जौनपुर - शिराज़-ए-हिंद












अंतरिक्ष से दिखती उत्तरी रोशनी: धरती का सबसे अद्भुत आसमानी नज़ारा
द्रिश्य 1 लेंस/तस्वीर उतारना
Sight I - Lenses/ Photography
14-09-2025 09:02 AM
Jaunpur District-Hindi

हज़ारों सालों से इंसान आसमान में दिखाई देने वाली एक अद्भुत घटना से मोहित होता आया है, नॉर्दर्न लाइट्स (Northern Lights)। इन्हें वैज्ञानिक भाषा में ऑरोरा बोरेलिस (Aurora Borealis) कहा जाता है। यह रंग-बिरंगी रोशनी मुख्य रूप से उत्तरी गोलार्ध में नज़र आती है, जबकि दक्षिणी हिस्से में दिखाई देने पर इन्हें ऑरोरा ऑस्ट्रालिस (Aurora Australis) कहा जाता है। असल में, इन रोशनियों की शुरुआत होती है सूर्य से। सूर्य एक विशाल ऊर्जा का कारख़ाना है, जहाँ परमाणु आपस में मिलकर अपार शक्ति उत्पन्न करते हैं। इस शक्ति से निकलने वाले चार्ज़्ड कण (charged particles) अंतरिक्ष में फैल जाते हैं। जब ये कण पृथ्वी के पास पहुँचते हैं तो अधिकांश पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र उन्हें रोक देता है। लेकिन कुछ कण ध्रुवीय क्षेत्रों तक पहुँचकर वातावरण से टकराते हैं और वही टकराव आसमान में रंगीन रोशनी में बदल जाता है।
नॉर्दर्न लाइट्स के रंग भी कमाल के होते हैं। सबसे अधिक दिखाई देने वाला रंग है हरा, जो लगभग 100-200 किलोमीटर की ऊँचाई पर मौजूद ऑक्सीजन (oxygen) से बनता है। कभी-कभी ऊँचाई पर मौजूद ऑक्सीजन लाल आभा देती है, जबकि नाइट्रोजन (nitrogen) से नीला, गुलाबी और बैंगनी रंग झलकते हैं। अलग-अलग रंगों के मिलने से पीली रोशनी भी बन सकती है। इन्हें देखने के लिए सबसे उपयुक्त जगहें हैं उत्तरी ध्रुव के क़रीब स्थित देश, जैसे फिनलैंड (Finland), आइसलैंड (Iceland) और कनाडा। हालाँकि, जब सूर्य की गतिविधियाँ बहुत तेज़ होती हैं, तो यह जादुई नज़ारा कभी-कभी दक्षिण की ओर बढ़कर ब्रिटेन (Britain) और अमेरिका जैसे देशों में भी दिख जाता है।
नॉर्दर्न लाइट्स हमें यह एहसास कराते हैं कि पृथ्वी सिर्फ़ एक ग्रह नहीं, बल्कि ब्रह्मांड से जुड़ा हुआ एक अद्भुत हिस्सा है। ये रोशनियाँ हमें याद दिलाती हैं कि हमारे चारों ओर की दुनिया कितनी रहस्यमयी और सुंदर है।
संदर्भ-
https://shorturl.at/ppaRn
https://short-link.me/17Q1o
https://short-link.me/17Q1y
https://short-link.me/17Q1V
जौनपुर से वैश्विक मंच तक: हिंदी का सांस्कृतिक प्रभाव और अंतरराष्ट्रीय पहचान
ध्वनि 2- भाषायें
Sound II - Languages
13-09-2025 09:20 AM
Jaunpur District-Hindi

हिंदी दिवस की अग्रिम शुभकामनाएँ!
भाषा केवल संवाद का साधन नहीं, बल्कि किसी समाज की आत्मा और उसकी पहचान का जीवंत प्रतीक होती है। यही वह अदृश्य धागा है जो पीढ़ियों, संस्कृतियों और इतिहास को एक अटूट बंधन में पिरोता है। हिंदी, अपने मधुर स्वर, सरल व्याकरण और गहन अभिव्यक्तियों के साथ, न केवल भारत के करोड़ों लोगों की मातृभाषा है, बल्कि विदेशों में बसे प्रवासी भारतीयों के लिए अपनी जड़ों, परंपराओं और संस्कृति से जुड़े रहने का एक सशक्त माध्यम भी है। चाहे वह फ़िजी (Fiji) के छोटे-छोटे गाँव हों, मॉरीशस (Mauritius) की चहल-पहल भरी गलियाँ, लंदन (London, UK) के सांस्कृतिक कार्यक्रम, या न्यूयॉर्क (New York, USA) की व्यस्त सड़कें, हिंदी ने अपने शब्दों और भावनाओं से हर कोने में अपनी अनोखी पहचान बनाई है। उत्तर प्रदेश के जौनपुर जैसे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक नगर में भी हिंदी का साहित्यिक और सांस्कृतिक योगदान उल्लेखनीय है। यहाँ की गलियों, शैक्षिक संस्थानों और सांस्कृतिक आयोजनों में हिंदी आज भी जीवन्त रूप में धड़कती है। हर वर्ष 14 सितंबर को मनाया जाने वाला हिंदी दिवस हमें इस भाषा की ऐतिहासिक विरासत, वैश्विक महत्व और हमारी जिम्मेदारी की याद दिलाता है कि हम इसे आने वाली पीढ़ियों तक गर्व से पहुँचाएँ। आज हिंदी विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है, जिसे लगभग 600 मिलियन (million) लोग बोलते हैं। लेकिन यह आँकड़ा सिर्फ संख्याओं की कहानी नहीं कहता, बल्कि उस ऐतिहासिक सफर का भी प्रमाण है जिसने हिंदी को सीमाओं से परे पहुँचाया। औपनिवेशिक युग के प्रवासन, बॉलीवुड फिल्मों का जादू, योग और आयुर्वेद की वैश्विक लोकप्रियता, ये सभी कारक मिलकर हिंदी को एक अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित कर चुके हैं। यह सिर्फ एक भाषा नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक विविधता, भावनात्मक गहराई और साझा विरासत का प्रतीक है, जिसने पाँच महाद्वीपों में फैले लोगों के दिलों को जोड़ा है।
आज हम जानेंगे कि हिंदी का वैश्विक स्थान और इसकी सांख्यिकीय स्थिति क्या है और यह दुनिया के कितने देशों और लोगों से जुड़ी हुई है। फिर हम पढ़ेंगे कि हिंदी के प्रसार के प्रमुख कारण कौन-कौन से हैं, जैसे प्रवासन, बॉलीवुड फिल्मों की लोकप्रियता और योग-आयुर्वेद जैसी भारतीय परंपराएँ। इसके बाद हम देखेंगे कि किन देशों में हिंदी व्यापक रूप से बोली जाती है और वहाँ की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में इसकी भूमिका कैसी है। अंत में, हम विदेशियों के लिए हिंदी सीखने की चुनौतियों और अवसरों पर नज़र डालेंगे और समझेंगे कि यह भाषा क्यों अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगातार महत्त्वपूर्ण होती जा रही है।

हिंदी का वैश्विक स्थान और सांख्यिकीय स्थिति
हिंदी, विश्व की सबसे प्रमुख और व्यापक भाषाओं में से एक है, जो मंदारिन चीनी और अंग्रेज़ी के बाद तीसरे स्थान पर आती है। आज लगभग 600 मिलियन लोग हिंदी बोलते हैं, जिनमें 425 मिलियन इसे अपनी पहली भाषा और लगभग 120 मिलियन लोग इसे दूसरी भाषा के रूप में अपनाए हुए हैं। भारत में यह भाषा न केवल सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली है, बल्कि प्रशासन, शिक्षा, साहित्य, मीडिया (media) और जनसंपर्क का एक प्रमुख माध्यम भी है। हिंदी का दायरा केवल भारतीय भूगोल तक सीमित नहीं है; मॉरीशस, फ़िजी, नेपाल, अमेरिका, सिंगापुर, यूनाइटेड किंगडम (United Kingdom - UK), दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और खाड़ी देशों में भी लाखों लोग इसका प्रयोग करते हैं। 2011 की भारतीय जनगणना के अनुसार, उत्तर प्रदेश के जौनपुर ज़िले में ही 164,071 लोग हिंदी बोलते हैं, जो यह दर्शाता है कि छोटे से छोटे भौगोलिक क्षेत्र में भी हिंदी की गहरी जड़ें हैं। इस प्रकार हिंदी न केवल एक भाषा है, बल्कि करोड़ों लोगों की भावनाओं, संस्कृति और पहचान का प्रतीक है।

हिंदी के वैश्विक प्रसार के प्रमुख कारण
हिंदी के विश्वव्यापी प्रसार के पीछे कई ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कारण हैं।
- प्रवासन पैटर्न: ब्रिटिश (British) उपनिवेश काल में, विशेषकर 19वीं और 20वीं सदी में, बड़ी संख्या में भारतीय मजदूरों और व्यापारी वर्ग को अनुबंधित श्रमिक (Indentured Labour) के रूप में फ़िजी, मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका, त्रिनिदाद-टोबैगो (Trinidad-Tobago) और गुयाना (Guyana) जैसे देशों में भेजा गया। इन प्रवासियों ने अपनी भाषा और संस्कृति को सहेजकर रखा, जो पीढ़ियों तक वहां कायम रही।
- बॉलीवुड फिल्मों की भूमिका: भारतीय सिनेमा, खासकर बॉलीवुड, ने हिंदी को वैश्विक मंच पर लोकप्रिय बनाने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हिंदी गानों, संवादों और फिल्मों के जरिए न केवल प्रवासी भारतीय, बल्कि विदेशी दर्शक भी इस भाषा और संस्कृति से जुड़े।
- योग और आयुर्वेद: योग, ध्यान, और आयुर्वेदिक चिकित्सा के वैश्विक विस्तार के साथ हिंदी शब्दावली भी विश्वभर में फैली। “प्राणायाम”, “आसन”, “चक्र” जैसे शब्द अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचाने जाते हैं।
- शिक्षा और डिजिटल माध्यम: इंटरनेट (internet), यूट्यूब (YouTube), सोशल मीडिया (Social Media) और हिंदी समाचार पोर्टलों (news portals) ने विदेशों में हिंदी सीखने और बोलने वालों की संख्या में तेजी से वृद्धि की है।
प्रमुख देश जहाँ हिंदी व्यापक रूप से बोली जाती है
- फ़िजी: यहाँ की लगभग 38% आबादी भारतीय मूल की है, और फ़िजी-हिंदी (स्थानीय रूप से विकसित हिंदी का एक रूप) को आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त है।
- मॉरीशस: यहाँ करीब 6,85,000 लोग हिंदी बोलते हैं। स्कूलों में हिंदी एक वैकल्पिक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है और भारतीय त्यौहार, जैसे दिवाली और होली, पूरे उत्साह से मनाए जाते हैं।
- नेपाल: भारत से निकट सांस्कृतिक संबंधों के कारण, यहाँ लगभग 8 मिलियन लोग हिंदी बोलते हैं। सीमा क्षेत्रों में हिंदी व्यापार और संवाद की अहम भाषा है।
- संयुक्त राज्य अमेरिका: प्रवासी भारतीय समुदाय के कारण यहाँ करीब 6,50,000 लोग हिंदी बोलते हैं। न्यू जर्सी (New Jersey), न्यूयॉर्क और कैलिफ़ोर्निया (California) जैसे राज्यों में हिंदी-भाषी आबादी अधिक है।
- सिंगापुर: यहाँ हिंदी को एक आधिकारिक भारतीय भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है और यह स्कूलों, सांस्कृतिक संगठनों और मीडिया में सक्रिय रूप से उपयोग की जाती है।
- यूनाइटेड किंगडम: यहाँ लगभग 1.53% जनसंख्या हिंदी बोलती है। लंदन और लीसेस्टर (Leicester) जैसे शहरों में हिंदी सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा है।

विदेशियों के लिए हिंदी सीखने की चुनौतियाँ
हिंदी एक सुंदर और अभिव्यक्तिपूर्ण भाषा है, लेकिन विदेशी विद्यार्थियों के लिए इसमें दक्षता हासिल करना आसान नहीं होता।
- उच्चारण: हिंदी के कई ध्वन्यात्मक (phonetic) स्वर और व्यंजन, जैसे "ठ", "ढ़" और "ण", अन्य भाषाओं में नहीं पाए जाते, जिससे सही उच्चारण में कठिनाई होती है।
- व्याकरण: हिंदी का व्याकरण लिंग, वचन, काल और कारक चिह्नों पर आधारित है। यह अंग्रेज़ी जैसी भाषाओं से काफी भिन्न है, जिससे नए सीखने वालों को वाक्य संरचना में भ्रम हो सकता है।
- देवनागरी लिपि: 46 से अधिक मूल अक्षरों वाली देवनागरी लिपि शुरुआती छात्रों को जटिल लग सकती है, खासकर जब अक्षर संयुक्त रूप (Conjuncts) में आते हैं।
- लय और स्वर: हिंदी में अर्थ बदलने के लिए लहजे और स्वर का सही उपयोग जरूरी है। गलत लहजा कभी-कभी पूरी बात का मतलब बदल सकता है।

हिंदी सीखने के लाभ और अंतरराष्ट्रीय महत्व
भले ही सीखने में समय और प्रयास लगता है, लेकिन हिंदी जानने के लाभ अत्यंत व्यापक और दूरगामी हैं
- व्यापार और अर्थव्यवस्था: भारत विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। हिंदी जानने से निवेशकों, व्यापारियों और विदेशी कंपनियों के लिए भारतीय बाज़ार में प्रवेश आसान हो जाता है।
- पर्यटन और संस्कृति: भारत एक बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश है। हिंदी बोलने से पर्यटकों को न केवल संचार में आसानी होती है, बल्कि स्थानीय परंपराओं और जीवनशैली को समझने का अवसर भी मिलता है।
- कॅरियर अवसर: अंतरराष्ट्रीय संस्थानों, मीडिया हाउस (Media House), दूतावासों, पर्यटन कंपनियों और भाषा शिक्षण केंद्रों में हिंदी जानने वाले पेशेवरों की मांग लगातार बढ़ रही है।
- वैश्विक संपर्क: हिंदी जानने से व्यक्ति को एक विशाल, पाँच महाद्वीपों में फैले भाषाई समुदाय का हिस्सा बनने का अवसर मिलता है, जिससे व्यक्तिगत और सांस्कृतिक संबंध मजबूत होते हैं।
संदर्भ-
मूंग की कहानी: पोषण, औषधीय गुण और जौनपुर की समृद्ध कृषि परंपरा
फल-सब्ज़ियां
Fruits and Vegetables
12-09-2025 09:20 AM
Jaunpur District-Hindi

मूंग (विग्ना रेडिएटा - Vigna radiata) भारत की सबसे प्राचीन, पौष्टिक और बहुउपयोगी दलहनी फसलों में से एक है, जिसकी खेती और उपयोग का इतिहास हजारों वर्षों पुराना है। इसका उद्गम भारतीय उपमहाद्वीप में माना जाता है, जहाँ से यह धीरे-धीरे दक्षिण-पूर्व एशिया, चीन, अफ्रीका और विश्व के अन्य हिस्सों में फैल गई। प्राचीन आयुर्वेद ग्रंथों में मूंग को “सात्त्विक आहार” के रूप में वर्णित किया गया है, एक ऐसा भोजन जो पचने में आसान, शरीर को हल्का, ऊर्जावान और रोग-मुक्त रखने में सहायक होता है। मूंग का स्थान केवल भोजन में ही नहीं, बल्कि हमारी कृषि परंपरा में भी अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है, क्योंकि यह कम पानी और अपेक्षाकृत कम उर्वर मिट्टी में भी अच्छी उपज देती है। आज के समय में राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और कर्नाटक इसके प्रमुख उत्पादक राज्य हैं। विशेष रूप से उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल क्षेत्र, जिसमें जौनपुर भी शामिल है, मूंग की खेती के लिए जाना जाता है। जौनपुर की दोमट और बलुई मिट्टियाँ तथा गंगा-गोमती के मैदानी क्षेत्र की जलवायु, खरीफ और जायद दोनों मौसम में मूंग उत्पादन के लिए उपयुक्त मानी जाती है। यहाँ के किसान पारंपरिक खेती पद्धतियों के साथ-साथ आधुनिक तकनीकों का भी उपयोग करते हैं, जिससे उपज और गुणवत्ता दोनों में सुधार हो रहा है। इस प्रकार, मूंग न केवल भारत की खाद्य सुरक्षा में योगदान देती है, बल्कि जौनपुर जैसे जिलों की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी मजबूती प्रदान करती है।
इस लेख में हम मूंग के विभिन्न पहलुओं को क्रमबद्ध तरीके से समझेंगे। सबसे पहले हम जानेंगे मूंग का परिचय और उत्पत्ति, जिसमें इसके ऐतिहासिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक महत्व पर चर्चा होगी। इसके बाद हम विस्तार से देखेंगे मूंग का पोषण मूल्य, जिसमें इसके प्रोटीन (protein), विटामिन (vitamin), खनिज और फाइबर (fiber) संबंधी जानकारी शामिल होगी। फिर हम समझेंगे स्वास्थ्य लाभ और रोग-निवारण गुण, जैसे कि यह कैसे रक्तचाप, कोलेस्ट्रॉल (cholestrol), पाचन और मधुमेह में सहायक है। आगे हम चर्चा करेंगे इसके एंटीऑक्सिडेंट (antioxidants) और सूजन-रोधी गुणों पर, जो शरीर को कोशिका-क्षति और सूजन से बचाते हैं। अंत में, हम मूंग की खेती, किस्में और आर्थिक महत्व पर प्रकाश डालेंगे, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि यह फसल न केवल सेहत बल्कि कृषि और अर्थव्यवस्था के लिए भी कितनी अहम है।

मूंग का परिचय और उत्पत्ति
मूंग एक अत्यंत महत्वपूर्ण दलहनी फसल है, जो हजारों वर्षों से एशियाई सभ्यताओं के भोजन और कृषि संस्कृति का हिस्सा रही है। इसका उद्गम भारत उपमहाद्वीप में माना जाता है, जहां से यह समय के साथ दक्षिण-पूर्व एशिया, चीन, अफ्रीका और पश्चिमी एशिया तक फैल गई। प्राचीन भारतीय ग्रंथों जैसे चरक संहिता और सुश्रुत संहिता में मूंग को पौष्टिक, पचने में आसान और औषधीय गुणों से भरपूर बताया गया है। भारत में यह विशेष रूप से राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में बड़े पैमाने पर उगाई जाती है। मूंग एक ऐसी फसल है जो कम पानी और अल्प अवधि (60–70 दिन) में तैयार हो जाती है, जिससे यह अल्प संसाधन वाले किसानों के लिए भी लाभकारी विकल्प बनती है।
मूंग का पोषण मूल्य
मूंग के दानों में लगभग 24% उच्च गुणवत्ता का प्रोटीन पाया जाता है, जो शरीर के ऊतकों की मरम्मत और मांसपेशियों के विकास के लिए आवश्यक है। इसमें विटामिन B1 (थायमिन - thiamine), B2 (राइबोफ्लेविन - riboflavin), B6, फोलेट (folate) और विटामिन C (विशेष रूप से अंकुरण के बाद) भरपूर मात्रा में होते हैं। खनिजों में आयरन (iron), मैग्नीशियम (magnesium), पोटैशियम (potassium), जिंक (zinc), फॉस्फोरस (phosphorus) और कैल्शियम (calcium) शामिल हैं। इसमें पाए जाने वाले आवश्यक अमीनो एसिड (amino acid) - जैसे लाइसिन (Lysine), ल्यूसीन (Leucine) और थ्रियोनीन (Threonine) - संतुलित पोषण में योगदान करते हैं। मूंग का ग्लाइसेमिक इंडेक्स (glycemic index) कम होने के कारण यह रक्त शर्करा के स्तर को नियंत्रित रखने में मदद करता है। अंकुरण प्रक्रिया से इसके एंटीऑक्सिडेंटऔर विटामिन का स्तर कई गुना बढ़ जाता है, जिससे यह स्वास्थ्य के लिए और भी फायदेमंद बन जाती है।

स्वास्थ्य लाभ और रोग-निवारण गुण
मूंग का नियमित सेवन हृदय स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी है। इसमें मौजूद पोटैशियम और मैग्नीशियम रक्त वाहिकाओं को शिथिल करते हैं, जिससे उच्च रक्तचाप नियंत्रित होता है। मूंग में पाया जाने वाला घुलनशील फाइबर रक्त में खराब कोलेस्ट्रॉल (एलडीएल - LDL) को घटाने में मदद करता है और हृदय रोग के खतरे को कम करता है। गर्मियों में मूंग की ठंडी दाल या मूंग का शर्बत शरीर को ठंडक प्रदान कर हीट स्ट्रोक (heat stroke) से बचाता है। इसका उच्च प्रोटीन और कम कैलोरी (calorie) संयोजन वजन घटाने के इच्छुक लोगों के लिए आदर्श है, जबकि जटिल कार्बोहाइड्रेट (carbohyderate) पाचन क्रिया को संतुलित रखते हैं। मूंग में सूजन-रोधी और रोग-प्रतिरोधक गुण होते हैं, जो मधुमेह, गठिया, थकान और पाचन संबंधी समस्याओं में राहत प्रदान करते हैं।
एंटीऑक्सिडेंट और सूजन-रोधी गुण
मूंग के दानों, छिलकों और अंकुरों में विटेक्सिन (vitexin), आइसोविटेक्सिन (isovitexin), फिनोलिक एसिड (phenolic acid) और फ्लेवोनॉइड्स (flavonoids) जैसे शक्तिशाली एंटीऑक्सिडेंट पाए जाते हैं। ये यौगिक शरीर में मुक्त कणों को निष्क्रिय करके कोशिकाओं को ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस (oxidative stress) से बचाते हैं, जिससे हृदय रोग, कैंसर (cancer), तंत्रिका विकार और समय से पहले बुढ़ापा आने का खतरा कम होता है। मूंग के बायोएक्टिव कंपाउंड्स (bioactive compounds) में सूजन-रोधी गुण होते हैं, जो जोड़ों के दर्द, गठिया, त्वचा की सूजन और एलर्जी (allergy) प्रतिक्रियाओं में राहत देते हैं। वैज्ञानिक अध्ययनों से यह भी पता चला है कि मूंग का अर्क प्रतिरक्षा प्रणाली को सक्रिय करता है और शरीर की प्राकृतिक आरोग्य प्रक्रिया को तेज करता है।

खेती और किस्में
मूंग एक गर्म और शुष्क जलवायु की अल्प अवधि वाली फसल है, जिसकी खेती खरीफ में जून-जुलाई तथा जायद में मार्च-अप्रैल में की जाती है। हल्की दोमट या बलुई दोमट मिट्टी जिसमें जल निकासी अच्छी हो, मूंग की खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है। पौधे की ऊंचाई 30-100 सेमी होती है, जिन पर पीले रंग के फूल और 6-15 सेमी लंबी फलियां लगती हैं, जिनमें 8–15 हरे या पीले रंग के दाने होते हैं। इसकी जड़ें राइजोबियम (Rhizobium) जीवाणुओं के साथ सहजीवी संबंध बनाकर मिट्टी में नाइट्रोजन स्थिरीकरण (nitrogen fixation) करती हैं, जिससे अगली फसलों की पैदावार बढ़ती है। प्रमुख किस्मों में ‘पूसा विशाल’, ‘पूसा 9531’, ‘मूंग सम्राट’, ‘एमएच-421’ और ‘एमएच-318’ शामिल हैं, जो उच्च उत्पादकता, जल्दी पकने और रोग-प्रतिरोधक क्षमता के लिए जानी जाती हैं।
उपयोग और आर्थिक महत्व
मूंग का उपयोग भारतीय आहार में दाल, खिचड़ी, चिल्ला, सूप (soup), मिठाई (जैसे मूंग दाल हलवा) और अंकुरित सलाद के रूप में किया जाता है। अंकुरित मूंग स्वास्थ्यवर्धक नाश्ते और पोषण आहार में विशेष स्थान रखता है, जो खिलाड़ियों और स्वास्थ्य-जागरूक लोगों के बीच लोकप्रिय है। ग्रामीण क्षेत्रों में मूंग का पौधा हरे चारे के रूप में पशुधन के लिए महत्वपूर्ण है, जबकि इसके पौधे की जड़ें मिट्टी की उर्वरता बढ़ाकर स्थायी कृषि में योगदान देती हैं। आर्थिक दृष्टि से, मूंग की खेती किसानों को कम समय में नकदी फसल का लाभ देती है, और घरेलू व अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी मांग सालभर बनी रहती है। खाद्य उद्योग में मूंग आधारित स्नैक्स (snacks), आटा और इंस्टेंट सूप (instant soup) की बढ़ती लोकप्रियता इसके आर्थिक मूल्य को और मजबूत कर रही है।
संदर्भ-
जीव-जगत का सफर: एककोशिकीय से बहुकोशिकीय जीवन की अद्भुत वैज्ञानिक कहानी
कोशिका के आधार पर
By Cell Type
11-09-2025 09:20 AM
Jaunpur District-Hindi

जीव-जगत की जटिलता और विविधता ने सदियों से मानव की जिज्ञासा को गहराई से आकर्षित किया है। प्राचीन ऋषियों से लेकर आधुनिक वैज्ञानिकों तक, हर युग में लोग यह समझने की कोशिश करते रहे हैं कि जीवन की शुरुआत कैसे हुई, यह किस प्रकार विकसित हुआ, और जीव-जगत के अनगिनत रूप आपस में किस तरह जुड़े हुए हैं। यह अध्ययन केवल जीव विज्ञान के विद्यार्थियों या शोधकर्ताओं तक सीमित नहीं है, बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए रोचक है, जो प्रकृति के रहस्यों को समझने का उत्सुक है। इसमें सूक्ष्मदर्शी से ही दिखाई देने वाले एककोशिकीय जीवों की अदृश्य दुनिया से लेकर, विशाल और जटिल संरचना वाले बहुकोशिकीय जीवों के साम्राज्य तक की रोमांचक यात्रा शामिल है। यह विषय हमें न केवल जीवन के विविध रूपों से परिचित कराता है, बल्कि यह भी सिखाता है कि पृथ्वी पर जीवों के बीच कितनी गहरी परस्पर निर्भरता और संतुलन मौजूद है।
इस लेख में हम सबसे पहले जानेंगे कि समय के साथ जीवों के वर्गीकरण की अवधारणा किस प्रकार विकसित हुई। इसके पश्चात्, एककोशिकीय और बहुकोशिकीय साम्राज्यों के बीच के मूलभूत अंतरों पर चर्चा करेंगे। आगे चलकर, हम बहुकोशिकीय जीवों से संबंधित तीन प्रमुख साम्राज्यों की विशेषताओं को समझेंगे। इसके बाद, एककोशिकीय और बहुकोशिकीय जीवों के बीच विस्तृत तुलना प्रस्तुत करेंगे। फिर हम बहुकोशिकीय जीवों की सामान्य विशेषताओं पर दृष्टि डालेंगे। अंततः, कुछ प्रमुख उदाहरणों के माध्यम से इन अवधारणाओं को और अधिक स्पष्ट एवं जीवन्त रूप में समझेंगे।

जीवों के वर्गीकरण का ऐतिहासिक विकास
जीव-जगत की विविधता इतनी विशाल है कि इसे समझने और व्यवस्थित रूप से अध्ययन करने के लिए मनुष्य ने बहुत पहले ही वर्गीकरण की अवधारणा विकसित की। प्राचीन काल में, ग्रीक दार्शनिक अरस्तू (Greek philosopher Aristotle) ने सबसे पहले जानवरों और पौधों को उनकी आकृति (Morphology) और रहन-सहन के आधार पर वर्गीकृत किया। उदाहरण के लिए, उन्होंने जलचर, स्थलचर और वायचर जैसे समूह बनाए। हालांकि, यह तरीका उस समय के लिए उपयोगी था, लेकिन इसकी अपनी सीमाएँ थीं, कई जीव ऐसे थे जिन्हें इस वर्गीकरण में सही तरीके से नहीं रखा जा सकता था, जिससे भ्रम की स्थिति बनती थी।
18वीं शताब्दी में स्वीडिश (Swedish) वैज्ञानिक कार्ल लीनियस (Carl Linnaeus) ने एक वैज्ञानिक और संगठित प्रणाली विकसित की, जिसे द्विनाम पद्धति (Binomial Nomenclature) कहा जाता है। इसमें हर जीव को एक अद्वितीय वैज्ञानिक नाम दिया गया, जिससे वैज्ञानिक समुदाय में स्पष्टता और एकरूपता बनी। समय के साथ, विज्ञान और तकनीक के विकास ने इस क्षेत्र में क्रांति ला दी, सूक्ष्मदर्शी (Microscope) के आविष्कार से सूक्ष्म जीवों की खोज हुई और डीएनए अनुक्रमण (DNA Sequencing) ने जीवों के बीच आपसी रिश्तों और उनके विकासक्रम को समझना आसान कर दिया। आज, इन सभी प्रयासों के परिणामस्वरूप हम जीवन को पाँच या छह प्रमुख साम्राज्यों में बाँटते हैं, जिनमें एककोशिकीय और बहुकोशिकीय दोनों तरह के जीव शामिल हैं।

एककोशिकीय बनाम बहुकोशिकीय साम्राज्य
जीवों की दुनिया को मोटे तौर पर दो बड़े समूहों में बाँटा जा सकता है, एककोशिकीय (Unicellular) और बहुकोशिकीय (Multicellular)। एककोशिकीय जीव ऐसे सूक्ष्म जीव होते हैं जिनका पूरा शरीर केवल एक ही कोशिका से बना होता है। यही एक कोशिका भोजन ग्रहण करने, ऊर्जा बनाने, अपशिष्ट निकालने, और प्रजनन जैसे सभी आवश्यक कार्य करती है। इनका आकार इतना छोटा होता है कि हम इन्हें बिना सूक्ष्मदर्शी के नहीं देख सकते। ये पानी, मिट्टी और अन्य जीवों के भीतर भी पाए जाते हैं, और पर्यावरण के कई महत्वपूर्ण कार्यों में भाग लेते हैं।
इसके विपरीत, बहुकोशिकीय जीवों में कई कोशिकाएँ होती हैं, और हर कोशिका किसी विशेष कार्य के लिए विकसित होती है। कुछ कोशिकाएँ भोजन बनाने में मदद करती हैं, कुछ गति में, कुछ रक्षा में, और कुछ प्रजनन में। इस तरह का कार्य-विभाजन (Division of Labour) उन्हें अधिक संगठित, जटिल और सक्षम बनाता है। यही कारण है कि बहुकोशिकीय जीव बड़े आकार के होते हैं और जटिल अंग-प्रणालियों (Organ Systems) का विकास कर पाते हैं।

बहुकोशिकीय जीवों से संबंधित तीन प्रमुख साम्राज्य
बहुकोशिकीय जीव मुख्य रूप से तीन बड़े साम्राज्यों में बाँटे जाते हैं —
- प्लांटी (Plantae): इसमें वे सभी पौधे आते हैं जो प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis) के माध्यम से अपना भोजन स्वयं बनाते हैं। पेड़, झाड़ियाँ, घास, फूल वाले पौधे और यहाँ तक कि कुछ प्रकार की काई (Mosses) भी इस समूह में आती हैं।
- ऐनिमेलिया (Animalia): इसमें वे सभी जीव आते हैं जिन्हें अपनी ऊर्जा के लिए अन्य जीवों पर निर्भर रहना पड़ता है। इसमें अकशेरुकी (Invertebrates) जैसे कीड़े, जंतु और कशेरुकी (Vertebrates) जैसे मछली, पक्षी, स्तनधारी शामिल हैं।
- फंगी (Fungi): इसमें कवक जैसे मशरूम, यीस्ट (Yeast) और मोल्ड (Mold) आते हैं। ये अपना भोजन स्वयं नहीं बनाते, बल्कि जैविक पदार्थों को अपघटित (decompose) करके पोषण प्राप्त करते हैं।
तीनों साम्राज्यों की कोशिका संरचना, पोषण पद्धति और जीवन-शैली अलग-अलग है, लेकिन इनकी समानता यह है कि ये सभी बहुकोशिकीय होते हैं और इनकी कोशिकाएँ मिलकर सामूहिक रूप से कार्य करती हैं।
एककोशिकीय और बहुकोशिकीय जीवों में अंतर
एककोशिकीय और बहुकोशिकीय जीवों का अंतर केवल कोशिकाओं की संख्या में ही नहीं, बल्कि उनकी जीवन पद्धति और कार्यप्रणाली में भी है।
- एककोशिकीय जीव: इनमें एक ही कोशिका सभी कार्य करती है, भोजन पचाना, ऊर्जा बनाना, प्रजनन और रक्षा। ये सूक्ष्म होते हैं, तेज़ी से बढ़ते हैं और जल्दी प्रजनन करते हैं।
- बहुकोशिकीय जीव: इनमें विभिन्न प्रकार की कोशिकाएँ होती हैं, जो अलग-अलग कार्यों के लिए विशेषीकृत होती हैं। ये बड़े, अधिक जटिल और अधिक जीवनकाल वाले होते हैं। इनके शरीर में विशेष अंग और अंग-प्रणालियाँ पाई जाती हैं, जो इन्हें विभिन्न परिस्थितियों में अनुकूल (adapt) होने की क्षमता देती हैं।
बहुकोशिकीय जीवों की सामान्य विशेषताएं
बहुकोशिकीय जीवों की पहचान कुछ सामान्य लक्षणों से होती है —
- इनमें कई कोशिकाएँ होती हैं।
- कोशिकाओं में कार्य का स्पष्ट विभाजन (Specialization) होता है।
- ऊतक (Tissues), अंग (Organs) और अंग-प्रणालियाँ विकसित होती हैं।
- इन्हें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है, इसलिए इनकी पोषण प्रणाली जटिल होती है।
- ये अपने पर्यावरण के साथ जटिल प्रकार से अनुकूलन कर पाते हैं।
इन लक्षणों की वजह से बहुकोशिकीय जीव जटिल पारिस्थितिक तंत्र (Ecosystem) का हिस्सा बनते हैं और उसमें सक्रिय भूमिका निभाते हैं।

बहुकोशिकीय जीवों के प्रमुख उदाहरण
हमारे आस-पास के अधिकांश बड़े जीव बहुकोशिकीय हैं। विशालकाय वृक्ष जो ऑक्सीजन (Oxygen) का उत्पादन करते हैं, छोटे फूल वाले पौधे जो सुंदरता और सुगंध फैलाते हैं, और सूक्ष्म कीट जो परागण (pollination) में मदद करते हैं, ये सभी बहुकोशिकीय हैं। मनुष्य स्वयं भी बहुकोशिकीय जीव का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसके शरीर में लगभग 37 ट्रिलियन (trillion) कोशिकाएँ होती हैं। ये कोशिकाएँ आपस में मिलकर काम करती हैं, जिससे हम सोच सकते हैं, चल सकते हैं और जटिल कार्य कर सकते हैं। इसके अलावा, समुद्री स्पंज (sea sponge), पक्षी, सरीसृप, स्तनधारी, कवक और काई भी इस समूह में आते हैं, जो प्रकृति में विविधता और संतुलन बनाए रखने में योगदान देते हैं।
संदर्भ-
गुप्तकालीन मंदिर वास्तुकला: भारत की प्राचीन आस्था और कला का स्वर्ण युग
धर्म का उदयः 600 ईसापूर्व से 300 ईस्वी तक
Age of Religion: 600 BCE to 300 CE
10-09-2025 09:25 AM
Jaunpur District-Hindi

भारत की धरती पर मंदिर केवल ईंट-पत्थर से बने स्थिर ढांचे नहीं हैं, बल्कि यह हमारी आस्था, संस्कृति, कला और इतिहास की जीवित धरोहर हैं। ये वह स्थान हैं जहाँ पीढ़ियों से चली आ रही पूजा-पद्धति, धार्मिक अनुष्ठान और सामाजिक मेल-मिलाप का संगम होता रहा है। प्राचीन काल में मंदिर केवल देव-प्रतिमाओं की स्थापना के लिए नहीं, बल्कि शिक्षा, संगीत, नृत्य, कला और सामुदायिक गतिविधियों के केंद्र के रूप में भी कार्य करते थे। इनमें गुप्तकाल (तीसरी-छठी शताब्दी ईस्वी) को विशेष महत्व प्राप्त है, क्योंकि इसी काल में भारतीय मंदिर वास्तुकला ने संगठित और स्थायी रूप लेना शुरू किया। इस युग के मंदिरों में ईंट और पत्थर का संतुलित प्रयोग, सुस्पष्ट योजना, और कलात्मक नक्काशी देखने को मिलती है, जिसमें सादगी के साथ-साथ आध्यात्मिक भव्यता का अनूठा मेल है। गुप्तकाल के ये स्थापत्य नमूने आज भी न केवल इतिहासकारों और कला-विशेषज्ञों को आकर्षित करते हैं, बल्कि आम जनमानस के लिए गर्व और प्रेरणा का स्रोत भी बने हुए हैं।
आज हम इस लेख में गुप्तकाल और उससे जुड़ी मंदिर निर्माण की परंपरा को चरणबद्ध तरीके से समझेंगे। सबसे पहले हम देखेंगे कि भारत में मंदिर वास्तुकला की शुरुआत कैसे हुई और गुप्तकाल ने इसमें क्या योगदान दिया। फिर हम जानेंगे सांची 17 के बारे में, जिसे भारत का सबसे पुराना जीवित मंदिर माना जाता है। इसके बाद हम अन्य प्रमुख गुप्तकालीन और वाकाटक शैली के मंदिरों जैसे रामटेक केवला नरसिंह, देवगढ़ का दशावतार, भीतरगाँव और भुमरा शिव मंदिर की विशेषताएं समझेंगे। आगे हम मुंडेश्वरी देवी मंदिर पर नज़र डालेंगे, जिसे भारत का सबसे प्राचीन कार्यशील हिंदू मंदिर कहा जाता है। फिर हम स्थापत्य शैलियों और कला-सौंदर्य के पहलुओं का विश्लेषण करेंगे, और अंत में संरक्षण प्रयासों व इन मंदिरों के धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व पर चर्चा करेंगे।

भारत में मंदिर निर्माण की प्राचीन परंपरा और गुप्तकाल का महत्व
भारत में मंदिर निर्माण की जड़ें वैदिक काल में देखी जा सकती हैं, जब पूजा-अर्चना मुख्यतः यज्ञ वेदियों और अस्थायी मण्डपों में होती थी। उस समय संरचनाएं अस्थायी सामग्री - लकड़ी, मिट्टी और घास-फूस से बनती थीं। लेकिन गुप्तकाल (तीसरी-छठी शताब्दी ईस्वी) में मंदिर वास्तुकला ने स्थायित्व और कलात्मकता का नया युग देखा। यह वह दौर था जब ईंट और पत्थर का प्रयोग एक साथ किया जाने लगा, जिससे मंदिर न केवल टिकाऊ बने, बल्कि उनमें सौंदर्य और अनुपात का अद्भुत संगम दिखा। गुप्तकाल को "भारत का स्वर्ण युग" और "शास्त्रीय युग" दोनों कहा जाता है, क्योंकि इस समय धर्म, कला, मूर्तिकला, और स्थापत्य सभी में अभूतपूर्व विकास हुआ। मंदिर अब केवल पूजा के स्थल नहीं रहे, बल्कि वे संस्कृति, शिक्षा और सामाजिक मेलजोल के केंद्र भी बन गए।

सांची 17 – भारत का सबसे पुराना जीवित मंदिर
मध्य प्रदेश के विदिशा जिले में स्थित सांची विश्वभर में बौद्ध स्तूपों के लिए प्रसिद्ध है, लेकिन यहाँ का मंदिर संख्या 17 एक अलग ही महत्व रखता है। यह भारत के सबसे पुराने जीवित मंदिरों में से एक माना जाता है, जिसका निर्माण गुप्तकाल के दौरान लगभग 5वीं शताब्दी में हुआ। इसकी संरचना साधारण किंतु संतुलित है, एक गर्भगृह और उसके सामने एक छोटा-सा मंडप, दोनों को पत्थर के स्तंभों का सहारा मिला है। यह मूलतः एक बौद्ध मंदिर था, जो अपनी सादगी और अनुपात के कारण वास्तुकला के विद्यार्थियों और इतिहासकारों के लिए अध्ययन का आदर्श उदाहरण है। इस मंदिर में किसी प्रकार का अत्यधिक अलंकरण नहीं है, जो इसे और भी प्रामाणिक और प्राचीन रूप देता है।
गुप्तकालीन एवं वाकाटक शैली के अन्य प्रमुख मंदिर
गुप्त और वाकाटक वंशों के दौर में मंदिर निर्माण पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैल गया। इस काल के मंदिरों में संरचना की विविधता, स्थानीय कलात्मक प्रभाव और धार्मिक प्रतीकों का अद्भुत संयोजन देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र के रामटेक का केवला नरसिंह मंदिर अपनी अनोखी मूर्तिकला के लिए प्रसिद्ध है। उत्तर प्रदेश के देवगढ़ में स्थित दशावतार मंदिर, विष्णु के विभिन्न अवतारों को दर्शाने वाली अद्वितीय नक्काशियों के लिए जाना जाता है। कानपुर के भीतरगाँव का मंदिर पूरी तरह कच्ची ईंटों से बना होने के कारण विशेष है, जबकि मध्य प्रदेश के भुमरा शिव मंदिर में दुर्लभ शिलालेख और अद्भुत शिवलिंग देखने को मिलता है। ये सभी मंदिर अपने-अपने समय और स्थान की सांस्कृतिक पहचान और धार्मिक उत्साह को दर्शाते हैं।

मुंडेश्वरी देवी मंदिर – भारत का सबसे प्राचीन कार्यशील हिंदू मंदिर
बिहार के कैमूर जिले की पहाड़ियों पर स्थित मुंडेश्वरी देवी मंदिर भारत का सबसे पुराना जीवित और कार्यशील हिंदू मंदिर माना जाता है। इसका निर्माण काल लगभग पहली से चौथी शताब्दी ईस्वी के बीच का माना जाता है, जिससे यह गुप्तकाल से भी पहले की धार्मिक निरंतरता को दर्शाता है। इस मंदिर की योजना अष्टकोणीय है, जो भारतीय मंदिर वास्तुकला में अत्यंत दुर्लभ है। यहाँ देवी मुंडेश्वरी और चतुर्मुख शिवलिंग की निरंतर पूजा होती है, जो सहस्राब्दियों से चली आ रही आस्था का प्रमाण है। हर वर्ष यहाँ नवरात्रि और महाशिवरात्रि पर हजारों श्रद्धालु आते हैं, जिससे यह स्थल केवल एक ऐतिहासिक धरोहर नहीं बल्कि जीवंत धार्मिक केंद्र भी है।
स्थापत्य शैलियां और कला-सौंदर्य
इन प्राचीन मंदिरों में गुप्तकालीन, वाकाटक और नागर स्थापत्य शैली का सुंदर मिश्रण देखने को मिलता है। गर्भगृह, मंडप और शिखर की संरचना में सरलता और भव्यता का अद्भुत संतुलन है। मूर्तिकला में पौराणिक कथाओं, देवताओं और धार्मिक प्रतीकों को जीवंत रूप में उकेरा गया है। मंदिरों के प्रवेश द्वार की चौखटों पर फूलों, बेल-बूटों और आकृतियों की महीन नक्काशी, दीवारों पर अंकित शिलालेख, और देवमूर्तियों के भावपूर्ण चेहरे उस समय की शिल्पकला की श्रेष्ठता को प्रकट करते हैं। इन मंदिरों की कला केवल सजावट नहीं, बल्कि धार्मिक संदेश और सांस्कृतिक मूल्यों का दृश्य रूप है।

संरक्षण प्रयास और धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व
इन प्राचीन मंदिरों का संरक्षण आज भी एक चुनौती और आवश्यकता दोनों है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा इन स्थलों की मरम्मत, सफाई और संरचनात्मक मजबूती के कार्य नियमित रूप से किए जाते हैं। साथ ही, स्थानीय समुदाय भी धार्मिक उत्सवों और मेलों के आयोजन के माध्यम से इन्हें जीवंत बनाए रखते हैं। तीर्थयात्रा और पर्यटन से स्थानीय अर्थव्यवस्था को बल मिलता है, जबकि धार्मिक आयोजनों से सांस्कृतिक पहचान मजबूत होती है। ये मंदिर केवल अतीत की धरोहर नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य की सांस्कृतिक चेतना का आधार हैं।
संदर्भ-
मूंगे और कोरल रीफ़: समुद्री पारिस्थितिकी के अद्भुत निर्माता और संरक्षण की चुनौतियाँ
समुद्री संसाधन
Marine Resources
09-09-2025 09:14 AM
Jaunpur District-Hindi

समुद्र की गहराइयों में बसी रंग-बिरंगी, नाजुक और अद्भुत संरचनाएं सदियों से मानव को अपनी ओर आकर्षित करती रही हैं। पहली नज़र में ये किसी कलाकार की बनाई हुई मूर्तियों या प्राकृतिक चट्टानों जैसी लगती हैं, लेकिन असल में ये जीवित जीव - मूंगे (Coral) - हैं। असंख्य सूक्ष्म जीव, जिन्हें पॉलीप्स (polyps) कहा जाता है, मिलकर इनका निर्माण करते हैं। ये पॉलीप्स अपने चारों ओर कैल्शियम कार्बोनेट (calcium carbonate) का कठोर आवरण बनाते हैं, जो समय के साथ आपस में जुड़कर विशाल, जटिल और कलात्मक संरचनाओं का रूप ले लेता है, जिन्हें कोरल रीफ़ (coral reef) कहा जाता है। समुद्री पारिस्थितिकी में इनका महत्व उतना ही है जितना धरती पर जंगलों का, ये समुद्री जीवन के लिए आश्रय, भोजन और संतुलन का आधार हैं। मूंगों की संरचना प्रकृति के सूक्ष्म लेकिन अद्भुत इंजीनियरिंग (engineering) कौशल का प्रमाण है। प्रत्येक पॉलीप, जो नलिका आकार का छोटा और कोमल समुद्री जीव है, अपने शरीर के चारों ओर कठोर ढांचा बनाता है और लाखों-करोड़ों पॉलीप्स का संयुक्त योगदान एक संपूर्ण रीफ़ का निर्माण करता है। यह प्रक्रिया अत्यंत धीमी होती है, जिसमें कई वर्षों, बल्कि सदियों का समय लगता है। एक ओर ये ढांचे स्थायित्व और मजबूती का प्रतीक हैं, वहीं दूसरी ओर इनमें छिपी दरारें, सुराख़ और जालीदार संरचनाएं सैकड़ों समुद्री जीवों को सुरक्षित आवास प्रदान करती हैं। पानी की लहरों के साथ खिलते रंग, सूर्य की किरणों में चमकती सतह और इनकी प्राकृतिक विविधता इन्हें न केवल जैविक दृष्टि से, बल्कि सौंदर्य के दृष्टिकोण से भी अद्वितीय बनाती है।
इस लेख में हम मूंगों की दुनिया को चरणबद्ध तरीके से समझेंगे। सबसे पहले, हम मूंगे का परिचय और संरचना जानेंगे, जिससे स्पष्ट होगा कि ये सूक्ष्म पॉलीप्स मिलकर इतनी विशाल और जटिल संरचनाएं कैसे बनाते हैं। इसके बाद, हम कोरल के प्रमुख प्रकार: कठोर और नरम पर चर्चा करेंगे और समझेंगे कि दोनों समुद्री पारिस्थितिकी में कैसे अलग-अलग भूमिकाएं निभाते हैं। फिर, हम भोजन और सहजीवी संबंध का अध्ययन करेंगे, जिसमें यह जानेंगे कि मूंगे किस तरह प्रकाश संश्लेषण करने वाले शैवालों के साथ जीवनयापन करते हैं। अंत में, हम कोरल रीफ़ का पारिस्थितिक और आर्थिक महत्व तथा संरक्षण और भविष्य की चुनौतियां पर ध्यान देंगे, ताकि हमें यह समझ आ सके कि इस अद्भुत समुद्री धरोहर को बचाना क्यों आवश्यक है।
मूंगा (Coral) का परिचय और संरचना
समुद्र की गहराइयों या तटीय क्षेत्रों की रंग-बिरंगी तस्वीरों में दिखाई देने वाले नाजुक और कलात्मक ढांचे पहली नज़र में पत्थर या सजावटी चट्टानों जैसे लग सकते हैं, लेकिन वास्तव में ये जीवित जीव - मूंगे हैं। मूंगे असंख्य सूक्ष्म जीवों, जिन्हें पॉलीप्स कहा जाता है, की विशाल कॉलोनियों से मिलकर बनते हैं। प्रत्येक पॉलीप नलिका आकार का एक छोटा समुद्री जीव होता है, जो अपने चारों ओर कैल्शियम कार्बोनेट का कठोर आवरण बनाता है। समय के साथ, लाखों पॉलीप्स आपस में जुड़कर विशाल और जटिल संरचनाएं तैयार करते हैं, जिन्हें कोरल रीफ़ कहा जाता है। ये संरचनाएं न केवल प्राकृतिक सुंदरता का अद्वितीय उदाहरण हैं, बल्कि समुद्री पारिस्थितिकी में उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, जितनी धरती पर जंगल निभाते हैं।

कोरल के प्रमुख प्रकार: कठोर और नरम
मूंगे मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं - कठोर (Hard Coral) और नरम (Soft Coral)। कठोर मूंगे कैल्शियम कार्बोनेट से मजबूत पत्थर जैसे ढांचे का निर्माण करते हैं, जो कोरल रीफ़ की नींव और मूल संरचना बनाते हैं। ये सदियों तक स्थिर रहते हैं और समुद्री जीवों को स्थायी आवास प्रदान करते हैं। इसके विपरीत, नरम मूंगे अपेक्षाकृत लचीले और मुलायम होते हैं, जिनमें ठोस ढांचे की जगह लचीला प्रोटीन (protein) अधिक होता है, जिससे वे पानी की लहरों के साथ हिलते-डुलते रहते हैं। दोनों प्रकार के मूंगे मिलकर समुद्र के भीतर एक जटिल, संतुलित और विविध पारिस्थितिक तंत्र का निर्माण करते हैं, कठोर मूंगे स्थिरता देते हैं, जबकि नरम मूंगे विविधता और लचीलापन बनाए रखते हैं।
भोजन और सहजीवी संबंध
मूंगे का जीवन एक अनोखी साझेदारी, यानी सहजीविता (Symbiosis), पर आधारित है। मूंगे के ऊतकों में सूक्ष्म शैवाल ज़ूज़ैंथेली (Zooxanthellae) रहते हैं, जो प्रकाश संश्लेषण द्वारा शर्करा और पोषक तत्व तैयार करते हैं। बदले में, मूंगे इन शैवालों को सुरक्षित घर और आवश्यक खनिज उपलब्ध कराते हैं। मूंगे को अपना अधिकांश भोजन इन्हीं शैवालों से मिलता है, और इनके कारण ही मूंगे इतने सुंदर और चमकीले रंगों में दिखाई देते हैं। इसके अलावा, मूंगे अपने स्पर्शकों (Tentacles) से समुद्री जल से सूक्ष्म प्लवक और छोटे जीव भी पकड़कर खाते हैं, जिससे वे समुद्री खाद्य श्रृंखला का अहम हिस्सा बन जाते हैं।

प्रजनन और कॉलोनी निर्माण प्रक्रिया
मूंगे का प्रजनन लैंगिक और अलैंगिक, दोनों तरीकों से होता है। लैंगिक प्रजनन में विशेष मौसम के दौरान हजारों मूंगे एक साथ अपने अंडे और शुक्राणु पानी में छोड़ते हैं, जो अक्सर पूर्णिमा की रात को होता है। अंडे और शुक्राणु के मिलन से बनने वाले लार्वा (larvae) समुद्र की तलहटी में जाकर बसते हैं और नई कॉलोनियां शुरू करते हैं। अलैंगिक प्रजनन में, एक पॉलीप विभाजित होकर नई शाखाएं बनाता है, जिससे समय के साथ कोरल रीफ़ का विस्तार होता है। यह धीमी लेकिन सतत प्रक्रिया कई किलोमीटर तक फैली विशाल संरचनाओं का निर्माण करती है।
कोरल रीफ़ का पारिस्थितिक और आर्थिक महत्व
कोरल रीफ़ को अक्सर "समुद्र का वर्षावन" कहा जाता है, क्योंकि यह हजारों समुद्री जीवों का घर है, जिनमें मछलियां, केकड़े, लॉब्स्टर (lobster), शंख, घोंघे और समुद्री कछुए शामिल हैं। ये समुद्री खाद्य श्रृंखला का आधार हैं और तटीय क्षेत्रों को लहरों व तूफानों से बचाकर तटीय कटाव और बाढ़ के खतरे को कम करते हैं। आर्थिक दृष्टि से भी ये अत्यंत मूल्यवान हैं, क्योंकि मत्स्य पालन, पर्यटन और तटीय अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा इन पर निर्भर करता है।

संरक्षण और भविष्य की चुनौतियां
आज कोरल रीफ़ गंभीर संकट का सामना कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन से समुद्र का तापमान बढ़ने के कारण "कोरल ब्लीचिंग" (coral bleaching) होती है, जिसमें मूंगे अपना रंग और जीवन शक्ति खो देते हैं। समुद्री प्रदूषण, विशेषकर प्लास्टिक और तेल रिसाव, इनके लिए घातक हैं, जबकि अत्यधिक मत्स्य शिकार और असतत पर्यटन भी इनके अस्तित्व को खतरे में डालते हैं। संरक्षण के लिए समुद्री संरक्षित क्षेत्रों का निर्माण, प्रदूषण नियंत्रण, सतत मत्स्य प्रबंधन और स्थानीय समुदायों की भागीदारी जैसे कदम उठाना अनिवार्य है। यदि समय रहते ठोस प्रयास न किए गए, तो आने वाले दशकों में ये अद्भुत समुद्री धरोहरें सिर्फ इतिहास और तस्वीरों में सिमट जाएंगी।
संदर्भ-
जौनपुर में वर्षा जल संचयन: जल संकट से मुक्ति और सतत भविष्य की राह
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
08-09-2025 09:03 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर और इसके आसपास के ग्रामीण व शहरी इलाकों में गर्मियों के मौसम में पानी की कमी एक गंभीर और हर साल दोहराई जाने वाली समस्या बन चुकी है। यहां भूजल स्तर लगातार नीचे जा रहा है, जिससे हैंडपंप (handpump), कुएं और नलकूप समय से पहले सूख जाते हैं। पुराने समय में जो बड़े-बड़े तालाब, पोखरे और जोहड़ बारिश का पानी संचित करके सालभर के लिए जल की जरूरतें पूरी करते थे, वे अब या तो भरते ही नहीं या पूरी तरह समाप्त हो चुके हैं। इसके साथ ही, जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश का समय और मात्रा दोनों अनिश्चित हो गए हैं, कभी अचानक बहुत तेज बारिश होती है और सारा पानी बहकर निकल जाता है, तो कभी महीनों तक फुहार तक नहीं गिरती। ऐसे हालात में वर्षा जल संचयन एक अत्यंत प्रभावी उपाय के रूप में सामने आता है। यह तकनीक न केवल बारिश के समय गिरने वाले पानी को संरक्षित करती है, बल्कि उसे फिल्टर (filter) करके घरों में उपयोग, खेतों की सिंचाई और भूजल भंडार को पुनः भरने में भी मदद करती है। यदि हर घर, मोहल्ला और खेत में वर्षा जल संग्रहण की उचित व्यवस्था हो, तो जौनपुर जैसे जिले भी गर्मियों में जल संकट से काफी हद तक मुक्त हो सकते हैं।
इस लेख में हम सबसे पहले जानेंगे कि वर्षा जल संचयन का महत्व क्या है और यह रामपुर जैसे क्षेत्रों में जल संकट से निपटने में कैसे मदद करता है। इसके बाद, हम इसके प्रमुख लाभों पर चर्चा करेंगे, जैसे पानी की बचत, भूजल स्तर बनाए रखना, बाढ़ नियंत्रण और कृषि में सहायक भूमिका। फिर, हम वर्षा जल संग्रहण के मुख्य तरीकों को समझेंगे, जिनमें अपवाह संग्रहण और भूजल पुनर्भरण तकनीकें शामिल हैं। अंत में, हम आधुनिक वर्षा जल संचयन प्रणालियों और भारत में इससे संबंधित नीतियों व कानूनों के बारे में जानेंगे, ताकि इसे व्यवहार में अपनाने की दिशा में ठोस कदम उठाए जा सकें।
वर्षा जल संचयन का महत्व
भारत के अनेक हिस्सों में हर वर्ष गर्मियों के दौरान पानी की कमी एक गंभीर चुनौती बनकर सामने आती है। ग्रामीण इलाकों के तालाब और कुएं सूख जाते हैं, शहरों में पानी की आपूर्ति सीमित हो जाती है और भूजल का स्तर लगातार गिरता चला जाता है। बढ़ती जनसंख्या, अनियंत्रित शहरीकरण, औद्योगिक विस्तार और जलवायु परिवर्तन के कारण यह समस्या और भी विकराल हो रही है। ताज़े पानी के स्रोत सीमित हैं, और इनमें से भी कई प्रदूषण या अतिक्रमण का शिकार हो चुके हैं। ऐसे समय में वर्षा जल संचयन, अर्थात बारिश के पानी को एकत्रित करके उसे सुरक्षित और पुनः उपयोग करने की प्रक्रिया, एक ऐसी तकनीक है जो सरल, सस्ती, और दीर्घकालिक समाधान प्रदान करती है। यह न केवल घरेलू पीने के पानी की जरूरतों को पूरा करती है, बल्कि सिंचाई, बागवानी, पशुपालन और छोटे उद्योगों में भी सहायक होती है। सही योजना और जागरूकता के साथ अपनाया गया वर्षा जल संचयन न केवल वर्तमान जल संकट को कम कर सकता है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी पानी का स्थायी भंडार तैयार कर सकता है।

वर्षा जल संचयन के प्रमुख लाभ
वर्षा जल संचयन के लाभ केवल घर या खेत तक सीमित नहीं हैं, बल्कि यह पूरे समाज और पर्यावरण के लिए दूरगामी असर डालते हैं।
- पानी के बिल में कमी: शहरी क्षेत्रों में जल निगम या निजी टैंकरों पर निर्भरता घटने से घर और संस्थानों के पानी के बिल में काफी कमी आती है।
- पर्यावरणीय संरक्षण: भारी बारिश के समय वर्षा जल को संग्रहित करने से जल निकासी तंत्र पर दबाव घटता है, जिससे सड़कों पर जलभराव और गंदगी कम होती है।
- बाढ़ और मिट्टी कटाव की रोकथाम: खेतों और ढलानों पर बहने वाला पानी यदि संग्रहीत कर लिया जाए तो मिट्टी का कटाव रुकता है और उपजाऊ परत सुरक्षित रहती है।
- कृषि और बागवानी में लाभ: संग्रहीत पानी गर्मियों या सूखे के समय फसलों और पौधों की सिंचाई में मदद करता है, जिससे पैदावार और हरियाली बनी रहती है।
- भूजल स्तर का संरक्षण: वर्षा जल का जमीन में रिसाव भूमिगत जल स्रोतों को पुनर्भरित करता है, जिससे कुएं, नलकूप और हैंडपंप लंबे समय तक जल प्रदान करते हैं।
यह लाभ मिलकर वर्षा जल संचयन को केवल एक तकनीक नहीं, बल्कि एक स्थायी जीवनशैली का हिस्सा बनाते हैं।

वर्षा जल संग्रहण के मुख्य तरीके
वर्षा जल संग्रहण मुख्यतः दो प्रमुख तरीकों से किया जाता है, और दोनों ही परिस्थितियों के अनुसार अत्यंत प्रभावी हैं।
- अपवाह (Runoff) एकत्र करना: छत, आंगन या पक्के मैदान पर गिरने वाले पानी को पाइप और फिल्टर प्रणाली के माध्यम से टंकी या ड्रम में इकट्ठा किया जाता है। इस पानी का उपयोग घरेलू सफाई, बागवानी, वाहन धुलाई और अन्य गैर-पीने योग्य कार्यों में किया जा सकता है।
- भूजल का पुनर्भरण (Recharge): संग्रहीत वर्षा जल को गड्ढे, रिचार्ज पिट (recharge pit), कुएं या सोख्ता गड्ढे के माध्यम से जमीन में उतारा जाता है। यह तकनीक विशेष रूप से उन क्षेत्रों में कारगर है जहां भूजल का स्तर लगातार गिर रहा है।
इन दोनों तरीकों का संयुक्त उपयोग न केवल पानी बचाता है, बल्कि उसकी उपलब्धता पूरे वर्ष सुनिश्चित करता है।
वर्षा जल संचयन की पारंपरिक पृष्ठभूमि
वर्षा जल संचयन की परंपरा हजारों साल पुरानी है और यह प्राचीन सभ्यताओं की बुद्धिमत्ता और संसाधन प्रबंधन की गवाही देती है। सिंधु घाटी सभ्यता में विशाल जलाशयों और कुओं का निर्माण किया जाता था, जो बारिश का पानी सुरक्षित रखते थे। दक्षिण भारत में चोल साम्राज्य के समय तंजावुर का शिवगंगा टैंक और वीरानम टैंक वर्षा जल भंडारण के बेहतरीन उदाहरण हैं। उत्तर भारत के गाँवों में तालाब, बावड़ी और जोहड़ जैसे संरचनाएं आम थीं, जो न केवल जल संग्रहण केंद्र थे, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के भी केंद्र बनते थे। दुर्भाग्यवश, समय के साथ ये संरचनाएं उपेक्षा और अतिक्रमण का शिकार हो गईं। यदि इन्हें आधुनिक तकनीक और प्रबंधन के साथ पुनर्जीवित किया जाए, तो ये आज भी जल संकट का बड़ा समाधान साबित हो सकती हैं।

आधुनिक वर्षा जल संचयन प्रणालियाँ
आधुनिक समय में वर्षा जल संचयन के कई वैज्ञानिक और तकनीकी तरीके विकसित हुए हैं, जो अलग-अलग जरूरतों के अनुसार अपनाए जा सकते हैं—
- रेन बैरल (Rain Barrel): छत से पाइप के जरिए पानी को ड्रम या टंकी में इकट्ठा करना, जिसे बागवानी, सफाई और पशुपालन में इस्तेमाल किया जा सकता है।
- शुष्क प्रणाली (Dry System): पाइपलाइन (pipeline) सीधे एक बड़ी भूमिगत टंकी में जाती है, जहां पानी लंबे समय तक सुरक्षित रह सकता है।
- अवशोषण गड्ढा विधि: गड्ढे में कंकड़, रेत और चारकोल की परतें डालकर पानी को धीरे-धीरे जमीन में रिसाया जाता है।
- खाई विधि: खेतों में उथली खाइयां बनाकर वर्षा जल के बहाव को नियंत्रित किया जाता है, जिससे नमी बनी रहती है और मिट्टी का कटाव रुकता है।
- कुआं विधि: पुराने या नए कुओं को वर्षा जल से भरना, ताकि सालभर जल उपलब्ध रहे।
इन प्रणालियों का चयन स्थानीय जलवायु, भूगोल और जल आवश्यकताओं के आधार पर करना सबसे उपयुक्त होता है।
भारत में नीतियां और कानून
भारत में वर्षा जल संचयन को बढ़ावा देने के लिए कई राज्यों ने कठोर और प्रभावी नीतियां लागू की हैं। 2001 में तमिलनाडु ने सभी भवनों में वर्षा जल संचयन को अनिवार्य किया, जिसके परिणामस्वरूप वहाँ भूजल स्तर में उल्लेखनीय सुधार हुआ। 2016 में प्रस्तावित “वर्षा जल (संचयन और भंडारण) विधेयक” में सरकारी और निजी बड़े भवनों के लिए वर्षा जल संग्रहण प्रणालियां लगाना जरूरी बताया गया। आज कई राज्यों में नियम है कि नए भवनों में उनके आकार और उपयोग के आधार पर वर्षा जल संचयन की व्यवस्था करना अनिवार्य है। यदि इन कानूनों का सख्ती से पालन किया जाए और लोगों में जागरूकता बढ़ाई जाए, तो भारत में जल संकट की समस्या को आने वाले दशकों में काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है।
संदर्भ-
गणेश विसर्जन: भक्ति, प्रतीकात्मकता और जीवन की अनित्यता का संदेश
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
07-09-2025 08:55 AM
Jaunpur District-Hindi

विसर्जन का अर्थ है पूजा में उपयोग किए गए वस्तु या मूर्ति को पुनः प्रकृति में समर्पित करना। हिंदू पूजा-पद्धति प्रतीकात्मकता से भरी होती है और हर अनुष्ठान के पीछे गहरा आध्यात्मिक अर्थ छिपा होता है। पूजा के दौरान, निराकार ईश्वर को किसी निर्जीव वस्तु जैसे चित्र, मिट्टी की मूर्ति या कलश में आमंत्रित किया जाता है। इस प्रक्रिया को प्राण प्रतिष्ठा कहा जाता है। इसके माध्यम से भक्त अपनी श्रद्धा और भक्ति को उस मूर्त रूप में केंद्रित कर पाता है, जो उसकी प्रार्थना में सहायक होता है। पूजा पूर्ण होने के बाद, ईश्वर को विधिपूर्वक पुनः निराकार रूप में विदा किया जाता है। चित्र, कलश या विग्रह के मामले में उन्हें उत्तर दिशा की ओर कर दिया जाता है, जबकि मिट्टी की मूर्तियों को जल में प्रवाहित किया जाता है।
पहले वीडियो में हम हैदराबाद का गणपति विसर्जन देखेंगे।
नीचे दिए गए वीडियो में हम मुंबई का भव्य बप्पा विसर्जन देखेंगे।
मूर्ति का जल में विसर्जन विशेष रूप से भगवान गणेश की पूजा में प्रचलित है। गणेशोत्सव में, मिट्टी की मूर्ति में भगवान गणेश का आह्वान कर पूजा की जाती है। इस पूजा में पांचों इंद्रियों के माध्यम से भगवान का अनुभव किया जाता है - उनकी सुंदर मूर्ति का दर्शन, फूलों की सुगंध, मूर्ति को स्पर्श कर प्रणाम करना, प्रसाद का स्वाद लेना और मंत्रों व भजनों को सुनना। 3, 5, 7 या 11 दिनों की पूजा के बाद, गणेश जी की मूर्ति को विधिवत जल में विसर्जित किया जाता है और अगले वर्ष पुनः उनका स्वागत किया जाता है। यह परंपरा हमें जीवन की अस्थिरता का स्मरण कराती है, जैसे मृत्यु के बाद हमारा भौतिक शरीर पंचतत्व में विलीन हो जाता है, लेकिन आत्मा अमर रहती है और नए रूप में पुनर्जन्म लेती है। यह हमें सिखाती है कि हमें भौतिक संपत्ति के बजाय उस आध्यात्मिक ज्ञान को अर्जित करना चाहिए, जिसे आत्मा अपने साथ आगे ले जा सके।
संदर्भ-
https://short-link.me/1b5bm
https://short-link.me/16Fud
जौनपुर का ज़फ़राबाद: मध्यकालीन भारत का चमकदार और प्रसिद्ध काग़दी केंद्र
मध्यकाल 1450 ईस्वी से 1780 ईस्वी तक
Medieval: 1450 CE to 1780 CE
06-09-2025 09:16 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियो, क्या आप जानते हैं कि आपके ज़िले का ज़फ़राबाद शहर कभी पूरे भारत में “काग़दी शहर” के नाम से प्रसिद्ध था? यह कोई साधारण पहचान नहीं थी, बल्कि मध्यकालीन भारत के गौरवशाली उद्योगों में से एक थी। उस समय ज़फ़राबाद में बनने वाला कागज़ अपनी असाधारण मजबूती, चमक और उच्च गुणवत्ता के कारण देशभर में विख्यात था। यहाँ दो प्रमुख किस्मों का कागज़ तैयार किया जाता था, बांस से निर्मित पॉलिश (polish) किया हुआ कागज़, जो अत्यंत चिकना और आकर्षक होता था, तथा बिना पॉलिश का कागज़, जो दैनिक और सामान्य उपयोग के लिए उपयुक्त था। विशेष रूप से पॉलिश कागज़ इतना उत्कृष्ट होता था कि उसका प्रयोग शाही दस्तावेज़ों, फरमानों, धार्मिक ग्रंथों और अन्य महत्वपूर्ण लेखन में किया जाता था। इस लेख में हम ज़फ़राबाद के इस ऐतिहासिक कागज़ उद्योग की जड़ों, इसके उत्कर्ष काल, पारंपरिक निर्माण तकनीकों और इसके सांस्कृतिक-आर्थिक महत्व की विस्तृत पड़ताल करेंगे, ताकि आप जान सकें कि यह धरोहर कभी जौनपुर की पहचान हुआ करती थी।
आज हम सबसे पहले जानेंगे कि मध्यकालीन ज़फ़राबाद का कागज़ उद्योग किस तरह अपनी विशेष पहचान बना पाया। फिर हम भारत में कागज़ निर्माण की ऐतिहासिक यात्रा और प्रमुख केंद्रों के बारे में जानेंगे। इसके बाद, हम देखेंगे कि मुग़ल काल में कागज़ उद्योग ने किस तरह विकास किया और विभिन्न क्षेत्रों में इसका विस्तार हुआ। आगे, हम पारंपरिक कागज़ निर्माण में इस्तेमाल होने वाली तकनीकों और औज़ारों को समझेंगे। अंत में, हम ग्लेज़्ड पेपर (glazed paper) बनाने की पारंपरिक प्रक्रिया और उसके महत्व पर चर्चा करेंगे।

ज़फ़राबाद का मध्यकालीन कागज़ उद्योग और उसकी विशेष पहचान
मध्यकालीन भारत में जौनपुर का ज़फ़राबाद शहर कागज़ निर्माण का एक प्रमुख और प्रतिष्ठित केंद्र माना जाता था। यह वह समय था जब भारत में हस्तनिर्मित कागज़ का महत्व न केवल लेखन और दस्तावेज़ों के लिए, बल्कि प्रशासनिक और सांस्कृतिक कार्यों में भी अत्यधिक था। ज़फ़राबाद के कागज़ को उसकी असाधारण चमक, मजबूती और उच्च गुणवत्ता के लिए पहचाना जाता था। यहाँ मुख्यतः दो प्रकार के कागज़ तैयार किए जाते थे, पॉलिश किया हुआ, जो बेहद चिकना और चमकदार होता था, और बिना पॉलिश का, जो साधारण लेखन कार्यों में प्रयुक्त होता था। पॉलिश किए हुए कागज़ को बनाने के लिए बांस का उपयोग प्रमुख रूप से किया जाता था, और यह कागज़ इतना आकर्षक होता था कि इसका प्रयोग विशेष शाही दस्तावेज़ों, फरमानों और धार्मिक ग्रंथों के लेखन में किया जाता था। ज़फ़राबाद का यह कागज़ अपने समय का “प्रीमियम ब्रांड” (premium brand) माना जाता था, जिसकी मांग दूर-दूर तक थी।
भारत में कागज़ निर्माण का ऐतिहासिक सफ़र और प्रमुख केंद्र
भारत में कागज़ निर्माण की कहानी लगभग 8वीं शताब्दी से शुरू होती है, जब खुरासानी कागज़ सिंध के रास्ते यहाँ पहुँचा। इसकी उत्पत्ति की कड़ी 751 ई. की अतलाख (तलास) की लड़ाई से जुड़ी है, जब चीनी युद्धबंदी समरकंद ले जाए गए और उनके साथ कागज़ बनाने की तकनीक भी वहाँ पहुँची। इसके बाद यह कला अरबों तक पहुँची और हारून-अल-रशीद (786–809 ई.) के शासनकाल में बग़दाद में कागज़ निर्माण की शुरुआत हुई। अरबों के सिंध विजय के साथ ही यह तकनीक भारत में प्रवेश कर गई। भारत का पहला संगठित और शाही संरक्षण प्राप्त कागज़ उद्योग कश्मीर में सुल्तान ज़ैनुल आबेदीन (1417–1467 ई.) के समय स्थापित हुआ, जिसने कागज़ निर्माण को एक व्यवस्थित शिल्प का रूप दिया। 19वीं शताब्दी में मशीन से कागज़ निर्माण 1812 में पश्चिम बंगाल के सेरामपुर में शुरू हुआ, हालांकि शुरुआती मांग कम होने के कारण यह सफल नहीं हुआ। लेकिन समय के साथ मांग बढ़ी और कई क्षेत्रों में कागज़ निर्माण केंद्र स्थापित हुए, पंजाब का सियालकोट, बिहार का अज़ीमाबाद और अरवल, बंगाल का मुर्शिदाबाद और हुगली, गुजरात का अहमदाबाद, खंबात और पाटन, महाराष्ट्र का औरंगाबाद और मैसूर और उत्तर प्रदेश में जौनपुर का ज़फ़राबाद इनमें विशेष स्थान रखता था।

मुग़ल काल में कागज़ उद्योग का विकास और क्षेत्रीय विस्तार
मुग़ल काल में कागज़ निर्माण को व्यापक प्रोत्साहन मिला। प्रशासनिक कार्य, शाही फरमान, धार्मिक ग्रंथ और साहित्यिक कृतियाँ सभी उच्च गुणवत्ता वाले कागज़ की मांग को बढ़ाते थे। इस दौर में दौलताबाद और औरंगाबाद जैसे केंद्र प्रमुख रूप से उभरे, जबकि दक्षिण भारत में टीपू सुल्तान ने मैसूर में विशेष कागज़ निर्माण इकाइयाँ स्थापित कीं, जहाँ निर्मित कागज़ केवल राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होता था। जौनपुर का ज़फ़राबाद भी इस समय अपनी प्रतिष्ठा बनाए हुए था। उस समय कागज़ निर्माण केवल एक शिल्प ही नहीं, बल्कि एक संगठित आर्थिक गतिविधि थी, जिसमें स्थानीय कारीगरों के साथ-साथ व्यापारियों का भी योगदान था। कागज़ की मांग इतनी अधिक थी कि इसके वितरण के लिए क्षेत्रीय और अंतर-क्षेत्रीय व्यापार मार्ग सक्रिय हो गए, जिससे यह उद्योग मुग़ल साम्राज्य की आर्थिक संरचना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया।
पारंपरिक कागज़ निर्माण में प्रयुक्त तकनीकें और औज़ार
पारंपरिक कागज़ निर्माण एक बहु-स्तरीय, श्रम-साध्य और समय लेने वाली प्रक्रिया थी, जिसमें विशिष्ट औज़ारों और तकनीकों का इस्तेमाल होता था। ढेगी (भारी हथौड़ा) का उपयोग कच्चे माल को तोड़ने और लुगदी बनाने में किया जाता था। छपरी और साचा (सागौन की लकड़ी का चौकोर फ्रेम) लुगदी को आकार देने के लिए प्रयुक्त होते थे। कुंचवा (मुलायम खजूर का ब्रश) सतह को समतल करने में और पॉलिश करने वाला पत्थर कागज़ की चमक बढ़ाने में मदद करता था। निर्माण प्रक्रिया में पुराने कपड़ों या रद्दी कागज़ को टुकड़ों में फाड़कर पानी में भिगोया जाता, फिर कई बार पीटा और धोया जाता था। तैयार लुगदी को सांचे पर डालकर पतली परत बनाई जाती, जिसे कपड़ों के बीच दबाकर पानी निकाला जाता। फिर इन परतों को धूप में सुखाया जाता और अंत में शंख या पत्थर से रगड़कर चिकना किया जाता, जिससे पॉलिश कागज़ तैयार होता।

ग्लेज़्ड पेपर बनाने की पारंपरिक प्रक्रिया और उसका महत्व
ग्लेज़्ड पेपर बनाने की प्रक्रिया पारंपरिक कागज़ निर्माण की तुलना में कहीं अधिक जटिल और परिश्रम-साध्य होती थी। इसमें प्रयोग होने वाले कच्चे माल, आमतौर पर कपड़े के टुकड़े, को पहले छोटे टुकड़ों में काटा जाता और पानी में भिगोकर ढेगी से बार-बार पीटा जाता था। इसके बाद इन्हें अच्छी तरह धोकर चूने से गीला किया जाता और सात से आठ दिनों तक फर्श पर फैलाकर छोड़ दिया जाता था। फिर इसे पुनः पीटा जाता और चार दिनों के लिए ढेर लगाकर रखा जाता। इसके बाद ‘रैग’ कहलाने वाले इस मिश्रण को सोडा के अशुद्ध कार्बोनेट (impure carbonate - खार) के साथ एक निश्चित अनुपात (पहले 1:38, फिर 1:40) में मिलाया जाता और प्रत्येक बार मिलाने के बाद अच्छी तरह धोया जाता। अंत में धूप में सुखाकर तैयार किया गया ग्लेज़्ड पेपर न केवल अधिक चिकना और चमकदार होता था, बल्कि उसकी सतह पर लिखावट और सजावट दोनों बेहद आकर्षक लगते थे। यह कागज़ विशेष अवसरों, शाही फरमानों और उच्च स्तर के लेखन कार्यों के लिए आरक्षित रहता था।
संदर्भ-
ज्ञान के दीपक और राष्ट्र के निर्माता: हमारे शिक्षकों की अमिट छवि
सिद्धान्त 2 व्यक्ति की पहचान
Concept II - Identity of Citizen
05-09-2025 09:07 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों को शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
जौनपुरवासियों, हमारे इतिहास की असली गहराई केवल राजाओं की गाथाओं या युद्धों की कहानियों में नहीं छुपी, बल्कि उन महान शिक्षकों की विचारधारा में भी है, जिन्होंने इस देश की चेतना को आकार दिया। हमारी भारतीय संस्कृति में शिक्षक को केवल ज्ञान देने वाला नहीं, बल्कि आत्मा को जागृत करने वाला मार्गदर्शक माना गया है। यही कारण है कि गुरु को देवताओं से भी श्रेष्ठ स्थान दिया गया, क्योंकि वे ही हैं जो अज्ञानता के अंधकार से निकालकर जीवन को दिशा और उद्देश्य प्रदान करते हैं। जौनपुर जैसे सांस्कृतिक शहर में, जहाँ परंपरा और शिक्षा का अनूठा संगम देखने को मिलता है, शिक्षक दिवस का महत्व और भी बढ़ जाता है। हर साल 5 सितम्बर को हम न केवल डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे महान शिक्षाविद को याद करते हैं, बल्कि अपने आस-पास के उन शिक्षकों को भी सम्मान देते हैं, जिन्होंने हमारे सोचने का तरीका, जीवन के प्रति नजरिया और आत्मविश्वास को गढ़ा है। यह दिन केवल एक औपचारिक आयोजन नहीं, बल्कि उस भावना का उत्सव है जो बताता है कि एक अच्छा शिक्षक पुस्तकों से आगे जाकर जीवन को पढ़ना सिखाता है, और यही शिक्षा जौनपुर की परंपरा का मूल भी है। इस अवसर पर विद्यालयों और महाविद्यालयों में विद्यार्थी अपने शिक्षकों के प्रति आभार व्यक्त करते हैं, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं और यह स्वीकार करते हैं कि एक सच्चा शिक्षक न केवल पुस्तकीय ज्ञान देता है, बल्कि जीवन को सरल, उज्ज्वल और सार्थक बनाने की कला भी सिखाता है।
इस लेख में हम ज्ञान और शिक्षक की भूमिका को गहराई से समझने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले, हम देखेंगे कि वास्तव में ज्ञान क्या है और उसकी मूलभूत परिभाषा क्या बताई गई है। इसके बाद हम चर्चा करेंगे कि ज्ञान के स्रोत कौन-कौन से हैं और मनुष्य किस प्रकार अनुभव, तर्क और प्रमाण से इसे अर्जित करता है। आगे हम पढ़ेंगे कि विभिन्न क्षेत्रों, जैसे विज्ञान, दर्शन, संस्कृति और समाज, में ज्ञान का क्या महत्व है। इसके साथ ही हम शिक्षकों की भूमिकाओं और जिम्मेदारियों को समझेंगे, और यह भी जानेंगे कि शिक्षक-विद्यार्थी का संबंध किस प्रकार एक जीवनभर की प्रेरणा बन जाता है। अंत में, हम देखेंगे कि शिक्षक राष्ट्र निर्माण में किस प्रकार अपनी अहम भूमिका निभाते हैं और क्यों उन्हें समाज का वास्तविक शिल्पकार कहा जाता है।
ज्ञान क्या है?
ज्ञान केवल तथ्यों और जानकारी का ढेर नहीं है, बल्कि वह समझ है जो इंसान की सोच को दिशा देती है। यह वह शक्ति है जो व्यक्ति को अंधकार से प्रकाश की ओर, भ्रम से सत्य की ओर और संदेह से विश्वास की ओर ले जाती है। भारतीय परंपरा में ज्ञान को ‘विद्या’ कहा गया है और कहा गया है कि विद्या ही वह साधन है जो व्यक्ति को अज्ञान और बंधनों से मुक्त करती है। जब किसी व्यक्ति के भीतर ज्ञान का प्रकाश जगता है तो वह न केवल अपने जीवन को बेहतर बनाता है, बल्कि समाज और मानवता के लिए भी मार्गदर्शक बन जाता है। ज्ञान आत्मबोध (self-realization) देता है, आत्मविश्वास बढ़ाता है और हमें सही-गलत में भेद करने की क्षमता प्रदान करता है।

ज्ञान के स्रोत
ज्ञान प्राप्त करने के अनेक साधन हैं और हर स्रोत अपने आप में विशेष और मूल्यवान है। भारतीय दर्शन में इन्हें ‘प्रमाण’ कहा गया है। प्रत्यक्ष अनुभव (direct perception) सबसे पहला और सरल स्रोत है, जब हम अपनी आँखों से देखते हैं, कानों से सुनते हैं या किसी चीज़ को छूकर महसूस करते हैं, तो हमें सत्य का प्रत्यक्ष बोध होता है। अनुमान (inference) वह साधन है जिससे हम सोच और तर्क के आधार पर नतीजे निकालते हैं, जैसे धुएँ को देखकर आग का होना समझना। उपमान (comparison) हमें तुलना के माध्यम से सीखने की क्षमता देता है, जिससे हम नई बातें पुराने अनुभवों से जोड़कर समझते हैं। और शब्द (testimony) हमें विश्वसनीय व्यक्तियों, ग्रंथों और परंपराओं से ज्ञान अर्जित करने का अवसर देता है। आधुनिक युग में इन प्राचीन साधनों के साथ-साथ प्रयोग (experiment), अनुसंधान (research), विज्ञान, साहित्य और आत्मावलोकन (self-reflection) भी ज्ञान के प्रमुख स्रोत बन गए हैं। स्कूलों और विश्वविद्यालयों में शिक्षा से लेकर जीवन के अनुभवों तक, हर परिस्थिति हमें कुछ न कुछ नया सिखाती है। एक असफलता भी हमें उतना ही सिखा सकती है जितना एक सफलता सिखाती है। इस दृष्टि से देखा जाए तो ज्ञान किताबों तक सीमित नहीं है, बल्कि हर अनुभव, हर मुलाकात और हर परिस्थिति हमें सीखने का अवसर देती है।

विभिन्न क्षेत्रों में ज्ञान का महत्व
ज्ञान का महत्व जीवन के हर क्षेत्र में देखा जा सकता है। विज्ञान और तकनीक में ज्ञान ही नए आविष्कारों, चिकित्सा की प्रगति और अंतरिक्ष तक पहुँचने की नींव है। यदि ज्ञान न होता तो न तो बिजली होती, न इंटरनेट (internet) और न ही आधुनिक चिकित्सा। दर्शन और आध्यात्मिकता में ज्ञान सत्य और आत्मबोध की खोज का साधन है, जो मनुष्य को जीवन के गहरे प्रश्नों का उत्तर देता है। समाजशास्त्र और राजनीति में ज्ञान व्यवस्था, न्याय और नैतिकता को बनाए रखने की कुंजी है, जिससे समाज सही दिशा में आगे बढ़ सकता है। धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं में भी ज्ञान का विशेष महत्व है। यहाँ ज्ञान केवल पुस्तकों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आत्मज्ञान (self-knowledge) और मोक्ष की ओर ले जाने वाला मार्ग है। ज्ञान इंसान को स्वार्थ से परे जाकर समाज और मानवता की भलाई के लिए प्रेरित करता है।
आधुनिक समय में भी ज्ञान की शक्ति को नकारा नहीं जा सकता। आज डिजिटल क्रांति (digital revolution) और तकनीकी प्रगति उन्हीं देशों में संभव हुई है, जहाँ शिक्षा और ज्ञान को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई। उदाहरण के तौर पर, जो राष्ट्र विज्ञान, अनुसंधान और शिक्षा में निवेश करते हैं, वही आज विश्व का नेतृत्व कर रहे हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि ज्ञान केवल व्यक्तिगत प्रगति का साधन नहीं है, बल्कि यह पूरे समाज, राष्ट्र और मानव सभ्यता की उन्नति का आधार है। यदि किसी समाज में ज्ञान का अभाव हो, तो वह स्थिर हो जाता है; लेकिन जहाँ ज्ञान का प्रकाश फैला हो, वहाँ परिवर्तन, प्रगति और समृद्धि अपने आप आ जाती है।

शिक्षकों की भूमिकाएँ और जिम्मेदारियाँ
शिक्षक केवल पाठ्यपुस्तक का ज्ञान देने वाले व्यक्ति नहीं होते, बल्कि वे बच्चों के जीवन के निर्माता होते हैं। उनकी भूमिका बहुआयामी होती है। एक ओर वे छात्रों को विषय का ज्ञान कराते हैं, तो दूसरी ओर वे उन्हें सोचने, प्रश्न करने और समाज के प्रति जिम्मेदार बनने की प्रेरणा देते हैं। शिक्षक छात्रों के भीतर नैतिक मूल्य, अनुशासन, ईमानदारी और सहनशीलता जैसे गुणों को विकसित करते हैं। एक अच्छे शिक्षक की पहचान इस बात से होती है कि वह केवल अंकों और परीक्षाओं तक सीमित नहीं रहता, बल्कि विद्यार्थियों के चरित्र और व्यक्तित्व का भी निर्माण करता है। उनकी जिम्मेदारी यह भी होती है कि वे बच्चों के भीतर छिपी क्षमताओं को पहचानें और उन्हें अवसर देकर आगे बढ़ने में मदद करें। जैसे एक माली पौधे की देखभाल करता है और उसे सही दिशा में बढ़ने का अवसर देता है, वैसे ही शिक्षक अपने शिष्यों का मार्गदर्शन करते हैं। वह अपने विद्यार्थियों को सिर्फ नौकरी या करियर तक सीमित नहीं रखते, बल्कि उन्हें जीवन जीने की कला सिखाते हैं, कठिनाइयों का सामना कैसे करें, असफलताओं से कैसे सीखें, और समाज के लिए कैसे उपयोगी बनें। यही कारण है कि शिक्षक को केवल ज्ञानदाता नहीं, बल्कि जीवन-दाता (life-shaper) कहा जाता है।

शिक्षक और विद्यार्थियों का संबंध
शिक्षक और विद्यार्थी का संबंध केवल कक्षा या पाठ्यपुस्तक तक सीमित नहीं होता। यह एक गहरा भावनात्मक और आध्यात्मिक रिश्ता होता है। एक अच्छा शिक्षक अपने विद्यार्थियों को केवल पढ़ाता ही नहीं, बल्कि उनके जीवन में प्रेरणा और आत्मविश्वास का स्रोत बन जाता है। जब कोई छात्र अपने शिक्षक पर भरोसा करता है, तो वह उससे न केवल पाठ्य विषय सीखता है, बल्कि आदर्श, अनुशासन और जीवन के मूल्य भी ग्रहण करता है। भारतीय परंपरा में गुरु-शिष्य संबंध को सबसे पवित्र माना गया है। प्राचीन गुरुकुलों में गुरु और शिष्य का रिश्ता परिवार जैसा होता था। गुरु अपने शिष्यों को केवल शास्त्रों का ज्ञान नहीं देते थे, बल्कि उन्हें जीवन के हर पहलू में मार्गदर्शन करते थे। यही परंपरा आज भी दिखाई देती है, जब एक विद्यार्थी अपने शिक्षक को जीवन का आदर्श मानता है। यह रिश्ता सिर्फ पढ़ाई-लिखाई का नहीं है, बल्कि प्रेरणा और विश्वास का रिश्ता है। शिक्षक का स्नेह और विद्यार्थी का सम्मान मिलकर एक ऐसी डोर बनाते हैं जो जीवनभर बनी रहती है। कई बार विद्यार्थी अपने करियर (career) या जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि का श्रेय अपने शिक्षक को देते हैं। यह संबंध ही उनकी सफलता की नींव होता है।

राष्ट्र निर्माण में शिक्षकों का योगदान
कहा जाता है कि किसी भी राष्ट्र की सच्ची शक्ति उसकी सेना या उसकी संपत्ति नहीं होती, बल्कि उसके शिक्षक और शिक्षा व्यवस्था होती है। शिक्षक समाज के वास्तविक शिल्पकार होते हैं। वे बच्चों के भविष्य को गढ़कर आने वाले कल की दिशा तय करते हैं। शिक्षक केवल जानकारी देने का काम नहीं करते, बल्कि वे आदर्श नागरिक तैयार करते हैं जो समाज और देश की प्रगति में योगदान देते हैं। भारत का इतिहास इस बात का साक्षी है कि स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर आधुनिक शिक्षा व्यवस्था तक, शिक्षकों का योगदान अमूल्य रहा है। महात्मा गांधी ने शिक्षा को आत्मनिर्भरता और स्वदेशी से जोड़ा; रवींद्रनाथ टैगोर ने शिक्षा को कला, संस्कृति और प्रकृति से जोड़ा; वहीं स्वामी विवेकानंद ने शिक्षा को चरित्र निर्माण और राष्ट्र निर्माण का आधार बताया। इन महान शिक्षकों और चिंतकों ने पूरे समाज को नई दिशा दी और भारत के भविष्य को आकार दिया। आज भी शिक्षक राष्ट्र निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। वे बच्चों को केवल रोजगार के लिए तैयार नहीं करते, बल्कि उनमें सत्यनिष्ठा, जिम्मेदारी और सामाजिक चेतना जैसी भावनाएँ भी जगाते हैं। जब एक शिक्षक अपने विद्यार्थियों को ईमानदारी और आदर्शों के साथ जीना सिखाता है, तो वह अप्रत्यक्ष रूप से पूरे राष्ट्र के चरित्र का निर्माण करता है। इसलिए यह बिल्कुल सत्य है कि शिक्षक केवल कक्षा के शिक्षक नहीं, बल्कि पूरे देश के वास्तविक निर्माता (nation-builders) होते हैं।
संदर्भ-
हरे समुद्री कछुए: समुद्री संतुलन के रक्षक और भारत में उनके संरक्षण की ज़रूरत
रेंगने वाले जीव
Reptiles
04-09-2025 09:17 AM
Jaunpur District-Hindi

क्या आप जानते हैं कि समुद्र की गहराइयों में एक ऐसा प्राचीन जीव मौजूद है, जिसकी मौजूदगी पूरे समुद्री पर्यावरण को संतुलन में रखती है, और जिसकी संख्या आज गंभीर खतरे में है? हम बात कर रहे हैं हरे समुद्री कछुए की, जो न केवल समुद्री घास के मैदानों को स्वस्थ बनाए रखते हैं, बल्कि कई समुद्री प्रजातियों की खाद्य श्रृंखला का भी आधार हैं। हालांकि जौनपुर एक तटीय जिला नहीं है, फिर भी यहाँ के नागरिकों की भूमिका समुद्री जैव विविधता के संरक्षण में अत्यंत महत्वपूर्ण हो सकती है, चाहे वह जागरूकता फैलाना हो या संरक्षण प्रयासों का समर्थन करना। आज जब पर्यावरणीय असंतुलन और जैव विविधता का ह्रास राष्ट्रीय चिंता का विषय बन चुका है, तो यह समझना ज़रूरी हो जाता है कि समुद्र से दूर रहकर भी हम इन संवेदनशील प्रजातियों के संरक्षण में कैसे भागीदार बन सकते हैं।
इस लेख में हम सबसे पहले जानेंगे कि हरे समुद्री कछुए वास्तव में कौन होते हैं, उनका शरीर कैसा होता है और उनका वैज्ञानिक वर्गीकरण क्या है। इसके बाद हम समझेंगे कि उनके व्यवहार, आहार और जीवनचक्र की विशेषताएं क्या हैं। फिर हम चर्चा करेंगे कि ये कछुए किन क्षेत्रों में पाए जाते हैं और उनका प्राकृतिक निवास स्थान कैसा होता है। इसके बाद हम जानेंगे कि समुद्री पारिस्थितिकी में इनका क्या महत्व है और ये जैव विविधता को कैसे संतुलित करते हैं। अंत में, हम भारत में इनके संरक्षण के लिए चल रही योजनाओं और प्रयासों पर एक विस्तृत नज़र डालेंगे।
हरे समुद्री कछुए: आकार, बाह्य संरचना और वैज्ञानिक वर्गीकरण
हरे समुद्री कछुए (चेलोनिया मायडास - Chelonia mydas) कठोर खोल वाले समुद्री कछुओं में सबसे बड़े माने जाते हैं। ये टेस्टुडाइन्स (Testudines) गण और चेलोनीडे (Cheloniidae) कुल के सदस्य हैं। वयस्क कछुओं की लंबाई लगभग 1 मीटर से 1.2 मीटर तक होती है और उनका वज़न औसतन 130 से 180 किलोग्राम तक पहुँच सकता है। इनके नाम में “हरा” शब्द इनके मांसपेशियों के हरे रंग के कारण आया है, न कि बाहरी खोल के रंग के कारण। इनका कैरापेस (Carapace - ऊपरी खोल) चिकना और अर्धवृत्ताकार होता है, जो भूरे से जैतूनी हरे रंग के सुंदर पैटर्न (pattern) से ढका रहता है। निचला भाग, जिसे प्लैस्ट्रॉन (Plastron) कहा जाता है, हल्के पीले से सफेद रंग का होता है। इनके शरीर पर मौजूद शल्क (स्कूट्स - Scutes) इनकी पहचान का एक विशेष संकेत होते हैं। सिर चपटा और छोटा होता है, और चोंच दंतुरित होती है, जो समुद्री घास को चरने में सहायक बनाती है। आँखों के बीच दो बड़े शल्क इन्हें अन्य समुद्री कछुओं से अलग बनाते हैं। इनकी संरचना समुद्री जीवन के अनुकूल अत्यंत विकसित और कुशल होती है।
व्यवहार, आहार और जीवन चक्र
हरे समुद्री कछुए अत्यधिक प्रवासी जीव हैं और इनका जीवन समुद्र और तट दोनों पर बँटा होता है। ये सरीसृप (रेप्टाइल्स - Reptiles) हैं, इसलिए इन्हें सांस लेने के लिए समय-समय पर सतह पर आना पड़ता है। इनका जीवनचक्र अंडों से शुरू होता है, जिन्हें मादा कछुए रेत में गड्ढा खोदकर समुद्र तट पर जमा करती हैं। प्रत्येक घोंसले में लगभग 100 से 110 अंडे होते हैं, और एक मादा एक मौसम में कई बार अंडे दे सकती है। अंडों से बच्चे लगभग 50 से 70 दिनों में निकलते हैं और तुरंत समुद्र की ओर दौड़ पड़ते हैं। प्रारंभिक वर्षों में ये खुले समुद्र में रहते हैं, जहाँ वे शिकारी मछलियों और समुद्री पक्षियों से बचते हुए जीवित रहने की कोशिश करते हैं। किशोरावस्था में पहुँचने पर वे उथले तटीय क्षेत्रों में लौट आते हैं। आहार की दृष्टि से इनका व्यवहार उम्र के अनुसार बदलता है। नवजात और किशोर अवस्था में ये कभी-कभार मांसाहारी व्यवहार भी दिखाते हैं, जैसे जेलिफ़िश (jellyfish), केकड़े और मोलस्क (mollusk) खाना। लेकिन व्यस्क हरे कछुए मुख्यतः शाकाहारी होते हैं और समुद्री घास (Seagrass) तथा शैवाल पर निर्भर रहते हैं। यह आहार न केवल उन्हें पोषण देता है बल्कि समुद्री पारिस्थितिकी को भी संतुलित रखने में मदद करता है। इनकी जीवन प्रत्याशा औसतन 70 से 80 वर्ष होती है, और कुछ मामलों में ये 100 वर्ष तक भी जीवित रह सकते हैं।

समुद्री पारिस्थितिकी और खाद्य श्रृंखला में इनकी भूमिका
हरे समुद्री कछुए केवल एक समुद्री जीव नहीं हैं, बल्कि समुद्र के जटिल पारिस्थितिक तंत्र के एक प्रमुख कड़ी हैं। इनका चराई व्यवहार समुद्री घास के मैदानों को साफ और संतुलित बनाए रखता है। यदि इनका चराई व्यवहार न हो, तो समुद्री घास बहुत घनी होकर सड़ने लगती है, जिससे ऑक्सीजन (oxygen) की कमी और अन्य जलीय जीवों का जीवन खतरे में पड़ जाता है। ये समुद्री घास को नियमित रूप से खाते हैं, जिससे वह दोबारा तेज़ी से उगती है और अन्य जीवों को आश्रय व पोषण प्रदान करती है। इसके अतिरिक्त, जब मादा कछुए अंडे देती हैं, तो सभी अंडे अंडाणु नहीं बन पाते। कुछ अंडे बर्बाद हो जाते हैं या घोंसले में ही खराब हो जाते हैं। ऐसे अंडे और अंडों के खोल तटीय पौधों को प्राकृतिक खाद के रूप में पोषण प्रदान करते हैं। वहीं, इनके नवजात बच्चे अनेक समुद्री पक्षियों, मछलियों और स्तनधारियों के लिए भोजन का स्रोत बनते हैं, जिससे समुद्री खाद्य श्रृंखला में संतुलन बना रहता है। स्पंज (sponge) और शैवाल खाने से ये प्रवाल भित्तियों (कोरल रीफ़्स - Coral Reefs) को अत्यधिक आवरण से मुक्त करते हैं, जिससे प्रवालों को सांस लेने और बढ़ने में सहायता मिलती है। इस तरह हरे कछुए जैव विविधता को बनाए रखने और पारिस्थितिकीय संतुलन में एक ‘क्लीनर’ (cleaner) की भूमिका निभाते हैं।
भारत में हरे समुद्री कछुओं की उपस्थिति और वितरण
भारत की तटीय पट्टी, विशेषकर पूर्वी और पश्चिमी समुद्र तटों पर, हरे समुद्री कछुए अच्छी संख्या में देखे जाते हैं। इनकी उपस्थिति अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, लक्षद्वीप, ओडिशा, गोवा, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के समुद्री तटों पर विशेष रूप से दर्ज की गई है। महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग ज़िले में देवगढ़, मालवण और तारकर्ली जैसे समुद्र तट हरे समुद्री कछुओं के घोंसले बनाने के लिए उपयुक्त स्थल बनते जा रहे हैं। मार्च 2022 में तारकर्ली समुद्र तट पर 77 अंडों में से 74 बच्चों का सफलतापूर्वक जन्म संरक्षण प्रयासों की सफलता का प्रतीक है। इसी प्रकार, जनवरी 2022 में वर्ली तट पर एक किशोर कछुए को मछुआरों द्वारा बचाकर समुद्र में वापस छोड़ा गया। यह दर्शाता है कि जनसहभागिता भी इनके संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। भारत के कुछ समुद्र तट जैसे ओडिशा के गहिरमाथा समुद्र तट और आंध्र प्रदेश का पुलिकट झील क्षेत्र इन कछुओं के प्रजनन स्थल के रूप में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हैं। ये कछुए प्रवासी होते हैं, और प्रजनन काल में हजारों किलोमीटर की यात्रा करके उसी समुद्र तट पर लौटते हैं, जहाँ उनका जन्म हुआ था। यह प्रवृत्ति उन्हें ‘नैविगेशनल चमत्कार’ बनाती है। समुद्री शैवाल और समुद्री घास की प्रचुरता वाले क्षेत्रों में इनकी उपस्थिति अधिक देखी जाती है।

संरक्षण प्रयास: भारतीय और वैश्विक पहलें
हरे समुद्री कछुए वर्तमान में अनेक खतरों का सामना कर रहे हैं, जैसे तटीय प्रदूषण, प्लास्टिक निगलना, अंधाधुंध मछली पकड़ना, रेत खनन, और समुद्र तटों पर रोशनी का बढ़ता हस्तक्षेप। इन्हीं खतरों के कारण आईयूसीएन (IUCN) ने इन्हें “लुप्तप्राय” की श्रेणी में रखा है। भारत सरकार ने इन्हें वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची I में रखा है, जिससे इनका शिकार पूर्णतः प्रतिबंधित है। संरक्षण के लिए 1999 में भारत सरकार और यूएनडीपी (UNDP) द्वारा 'समुद्री कछुआ परियोजना' की शुरुआत की गई, जिसका उद्देश्य इनके प्रजनन स्थलों की सुरक्षा और निगरानी करना है। इसके अंतर्गत ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल और महाराष्ट्र में संरक्षण केंद्र बनाए गए हैं। इसके साथ ही, केंद्र सरकार ने ‘राष्ट्रीय समुद्री कछुआ कार्य योजना’ तैयार की है, जो राज्यों के साथ समन्वय बनाकर कार्य करती है। स्थानीय स्तर पर भी अनेक गैर-सरकारी संगठन जैसे 'सह्याद्रि निसर्ग मित्र' कछुओं के अंडों की सुरक्षा, घोंसले बनाने में सहायता और नवजात बच्चों को समुद्र तक सुरक्षित पहुँचाने जैसे कार्य कर रहे हैं। 'कोंकण कछुआ महोत्सव' जैसे आयोजन जनजागृति बढ़ाने में सहायक बन रहे हैं। वैश्विक स्तर पर साइट्स (CITES), सीएमएस (CMS) और इंडियन ओशन - साउथ ईस्ट एशिया (Indian Ocean - South East Asia) एम ओ यू (MoU) जैसे समझौते इनकी सुरक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय ढांचा तैयार करते हैं।
संदर्भ-
जब खेतों में आई हरियाली की लहर: जौनपुर से देखें हरित क्रांति की कहानी
डीएनए
By DNA
03-09-2025 09:21 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों, क्या आपने कभी गौर किया है कि आज हमारे घरों में चावल और गेहूं की कोई कमी नहीं होती, जबकि एक समय था जब भारत को विदेशों से अनाज मंगवाना पड़ता था? 1960 के दशक में देश गंभीर खाद्यान्न संकट से जूझ रहा था, एक ओर तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या, दूसरी ओर पारंपरिक कृषि पद्धतियाँ जो उस ज़रूरत को पूरा करने में सक्षम नहीं थीं। ऐसे समय में देश को एक ऐसे परिवर्तन की आवश्यकता थी जो हमारी कृषि व्यवस्था को पूरी तरह से बदल दे। और यहीं से शुरुआत हुई हरित क्रांति की, एक ऐसी वैज्ञानिक पहल जिसने भारतीय खेती को आधुनिकता की दिशा में मोड़ दिया। इस लेख में हम जानेंगे कि इस हरित क्रांति ने कैसे खेतों की पैदावार को कई गुना बढ़ाया, किसानों की आमदनी में सुधार किया और भारत को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बना दिया, जिससे जौनपुर जैसे ज़िलों में भी धीरे-धीरे इसकी झलक देखने को मिली।
इस लेख में हम जानेंगे कि हरित क्रांति की ज़रूरत भारत को क्यों और कैसे पड़ी और उस समय की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि क्या थी। फिर हम जानेंगे उन वैज्ञानिकों और संस्थानों के बारे में जिन्होंने इसकी नींव रखी, जैसे नॉर्मन बोरलॉग (Norman Borlaug), एम.एस. स्वामीनाथन और भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान। इसके बाद, हम हरित क्रांति की प्रमुख तकनीकी विशेषताओं पर चर्चा करेंगे, जैसे एचवाईवी (HYV) बीज, सिंचाई, उर्वरक और ट्रैक्टर जैसी मशीनों का उपयोग। अंत में, हम देखेंगे कि भारत में हरित क्रांति कैसे दो चरणों में फैली और इसका विस्तार किन-किन राज्यों और फसलों तक हुआ।
भारत में हरित क्रांति की पृष्ठभूमि और आवश्यकता
1960 के दशक का भारत गंभीर खाद्यान्न संकट का सामना कर रहा था। एक तरफ जनसंख्या विस्फोट की गति बढ़ती जा रही थी, तो दूसरी ओर कृषि उत्पादन ठहराव की स्थिति में था। अक्सर अकाल पड़ते थे, और भारत को विदेशों से अनाज मंगवाना पड़ता था, जिससे न केवल अर्थव्यवस्था पर बोझ पड़ता, बल्कि आत्मनिर्भरता की भावना भी प्रभावित होती थी। सरकार और नीति-निर्माताओं को यह स्पष्ट हो चुका था कि यदि जल्द कुछ नहीं किया गया, तो देश को व्यापक भुखमरी झेलनी पड़ सकती है। ऐसे में पारंपरिक खेती के तरीकों की सीमाएँ उजागर हो चुकी थीं, और आवश्यकता थी आधुनिक वैज्ञानिक पद्धतियों को अपनाने की, जैसे अधिक उपज देने वाली किस्में (HYV), सिंचाई के स्थायी साधन, उर्वरक व कीटनाशकों का प्रयोग और आधुनिक कृषि उपकरण। इन्हीं उपायों से शुरू हुआ था वह ऐतिहासिक परिवर्तन, जिसे हम आज "हरित क्रांति" के नाम से जानते हैं।

हरित क्रांति के प्रमुख वैज्ञानिक और संस्थान
हरित क्रांति की नींव केवल नीतियों या तकनीकों से नहीं, बल्कि दूरदर्शी वैज्ञानिकों की मेहनत से भी पड़ी। अमेरिका के नॉर्मन बोरलॉग ने गेहूं की ऐसी प्रजातियाँ विकसित कीं, जो अधिक उपज देती थीं, रोग प्रतिरोधी थीं और कम समय में पकती थीं। उनके इस कार्य को वैश्विक सराहना मिली और उन्हें 1970 में नोबेल शांति पुरस्कार (Nobel Peace Prize) से सम्मानित किया गया। भारत में, डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन ने इस तकनीक को अपनाने में अग्रणी भूमिका निभाई। उन्होंने किसानों को प्रशिक्षित किया, बीजों की गुणवत्ता सुनिश्चित की, और सरकार के साथ मिलकर योजनाएँ बनाईं। इस पूरी प्रक्रिया में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI), जिसे पूसा संस्थान के नाम से जाना जाता है, ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। संस्थान ने न केवल एचवाईवी बीजों का परीक्षण और सुधार किया, बल्कि वैज्ञानिक अनुसंधान, किसान प्रशिक्षण और कृषि विस्तार सेवाओं के ज़रिए पूरे आंदोलन को धरातल पर उतारा।

हरित क्रांति की मुख्य तकनीकी विशेषताएँ
हरित क्रांति का सबसे बड़ा योगदान था, तकनीकी नवाचारों का भारतीय खेतों तक पहुँचना। एचवाईवी बीजों ने परंपरागत फसलों की तुलना में दो से तीन गुना अधिक उत्पादन दिया। लेकिन ये बीज पानी, उर्वरक और नियंत्रणित माहौल की अधिक माँग करते थे। इसीलिए ट्यूबवेल (tube well), नहरें और स्प्रिंकलर (sprinkler) जैसी सिंचाई प्रणालियाँ विकसित की गईं। साथ ही, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का नियंत्रित प्रयोग फसल को पोषण देने और रोगों से बचाने में सहायक बना। ट्रैक्टर (Tractor), थ्रेशर (Thresher), पंप (Pump) और हार्वेस्टर (Harvester) जैसी यंत्रीकृत मशीनों ने खेती को गति और कुशलता प्रदान की। भूमि समेकन और सुधार जैसे कदमों ने किसानों को अधिक स्वतंत्रता और नियंत्रण दिया, जिससे वे जोखिम उठाने और नई तकनीकों को अपनाने में अधिक सक्षम हो सके।
हरित क्रांति के सामाजिक और आर्थिक उद्देश्य
हरित क्रांति का मूल उद्देश्य केवल उत्पादन बढ़ाना नहीं था, बल्कि इसके ज़रिए समाज के हर स्तर तक सकारात्मक परिवर्तन पहुँचाना था। यह योजना ग्रामीण क्षेत्र के विकास का आधार बनी। जैसे-जैसे खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि हुई, वैसे-वैसे रोजगार के अवसर भी बढ़े, खेतों में अधिक मज़दूरों की ज़रूरत पड़ी, खाद, बीज और कृषि यंत्रों का व्यापार बढ़ा, और इससे जुड़ी सेवाओं का विस्तार हुआ। हरित क्रांति ने आत्मनिर्भरता को मज़बूत किया, भारत खाद्यान्न आयातक से निर्यातक बनने की दिशा में बढ़ा। इसके अलावा, सरकार का एक और उद्देश्य था कि एचवाईवी किस्मों के ज़रिए ऐसी फसलें तैयार की जाएं जो कठोर मौसम या सूखा झेल सकें, जिससे कृषि आपदाओं के प्रति कमज़ोर न रहे। यह एक सामाजिक क्रांति भी थी, जिसने गाँवों में आर्थिक सशक्तिकरण की नींव रखी।

भारत में हरित क्रांति के दो चरण और विस्तार
हरित क्रांति की प्रक्रिया पूरे देश में एक साथ नहीं फैली, बल्कि इसे चरणबद्ध तरीके से लागू किया गया। पहले चरण (1965–1975) में केवल उन राज्यों को चुना गया जहाँ सिंचाई की बेहतर व्यवस्था थी, जैसे पंजाब, हरियाणा और तमिलनाडु। यहां पर गेहूं को प्राथमिकता दी गई और इसका उत्पादन अभूतपूर्व रूप से बढ़ा। दूसरे चरण (1975–1985) में इस योजना को अन्य राज्यों और फसलों तक फैलाया गया - अब धान, मक्का, ज्वार जैसी फसलें भी शामिल की गईं और पूर्वी उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, बिहार आदि क्षेत्रों में भी एचवाईवी तकनीक को बढ़ावा मिला। धीरे-धीरे हरित क्रांति एक सीमित भूभाग की योजना से निकलकर एक राष्ट्रीय कृषि अभियान बन गई, जिसने भारत को खाद्यान्न संकट से उबार कर आत्मनिर्भरता के मार्ग पर अग्रसर किया।
संदर्भ-
संस्कृति 2078
प्रकृति 789