसमें 2009 में भारतीय जनसंख्या इतिहास के पुनर्निर्माण का काम भी शामिल है। इसे ‘नेचर’ (Nature) पत्रिका के कवर पेज पर लाया गया था। अपने कार्यों एवं खोजों के लिए लाल सिंह जी को कई पुरस्कार भी प्रदान किए गए, जिनमें से कुछ मुख्य के नाम निम्नलिखित हैं:
- युवा वैज्ञानिकों के लिए भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी पदक, (1974)
- राष्ट्रमंडल फ़ेलोशिप, (1974-1976)
- CSIR प्रौद्योगिकी पुरस्कार (दो बार: 1992 और 2008),
- रैनबैक्सी अनुसंधान पुरस्कार (1994)
- जीवन विज्ञान में गोयल पुरस्कार (2000)
- विज्ञान गौरव पुरस्कार (2003)
- FICCI पुरस्कार (2002-03)
- द न्यू मिलेनियम प्लाक्स ऑफ ऑनर (The New Millennium Plaques o Honour), (2002)।
- JC बोस नेशनल फ़ेलोशिप (2006)
- CSIR भटनागर फ़ेलोशिप (2009)
- NRDC मेधावी आविष्कार पुरस्कार (2009),
- बायोस्पेक्ट्रम लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार (Biospectrum Life Time Achievement Award) (2011)
पद्म श्री, (2004)
इसी प्रकार जौनपुर के जमैथा गांव के रहने वाले एक अन्य युवा वैज्ञानिक अमित कुमार सिंह ‘भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन’ (Indian Space Research Organisation (ISRO) में संचालक निदेशक के पद पर तैनात हैं। हाल ही में आदित्य-एल1 (Aditya-L1) के सफल प्रक्षेपण में अमित कुमार ने महत्वपूर्ण योगदान दिया और इससे पहले वे चंद्रयान-3 (Chandrayaan-3) मिशन में भी सक्रिय रूप से शामिल रहे थे। अमित ने कई एनिमेशन और वीडियो बनाए जिससे चंद्रयान-3 मिशन की जटिल प्रक्रिया को समझाने में मदद मिली। जनता को मिशन के बारे में शिक्षित करने और वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की भावी पीढ़ियों को प्रेरित करने के लिए अपने तकनीकी चित्रण से उन्होंने जटिल लैंडिंग गतिशीलता को इस तरह से सरल बना दिया कि पूरी प्रक्रिया को समझना आसान हो गया।
संदर्भ
https://shorturl.at/jnyMN
https://shorturl.at/yBFRU
https://shorturl.at/kpyDR
https://shorturl.at/cgtL5
चित्र संदर्भ
1. लालजी सिंह और डीएनए को संदर्भित करता एक चित्रण (Flickr, youtube)
2. लालजी सिंह को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. डीएनए फ़िंगरप्रिंटिंग और डायग्नोस्टिक्स केंद्र को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. 1968 में बी.एच.यू., वाराणसी में लालजी सिंह (दाएं से दूसरे) को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. बैंडेड क्रेट माइनर" को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
6. चंद्रयान-3 को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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