स्थानीय संस्कृति और परंपराओं को दर्शाती है जौनपुर की ‘लोदी खुलदार’ लोक कला

दृष्टि III - कला/सौंदर्य
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स्थानीय संस्कृति और परंपराओं को दर्शाती है जौनपुर की ‘लोदी खुलदार’ लोक कला

प्राचीन काल से लेकर आधुनिक समय तक, भारत की सांस्कृतिक समृद्धि ने दुनिया भर के लोगों को आकर्षित किया है। भारत में लोक कला पीढ़ियों से चली आ रही समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। भारतीय लोक कला को उस कला के रूप में परिभाषित किया जाता है जो आम तौर पर साझा सांस्कृतिक विरासत वाले लोगों के समुदाय द्वारा निर्मित होती है। भारत के प्रत्येक क्षेत्र की लोक कला की अपनी अनूठी शैली है, जो स्थानीय संस्कृति और परंपराओं को दर्शाती है। सदियों से, ये लोक कलाकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने कौशल को आगे बढ़ाते रहे हैं, जिससे प्रत्येक लोक कला का जीवंत रूप आज तक बरकरार है। भारत की लोक कला जीवन के विभिन्न रंगों का उत्सव मनाती है। लोक कला का उपयोग अक्सर कहानियाँ सुनाने या महत्वपूर्ण घटनाओं का जश्न मनाने के लिए किया जाता है। भारत में, लोक कला का उपयोग घरों और मंदिरों की दीवारों को सजाने, त्यौहारों के लिए मुखौटे और कठपुतलियाँ बनाने, बर्तन बनाने और सजाने, सुंदर साड़ियाँ और अन्य कपड़े बनाने के लिए किया जाता है। भारत की लोक कला परंपरा के विविध रूप हैं। इसमें चित्रकला, मूर्तिकला, मिट्टी के बर्तन और कपड़ा डिजाइन जैसे कला रूपों की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल है। चमकीले रंगों का उपयोग करके चित्रकला बनाने से लेकर जटिल नक्काशी तक, भारत में लोक कला रूपों की एक विस्तृत श्रृंखला पाई जाती है। भारतीय लोक कला चित्रकला के कुछ सबसे लोकप्रिय प्रकारों में वार्ली चित्रकला, मधुबनी चित्रकला, गोंड कला, पट्टचित्र और फाड चित्रकला शामिल हैं। इनमें से प्रत्येक कला रूप का अपना अनूठा इतिहास और शैली है। उदाहरण के लिए, मधुबनी चित्रकला की उत्पत्ति बिहार के मिथिला क्षेत्र में हुई और इसकी विशेषता इसके जटिल डिजाइन और चमकीले रंग हैं। दूसरी ओर, वार्ली चित्रकला, पश्चिमी राज्य महाराष्ट्र में वारली जनजाति द्वारा प्रचलित है जिसमें दैनिक जीवन के दृश्यों को चित्रित करने के लिए सरल ज्यामितीय आकृतियों का उपयोग किया जाता है। वहीं मध्य प्रदेश की गोंड कला में गोंड लोगों की कहानियों और मिथकों को चित्रित करने के लिए गहरी रेखाओं और जीवंत रंगों का उपयोग किया जाता है। कला के ये सभी रूप अपनी सुन्दर एवं जटिल डिजाइनों के लिए बेशकीमती एवं विश्व प्रसिद्ध हैं। भारत में लोक कला का एक लंबा और विशिष्ट इतिहास रहा है, विभिन्न लोककलाओं को कई कारकों ने प्रभावित किया है। पौराणिक कथाओं, धर्म और सामाजिक मानकों का भारतीय लोक कलाओं पर स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। जबकि कुछ लोक कला शैलियाँ स्थानीय मिथकों और कहानियों से प्रेरित दिखती हैं, जिनमे हाथी या कमल के फूल सहित हिंदू पौराणिक प्रतीकों और रूपांकनों का उपयोग किया गया है। इनके अलावा, भारतीय लोक कला को फ़ारसी, इस्लामी और यूरोपीय सहित अन्य संस्कृतियों ने भी आकार दिया है। उदाहरण के लिए, पूर्वी राज्य ओडिशा की पट्टचित्र चित्रकला में फ़ारसी और मुगल कला के तत्व शामिल हैं, जबकि कोलकाता की कालीघाट चित्रकला यूरोपीय शैलियों से प्रभावित है। इन प्रभावों के बावजूद, भारतीय लोक कला ने अपना विशिष्ट चरित्र बरकरार रखा है और यह देश की सांस्कृतिक विरासत का एक अनिवार्य तत्व है। लोक कलाओं ने क्षेत्रीय समुदायों के सामाजिक और आर्थिक विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कई लोक कलाकार, विशेष रूप से महिलाएं, अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए अपनी कला को अपना पेशा बना कर उसमें सफल रही हैं। लोक कला को कभी-कभी सामाजिक गतिशीलता और सशक्तिकरण के लिए एक उपकरण के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है, जिससे महिलाओं और वंचित समूहों को उनके योगदान के लिए सराहना अर्जित करने में मदद मिलती है। हालांकि कई कारणों से इनका विकास भी कई बार बाधित हुआ है। पारंपरिक कौशल और विशेषज्ञता की हानि, बजटीय प्रतिबंध और सार्वजनिक मान्यता की कमी जैसे कुछ कारकों के कारण लोक कलाएं अपने वास्तविक रूप से कुछ भिन्न हो गई हैं। हालाँकि, पिछले कुछ वर्षों में लोगों में लोक कलाओं के प्रति रुचि जागृत हुई है, जिसने लोगों के मन में इन लोक कलाओं के पुनरत्थान के साथ साथ भारत की रचनात्मक विरासत के लिए गहरी समझ और सराहना की भावना को जन्म दिया है। इसके परिणामस्वरूप देश में लोक कला का पुनर्जागरण हुआ है। लोक कलाओं के बढ़ते महत्त्व को जानकर भारत में, लोक कलाकारों और उनके समुदायों का समर्थन करने के लिए कई गैर-लाभकारी संगठन और सरकारी पहल शुरू की गई हैं। उदाहरण के लिए, 'राष्ट्रीय लोकगीत सहायता केंद्र' द्वारा संचालित राष्ट्रीय लोक महोत्सव, देश के सभी हिस्सों के कलाकारों को अपना काम प्रदर्शित करने और संभावित ग्राहकों और समर्थकों के साथ संबंध स्थापित करने के लिए एक स्थान प्रदान करता है। इसी तरह, गैर सरकारी संगठन 'दस्तकार' द्वारा लोक कलाकारों को प्रशिक्षण और बाजार के अवसर प्रदान करने के लिए 'कलाकार सशक्तिकरण पहल' शुरू की गई है, जिससे उन्हें अपने कौशल में सुधार करने और अपनी आय बढ़ाने में मदद मिलती है। इससे वार्ली, मधुबनी और पट्टचित्र सहित कई पारंपरिक कला रूपों को बढ़ावा देने में सहायता मिली है। इन स्थानीय पहलों के अलावा, भारतीय लोक कला को वैश्विक मंच पर भी पहचान और सराहना मिली है, कई अंतरराष्ट्रीय संगठन इन कला रूपों का समर्थन और प्रचार कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, यूनेस्को (UNESCO) द्वारा छाऊ, कालबेलिया और कूडियाट्टम सहित कई पारंपरिक भारतीय कला रूपों को मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के हिस्से के रूप में मान्यता दी गई है। इसी प्रकार, भारतीय पारंपरिक लोक कला को अमेरिका (America) स्थित संगठन 'फोक आर्ट एलायंस' (Folk Art Alliance) के माध्यम से संरक्षित किया जाता है। संगठन ने भारतीय लोक कलाकारों को समर्थन देने के लिए कई पहल शुरू की हैं, जिनमें प्रशिक्षण और शिक्षा के लिए अनुदान और छात्रवृत्ति प्रदान करना शामिल है।
क्या आप जानते हैं कि उत्तर भारत में दिल्ली से हमारे शहर जौनपुर तक चित्रकला की एक ऐसी शैली व्याप्त थी जिसे लोदी खुलदार के नाम से जाना जाता था। यह शैली इतनी उत्कृष्ट थी कि इसने मांडू पांडुलिपियों पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। इसमें स्वदेशी और फारसी शैली का संश्लेषण किया गया था। नासिर शाह के शासनकाल के दौरान मांडू में चित्रित निमतनामा की एक पांडुलिपि चित्रण में इस शैली का उपयोग किया गया था। आज अन्य लोक कलाओं की भांति ही हमारे शहर जौनपुर की इस लोककला को भी संरक्षण की अत्यधिक आवश्यकता है।

संदर्भ

https://shorturl.at/kDI78
https://shorturl.at/qtNP
https://shorturl.at/rABU4

चित्र संदर्भ

1. मुग़ल क़ालीन लघु चित्रकला को संदर्भित करता एक चित्रण (picryl)
2. चेहरे पर चित्रकारी को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. लोककला का दीदार करते दर्शकों को संदर्भित करता एक चित्रण (garystockbridge617)
4. लोककला चित्र संग्रह को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
5. श्री कृष्ण के मथुरा आगमन को संदर्भित करता एक चित्रण (picryl)