जौनपुर - सिराज़-ए-हिन्द












अरिकामेडु: भारत के प्राचीन रोमन व्यापारिक बंदरगाह की रोमांचक कहानी
समुद्र
Oceans
31-05-2025 09:26 PM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर को केवल इत्र और इमामबाड़ों के शहर के तौर पर देखना काफ़ी नहीं है! एक समय था जब इस शहर की गलियाँ ज्ञान, व्यापार और शानदार तहज़ीब से गुलज़ार हुआ करती थीं! जब यहाँ शार्की सुल्तानों का राज था, तब इसे यूँ ही नहीं 'शिराज़-ए-हिन्द' का खिताब मिला था! यह एक ऐसा शहर था जहाँ कला, संस्कृति और कारोबार एक साथ फल-फूल रहे थे। हाँ, आज शायद अतीत की वो चहल-पहल थोड़ी थम गई है, मगर भारत के दूसरे हिस्सों की तरह, यहाँ भी इतिहास की तहों में कई ऐसी जगहें छिपी हैं, जो अपने पुराने गौरव की कहानी कहती हैं।
अरीकेमेडु भी ठीक ऐसी ही एक भूली-बिसरी जगह है! यह एक पुराना बंदरगाह है, जो आज के पुडुचेरी के नज़दीक था। करीब दो हज़ार साल पहले, यही वो ठिकाना था जहाँ से भारत और ताक़तवर रोमन साम्राज्य के बीच व्यापार का बड़ा सिलसिला चलता था! वहाँ खुदाई में जो रोमन मिट्टी के बर्तन, मोती और सिक्के मिले हैं, वे इस बात के पक्के सबूत हैं कि दुनिया के साथ भारत का व्यापार कितना पुराना और समृद्ध रहा है। आज के इस लेख में, हम अरीकेमेडु के इसी गहरे ऐतिहासिक मायने को परत-दर-परत खोलेंगे और पता लगाएंगे कि इसकी खोज कैसे हुई, यहाँ कौन-सी बेशकीमती चीज़ें मिलीं, और इस विरासत को बचाने के लिए क्या क़दम उठाए गए हैं।
अरीकामेडु की पुनः खोज-
सदियों पहले अरिकामेडु (Arikamedu), भारत और प्राचीन रोम के बीच व्यापार के प्रमुख केंद्रों में से एक हुआ करता था। यहाँ पर की गई खुदाई में एम्फ़ोरा (खास तरह के रोमन मटके), लैंप और कांच के बर्तन प्राप्त हुए हैं। साथ ही यहाँ पर पत्थर, कांच और सोने से बने मोती व क़ीमती रत्न भी खोजे गए हैं। ये सभी साक्ष्य इस बात की ओर इशारा करते हैं कि "दूसरी सदी ईसा पूर्व से लेकर आठवीं सदी ईस्वी के बीच इस बंदरगाह से भारत और बाइज़ेंटाइन (Byzantine) साम्राज्य के बीच बड़े पैमाने पर व्यापार होता था।” चोल साम्राज्य के दौरान भी अरिकामेडु को एक महत्वपूर्ण बंदरगाह के रूप में जाना जाता था।
जब हम 'व्यापार' शब्द सुनते हैं, तो आमतौर पर चीज़ों की ख़रीद-फ़रोख़्त में ही अटक जाते हैं। लेकिन, अरिकामेडु बंदरगाह वास्तव में विचारों और संस्कृति के आदान-प्रदान का भी एक अहम केंद्र हुआ करता था। इस जगह पर रोमन संस्कृति से प्रभावित कलाकृतियाँ मिली हैं। साथ ही ऐसे दस्तावेज़ी सबूत भी हैं जिनसे पता चलता है कि "शायद रोमन के कारीगर खुद भी अरिकामेडु की कार्यशालाओं में काम करते थे।"
इस स्थल पर हुई खुदाई से यहाँ एक रोमन व्यापारिक बस्ती होने के पुख़्ता सबूत मिले हैं। इनमें एम्फ़ोरा, लैंप, कांच के बर्तन, सिक्के, पत्थर, कांच और सोने से बने मोती व रत्न शामिल हैं। इन खोजों के आधार पर ऐसा लगता है कि इस बस्ती का रोमन और बाद में बाइज़ेंटाइन दुनिया के साथ दूसरी सदी ईसा पूर्व से लेकर आठवीं सदी ईस्वी के बीच बड़े पैमाने पर व्यापार होता था।
इस व्यापार के अलावा, अरिकामेडु अपने आप में एक विनिर्माण केंद्र भी था। जी हाँ! यहाँ पर कपड़ा, विशेष रूप से सूती मलमल, गहने और मोती भी बनाए जाते थे। यह बस्ती पत्थर, कांच और सोने के मोतियों के उत्पादन के लिए ख़ास तौर पर प्रसिद्ध थी।
यहाँ कई ऐसी विशिष्ट चीज़ें भी मिली हैं जो साफ़ तौर पर रोमन व्यापार से पहले की प्रतीत होती हैं। इनमें स्थानीय रूप से बने उत्पाद जैसे शंख, मोती और मिट्टी के बर्तन शामिल हैं। ये चीज़ें दिखाती हैं कि विदेशी प्रभाव आने से पहले भी यहाँ स्थानीय शिल्पकला की एक समृद्ध परंपरा मौजूद थी। इस स्थल से रेशम मार्ग से जुड़े व्यापार से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण खोजों में इंडो-पैसिफ़िक मोती, लाल और काले रंग के मिट्टी के बर्तन, तथा कब्रों पर निशान लगाने के लिए इस्तेमाल किए गए बड़े पत्थर शामिल हैं। ये सभी चीज़ें इस जगह के एक व्यापारिक केंद्र के रूप में स्थपित होने से पहले के दौर की मानी जाती हैं।
अरीकामेडु की पुनः खोज-
1930 के दशक में फ्रांस के एक पुरातत्वविद् और मुद्राशास्त्री, जौवे-डब्रूइल (Jouveau-Dubreuil), ने इस प्राचीन शहर के ऐतिहासिक महत्व को उजागर करने का काम शुरू किया। अरिकामेडु से पुरातात्विक वस्तुएँ इकट्ठा करते समय उन्हें एक इंटैग्लियो (नक्काशीदार रत्न) मिला, जिस पर एक व्यक्ति का चित्र बना हुआ था। उन्होंने उस व्यक्ति की पहचान रोमन सम्राट ऑगस्टस के रूप में की। अपनी इस महत्वपूर्ण खोज से उत्साहित होकर, जौवे-डब्रूइल ने पांडिचेरी के तत्कालीन गवर्नर को पत्र लिखा और यहाँ एक रोमन शहर होने की संभावना जताई!
इस जानकारी के सामने आने के बाद कई लोगों का ध्यान इस स्थल पर गया। फिर 1940 के दशक की शुरुआत में यहाँ खुदाई हुई और खुदाई में मिली कलाकृतियों को भारत के विभिन्न संग्रहालयों में भेजा गया। इसी दौरान, ब्रिटिश पुरातत्वविद् मॉर्टिमर व्हीलर (Mortimer Wheeler) को पांडिचेरी संग्रहालय में कुछ खास चीजें मिलीं। जब उन्होंने वहाँ रोमन एम्फ़ोरा (Roman amphorae), दीपक और चमकदार लाल मिट्टी के बर्तनों (red-glazed pottery) के टुकड़े देखे, तो उन्हें समझने में देर न लगी कि ये इटली के टस्कनी (Tuscany) क्षेत्र में स्थित रोमन शहर एरेज़ो (Arezzo) के प्रसिद्ध मिट्टी के बर्तन थे। इसके बाद 1945 में अरिकामेडु में व्हीलर के नेतृत्व में और खुदाई की गई, जिसने इस प्राचीन बंदरगाह शहर के अस्तित्व की पुष्टि करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
साल 1982 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) ने स्थल की सुरक्षा के लिए कई कदम उठाए। ए एस आई ने आवश्यक भूमि का अधिग्रहण किया और इसकी व्यवस्थित खुदाई तथा संरक्षण के लिए एक मास्टर प्लान भी तैयार किया। हालांकि, इन गंभीर प्रयासों के बावजूद यह ऐतिहासिक स्थल आज भी काफ़ी हद तक उपेक्षित है। इसे पर्यटकों और स्थानीय लोगों के लिए सुलभ बनाने और इसके महत्व को प्रदर्शित करने के लिए बहुत कम प्रगति हुई है। यहाँ तक कि एक प्रस्तावित संरक्षण परियोजना और यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में इसके नामांकन का मामला भी रुका हुआ है। परिणामस्वरूप, यह महत्वपूर्ण स्थल काफ़ी हद तक भुला दिया गया है, जिसे अधिकारियों और आम जनता, दोनों ने ही अनदेखा कर दिया है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में अरिकामेडु के प्रवेश द्वार और रेवेना के प्राचीन बंदरगाह का स्रोत : Wikimedia
हिंद महासागर के तट पर पाई जाती है अनोखी हंपबैक डॉल्फ़िन, इनका संरक्षण है आवश्यक
स्तनधारी
Mammals
30-05-2025 09:28 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर के नागरिकों, हिंद महासागर हंपबैक डॉल्फ़िन (Indian Ocean humpback dolphin) भारत के तटीय जल में पाई जाने वाली एक अनोखी प्रजाति है। अपने घुमावदार पृष्ठीय पंख और चंचल स्वभाव के लिए जानी जाने वाली यह डॉल्फ़िन, समुद्री जीवन के संतुलन को बनाए रखने में मदद करती है। दुर्भाग्यवश, जल प्रदूषण, अत्यधिक मछली पकड़ने और उनके प्राकृतिक आवास के विनाश के कारण इनकी संख्या लगातार कम हो रही है। ये डॉल्फ़िन हमारे समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और इनका विलुप्त होना प्रकृति एवं समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के लिए एक बड़ी क्षति होगी। तो आइए, आज हिंद महासागर हंपबैक डॉल्फ़िन की विशेषताओं को समझते हुए, इसके वितरण के बारे में जानते हैं कि ये डॉल्फ़िन आमतौर पर हिंद महासागर के समुद्र तट पर कहां पाई जाती है। अंत में, हम इस प्रजाति की सुरक्षा के लिए किए जाने वाले संरक्षण प्रयासों पर प्रकाश डालेंगे।
हिंद महासागर हंपबैक डॉल्फ़िन:
हिंद महासागर की हंपबैक डॉल्फ़िन, जिसका वैज्ञानिक नाम सूसा प्लंबिया (Sousa plumbea) है, दक्षिणी अफ़्रीका और पश्चिमी इंडोचीन के तटीय क्षेत्रों में निवास करती है। पहले इसे और इंडो-पैसिफ़िक हंपबैक डॉल्फ़िन को एक ही प्रजाति का माना जाता था, बाद में 2014 में इन्हें एक अलग प्रजाति के रूप में दर्ज़ कर दिया गया। हिंद महासागर हंपबैक डॉल्फ़िन एक मध्यम आकार की डॉल्फ़िन है जिसका वजन 150 से 200 किलोग्राम के बीच होता है और लंबाई 2 से 2.8 मीटर तक होती है। उनकी पीठ पर एक वसायुक्त कूबड़ होता है, जो उन्हें इंडो-पैसिफ़िक हंपबैक से अलग करता है, जिसमें अधिक प्रमुख पृष्ठीय पंख होता है, लेकिन कोई कूबड़ नहीं होता है। शिशु डॉल्फ़िन आमतौर पर भूरे रंग की होती हैं, लेकिन वयस्क डॉल्फ़िन के गहरे से हल्के भूरे अलग-अलग रंग होते हैं। उनमें से अधिकांश गहरे भूरे रंग की होती हैं। ये डॉल्फ़िन आम तौर पर 20 मीटर से कम गहरे उथले पानी में रहती हैं, जिसके कारण ये अक्सर विशिष्ट तटीय सुविधाओं तक सीमित होती हैं। हिंद महासागर हंपबैक डॉल्फ़िन सामाजिक जीव हैं जो समूह में रहती हैं, कभी-कभी ये इंडो-पैसिफ़िक बॉटलनोज़ डॉल्फ़िन जैसी अन्य प्रजातियों के साथ संपर्क एवं बातचीत भी करती हैं। उनके आहार में, मुख्य रूप से, साइनिड मछलियाँ, सेफ़ैलोपोड और कड़े खोलवाले जलजीव शामिल हैं।
वितरण:
सूसा प्लम्बिया दक्षिणी अफ़्रीका से लेकर पश्चिमी इंडोचीन तक फैली हुई हैं, जिसमें पूर्वी अफ़्रीका, मध्य पूर्व और भारत के तटीय क्षेत्र शामिल हैं। इनकी अधिक आबादी दक्षिण पूर्व एशिया में निर्धारित की गई है, विशेष रूप से चीन के दक्षिणी तट पर। हालाँकि, हाल की जाँचों में अरब प्रायद्वीप के तटों पर विशेष रूप से ओमान सल्तनत और संयुक्त अरब अमीरात के तटों पर, इनकी महत्वपूर्ण आबादी का निर्धारण किया गया है।
खतरा:
दुर्भाग्य से, हंपबैक डॉल्फ़िन को प्रदूषण और आवास क्षरण जैसी मानवीय गतिविधियों के कारण महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप इनकी शिशु और किशोर मृत्यु दर में वृद्धि हो रही है। इस प्रजाति को वर्तमान में लुप्तप्राय के रूप में वर्गीकृत किया गया है। उथले तटीय आवासों के प्रति उनके झुकाव के कारण, ये डॉल्फ़िन विशेष रूप से आवास विनाश, मछली पकड़ने के जाल में फंसने, जहाज के हमलों और ध्वनि प्रदूषण जैसे खतरों के प्रति संवेदनशील हैं। इसके अलावा, फंसे हुए डॉल्फ़िन के ऊतक विश्लेषण से पता चलता है कि कार्बक्लोरीन जैसे रासायनिक प्रदूषक इनके लिए महत्वपूर्ण खतरा हैं। विभिन्न देश इन डॉल्फ़िनों की सुरक्षा और उनकी आबादी के लिए आगे के खतरों को कम करने के लिए संरक्षण प्रयासों पर सक्रिय रूप से काम कर रहे हैं।
हंपबैक डॉल्फ़िन का संरक्षण:
- इन डॉल्फ़िन प्रजातियों के संरक्षण के लिए कई अलग-अलग रणनीतियों को शामिल करते हुए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इसके लिए सबसे पहले इन डॉल्फ़िन प्रजातियों के प्राकृतिक आवासों की रक्षा करना महत्वपूर्ण है। इसमें पानी की गुणवत्ता बनाए रखना, प्रदूषण को रोकना और नदी प्रणालियों और समुद्र तट के उपयोग को विनियमित करना शामिल है।
- मछली पकड़ने, नौकायन और विकास जैसी मानवीय गतिविधियाँ डॉल्फ़िन की आबादी पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकती हैं। मछली पकड़ने की प्रथाओं को विनियमित करके, ध्वनि प्रदूषण को कम करके और नाव यातायात को सीमित करके, इन गतिविधियों के नकारात्मक प्रभावों को घटाया जा सकता है, जिससे डॉल्फ़िन की आबादी के संरक्षण में मदद मिल सकती है।
- इन डॉल्फ़िन प्रजातियों और उनके आवासों के महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाने से संरक्षण प्रयासों के लिए समर्थन करने में मदद मिल सकती है। स्थानीय समुदायों, स्कूलों और पर्यटकों को इन प्रजातियों के महत्व के बारे में जागरूक बनाने के लिए शिक्षा कार्यक्रम तैयार किए जा सकते हैं।
- अनुसंधान और निगरानी कार्यक्रम आयोजित करने से इन प्रजातियों और उनके आवासों को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिल सकती है। इस जानकारी का उपयोग प्रभावी संरक्षण रणनीतियों को विकसित करने और समय के साथ इन प्रयासों की सफ़लता की निगरानी के लिए किया जा सकता है। प्रभावी संरक्षण प्रयासों के लिए सरकारी एजेंसियों, गैर सरकारी संगठनों, स्थानीय समुदायों और शोधकर्ताओं सहित विभिन्न हितधारकों के बीच सहयोग और साझेदारी की आवश्यकता है। एक साथ काम करके, ये समूह इन डॉल्फ़िन प्रजातियों की रक्षा के लिए प्रभावी संरक्षण रणनीतियों को विकसित और कार्यान्वित कर सकते हैं।
- नाव की सवारी और जल क्रीड़ा जैसी समुद्री पर्यटन गतिविधियों में वृद्धि के साथ, इन गतिविधियों को इस तरह से विनियमित करना महत्वपूर्ण है जिससे डॉल्फ़िन की सुरक्षा और संरक्षण सुनिश्चित हो सके। ऐसा नाव यातायात पर सख्त दिशानिर्देश लागू करके, डॉल्फ़िन से सुरक्षित दूरी बनाकर और उन गतिविधियों से बचकर किया जा सकता है जो डॉल्फ़िन को नुकसान पहुंचा सकती हैं।
- प्रदूषण डॉल्फ़िन आबादी के लिए बेहद हानिकारक हो सकता है। इसमें प्लास्टिक प्रदूषण, रासायनिक प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण शामिल हैं। पर्यावरण में प्रदूषण के स्तर को कम करने से इन प्रजातियों और उनके आवासों की रक्षा करने में मदद मिल सकती है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में सूसा प्लंबिया का स्रोत : Wikimedia
विभिन्न पारिस्थितिक तंत्र का समर्थन करते हैं मैंग्रोव वन, इनका संरक्षण है आवश्यक
जंगल
Forests
29-05-2025 09:31 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर के नागरिकों, क्या आप जानते हैं कि हाल ही में, गत वर्ष प्रकृति संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय संघ (The International Union for Conservation of Nature (IUCN)) द्वारा मैंग्रोव पारिस्थितिक तंत्र की जांच में लगभग 50% पारिस्थितिक तंत्र को कमज़ोर, लुप्तप्राय या गंभीर रूप से लुप्तप्राय के रूप में वर्गीकृत किया गया। मैंग्रोव पारिस्थितिक तंत्र की IUCN ने 'ग्लोबल मैंग्रोव एलायंस' (Global Mangrove Alliance) जैसे संगठनों के साथ 44 देशों के 36 क्षेत्रों का मूल्यांकन किया। इस मूल्यांकन के तहत दक्षिण भारत, श्रीलंका, मालदीव और उत्तर-पश्चिमी अटलांटिक के मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र को गंभीर रूप से लुप्तप्राय के रूप में पहचाना गया। इस मूल्यांकन के अनुसार, मैंग्रोव का लगभग 20% उच्च जोखिम में हैं और उन्हें लुप्तप्राय या गंभीर रूप से लुप्तप्राय के रूप में चिह्नित किया गया है, जो पतन के गंभीर जोखिम का संकेत देता है। क्या आप जानते हैं कि हमारे देश भारत में उष्णकटिबंधीय वर्षावनों से लेकर शुष्क पर्णपाती वनों, अल्पाइन वनों के साथ-साथ मैंग्रोव वन बहुलता में वन पाए जाते हैं। ये वन विभिन्न पौधों, जानवरों और पारिस्थितिक तंत्र का समर्थन करते हैं। ये वन स्वच्छ हवा बनाए रखने, पानी का भंडारण करने, मिट्टी को कटाव से बचाने और कई प्रजातियों को घर प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन वनों का संरक्षण न केवल प्रकृति के लिए, बल्कि हमारी आने वाली पीढ़ियों, जलवायु संतुलन और समग्र कल्याण के लिए भी महत्वपूर्ण है। तो आइए, आज भारत में मैंग्रोव वनों की उपस्थिति के बारे में जानते हुए, इन वनों का महत्व समझते हैं। उसके साथ ही, हम भारत में पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के मैंग्रोव वनों के बारे में जानेंगे और अंत में, मैंग्रोव संरक्षण के उद्देश्य से प्रमुख सरकारी और सामुदायिक पहलों की जांच करेंगे।
भारत में मैंग्रोव वनों की उपस्थिति:
मैंग्रोव भूमि और समुद्र के मिलन बिंदु पर स्थित अद्वितीय और अत्यधिक उत्पादक पारिस्थितिक तंत्र हैं। ये वन तटीय संरक्षण, जैव विविधता संरक्षण और जलवायु विनियमन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। विश्व के लगभग 40% मैंग्रोव वन दक्षिण पूर्व एशिया में पाए जाते हैं जो विश्व के मैंग्रोव आवरण का 6.8% है और दक्षिण एशिया में पाए जाने वाले कुल मैंग्रोव आवरण का लगभग 3% हिस्सा भारत में है। वर्तमान आंकड़ों के अनुसार, देश में मैंग्रोव का आवरण देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 0.15% अर्थात 4,975 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है। भारत में मैंग्रोव के अंतर्गत पाए जाने वाले कुल क्षेत्रफल का लगभग आधा हिस्सा अकेले पश्चिम बंगाल के सुंदरवन में है। भारत के कुल मैंग्रोव आवरण का 42.45% हिस्सा पश्चिम बंगाल में है, इसके बाद गुजरात में 23.66% और अंडमान निकोबार द्वीप समूह में 12.39% है। देश में पश्चिम बंगाल में 2114 वर्ग किलोमीटर, गुजरात में 1140 वर्ग किलोमीटर, अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में 617 वर्ग किलोमीटर, आंध्र प्रदेश में 404 वर्ग किलोमीटर एवं महाराष्ट्र 304 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में मैंग्रोव वन फैले हैं। केरल (9 वर्ग किलोमीटर) और केंद्रशासित प्रदेशों में, पुडुचेरी (2 वर्ग किलोमीटर) में मैंग्रोव आवरण देश में सबसे कम है।
मैंग्रोव वनों का महत्व:
- मैंग्रोव वन अत्यंत उत्पादक पारिस्थितिकी तंत्र हैं, जो जैव विविधता में अत्यधिक समृद्ध होते हैं।
- ये वन विभिन्न प्रकार की समुद्री प्रजातियों को आश्रय प्रदान करते हैं और युवा समुद्री जानवरों के लिए महत्वपूर्ण नर्सरी क्षेत्रों के रूप में कार्य करते हैं।
- ये वन विभिन्न प्रकार की मछलियों, सरीसृपों जैसे समुद्री कछुओं, भूमि कछुओं, मगरमच्छ, काइमैन, सांप और छिपकलियों और अकशेरुकी जीवों जैसे झींगा, केकड़े, सीप, ट्यूनिकेट्स, स्पंज, घोंघे और कीड़ों का घर हैं।
- इन वनों की सघन जड़ प्रणालियां नदियों और जमीन से बाहर बहने वाली तलछट को फंसाकर रखती हैं।
- ये समुद्र तट को स्थिर करते हैं और लहरों और तूफ़ानों से होने वाले कटाव को रोकते हैं।
- ये वन तटीय प्रणाली को चक्रवातों, तूफ़ानी लहरों आदि से बचाते हैं।
- चूंकि वे नियमित रूप से ज्वारीय लहरों का अनुभव करते हैं, इसलिए इनमें उनके प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो गई है।
मैंग्रोव वनों के प्रकार:
मैंग्रोव तटीय पौधे हैं जो गर्म, संरक्षित तटरेखाओं पर पाए जाते हैं। ये वन उन क्षेत्रों में अच्छी तरह से विकसित होते हैं जहाँ वसंत ज्वार के दौरान पानी बढ़ता है। ये वन खारे पानी में बहुत अच्छी तरह से विकसित होते हैं। ये क्षेत्र गर्म होते हैं, जिनका तापमान 26°C और 35°C के बीच होता है, और 1,000 से 3,000 मिलीलीमीटर के बीच उच्च वर्षा होती है। मैंग्रोव पेड़ों की जड़ें अनोखी होती हैं जो उन्हें तूफ़ानों और उच्च नमक के स्तर से बचने में मदद करती हैं। मैंग्रोव विभिन्न प्रकार के होते हैं:
- लाल मैंग्रोव: तटों पर पाए जाते हैं।
- काले मैंग्रोव: अपनी गहरी छाल के लिए जाने जाते हैं।
- सफ़ेद मैंग्रोव: सबसे ऊंचे स्थानों पर उगते हैं।
भारत में मैंग्रोव संरक्षण के लिए पहल:
- भारतीय वन सर्वेक्षण (Forest Survey of India (FSI) द्वारा भारत राज्य वन रिपोर्ट (India State of Forest Report (ISFR) 2023 के अनुसार, भारत में मैंग्रोव आवरण का क्षेत्र पिछले मूल्यांकन की तुलना में 0.34% अर्थात 17 वर्ग किलोमीटर बढ़ गया है।
- मिष्टी (तटीय आवास और मूर्त आय के लिए मैंग्रोव पहल (Mangrove Initiative for Shoreline Habitats & Tangible Incomes): यह पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (Ministry of Environment, Forest and Climate Change (MOEF & CC) के तहत एक सरकारी पहल है जिसका उद्देश्य समुद्र तट और नमक वाली भूमि पर मैंग्रोव आवरण को बढ़ाना है। इस पहल के तहत स्थानीय समुदायों को मैंग्रोव वृक्षारोपण करने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है और लोगों को मैंग्रोव के महत्व और पर्यावरण की रक्षा में उनकी भूमिका के बारे में शिक्षित करने के लिए जागरूकता अभियान चलाए जाते हैं।
- मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र में सतत जलकृषि (Sustainable Aquaculture In Mangrove Ecosystem (SAIME) पहल: इस पहल के तहत जलकृषि फार्म के निर्माण को बढ़ावा दिया जाता है जिसमें टिकाऊ एकीकृत मैंग्रोव जलकृषि प्रणाली का उपयोग किया जाता है।
- जादुई मैंग्रोव अभियान: इस पहल के तहत डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया ने मैंग्रोव संरक्षण पर नौ तटीय राज्यों में नागरिकों को शामिल किया है।
- 'मैंग्रोव और प्रवाल भित्तियों के संरक्षण और प्रबंधन' पर राष्ट्रीय तटीय मिशन कार्यक्रम: यह मैंग्रोव संरक्षण और प्रबंधन के लिए एक वार्षिक प्रबंधन कार्य योजना की तैयारी है।
संदर्भ
सुंदरबन में हिरणों का स्रोत : Wikimedia
जौनपुर वासियों, जानिए कैसे लेज़र प्रिंटर से रोज़मर्रा की प्रिंटिंग हुई और भी सुविधाजनक!
वास्तुकला 2 कार्यालय व कार्यप्रणाली
Architecture II - Office/Work-Tools
28-05-2025 09:32 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर वासियों, क्या आपने कभी लेज़र प्रिंटर(Laser printers) के बिना, अपने दैनिक जीवन की कल्पना की हैं? शायद नहीं! क्योंकि, लेज़र प्रिंटर ने मुद्रण को तेज़, स्पष्ट और अधिक कुशल बना दिया हैं। विद्यालय और कॉलेज, अध्ययन सामग्री और परीक्षा पत्रों को प्रिंट करने के लिए उनका उपयोग करते हैं, जबकि, कार्यालय आधिकारिक दस्तावेज़ों और रिपोर्टों को प्रिंट करने हेतु, उन पर निर्भर हैं। एक तरफ़, दुकानें और व्यवसाय, बिलिंग, चालान और विज्ञापनों के लिए इनका उपयोग करते हैं। पारंपरिक इंकजेट प्रिंटर(Inkjet printers) की तुलना में,, लेज़र प्रिंटर टोनर पाउडर(Toner powder) और ऊष्मा का उपयोग करते हैं। इससे वे लागत प्रभावी एवं टिकाऊ बन जाते हैं। अपनी उन्नत मुद्रण तकनीक के लिए प्रसिद्ध कलरजेट(ColorJet) जैसे भारतीय ब्रांडों ने, देश में उच्च गुणवत्ता वाले मुद्रण समाधानों के विकास में अहम योगदान दिया है।
इस संदर्भ में, आज हम चर्चा करेंगे कि, लेज़र प्रिंटर क्या है और यह उच्च गुणवत्ता वाले प्रिंट का उत्पादन करने के लिए, कैसे काम करता है। फिर हम विभिन्न प्रकार के लेज़र प्रिंटर्स के लाभों को देखेंगे। अंत में, हम लेज़र एवं इंकजेट प्रिंटर की तुलना करेंगे, तथा उनके प्रमुख अंतरों को समझेंगे।
लेज़र प्रिंटर क्या है?
लेज़र प्रिंटर, ऐसा प्रिंटर है, जो कागज़ पर उच्च गुणवत्ता वाले पाठ और ग्राफ़िक्स (graphics) का उत्पादन करने के लिए, एक लेज़र बीम(Laser Beam) का उपयोग करता है। यह कागज़ पर टोनर(Toner) को स्थानांतरित करने के लिए, इलेक्ट्रोस्टिक रूप से चार्ज(Electrostatically charged) हुए टोनर और एक उष्ण फ़्यूज़र(Fuser) के संयोजन का उपयोग करके काम करता है। लेज़र प्रिंटर को अपनी तेज़-प्रिंटिंग गति, तेज़ कार्यक्षमता और विश्वसनीयता के लिए जाना जाता है।
लेज़र प्रिंटर कैसे काम करते हैं?
एक लेज़र प्रिंटर में, कई गतिशील भाग और घटक हैं, जो आपके अंतिम दस्तावेज़ या छवि को प्रिंट करने के लिए एक साथ काम करते हैं। लेज़र प्रिंटर के प्रमुख हिस्सों में निम्नलिखित शामिल हैं –
१.टोनर कारट्रिज(Toner cartridges),
२.छवि ड्रम(Image drum) या फ़ोटो कंडक्टर(Photo-conductor),
३.ट्रांसफर रोलर(Transfer roller) या बेल्ट,
४.फ़्यूज़र यूनिट,
५.लेज़र, और
६.मिरर(Mirror) अर्थात आयना।
इन हिस्सों की मदद से, कोई लेज़र प्रिंटर निम्नलिखित तरीकों से काम करता है।
1. जब आप अपने कंप्यूटर, टैबलेट या मोबाइल फ़ोन से प्रिंट करने की आज्ञा देते हैं, तब वह डेटा प्रिंटर मेमोरी (Data Printer Memory) को भेजा जाता है, जहां इसे अस्थायी रूप से संग्रहीत किया जाता है।
2. प्रिंटर थोड़ा उष्ण होने लगता है। इस समय, हमें प्रतीक्षा करने की आवश्यकता होती है, क्योंकि प्रिंटर का तार तब गर्म होता है, और ड्रम को पॉज़िटिव स्टैटिक चार्ज (Positive Static Charge) देने के लिए तैयार होता है।
3. फिर, ड्रम रोल करने लगता है, और अपनी पूरी सतह पर एक पॉज़िटिव चार्ज प्राप्त करता है। कुछ प्रिंटर में चार रंगों के लिए चार ड्रम होते हैं।
4. इसके बाद, लेज़र सक्रिय होता है, और ड्रम की सतह पर छवि को प्रतिबिंबित करने के लिए, दर्पणों की एक श्रृंखला के खिलाफ़ बीम छोड़ता है। फिर यह एक विपरीत नकारात्मक विद्युत चार्ज का उपयोग करके, अपने प्रिंट को अंकित करता है।
5. टोनर कारट्रिज (Toner cartridge) और हॉपर(Hopper), फिर धीरे-धीरे ड्रम पर पॉज़िटिव रूप से चार्ज किए गए, कार्बन टोनर कणों को जारी करते हैं।
6. ट्रांसफ़र बेल्ट (Transfer belt), इसके बाद प्रिंटर के माध्यम से कागज़ को रोल करता है, जो इसे एक पॉज़िटिव या सकारात्मक चार्ज देता है। जब यह कागज़, ड्रम से गुज़रता है, तब नकारात्मक रूप से चार्ज टोनर, आपके प्रिंट के आकार में पृष्ठ पर मुद्रण करता है।
7. तब टोनर को, उष्ण रोलर द्वारा कागज़ पर पिघलाया जाता है, जिसे फ़्यूज़र यूनिट कहा जाता है।
लेज़र प्रिंटर के क्या फ़ायदे हैं?
1. वे अपनी उच्च मुद्रण गति के लिए जाने जाते हैं, जो उन्हें व्यस्त कार्य के लिए उपयुक्त बनाते हैं।
2. इसके अतिरिक्त, लेज़र प्रिंटर तेज़ी से और सटीक प्रिंट का उत्पादन करते हैं, जो उन्हें दस्तावेज़ों और ग्राफ़िक्स के लिए आदर्श बनाते हैं।
3. वे इंकजेट प्रिंटर(Inkjet printers) की तुलना में, प्रति पृष्ठ कम लागत रखते हैं।
4. लेज़र प्रिंटर आम तौर पर अधिक विश्वसनीय होते हैं, और अन्य प्रिंटर्स की तुलना में, इन्हें कम रखरखाव की आवश्यकता होती है।
इंकजेट और लेज़र प्रिंटर के बीच प्रमुख अंतर-
इंकजेट और लेज़र प्रिंटर के बीच मुख्य अंतर, उनके कार्य सिद्धांत और मुद्रण प्रकार में हैं।
इंकजेट प्रिंटर, छवियों या पाठ को मुद्रित करने के लिए कागज़ पर स्याही की छोटी बूंदों का छिड़काव करके काम करते हैं। वे रंगीन तस्वीरों और ग्राफ़िक्स को प्रिंट करने के लिए, काफ़ी उपयुक्त हैं, क्योंकि वे मृदु रंग संगति के साथ उच्च-रिज़ॉल्यूशन प्रिंट (High Resolution Print ) का उत्पादन कर सकते हैं। हालांकि, इंकजेट प्रिंटर, लेज़र प्रिंटर की तुलना में धीमा हो सकता है। साथ ही, लेज़र प्रिंटर में टोनर कारट्रिज की लागत भी है।
दूसरी ओर, जबकि लेज़र प्रिंटर, एक टोनर पाउडर का उपयोग करते हैं, जो उष्णता का उपयोग करके, कागज पर फ्यूज़ किया जाता है। वे जल्दी और कुशलता से पाठ दस्तावेज़ों के बड़े संस्करणों को प्रिंट करने के लिए उत्कृष्ट हैं। काली व सफ़ेद प्रिंटिंग के लिए, लेज़र प्रिंटर अक्सर तेज़ और अधिक लागत प्रभावी होते हैं। लेकिन वे इंकजेट प्रिंटर के समान, जीवंत रंगों का उत्पादन नहीं कर सकते हैं।
अतः, इंकजेट और लेज़र प्रिंटर के बीच की पसंद, आपकी विशिष्ट आवश्यकताओं पर निर्भर करती है। यदि आपको बहुत सारे रंगीन फ़ोटो या ग्राफ़िक्स प्रिंट करने की आवश्यकता है, तो एक इंकजेट प्रिंटर बेहतर विकल्प हो सकता है। हालांकि, यदि आप मुख्य रूप से पाठ दस्तावेज़ों को प्रिंट करते हैं, और आपको तेज़ एवं लागत प्रभावी मुद्रण की आवश्यकता है, तो एक लेज़र प्रिंटर आपका विकल्प हो सकता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में लेज़र प्रिंटर का स्रोत : Wikimedia
जौनपुर में स्वच्छ ऊर्जा की ओर एक सकारात्मक कदम
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
27-05-2025 09:27 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर की गलियों में जब सूरज की पहली किरण पड़ती है, वो वह केवल यहाँ की ऐतिहासिक इमारतों को ही रोशन नहीं करती, बल्कि भविष्य की संभावनाओं को भी उजागर करती हैं। क्या आप जानते हैं कि शर्की शासन की सांस्कृतिक धरोहर और शीतला चौकिया देवी की भूमि, जौनपुर, आज एक नए युग की ओर बढ़ रहा है! यह युग है, संधारणीय या सतत ऊर्जा (Sustainable Energy) का!
जी हाँ, बिजली की बढ़ती मांग और जीवाश्म ईंधन पर हमारी बढ़ती निर्भरता, न केवल पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रही है, बल्कि भविष्य की ऊर्जा सुरक्षा पर भी सवाल खड़े कर रही है। लेकिन जौनपुर शहर, जो कभी अपनी इत्र, इमली और इमारतों के लिए प्रसिद्ध था, आज पर्यावरण संरक्षण की इस दौड़ में भी पीछे नहीं है। सौर ऊर्जा से सजी छतें, और पवन ऊर्जा की दिशा में बढ़ते कदम, न सिर्फ़ लागत को कम कर रहे हैं, बल्कि एक स्वच्छ और सुरक्षित भविष्य की नींव रख रहे हैं। इस बदलाव में केवल सरकार या बड़ी कंपनियाँ नहीं, बल्कि यहाँ के आम नागरिक छात्र, किसान, दुकानदार भी बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। आज, जब पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन के संकट से जूझ रही है, ऐसे समय में जौनपुर जैसे आंतरिक शहरों की भूमिका और भी ज़्यादा अहम हो जाती है। अक्षय ऊर्जा को अपनाकर हम न केवल कार्बन उत्सर्जन को घटा सकते हैं, बल्कि अपने शहर को आने वाली पीढ़ियों के लिए भी रहने लायक बना सकते हैं। आज के इस लेख में हम समझेंगे कि आखिर संधारणीय ऊर्जा क्या है, यह हरित भविष्य के लिए क्यों जरूरी है, और जौनपुर जैसे शहर इस क्षेत्र में कैसे योगदान दे सकते हैं। साथ ही हम जानेंगे कि सरकार की कौन-कौन सी पहलें इस बदलाव को गति दे रही हैं।
आइए सबसे पहले जानते हैं कि संधारणीय सतत ऊर्जा क्या है?
आज के समय में संधारणीय ऊर्जा, ऊर्जा क्षेत्र में एक नए युग की नींव रख रही है। यह हमें दुनिया की तीन सबसे बड़ी चुनौतियों (पर्यावरण संरक्षण, ऊर्जा की सुरक्षा, और सामाजिक-आर्थिक विकास) का ठोस समाधान दे रही है।
यह न केवल ऊर्जा आपूर्ति को डीकार्बोनाइज़ (Decarbonize) करने में मदद करती है, बल्कि जीवाश्म ईंधनों पर हमारी निर्भरता से भी हमें आज़ादी दिला रही है। इस क्षेत्र ने पूरी दुनिया में लाखों लोगों को रोज़गार देकर यह भी साबित किया है कि यह केवल पर्यावरण ही नहीं, अर्थव्यवस्था को भी नई दिशा दे रही है।
सतत विकास का असली मक़सद है “एक ऐसा भविष्य जहाँ हर व्यक्ति को गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए ज़रूरी संसाधन मिलें, वह भी बिना प्रकृति को नुकसान पहुँचाए।” इसके लिए ज़रूरी है कि हम आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय पहलुओं के बीच संतुलन बनाए रखें! अक्षय ऊर्जा (renewable energy) इस संतुलन को संभव बनाने में एक निर्णायक भूमिका निभा रही है।
आइए अब जानते हैं कि यह हमें किस तरह से दुनिया की सबसे बड़ी चुनौतियों से निपटने का रास्ता दे रही है:
1. ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में जबरदस्त कमी: जब हम सौर, पवन और अन्य नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को अपनाते हैं, तो इससे जीवाश्म ईंधनों पर हमारी निर्भरता कम होती है! इसके साथ ही वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) जैसी ग्रीनहाउस गैसों (greenhouse gases) की मात्रा भी घटती है। इससे न केवल जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी असर को रोकने में मदद मिलती है, बल्कि पृथ्वी का भविष्य भी सुरक्षित होता है।
2. ऊर्जा सुरक्षा मजबूत होती है: नवीकरणीय ऊर्जा हमें ईंधन के लिए बाहरी आपूर्ति पर निर्भर होने से बचाती है। जब कोई देश सौर या पवन जैसी स्थानीय और टिकाऊ अर्थात ऊर्जा का उपयोग करता है, तो वह ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर बनता है। इससे आपात स्थितियों में भी ऊर्जा आपूर्ति बनी रहती है और ऊर्जा सुरक्षा को नई मज़बूती मिलती है।
3. ऊर्जा की पहुँच को बनाता है हर कोने तक संभव: आज भी दुनिया के कई दूरदराज़ और गरीब इलाकों में लोग अंधेरे में जी रहे हैं। लेकिन अब, अक्षय ऊर्जा तकनीकों की बदौलत, ये समुदाय भी पहली बार बिजली की रोशनी देख पा रहे हैं। इससे न सिर्फ़ जीवन आसान होता है, बल्कि भूख, गरीबी और पिछड़ेपन जैसी समस्याओं से लड़ने की ताक़त भी मिलती है। भारत सरकार की योजनाओं ने इस दिशा में बड़ी क्रांति ला दी है! आज गाँव-गाँव तक बिजली पहुँच रही है और लाखों ज़िंदगियाँ बदल रही हैं।
4. ग्रामीण विकास को देता है नई रफ़्तार: जब गाँवों को स्थायी और स्वच्छ ऊर्जा मिलती है, तो वहाँ केवल बिजली नहीं आती बल्कि वहाँ नई उम्मीदें, रोज़गार के अवसर और बेहतर जीवनशैली भी पहुँचती है। खेती से लेकर छोटे उद्योगों तक, हर क्षेत्र में विकास की लहर दौड़ जाती है। अक्षय ऊर्जा, गाँवों को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में एक मज़बूत कदम साबित हो रही है।
हम सभी को यह समझना होगा कि हमारा पर्यावरण हर छोटी-बड़ी गतिविधि से प्रभावित होता है। इसलिए, प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करना हम सबकी जिम्मेदारी है।
दुनिया के भविष्य को बदलने वाली सबसे बड़ी क्रांति (संधारणीय ऊर्जा समाधान), हमें न केवल ऊर्जा उत्पन्न करने का तरीका दे रही है, बल्कि इसके उपयोग की सोच और दिशा भी पूरी तरह बदल रही है।
ये समाधान, आर्थिक और सामाजिक दोनों मोर्चों पर ज़बरदस्त फ़ायदे लेकर आ रहे हैं:
1. पर्यावरण पर गहरा सकारात्मक असर: जब हम सौर, पवन और अन्य स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों को अपनाते हैं, तो ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में नाटकीय रूप से कमी आती है। इससे न सिर्फ़ आज का वातावरण सुधरता है, बल्कि हम आने वाली पीढ़ियों को भी एक सुरक्षित पृथ्वी दे रहे हैं।
2. बड़ी पैमाने पर पैसों की बचत: जब हम पवन और सौर जैसे नवीकरणीय विकल्पों में निवेश करते हैं, तो महंगे और अस्थिर जीवाश्म ईंधनों पर हमारी निर्भरता घटती है। इसका सीधा असर हमारी जेब पर पड़ता है और वो असर फ़ायदे का होता है।
3. स्थानीय समुदायों को नई ताकत: नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाएँ गाँवों और कस्बों में रोज़गार के हज़ारो नए अवसर लेकर आती हैं। साथ ही, ये इन क्षेत्रों में बेहतर सड़कें, बिजली और आधारभूत ढाँचा भी तैयार करती हैं! यानि बदलाव हर स्तर पर होता है।
4. देश की ऊर्जा सुरक्षा को नई मजबूती: जब हम ईंधनों को आयात करना बंद कर देते हैं, तो देश की ऊर्जा स्वतंत्रता भी बढ़ती है। इससे किसी भी वैश्विक संकट के समय भी हमारी ऊर्जा आपूर्ति सुरक्षित बनी रहती है।
5. नवाचार की रफ्तार को नया आयाम: स्वच्छ ऊर्जा की ओर बढ़ते कदम नई-नई तकनीकों को जन्म दे रहे हैं। इससे ऊर्जा उत्पादन से लेकर उसके उपयोग तक की प्रणाली पहले से कहीं ज्यादा स्मार्ट और कुशल हो रही है।
6. बेहतर स्वास्थ्य की दिशा में एक बड़ी छलांग: स्वच्छ ऊर्जा स्रोत वायु प्रदूषण को भी कम करते हैं, जिससे हवा की गुणवत्ता में सुधार होता है। इसका सीधा असर लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ता है! लोगों को साँस की बीमारियाँ कम होंगी और वे ज्यादा स्वस्थ जीवन जी सकेंगे।
नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार ने कई प्रभावशाली योजनाएँ भी शुरू की हैं। ये पहल देश को स्वच्छ, सस्ती और टिकाऊ ऊर्जा की दिशा में आगे ले जाती हैं।
1. प्रधानमंत्री सहज बिजली हर घर योजना ( Saubhagya)
2. हरित ऊर्जा गलियारा (Green Energy Corridor (GEC))
3. राष्ट्रीय स्मार्ट ग्रिड मिशन (National Smat Grid Mission (NSGM)) और स्मार्ट मीटर राष्ट्रीय कार्यक्रम (Smart Meter National Programme (SMNP))
4. हाइब्रिड और इलेक्ट्रिक वाहनों का तेज़ी से अपनाना और विनिर्माण (Faster Adoption and Manufacturing of (Hybrid &) Electric Vehicles (FAME))
5. अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (International Solar Alliance (ISA))
6. सूर्य घर मुफ़्त बिजली योजना
नवीकरणीय ऊर्जा की ओर बढ़ता रुझान भारत के भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है। सरकार द्वारा चलाई जा रही ये पहलें न केवल स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देती हैं, बल्कि आर्थिक विकास, पर्यावरण संरक्षण और ऊर्जा आत्मनिर्भरता की दिशा में भी मजबूत कदम साबित हो रही हैं। इन योजनाओं के माध्यम से भारत टिकाऊ ऊर्जा की ओर तेज़ी से अग्रसर हो रहा है। यदि इन पहलों का क्रियान्वयन प्रभावी ढंग से किया जाए, तो आने वाले वर्षों में देश ऊर्जा के क्षेत्र में एक वैश्विक नेता बन सकता है।
संदर्भ
मध्य भारत के एक गांव की दुकान में बिक्री के लिए रखे गए सौर पैनल का स्रोत : flickr
चलिए जौनपुर को बताएं, पन्ना की विशेषताएँ, खनन और भारत में इसके भंडारों से जुड़े कुछ तथ्य
खदान
Mines
26-05-2025 09:27 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर के नागरिकों, पन्ना (Emerald) एक सुंदर हरा रत्न है, जिसे इसके रंग और दुर्लभता के कारण बहुत अधिक मूल्य दिया जाता है। ये रत्न पृथ्वी के अंदर गहरे दबाव और तापमान के कारण बनते हैं, और आमतौर पर शिस्ट (schist) या ग्रेनाइट (granite) जैसी चट्टानों में पाए जाते हैं। भारत में, पन्ना मुख्य रूप से राजस्थान में खनन किया जाता है। खनन प्रक्रिया में आमतौर पर पृथ्वी में सुरंगें खोदी जाती हैं या खुले खड्डों का उपयोग किया जाता है, ताकि पन्ना से भरपूर चट्टानों तक पहुंचा जा सके। जब रत्न निकाल लिए जाते हैं, तो उन्हें सावधानी से साफ़, काटा और पॉलिश किया जाता है ताकि उनका चमक और सुंदरता बाहर आ सके। आज हम पन्ना के बारे में जानेंगे। फिर हम पन्ना के खनन प्रक्रिया के बारे में चर्चा करेंगे। इसके बाद हम भारत में पन्ना के भंडार और संसाधनों पर नज़र डालेंगे। फिर हम दुनिया के सबसे बड़े पन्ना उत्पादक देशों के बारे में जानेंगे।
पन्ना (Emerald)
चमकीला हरा पन्ना, जो वृद्धि, प्रजनन और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है, भारत में पाया जाने वाला एक मूल्यवान रत्न है। राजस्थान, खासकर जयपुर के आस-पास का क्षेत्र, पन्ना का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, जिसे इसके हरे रंग जैसे पेरीडोट (peridot) और अद्वितीय षट्कोणीय क्रिस्टल (hexagonal crystal) संरचना के लिए जाना जाता है। वेदिक ज्योतिष में पन्ना ग्रह बुध से जुड़ा हुआ है और माना जाता है कि यह बुद्धिमत्ता, संचार और रचनात्मकता को बढ़ाता है।
खनन प्रक्रिया
पन्ना को निकालना एक बहुत ही सावधानी और मेहनत से भरा काम होता है। इसके लिए न सिर्फ़ कुशल हाथों की ज़रूरत होती है, बल्कि भूविज्ञान (geology) की अच्छी समझ भी होनी चाहिए। आइए, पन्ना की खनन प्रक्रिया के कुछ अहम चरणों को आसान भाषा में समझते हैं:
1. खोज (Exploration): खनन शुरू करने से पहले यह जानना ज़रूरी होता है कि पन्ना कहां पाया जा सकता है। इसके लिए वैज्ञानिक ज़मीन की जाँच करते हैं, खुदाई करके मिट्टी के नमूने लेते हैं और पता लगाते हैं कि वहाँ कितना और कैसा पन्ना हो सकता है।
2. निकालने के तरीके (Extraction Techniques): पन्ना निकालने के दो मुख्य तरीके होते हैं:
- हाथ से खनन (Artisanal Mining): कई जगहों पर लोग पुराने पारंपरिक तरीकों से, हाथ से खुदाई करके पन्ना निकालते हैं। जैसे कोलंबिया में पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोग इसी तरीके से पन्ना निकालते आए हैं।
- मशीनों से खनन (Mechanized Mining): बड़ी कंपनियाँ मशीनों का इस्तेमाल करके पन्ना निकालती हैं, जिससे काम जल्दी और ज़्यादा पन्ना मिल सकता है।
3. छांटना और श्रेणीकरण (Sorting and Grading): जब पन्ना ज़मीन से निकाल लिया जाता है, तो उसे रंग, चमक और आकार के आधार पर छांटा जाता है। इसे “ग्रेडिंग” कहते हैं। ग्रेडिंग से यह तय होता है कि कौन-सा पन्ना बाज़ार में कितना क़ीमती होगा।
भारत में पन्ना के भंडार और संसाधन
2015 में एनएमआई (National Mineral Inventory) के आंकड़ों के अनुसार, पूरे भारत में पन्ना के कुल संसाधन लगभग 55.87 टन आंके गए थे। ये सारे भंडार सिर्फ़ झारखंड राज्य में पाए गए हैं, और ये सभी “प्रारंभिक खोज” श्रेणी (reconnaissance category) में आते हैं। इन पन्नों की गुणवत्ता अभी पूरी तरह से तय नहीं की गई है।
हालाँकि, राजस्थान, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में भी पन्ना पाए जाने की खबरें हैं, लेकिन वहाँ अभी तक पन्ने के कुल भंडार का ठीक-ठीक अनुमान नहीं लगाया गया है।
राजस्थान में, खासकर राजसमंद और अजमेर ज़िलों में कई जगहों पर पन्ना पाया गया है। अजमेर-राजसमंद बेल्ट में पन्ना खासतौर पर पेग्माटाइट्स (Pegmatites) नाम की चट्टानों के ऊपरी हिस्सों में पाया जाता है। पन्ना का भंडार यहाँ 221 किलोमीटर के एक लंबे क्षेत्र में फैला हुआ है, जो राजसमंद ज़िले के गमगुड़ा गाँव से लेकर अजमेर ज़िले के बूबनी और मुहामी गाँव तक जाता है।
यहाँ के कुछ मुख्य स्थान हैं – राजगढ़, टीखी और कलागुमान (राजसमंद ज़िला)। लेकिन इन इलाकों में पन्ना बहुत ही बिखरा हुआ और असमान रूप में पाया जाता है।
ओडिशा में, बोलांगीर ज़िले के बीरा-महराजपुर बेल्ट में पन्ना होने की जानकारी मिली है।
छत्तीसगढ़ में, रायपुर ज़िले के देवभोग क्षेत्र में पन्ना पाया गया है।
इसके अलावा, तमिलनाडु के कोयंबटूर ज़िले में भी कुछ जगहों पर पन्ना, एक्वामरीन और ऐमेथिस्ट जैसे रत्नों के अनियमित और छोटे क्रिस्टल मिले हैं।
दुनिया के तीन सबसे बड़े पन्ना उत्पादक देश
दुनिया के सबसे सुंदर और कीमती पन्ने कोलंबिया से आते हैं। कोलंबिया में कई तरह के पन्ने मिलते हैं, लेकिन यहाँ का चमकीला, गहरा हरा पन्ना इतना खास होता है कि बाकी देशों में मिलने वाले पन्नों की तुलना उसी से की जाती है।
ब्राज़ील में भी 1980 के बाद से कई बड़े पन्ना भंडार मिले हैं। अब ब्राज़ील भी पन्ना का एक बड़ा उत्पादक देश बन गया है। यहाँ के रत्नों का रंग कोलंबिया के मुकाबले थोड़ा हल्का और उसमें नीला आभास होता है, क्योंकि उसमें लोहे (Iron) की मात्रा ज़्यादा होती है। ब्राज़ील आमतौर पर ऐसे पन्ने पैदा करता है जो गहनों में इस्तेमाल के लिए उपयुक्त होते हैं, लेकिन उनकी गुणवत्ता कोलंबिया के पन्नों जितनी उच्च नहीं मानी जाती।
तीसरे नंबर पर है ज़ाम्बिया। ज़ाम्बिया में पन्ना सबसे पहले 1931 में खोजा गया था और 1967 में इनकी खुदाई व व्यापार शुरू हुआ। यहाँ के पन्ना रत्नों का रंग थोड़ा नीला या स्लेटी होता है और ये थोड़े गहरे होते हैं। ये अपनी तरह से बहुत खास होते हैं, लेकिन कोलंबिया के चमकीले पन्नों की बराबरी अब भी नहीं कर पाते।
हालाँकि, पन्ना पूरी दुनिया में पाया जाता है, लेकिन सबसे ज़्यादा और सुंदर पन्ने यही तीन देश – कोलंबिया, ब्राज़ील और ज़ाम्बिया – से मिलते हैं, जो अक्सर सुंदर गहनों में इस्तेमाल किए जाते हैं।
इसके अलावा, कुछ और देश जहाँ से पन्ना मिलता है, वे हैं – जिम्बाब्वे, अफ़ग़ानिस्तान, रूस, भारत, पाकिस्तान, ऑस्ट्रेलिया और तंज़ानिया।
2015 में इथियोपिया (Ethiopia) से भी बहुत सुंदर और साफ़ पन्ने मिलने लगे थे। यहाँ तक कि कुछ पन्ने अमेरिका में भी निकाले गए हैं।
संदर्भ
मुख्य चित्र में क्वार्ट्ज पर पन्ना का स्रोत : Wikimedia
आइए देखते हैं कि सालों पहले की तुलना में आज कितना बदल गया है, हमारा जौनपुर शहर
वास्तुकला 1 वाह्य भवन
Architecture I - Exteriors-Buildings
25-05-2025 09:13 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर शहर की नींव 1360 ईस्वी में फ़िरोज़ शाह तुगलक द्वारा रखी गई थी। यह दिल्ली सल्तनत के शुरुआती वर्षों की बात है। बाद में, यह महत्वपूर्ण शहर मलिक सवार खान जहान को सौंपा गया। उन्हें अपने कार्यकाल में कई प्रतिष्ठित उपाधियाँ मिलीं। तुगलक शासन के दौरान वे ख्वाजा सरा (मुख्य किन्नर) कहलाए। इसके साथ ही, उन्होंने शाही आभूषणों के संरक्षक का दायित्व भी निभाया। उन्हें शाहनब-ए-शहर (दिल्ली का राज्यपाल) भी नियुक्त किया गया। अंततः, उन्हें सुल्तान-उशर शर्क (पूर्वी प्रांत का राज्यपाल) की महत्वपूर्ण उपाधि प्राप्त हुई। इन्हीं सवार खान जहान ने आगे चलकर 1394 ईस्वी में शर्की सल्तनत की स्थापना की।
अब ज़रा उस मध्ययुगीन जौनपुर शहर की कल्पना कीजिए, जो गोमती नदी के किनारे आबाद था। उस समय इसे दार-उर-सुरूर यानी आनंद का निवास कहा जाता था। बाद में, मुगल बादशाह शाहजहाँ ने इसे शिराज-ए-हिंद का गौरवशाली नाम दिया। यह शहर भारतीय विरासत की एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक राजधानी बन गया। इसकी नींव शर्की शासन के समय में ही पड़ चुकी थी। यहाँ शर्की वास्तुकला के अद्भुत नमूने मौजूद हैं, जिनमें कई सूफ़ी दरगाहें शामिल हैं। इसके अलावा, यहाँ खूबसूरत मस्जिदें, मज़बूत किले, ऐतिहासिक पुल और शानदार महल भी देखे जा सकते हैं। इन इमारतों के मेहराबों की घुमावदार सुंदरता देखते ही बनती है! मिस्र के ऊँचे प्रोपिलॉन शर्की वास्तुकला की एक खास पहचान थे। निर्माण में स्तंभों, बीमों और ट्रेबेटेड शैली का व्यापक रूप से उपयोग किया गया था। यह शैली हिंदू राजमिस्त्री और कारीगरों के लिए ज्यादा परिचित थी।
आज हम कुछ दुर्लभ चलचित्रों के माध्यम से शर्की सल्तनत काल की जौनपुर की ऐतिहासिक वास्तुकला को देखेंगे। आइए, इस पहले वीडियो में हम जौनपुर की ऐतिहासिक वास्तुकला और शर्की सल्तनत के संक्षिप्त इतिहास को देखते हैं।
आइए अब शहर की ऐतिहासिक स्मारकों को करीब से देखते हैं:
यह अगला चलचित्र आपको जौनपुर की अटाला मस्जिद की शानदार वास्तुकला से रूबरू कराएगा:
आइए अब जौनपुर के शाही किले के दृश्य स्वरूप इतिहास को देखते हैं:
आइए अब चलते-चलते जौनपुर के उस शाही पुल के इतिहास को देखते हैं जो आज कई दशकों के बाद भी ज्यों का त्यों अटल खड़ा है:
संदर्भ :
भारतीय पैंगोलिन को किन मिथकों से है खतरा और कैसे इनके संरक्षण हेतु मनाए जाते हैं उत्सव ?
शारीरिक
By Body
24-05-2025 09:25 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर के नागरिकों, क्या आप जानते हैं कि भारतीय पैंगोलिन (Indian Pangolin) एक पपड़ीदार चींटीखोर (चिंटी खानेवाला) जानवर है, जो भारत का एक गंभीर रूप से लुप्तप्राय मूल निवासी है। यह हिमालयी क्षेत्र और देश के सुदूर उत्तरपूर्वी भाग को छोड़कर, भारत के अधिकांश भाग में पाया जाता है। अन्य पैंगोलिन की प्रजातियों की तरह, इसके शरीर पर बड़े, अधिव्यापी शल्क होते हैं, जो कवच के रूप में कार्य करते हैं। यह जंगल में शिकारियों से खुद को बचाने के लिए इन शल्कों का उपयोग करता है। खतरा होने पर, ये तुरंत एक छोटी सी गेंद का रूप ले लेता है और अपनी अपनी तेज़-शल्क वाली पूंछ से रक्षा करता है। हालांकि, अन्य जानवरों के समान इसके मांस और पारंपरिक चिकित्सा में उपयोग किए जाने वाले शरीर के विभिन्न अंगों के शिकार से इस प्रजाति के लिए भी खतरा बढ़ता जा रहा है। इनका शिकार मुख्य रूप से उनके मांस और शल्कों के लिए किया जाता है, जिन्हें एशिया और अफ़्रीका के कुछ हिस्सों में पारंपरिक चिकित्सा में उपयोग किया जाता है, इसी कारण दुनिया में पैंगोलिन की सबसे अधिक तस्करी होती है। तो आइए, आज भारतीय पैंगोलिन की भौतिक विशेषताओं के बारे में जानते हुए, इसके वितरण, आवास और खानपान की आदतों पर प्रकाश डालते हैं। इसके साथ ही, हम भारतीय जनजातीय परंपराओं में इनके के महत्व पर प्रकाश डालेंगे। इस संदर्भ में, हम महाराष्ट्र के रत्नागिरी ज़िले के डुगवे गांव में मनाए जाने वाले पैंगोलिन त्यौहार खौलोत्सव (Khawlotsav) पर ध्यान केंद्रित करेंगे। अंत में, हम कुछ मिथकों और मान्यताओं के बारे में जानेंगे, जो उनके अस्तित्व के लिए खतरा हैं, साथ ही उनकी सुरक्षा के लिए भारत में हाल के वर्षों में उठाए गए कदमों की भी जांच करेंगे।
भारतीय पैंगोलिन की भौतिक विशेषताएं:
भारतीय पैंगोलिन एक एकान्तवासी, शर्मीला, धीमी गति से चलने वाला, रात्रिचर स्तनपायी है। सिर से पूंछ तक इसकी लंबाई लगभग 84-122 सेंटीमीटर होती है। इसकी पूंछ आमतौर पर 33-47 इसकी सेंटीमीटर लंबी होती है, और इसका वज़न 10-16 किलोग्राम होता है। मादाएं आम तौर पर नर की तुलना में छोटी होती हैं। पैंगोलिन का सिर एक शंकु के आकार का होता है, इनकी आंखें छोटी और गहरी होती हैं। इनके एक लंबी थूथन होती है। इसके पैर नुकीले पंजों वाले होते हैं। पैंगोलिन के दांत नहीं होते। इनकी सबसे उल्लेखनीय विशेषता इनका विशाल, शल्कदार कवच है जो इनके चेहरे, पेट और पैरों के अंदरूनी हिस्से को छोड़कर पूरे शरीर पर होता है। ये सुरक्षात्मक शल्क कठोर और केराटिन से बने होते हैं। इनके शरीर पर लगभग 160-200 शल्क होते हैं, जिनमें से लगभग 40-46% पूंछ पर स्थित होते हैं। ये शल्क 6.5-7 सेंटीमीटर लंबे, 8.5 सेंटीमीटर चौड़े और 7-10 ग्राम वज़न के होते हैं।
वितरण और व्यवहार:
भारतीय पैंगोलिन श्रीलंकाई वर्षावन और मैदानी इलाकों से लेकर मध्य पहाड़ी स्तर तक, विभिन्न प्रकार के वनों में पाए जाते हैं। यह जीव, घास के मैदानों और जंगलों में निवास करता है, और शुष्क क्षेत्रों और रेगिस्तानी क्षेत्रों में अच्छी तरह से अनुकूलित होता है, लेकिन अधिक बंजर, पहाड़ी क्षेत्रों को पसंद करता है। श्रीलंका में, इसे 1,100 मीटर की ऊंचाई पर और नीलगिरि पहाड़ों में 2,300 मीटर की ऊंचाई पर भी देखा गया था। यह बिल खोदने के लिए नरम और अर्ध-रेतीली मिट्टी को प्राथमिकता देता है।
आहार:
भारतीय पैंगोलिन, एक विशिष्ट कीटभक्षी है और मुख्य रूप से चींटियों और दीमकों पर निर्भर रहता है, जिन्हें यह विशेष रूप से अपनी अनुकूलित लंबी, चिपचिपी जीभ से पकड़ता है। इसके अलावा, यह भृंगों और तिलचट्टों का भी शिकार करता है। यह अपने शिकार के अंडे, लार्वा और वयस्कों को खाता है, लेकिन इसे अंडे सबसे अधिक पसंद हैं।
भारतीय जनजातीय परंपराओं में पैंगोलिन का महत्व:
क्या आप जानते हैं कि 15 फरवरी 2020 को विश्व पैंगोलिन दिवस के अवसर पर भारत के महाराष्ट्र के रत्नागिरी ज़िले के डुगवे गांव के ग्रामीणों द्वारा "खवलोत्सव" (पैंगोलिन उत्सव) की शुरुआत की गई। इस गांव में पारंपरिक तरीके से मनाया गया खवलोत्सव दुनिया का पहला पैंगोलिन महोत्सव था।
ग्रामीणों द्वारा यह खवलोत्सव पारंपरिक तरीके से मनाया जाता है, जिसमें ग्रामीण पहले दुनिया भर में पैंगोलिन प्रजातियों की सुरक्षा, अस्तित्व और स्वास्थ्य के लिए ग्राम देवता वाघजई की पूजा करते हैं और प्रजातियों के अवैध शिकार और तस्करी में शामिल लोगों को ऐसा न करने के लिए संदेश प्रसारित करते हैं। यहां के जंगल के पास रखी पैंगोलिन प्रतिकृति को मंदिर में लाया जाता है और ग्राम देवता के पास रखकर, इसकी पूजा की जाती है। ग्रामीणों मानना है कि ये जीव, कीड़ों का सेवन करके मानव सेवा करता है। पूजा के बाद ये प्रतिकृति को पालकी में रखकर ग्रामीण पालकी के साथ पारंपरिक नृत्य करते हैं। पालकी को ग्रामीणों के हर घर में ले जाया जाता है। इस उत्सव में स्थानीय युवा पीढ़ी और छात्र उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं, उनके द्वारा पेंगोलिन पर पारंपरिक गीत एवं नृत्य प्रस्तुत किए जाते हैं। उत्सव के अंत में प्रत्येक ग्रामीण और उत्सव में उपस्थित लोग अपने क्षेत्र में प्रजातियों की रक्षा करने और अपने पड़ोसी गांवों में जागरूकता बढ़ाने के लिए शपथ लेते हैं और प्रार्थना करते हैं।
भारतीय पैंगोलिन से जुड़े कुछ मिथक और मान्यताएं, जिनसे उनके अस्तित्व को खतरा है:
अगस्त 2020-जुलाई 2021 के दौरान संरक्षित क्षेत्रों के बाहर, क्षेत्र के 21 गांवों में घरों के एक सर्वेक्षण से पता चला कि इस इलाके में सोशल मीडिया के माध्यम से, स्थानीय मान्यताओं का यह प्रचार किया जा रहा है कि पैंगोलिन से बिजली का उत्पादन हो सकता है, जिससे इनके शल्कों की मांग में वृद्धि के साथ, पूरे क्षेत्र में इस प्रजाति में गिरावट दर्ज़ की गई।
इसके अलावा, सर्वेक्षण से पता चला कि पैंगोलिन के शल्कों की कीमत अधिक होती है जिसके परिणामस्वरूप, इनका शिकार बहुतायत में किया जाता है । स्थानीय बाज़ार में शल्क 500-1,000 डॉलर प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेचे जाते हैं, और इनका उपयोग बुरी आत्माओं को रोकने के लिए पेंडेंट बनाने के लिए भी किया जाता है। इसके अलावा, कुछ दूरदराज़ के आदिवासी समुदाय शल्कों का उपयोग बालियों के रूप में करते हैं, और कुछ क्षेत्रों में पैंगोलिन का मांस खाया जाता है। लोगों को यह भी भ्रम है कि पैंगोलिन के शल्क केराटिन से लैस होते हैं होते हैं और जब इन शल्कों का परीक्षण पेचकस से इन किया जाता है तो वे विद्युत चिंगारी उत्सर्जित कर सकते हैं। इस सर्वेक्षण में पैंगोलिन के बारे में एक और लोकप्रिय मिथक का भी खुलासा हुआ कि जंगल में लगने वाली आग गर्मियों में सूखी घास या पत्तियों और पैंगोलिन के शल्कों के रगड़ने के कारण हो सकती है। वास्तव में, भारतीय पैंगोलिन की रहस्यमय शक्तियों और औषधीय महत्व के बारे में मान्यताएं और मिथक पूर्वी घाट की संस्कृति का हिस्सा हैं, और इस प्रजाति के अवैध व्यापार को रोकने के लिए संरक्षण प्रयासों के हिस्से के रूप में इन्हें संबोधित करने की आवश्यकता है।
पैंगोलिन की सुरक्षा के लिए भारत सरकार द्वारा उठाए गए कदम:
- भारतीय पैंगोलिन और चीनी पैंगोलिन वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची- I (Schedule I of Wildlife Protection Act, 1972) में सूचीबद्ध हैं, जो उनके अवैध शिकार और अवैध व्यापार पर प्रतिबंध लगाती है। वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972 जंगली जानवरों के अवैध शिकार के लिए सजा का प्रावधान करता है।
- 'वन्य जीवन अपराध नियंत्रण ब्यूरो' (Wildlife Crime Control Bureau), निवारक कार्रवाई के लिए राज्य और केंद्रीय एजेंसियों को वन्यजीवों के अवैध शिकार और अवैध व्यापार पर अलर्ट और सलाह जारी करता है।
- भारत सरकार द्वारा आवास संवर्धन के लिए केंद्र प्रायोजित योजनाओं के तहत धन उपलब्ध कराया जाता है, जिसमें घास के मैदानों का रखरखाव भी शामिल है जो पैंगोलिन के संरक्षण में मदद करते हैं।
- वन्य जीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो ने पैंगोलिन सहित कम ज्ञात जंगली जानवरों के अवैध व्यापार और अवैध व्यापार को रोकने के लिए राज्य प्रवर्तन एजेंसियों के साथ समन्वय में एक प्रजाति विशिष्ट प्रवर्तन अभियान चलाया है, जिसका कोडनेम लेस्नो (LESKNOW) है।
सन्दर्भ
मुख्य चित्र में भारतीय पैंगोलिन का स्रोत : wikimedia
पारंपरिक नेटवर्क के विफल होने पर भी संचार संभव हो सकता है हैम रेडियो के माध्यम से
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
23-05-2025 09:38 AM
Jaunpur District-Hindi

क्या आप जानते हैं कि जब आपात स्थिति के दौरान पारंपरिक नेटवर्क विफल हो जाते हैं, तो एक विश्वसनीय बैकअप संचार प्रणाली के रूप में हैम रेडियो (Ham Radio) के माध्यम से संचार किया जाता है। हैम रेडियो, एक ऐसी सेवा है जो आपको अपने उपकरण से दुनिया भर और यहां तक कि बाहरी अंतरिक्ष में भी संचार करने में सक्षम बनाती है। यह आपातकालीन संचार, तकनीकी प्रगति के लिए महत्वपूर्ण है। यह सेवा आवाज़, मोर्स कोड और डिजिटल मोड का उपयोग करके गैर-व्यावसायिक संचार, प्रयोग और स्व-प्रशिक्षण की अनुमति देती है। भारत में, ऑपरेटरों को ज़िम्मेदार आवृत्ति उपयोग सुनिश्चित करने, हस्तक्षेप को रोकने और तकनीकी मानकों को बनाए रखने के लिए लाइसेंस की आवश्यकता होती है। तो आइए, आज हैम रेडियो और इसकी कार्य प्रणाली के बारे में जानते हैं और इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि इस प्रकार का रेडियो कैसे संचालित होता है, एवं आवृत्ति बैंड और संचार में इसकी भूमिका क्या है। इसके साथ ही, हम हैम रेडियो के कुछ महत्वपूर्ण अनुप्रयोगों जैसे डीएक्सिंग (DXing), डीएक्सपेडिशंस (DXpeditions) इत्यादि के बारे में जानेंगे और समझेंगे कि भारत में हम रेडियो लाइसेंस कौन जारी करता है और उनसे जुड़े नियम क्या हैं। आगे बढ़ते हुए हम हैम ऑपरेटरों के लिए प्रतिबंधित गतिविधियों का पता लगाएंगे। अंत में, हम भारत के सर्वश्रेष्ठ हैम रेडियो स्टेशनों में से एक की खोज करेंगे, और मैंगलोर में जीवंत हैम रेडियो समुदाय पर चर्चा करेंगे।
हैम रेडियो क्या है ?
हैम रेडियो, जिसे ऐमेचर (Amateur) या शौकिया रेडियो भी कहा जाता है, एक गैर-व्यावसायिक दो-तरफ़ा रेडियो संचार है। यह रेडियो स्पेक्ट्रम में कई फ़्रीक्वेंसी बैंड का उपयोग करता है। हैम रेडियो एक वास्तविक समय संचार नेटवर्क है, जो काफ़ी हद तक वायरलेस संचार की तरह त्वरित और पारदर्शी है। ऐमेचर रेडियो ऑपरेटर सरकारी और आपातकालीन अधिकारियों के लिए स्थानीय स्तर पर संगठित संचार नेटवर्क स्थापित और संचालित करते हैं, साथ ही आपदा से प्रभावित नागरिकों के लिए गैर-व्यावसायिक संचार भी करते हैं। आपदा के बाद, ऐमेचर रेडियो ऑपरेटरों के ज़ल्द सक्रिय होने की सबसे अधिक संभावना होती है।
हैम रेडियो की कार्यप्रणाली:
हैम रेडियो संचार के लिए विभिन्न प्रकार के फ़्रीक्वेंसी बैंड का उपयोग करते हैं। इन फ़्रीक्वेंसी को संघीय संचार आयोग (Federal Communications Commission (FCC)) द्वारा आवंटित किया जाता है। हैम गीगाहर्ट्ज़ रेंज (Gigahertz range) में ए एम प्रसारण बैंड (AM broadcast band) के ठीक ऊपर से माइक्रोवेव क्षेत्र तक काम कर सकता है। कई हैम बैंड फ़्रीक्वेंसी रेंज में होते हैं जो एएम रेडियो बैंड (1.6 मेगाहर्ट्ज़) के ऊपर से लेकर सिविल बैंड (27 मेगाहर्ट्ज़) के ठीक ऊपर तक जाते हैं।
कुछ हैम रेडियो ऑपरेटर बहुत विश्वसनीय मोर्स कोड का उपयोग करते हैं, जबकि कुछ आवाज़ का उपयोग करते हैं। मोर्स कोड सिग्नल (Morse code signals (beep) अक्सर तब प्राप्त होते हैं जब ध्वनि प्रसारण नहीं हो पाता। साथ ही कई डिजिटल मोड भी हैं, और हैम्स विभिन्न नेटवर्क में संचार करने के लिए रेडियो मोडेम का उपयोग करते हैं।
हैम रेडियो के कुछ महत्वपूर्ण अनुप्रयोग:
आपातकालीन संचार: सबसे महत्वपूर्ण सेवाओं में से एक है जो हैम रेडियो समग्र रूप से प्रदान करता है, आपातकालीन संचार है। जब अन्य सभी संचार विफल हो जाते हैं, तो हैम रेडियो काम करना जारी रखता है क्योंकि यह पावर ग्रिड या अन्य बुनियादी ढांचे पर निर्भर नहीं है। हैम रेडियो से केवल एक बैटरी, एक रेडियो, एक एंटीना और थोड़े से ज्ञान के साथ, सेल फ़ोन या इंटरनेट कनेक्शन के बिना दुनिया भर में संचार किया सकता है। यहां तक कि नासा भी संचार बंद होने पर हैम रेडियो का उपयोग करता है। अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (International Space Station (ISS)) पर स्थित 'अमेच्योर रेडियो ऑन द इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन' (ARISS), जॉनसन स्पेस सेंटर अमेच्योर रेडियो क्लब के माध्यम से ISS के लिए एक आधिकारिक बैकअप संचार सेवा के रूप में कार्य करता है।
तकनीकी उन्नति: हैम रेडियो ऑपरेटर, तकनीकी प्रगति में भी सबसे आगे हैं। आपको आश्चर्य होगा कि नोबेल पुरस्कार विजेता खगोलभौतिकीविद् जो टेलर, कॉल साइन जैसे दुनिया के कितने सबसे प्रमुख इंजीनियरों और वैज्ञानिकों के पास लाइसेंस प्राप्त हैम हैं। अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर कई अंतरिक्ष यात्री भी लाइसेंस प्राप्त हैम हैं। वास्तव में, एक लाइसेंस प्राप्त हैम रेडियो ऑपरेटर के रूप में, आप आईएसएस पर उन लाइसेंस प्राप्त हैम रेडियो अंतरिक्ष यात्रियों के साथ संपर्क बना सकते हैं, या चंद्रमा से अपने सिग्नल भी उछाल सकते हैं, जिसे ईएमई या अर्थ-मून-अर्थ कम्युनिकेशन कहा जाता है। ऐमेचर रेडियो का उपयोग "क्यूबसैट" में टेलीमेट्री के लिए भी किया जाता है, जो वैज्ञानिक अनुसंधान और नई अंतरिक्ष प्रौद्योगिकियों की खोज के लिए उपयोग किए जाने वाले लघु उपग्रह हैं। नासा के पहले आर्टिमिस मिशन में, क्यूबसैट की एक श्रृंखला JAXA हैम रेडियो क्लब द्वारा समर्थित है।
शौक और प्रतियोगिता: एक बार जब नए लोगों को संपर्क बनाने का कुछ अनुभव मिल जाता है, तो कई लोग अक्सर डीएक्सिंग और प्रतियोगिता की दुनिया का पता लगाना शुरू कर देते हैं। हैम ऑपरेटरों द्वारा आनंद ली जाने वाली चीज़ों के संदर्भ में, ये दो गतिविधियाँ सबसे मज़ेदार हैं! डीएक्सिंग, एक दूर के स्टेशन के साथ संचार करने का कार्य है। आप दुनिया भर के हैम के साथ संवाद कर सकते हैं, और कुछ हैम रेडियो ऑपरेटर क्यू एस एल (QSL) कार्ड एकत्र करते हैं, जो दूसरे हैम के साथ आपके संपर्क के रिकॉर्ड के रूप में व्यक्तिगत पोस्ट-कार्ड की तरह होते हैं। प्रतिस्पर्धा करते समय, एक ऑपरेटर या टीम अंकों के लिए एक निश्चित समय अवधि में जितनी जल्दी हो सके उतने स्टेशनों से संपर्क करने की कोशिश करती है।
भारत में हैम रेडियो लाइसेंस कौन जारी करता है ?
प्रत्येक लाइसेंस प्राप्त रेडियो हैम को एक कॉल साइन दिया जाता है जिसका उपयोग प्राप्तकर्ता और लाइसेंस के स्थान की पहचान करने के लिए किया जाता है। हैम रेडियो का दर्ज़ा प्राप्त प्रत्येक देश को अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार संघ (International Telecommunications Union (ITU)) द्वारा कॉल संकेतों की एक श्रृंखला आवंटित की जाती है। भारत में शौकिया रेडियो (Amateur Radio) लाइसेंस संचार मंत्रालय के वायरलेस योजना और समन्वय प्रभाग (Wireless Planning & Coordination Wing) द्वारा जारी किए जाते हैं।
गतिविधियां जिन्हें हैम को करने की अनुमति नहीं है:
- हैम रेडियो ऑपरेटरों को अपने रेडियो के साथ ऐसा कुछ भी करने की अनुमति नहीं है जिससे उन्हें पैसा मिले।
- हैम रेडियो ऑपरेटर, जनता के लिए 'प्रसारण' नहीं कर सकते। इसका मतलब यह है कि हैम रेडियो प्रसारण केवल अन्य हैम रेडियो ऑपरेटरों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। जबकि शॉर्ट-वेव रेडियो से हैम रेडियो बैंड को सुना जा सकता है, लेकिन यह केवल एक हैम की अन्य हैम से एक बातचीत होती है, न कि संगीत या 'सामान्य' रुचि के अन्य रेडियो कार्यक्रम।
- हालाँकि, कुछ दिशानिर्देशों के तहत, हैम रेडियो ऑपरेटरों को वह सब कुछ करने का अधिकार है जो सरकारी और निजी रेडियो स्टेशनों को करने की अनुमति है।
भारत के सर्वश्रेष्ठ हैम रेडियो स्टेशनों में से एक "कुडुर":
इलेक्ट्रिकल इंजीनियर रामचंद्र भट कूदुर, जिन्होंने कर्नाटक राज्य के मैंगलोर शहर में कावूर नामक एक क्षेत्र में भारत के सर्वश्रेष्ठ हैम रेडियो स्टेशनों में से एक का निर्माण किया है, ने हाल ही में 90 फ़ीट ऊंचे टॉवर पर एक उच्च प्रदर्शन करने वाला एक रोटेटर के साथ एक दिशात्मक यागी एंटीना (Yagi antenna) स्थापित किया है। वी यू 2 आर सी टी (VU2RCT) के कॉल साइन के साथ कुडुर संभवतः भारत का सर्वश्रेष्ठ हैम रेडियो स्टेशन है। उच्च-आवृत्ति एंटीना के साथ, कुडुर में एक उच्च-स्तरीय, परिष्कृत हैम रेडियो ट्रांसीवर भी है।
मैंगलोर में हैम रेडियो समुदाय:
मैंगलोर शहर में एक सक्रिय हैम समुदाय है, जिसके 100 से अधिक लाइसेंस धारक हैं, जिनमें से लगभग 20-30 सदस्य सक्रिय हैं। यह समुदाय, एक ऐसी गतिविधि का आयोजन भी करता है, जिसमें प्रतिभागी निर्दिष्ट खोज क्षेत्र के भीतर छिपे एक या अधिक रेडियो ट्रांसमीटरों का पता लगाने के लिए रेडियो दिशा-खोज तकनीकों का उपयोग करते हैं।
संदर्भ
मुख्य चित्र में हैम रेडियो का स्रोत : Flickr
जौनपुर के सिक्कों में छुपा है शर्की सल्तनत की ताकत और आर्थिक स्वतंत्रता का इतिहास
सिद्धान्त I-अवधारणा माप उपकरण (कागज/घड़ी)
Concept I - Measurement Tools (Paper/Watch)
22-05-2025 09:22 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर का सिक्कों और वित्तीय इतिहास से गहरा रिश्ता है, जो मध्यकालीन भारत में इसकी खास पहचान को दर्शाता है। शर्की सल्तनत के बनने से पहले, यहां तुगलक वंश के सिक्के चलते थे। तुगलक शासकों ने सिक्कों को लेकर कई नए प्रयोग किए, लेकिन ये पूरी तरह सफल नहीं रहे। जब शर्की शासकों का शासन आया, तो जौनपुर ने अपने सोने, चांदी और तांबे के सिक्के जारी किए। इन सिक्कों ने न सिर्फ़ व्यापार को आसान बनाया, बल्कि जौनपुर की स्वतंत्रता और आर्थिक ताकत को भी दर्शाया।
आज भी जौनपुर के पुराने सिक्के हमें इसके समृद्ध आर्थिक इतिहास की झलक दिखाते हैं, जो भारत के व्यापक आर्थिक विकास से जुड़ा हुआ है।
आइए, आज हम जौनपुर में शर्की सल्तनत के बनने से पहले चलने वाले सिक्कों के बारे में जानें। फिर हम जौनपुर सल्तनत के समय में बनाए गए सिक्कों पर चर्चा करेंगे। इसके बाद, हम जौनपुर के शासक शम्स अल-दीन इब्राहिम शाह द्वारा जारी किए गए सिक्कों के बारे में समझेंगे। इसी संदर्भ में, हम उनके सिक्कों के व्यापार पर पड़े प्रभाव और उनकी खासियत के बारे में भी बात करेंगे। आखिर में, हम जौनपुर के प्रसिद्ध “बिलियन (चांदी और सोने का एक मिश्र धातु) से बने टंकों के इतिहास और इसकी विशेषताओं को विस्तार से जानेंगे।
शर्की सल्तनत के बनने से पहले जौनपुर में चलने वाले सिक्के
शर्की सल्तनत के बनने से पहले, जौनपुर में तुगलक वंश (1320-1412 ई.) के सिक्के प्रचलित थे। इन सिक्कों की बनावट और डिज़ाइन खिलजी वंश के सिक्कों से कहीं बेहतर थी। तुगलक शासक, मुहम्मद बिन तुगलक (1325-1351 ई.), अपने सिक्कों को लेकर काफ़ी रुचि रखते थे। हालांकि, उनके किए गए प्रयोग असफल रहे और लोगों को इससे काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा।
उनका पहला प्रयोग यह था कि सिक्कों का मूल्य, बाजार में सोने-चांदी की वास्तविक कीमत के अनुसार तय किया जाए। लेकिन जब यह प्रयोग असफल हो गया, तो पुराने सोने और चांदी के लगभग 11 ग्राम वज़न के सिक्के फिर से चलन में लाए गए।
दूसरा प्रयोग चीन की काग़ज़ी मुद्रा से प्रेरित था, जिससे वहां व्यापार और व्यवसाय में वृद्धि हुई थी। मुहम्मद बिन तुगलक ने 1329 से 1332 ई. के बीच एक नया तरीका अपनाया, जिसमें पीतल और तांबे के टोकन (सिक्के) जारी किए गए। इन टोकनों पर यह लिखा होता था—“पचास गनी का टंका प्रमाणित” और साथ ही एक संदेश दिया जाता था—“जो सुल्तान की बात मानेगा, वह खुदा की बात मानेगा।”
लेकिन इस प्रयोग में बड़ी मात्रा में नकली टोकन बना दिए गए, जिससे यह योजना पूरी तरह असफल हो गई। मुहम्मद बिन तुगलक ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए असली और नकली, सभी टोकनों को वापस लेकर उनकी कीमत चुकाई। यह ध्यान देने वाली बात है कि तुगलक शासकों के ये प्रयोग सच्चे थे—हालांकि लोगों पर थोपे गए थे, लेकिन ये किसी आर्थिक तंगी की वजह से नहीं किए गए थे।
मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में बड़ी संख्या में सोने के सिक्के जारी किए गए। लेकिन उनके बाद सोने के सिक्के दुर्लभ हो गए। जब लोदी वंश का समय आया, तब ज़्यादातर तांबे और बिलियन (चांदी-तांबे का मिश्रण) के सिक्के ही चलते थे।
इसी दौरान, अलग-अलग प्रांतों में भी अपनी-अपनी सल्तनत के सिक्के बनाए जाते थे। दक्कन के बहमनी शासकों कि साथ साथ, बंगाल, मालवा और गुजरात के सुल्तानों ने भी अपने सिक्के जारी किए।
जौनपुर सल्तनत के सिक्के
जौनपुर सल्तनत के सिक्कों के भंडार मुख्य रूप से भारत के उत्तर प्रदेश और बिहार राज्यों में पाए गए हैं। इसका मतलब है कि शर्की सल्तनत के सिक्के इन क्षेत्रों में व्यापक रूप से प्रचलित थे।
इस सल्तनत के पहले दो शासकों , मलिक सरवर और मुबारक शाह, ने दिल्ली सल्तनत से अपनी स्वतंत्रता घोषित नहीं की थी। इसलिए, उन्होंने अपने नाम से कोई सिक्के जारी नहीं किए। लेकिन जब 1402 ई. में इब्राहिम शाह ने शासन संभाला, तब वे पहले सुल्तान बने जिन्होंने अपने नाम से सिक्के जारी किए। उनके द्वारा सोने, चांदी और तांबे के सिक्के बनाए गए। उनके बाद के शासक, महमूद शाह और हुसैन शाह ने भी अपने नाम से सिक्के जारी किए, जिनमें बिलियन (चांदी-तांबे का मिश्रण) और तांबे के सिक्के शामिल थे।
जौनपुर के सुल्तान शम्स अल-दीन इब्राहीम शाह के सिक्के
जौनपुर सल्तनत अपनी सर्वोच्च शक्ति पर, मुबारक शाह के छोटे भाई, शम्स अल-दीन इब्राहीम शाह (1402-1440 ई.) के शासनकाल में पहुँची। उनके राज्य की सीमा पूर्व में बिहार तक और पश्चिम में कन्नौज तक फैली थी। एक समय उन्होंने दिल्ली पर भी चढ़ाई की थी।
शम्स अल-दीन इब्राहीम शाह ने अपने शासनकाल में चारों धातुओं—सोना, चांदी, तांबा और बिलियन में सिक्के जारी किए।
उनके द्वारा जारी किया गया “तुगरा” शैली का सोने का टंका लगभग 11.55 ग्राम का होता था। इस सिक्के के अगले भाग (obverse) पर अरबी भाषा में तुगरा शैली में लिखा होता था—
“अल-वासीक बा-ताईद अल-रहमान अबू अल-मुज़फ्फर इब्राहीम शाह अल-सुल्तान”
जिसका अर्थ है - दयालु ईश्वर की सहायता से विश्वास करने वाला, विजयों का संरक्षक, सुल्तान इब्राहीम शाह
जबकि सिक्के के पिछले भाग (Reverse) पर लिखा था—
“फ़ी ज़मान अल-इमाम नायब अमीर उल मोमिनीन अबू’ल फ़त्ह खुलिदत ख़िलाफतहू”,
जिसका अर्थ है—“ख़लीफ़ा की सत्ता सदा बनी रहे।”
शम्स अल-दीन इब्राहिम शाह के इन सिक्कों ने न केवल व्यापार को बढ़ावा दिया, बल्कि जौनपुर सल्तनत की शक्ति और स्वतंत्रता का प्रतीक भी बने।
जौनपुर का बिलियन टंका
1458 से 1479 ईस्वी के बीच जौनपुर सल्तनत ने बिलियन (चांदी और अन्य धातुओं के मिश्रण) से बने टंके अर्थात सिक्के जारी किए। ये सिक्के उस समय के स्वतंत्र जौनपुर सल्तनत के लिए बनाए गए थे, जो आज के उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में स्थित था। इन सिक्कों को अंतिम शासक हुसैन शाह के शासनकाल में जारी किया गया था।
हुसैन शाह न केवल एक शक्तिशाली शासक थे, बल्कि उन्होंने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके पास उस समय भारत की सबसे बड़ी सेना थी। उन्होंने तीन बार दिल्ली को जीतने की कोशिश की, लेकिन हर बार हार का सामना करना पड़ा।
1493 ईस्वी में दिल्ली सल्तनत ने जौनपुर पर फिर से क़ब्ज़ा कर लिया और हुसैन शाह को बंगाल की ओर भागना पड़ा। ये 500 साल पुराने सिक्के “टंका” के नाम से जाने जाते हैं और इन पर दोनों ओर, अरबी लिपि में शिलालेख (inscriptions) खुदे होते हैं। ये सिक्के न केवल जौनपुर के आर्थिक इतिहास का हिस्सा हैं, बल्कि उस समय की ताकत और स्वतंत्रता का प्रतीक भी माने जाते हैं।
संदर्भ
मुख्य चित्र में 1438 में जौनपुर सल्तनत के शम्स अल-दीन इब्राहिम शाह के सिक्के का स्रोत : Wikimedia
भारत के औद्योगिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक विकास में पारसी हस्तियों का अमूल्य योगदान
सिद्धान्त 2 व्यक्ति की पहचान
Concept II - Identity of Citizen
21-05-2025 09:34 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर के नागरिकों, क्या आप जानते हैं कि पारसी धर्म दुनिया के सबसे प्राचीन ज्ञात और आज भी प्रचलित धर्मों में से एक है। पारसी धर्म के अनुयायी अपनी उद्यमशीलता की भावना के लिए जाने जाते हैं और दुनिया भर में व्यवसाय, शिक्षा और सामाजिक कल्याण जैसे क्षेत्रों में उनका प्रभाव देखा जा सकता है। भारत में भी, पारसी समुदाय ने देश के औद्योगिक और सामाजिक विकास में उल्लेखनीय भूमिका निभाई
है। टाटा समूह के संस्थापक जमशेदजी टाटा जैसी प्रमुख हस्तियों ने भारत के औद्योगिक क्षेत्र को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जबकि दोराबजी टाटा और रतन टाटा ने इस पारिवारिक विरासत को जारी रखा, और भारत की आर्थिक वृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान दिया। सामाजिक कार्यों, स्वास्थ्य देखभाल के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और सामुदायिक विकास की उनकी मज़बूत भावना पूरे भारत में पीढ़ियों को प्रेरित और प्रभावित करती रहती है। तो आइए आज, भारत में पारसी समुदाय और उनके अद्वितीय योगदान पर प्रकाश डालते हुए समझते हैं कि कैसे इस छोटे लेकिन प्रभावशाली समुदाय ने भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके साथ ही, हम पांच प्रमुख भारतीय पारसी व्यक्तित्वों के बारे में जानेंगे, जिन्होंने भारत के औद्योगिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक परिदृश्य को बदल दिया। अंत में, हम पारसी समुदाय द्वारा भारत के सांस्कृतिक और कलात्मक क्षेत्र में दिए गए योगदान के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे, साहित्य, रंगमंच और कला पर उनके प्रभाव को देखेंगे और जानेंगे कि उन्होंने भारत की सांस्कृतिक विरासत को कैसे समृद्ध किया है।
भारत में पारसी समुदाय और उनका अद्वितीय योगदान:
भारत में पारसी समुदाय एक छोटा लेकिन बेहद प्रभावशाली अल्पसंख्यक समुदाय है, जिसने देश की प्रगति में असाधारण योगदान दिया है। 8वीं शताब्दी में वे धार्मिक उत्पीड़न से बचने के लिए फ़ारस से भारत पहुंचे थे। तब से उनकी यात्रा बदलाव, उद्यमशीलता की भावना और सामाजिक उन्नति के प्रति गहरी प्रतिबद्धता द्वारा चिह्नित है। अपने व्यापारिक कौशल के लिए जाने जाने वाले पारसियों ने भारत की औद्योगिक क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्होंने आधुनिक भारतीय उद्योग की नींव रखते हुए देश के कुछ शुरुआती और सबसे सफ़ल उद्यमों की स्थापना की। विश्व प्रसिद्ध टाटा समूह से लेकर उपभोक्ता वस्तुओं के लिए प्रसिद्ध गोदरेज़ समूह तक, पारसियों ने भारतीय आर्थिक परिदृश्य पर एक अमिट छाप छोड़ी है। व्यवसाय से परे, पारसियों ने विज्ञान, कानून, चिकित्सा और कला सहित विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है। भारत के परमाणु कार्यक्रम के जनक होमी जे. भाभा और कानूनी विद्वान फली एस. नरीमन जैसी प्रसिद्ध हस्तियां इस समुदाय की बौद्धिक क्षमता के प्रमाण हैं। राष्ट्र निर्माण में उनका योगदान अतुलनीय रहा है और उनकी विरासत भावी पीढ़ियों को सदैव प्रेरित करती रहेगी। अपनी कम एवं घटती जनसंख्या जैसी चुनौतियों का सामना करने के बावज़ूद, पारसी समुदाय की उद्यम और परोपकार की भावना सदैव कायम है। अपने समृद्ध इतिहास और भारतीय समाज पर स्थायी प्रभाव के कारण वे देश की टेपेस्ट्री का एक अभिन्न अंग बन गए हैं।
भारत के औद्योगिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक परिदृश्य पर अमिट छाप रखने वाले पांच भारतीय पारसी व्यक्तित्व:
जे.आर.डी. टाटा (1904-1993) - उद्योगपति और विमानन अग्रणी:
जे.आर.डी. टाटा (जहांगीर रतनजी दादाभाई टाटा) भारतीय उद्योग जगत की अग्रणी शख्सियतों में से एक हैं। उन्होंने टाटा समूह को भारत के सबसे बड़े व्यापारिक समूह में बदल दिया। टाटा एयरलाइंस (जो बाद में एयर इंडिया बन गई और अब फिर से टाटा समूह के अंतर्गत आ गई है, के संस्थापक के रूप में, टाटा ने भारत में विमानन क्षेत्र में भी क्रांति ला दी। उनके नेतृत्व और दूरदर्शिता ने आधुनिक भारतीय उद्योगों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
होमी जहांगीर भाभा (1909-1966) - परमाणु वैज्ञानिक:
भारत के परमाणु कार्यक्रम के जनक के रूप में जाने जाने वाले होमी भाभा ने भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (Bhabha Atomic Research Centre (BARC) की स्थापना का नेतृत्व किया, जो भारत के परमाणु ऊर्जा क्षेत्र के विकास में एक महत्वपूर्ण संस्थान है। उनके प्रयासों का भारत को परमाणु शक्ति बनने की राह पर लाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
चित्र स्रोत : Wikimedia
रतन टाटा (1937-2023) - उद्योगपति और परोपकारी:
दूरदर्शी नेता रतन टाटा ने जैगुआर लैंड रोवर (Jaguar Land Rover) और टेटली टी (Tetley Tea) जैसे अंतरराष्ट्रीय ब्रांडों का अधिग्रहण कर टाटा समूह को नई वैश्विक ऊंचाइयों पर पहुंचाया। अपनी व्यावसायिक उपलब्धियों के अलावा, रतन टाटा एक प्रसिद्ध परोपकारी व्यक्ति थे, जिन्होंने पूरे देश में शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और ग्रामीण विकास पहल का समर्थन किया।
दादाभाई नौरोजी (1825-1917) - स्वतंत्रता सेनानी और अर्थशास्त्री:
"भारत के ग्रैंड ओल्ड मैन" (Grand Old Man of India) के नाम से विख्यात दादाभाई नौरोजी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में एक प्रमुख नेता थे। वह ब्रिटिश संसद के लिए चुने गए पहले भारतीय थे, जहां उन्होंने भारतीय अधिकारों की वकालत की और अपने "धन की निकासी" सिद्धांत के माध्यम से अंग्रेज़ों द्वारा भारत के आर्थिक शोषण को उजागर किया।
सैम मानेकशॉ (1914-2008) - सेनाधिकारी:
फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ भारत के सबसे प्रसिद्ध सेनाधिकारियों में से एक हैं। उन्होंने 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारत को जीत दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश का निर्माण हुआ। उनकी सैन्य रणनीतियों और नेतृत्व को अत्यधिक सम्मान दिया जाता है।
सांस्कृतिक एवं कलात्मक क्षेत्र में फारसी समुदाय का योगदान:
जब कला, संगीत और नृत्य की बात आती है, तो भारतीय संस्कृति पर पारसी समुदाय का प्रभाव अमिट है। उनका स्थायी प्रभाव विभिन्न कला रूपों में देखा जा सकता है। जीवंत चित्रों और जटिल मूर्तियों से लेकर मंत्रमुग्ध कर देने वाले संगीत और सुंदर नृत्य रूपों तक। पारसी समुदाय ने अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति से भारतीय कला को समृद्ध बनाया है। उनके कलात्मक प्रयासों में फ़ारसी और भारतीय सौंदर्यशास्त्र का अनूठा मिश्रण स्पष्ट है। यह एक मनोरम मिश्रण तैयार करता है जो आज भी दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर रहा है।
भारतीय साहित्य, रंगमंच और सिनेमा में पारसी समुदाय का योगदान वास्तव में उल्लेखनीय है। उनके साहित्यिक कौशल ने भारत के कुछ सबसे प्रसिद्ध लेखकों और कवियों को जन्म दिया है। उनके कार्यों ने देश के साहित्यिक सिद्धांत को आकार दिया है। इसके अलावा, भारतीय प्रदर्शन कला में पारसी थिएटर (Parsi Theatre) का एक विशेष स्थान है। पारसियों ने भारत में पश्चिमी शैली का रंगमंच पेश किया, और इसे अपनी शैली और आख्यानों से भर दिया। भारतीय सिनेमा को आकार देने में भी पारसी समुदाय की महत्वपूर्ण भूमिका को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है। भारतीय सिनेमा के कई उल्लेखनीय अभिनेता, निर्देशक और निर्माता पारसी समुदाय से आते हैं। पारसी समुदाय के भीतर, कई उल्लेखनीय व्यक्ति हैं जिन्होंने कला, साहित्य, रंगमंच और सिनेमा के क्षेत्र में एक स्थायी विरासत छोड़ी है। ऐसे ही एक दिग्गज हैं जमशेदजी मदन, एक अग्रणी फिल्म प्रदर्शक और वितरक, जिन्होंने भारतीय फिल्म उद्योग के शुरुआती विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी दूरदर्शिता और उद्यमशीलता की भावना ने भारतीय सिनेमा की नींव को आकार देने में मदद की। साहित्य के क्षेत्र में, विपुल लेखिका और नाटककार, अपनी शक्तिशाली कहानी कहने और जटिल विषयों की खोज के साथ बापसी सिधवा का प्रभाव स्पष्ट है। उनके कार्यों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा मिली है और उन्होंने समकालीन साहित्य में बहुत योगदान दिया है। इसके साथ ही, हमें महान अभिनेता बोमन ईरानी के बारे में नहीं भूलना चाहिए, जिन्होंने अपने असाधारण अभिनय से सिल्वर स्क्रीन पर धूम मचाई है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में श्रीमान रतन टाटा का स्रोत : Wikimedia
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20-05-2025 09:30 AM
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क्रिकेट में सट्टेबाज़ी की बढ़ती प्रवृत्ति, आज की युवा पीढ़ी को कई हानिकारक तरीकों से प्रभावित कर रही है। ऑनलाइन सट्टेबाज़ी प्लेटफ़ॉर्मों तक आसान पहुंच के कारण, कई युवा इसके आदी हो रहे हैं, एवं त्वरित पैसे जीतने की उम्मीद में इसमें लिप्त हो रहे हैं। हालांकि, सट्टेबाज़ी में अक्सर वित्तीय नुकसान, तनाव और ऋण का जोखिम जुड़ा होता है। यह छात्रों को उनकी पढ़ाई से भी विचलित कर सकती है। इन खतरों के बारे में जागरूकता फ़ैलाना और युवाओं के भविष्य की रक्षा के लिए, ज़िम्मेदार व्यवहार को प्रोत्साहित करना महत्वपूर्ण है। आज, हम भारत में कॉलेज छात्रों के बीच बढ़ती जुए की लत के खतरों का पता लगाएंगे। फिर हम, जुए की लत पर अंकुश लगाने के लिए, प्रभावी रोकथाम रणनीतियों पर चर्चा करेंगे। अंत में, हम भारत में क्रिकेट सट्टेबाज़ी के बाज़ार का विश्लेषण करेंगे, एवं इसके रुझानों और समाज पर प्रभाव को समझेंगे।
भारत में कॉलेज छात्रों के बीच जुए की लत का खतरा-
जुए की लत से संबंधित कुछ आवश्यक पहलु, निम्नलिखित हैं –
•जुए के अवसरों तक आसान पहुंच:
आजकल, ऑनलाइन जुआ प्लेटफ़ॉर्मों की बढ़ती संख्या और इनकी आसान उपलब्धता के कारण, जुआ गतिविधियों में तेज़ी से वृद्धि हो रही है। कॉलेज के छात्र, जिनके पास स्वयं के स्मार्टफ़ोन और इंटरनेट की सुविधा होती है, आसानी से विभिन्न प्रकार के जुए में शामिल हो सकते हैं। इसमें ऑनलाइन कसीनो(Casino), पोकर(Poker), और खेल सट्टेबाज़ी जैसे कई रूप शामिल हैं।
•तनाव और सहकर्मी दबाव:
कॉलेज के छात्रों के शैक्षणिक और व्यक्तिगत तनाव, उन्हें जुए के माध्यम से इससे राहत पाने के लिए, अधिक अतिसंवेदनशील बना सकते हैं। इसके अतिरिक्त, सहकर्मी दबाव और उन दोस्तों के साथ बराबरी करने की इच्छा, जो जुआ खेलते हैं, इसकी लत को और बढ़ावा दे सकती है।
•वित्तीय निहितार्थ:
कॉलेज के छात्रों के पास आमतौर पर सीमित वित्तीय संसाधन होते हैं। इसी के चलते, जुआ महत्वपूर्ण वित्तीय नुकसान का कारण बन सकता है, जो उनके शैक्षिक गतिविधियों, व्यक्तिगत कल्याण और भविष्य की वित्तीय स्थिरता पर दीर्घकालिक प्रभाव डाल सकता है।
•शैक्षणिक प्रदर्शन पर नकारात्मक प्रभाव:
जुए की लत छात्रों के समय और ध्यान को अत्यधिक प्रभावित कर सकती है, जिससे शैक्षणिक ज़िम्मेदारियों की उपेक्षा और पढ़ाई में गिरावट हो सकती है।
•मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य मुद्दे:
जुए की लत विभिन्न मनोवैज्ञानिक मुद्दों से जुड़ी है, जिसमें चिंता, अवसाद और तनाव के स्तर में वृद्धि शामिल है। जुए में हुए नुकसान के बारे में सोचने एवं परिणामों में उतार एवं चढ़ाव का अनुभव करने का चक्र, बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है।
जुए की लत की रोकथाम:
जुए की लत की रोकथाम का एक तरीका, ऑनलाइन सट्टेबाज़ी के जोखिमों के बारे में, जनता को जागरूक करना है। जुआ खेलने की लत के परिणामों और ज़िम्मेदार सट्टेबाज़ी के महत्व के बारे में लोगों को शिक्षित करने का कदम, उन्हें इस जाल में गिरने से रोक सकता है।
इसके अलावा, सरकार को जुआ व सट्टेबाज़ी वाले ऐप्स को विनियमित करने में अधिक सक्रिय भूमिका निभाने की आवश्यकता है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि, ये ऐप्स कानूनी और निष्पक्ष रूप से संचालित हों, सख्त कानूनों और विनियमों को लागू किया जाना चाहिए। इसके अलावा, उन लोगों के लिए दंड होना चाहिए, जो धोखाधड़ी प्रथाओं में संलग्न हैं।
दूसरी ओर, कॉलेज के छात्रों के बीच लचीले स्वभाव को बढ़ावा देना, जुए की लत के खिलाफ़ एक मज़बूत कदम हो सकता है। जीवन कौशल कार्यशालाएं, बच्चों को तनाव प्रबंधन, निर्णयक्षमता और भावनात्मक कल्याण के बारे में सिखाते हुए, उन्हें विनाशकारी व्यवहारों का सहारा लिए बिना चुनौतियों का सामना करने के लिए, सशक्त बना सकती हैं। सहायता समूहों की स्थापना करना, जहां छात्र अपने अनुभव साझा कर सकते हैं, और साथियों से सलाह ले सकते हैं, भी प्रभावी हो उपाय हो सकता हैं।
भारत का ऑनलाइन जुआ बाज़ार:
लगभग 340 मिलियन भारतीय लोग, क्रिकेट सट्टेबाज़ी में भाग लेते हैं। प्रत्येक एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट पर, 200 मिलियन डॉलर का कारोबार होता है। विशेषज्ञों का सुझाव है कि, भारत के ऑनलाइन जुआ बाज़ार का मूल्य, 2023 से 2027 तक 8.59% की वार्षिक दर से बढ़ने का अनुमान है। 2027 तक, भारत के ऑनलाइन जुआ बाज़ार में लगभग 12.17 मिलियन उपयोगकर्ता होंगे। इसका मतलब यह है कि, भारत के ऑनलाइन जुआ बाज़ार में प्रति उपयोगकर्ता, औसत राजस्व 291.83 डॉलर तक पहुंच सकता है। इंडिया चेंज फ़ोरम(India Change Forum) की एक रिपोर्ट के अनुसार, इंडियन प्रीमियर लीग जैसी प्रमुख क्रिकेट मैचों के दौरान, 340 मिलियन से अधिक भारतीय लोग सट्टेबाज़ी में भाग लेते हैं। हाल ही में इस उद्योग पर 28% कर लगाए जाने के बाद, भारत में अवैध सट्टेबाजी में वृद्धि का मुद्दा भी, इस रिपोर्ट में उठाया गया है।
रिपोर्ट के अनुसार, नियामक प्रतिबंधों के बावजूद, भारत के सट्टेबाज़ी और जुआ बाज़ार ने उल्लेखनीय वृद्धि दिखाई है। एक अनुमान है कि, भारतीय सट्टेबाज़ी बाज़ार (ऑनलाइन और ऑफ़लाइन संयुक्त) 2018 में 130 बिलियन अमरीकी डॉलर पर था। जाहिर है कि, क्रिकेट सट्टेबाज़ी इस क्षेत्र पर हावी है। विश्व स्तर पर, खेल सट्टेबाज़ी बाज़ार संपन्न हो रहा है, जिसका 2021 में कुल मूल्य 70.23 बिलियन डॉलर था।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Pexels
संस्कृति 2012
प्रकृति 749