जौनपुर - सिराज़-ए-हिन्द
























जौनपुर वासियों को ज़हरीले धुएँ से निजात दिला सकते हैं, सूक्ष्मजीवों से निर्मित जैव ईंधन !
कीटाणु,एक कोशीय जीव,क्रोमिस्टा, व शैवाल
Bacteria,Protozoa,Chromista, and Algae
24-03-2025 09:21 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर में बढ़ते शहरीकरण और बढ़ती आय के साथ ही वाहनों की संख्या में भी इज़ाफ़ा देखा जा रहा है! हालांकि यह वृद्धि समृद्धि और तरक्की का संकेत है, लेकिन शहरीकरण और बढ़ते ट्रैफ़िक के कारण ईंधन की माँग में भी वृद्धि देखी जा रही है! लाज़मी है कि ईंधन की खपत अधिक होने के कारण वातावरण में वायु प्रदूषण भी बढ़ेगा! लेकिन सूक्ष्मजीवों (Microbes) द्वारा उत्पादित जैव ईंधन इस संदर्भ में एक क्रांतिकारी भूमिका निभा सकता है! जैव ईंधन के क्षेत्र में सूक्ष्मजीवों की भूमिका लगातार बढ़ रही है। आँखों से न दिखाई देने वाले ये छोटे-छोटे जीव स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत बनाने में बहुत बड़ा योगदान देते है। आपको जानकर हैरानी होगी कि फसलों, कृषि अपशिष्ट और पौधों की सामग्री से इथेनॉल और बायोडीज़ल(Biodiesel) जैसे जैव ईंधन के उत्पादन में भी बैक्टीरिया (bacteria), खमीर और शैवाल का उपयोग किया जाता है। ये ईंधन पर्यावरण के अनुकूल होते हैं और पारंपरिक पेट्रोल व डीज़ल की तुलना में प्रदूषण भी कम फैलाते हैं। समय के साथ जैसे-जैसे स्वच्छ ऊर्जा की मांग बढ़ रही है, वैसे-वैसे सूक्ष्मजीव जीवाश्म भी ईंधन पर निर्भरता कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसलिए आज के इस लेख में हम जैव ईंधन के एक प्रमुख स्रोत शैवाल पर चर्चा करेंगे और इसे नवीकरणीय ऊर्जा के विकल्प के रूप में समझेंगे। इसके बाद, हम बायोगैस उत्पादन में सूक्ष्मजीवों की भूमिका को जानेंगे और यह समझेंगे कि जैविक अपशिष्ट को ईंधन में कैसे बदला जाता है। अंत में, हम बायोएथेनॉल (Bioethanol) उत्पादन पर ध्यान केंद्रित करेंगे और देखेंगे कि पौधों की सामग्री का उपयोग टिकाऊ ऊर्जा बनाने में कैसे किया जाता है।
आइए, इस लेख की शुरुआत, जैव ईंधन के मुख्य स्रोत के रूप में शैवाल की भूमिका को समझने के साथ करते हैं:
शैवाल ईंधन (Algae Fuel), जीवाश्म ईंधन का एक वैकल्पिक स्रोत होता है, जो ऊर्जा-समृद्ध तेलों के लिए शैवाल का उपयोग करता है। इसे मकई और गन्ने जैसे पारंपरिक जैव ईंधन स्रोतों का भी एक विकल्प माना जाता है। यदि इसे समुद्री शैवाल (मैक्रोशैवाल) से बनाया जाए, तो इसे समुद्री शैवाल ईंधन या समुद्री शैवाल तेल कहा जाता है।
शैवाल से विभिन्न प्रकार के ईंधन बनाए जा सकते हैं। यह ईंधन उत्पादन की तकनीक और कोशिकाओं के उपयोग के आधार पर अलग-अलग होते हैं। शैवाल बायोमास से इसके तैलीय घटक (लिपिड) को निकालकर डीज़लबायोडीज़ल बनाया जा सकता है। इसे पेट्रोलियम-आधारित ईंधन के समान ड्रॉप-इन प्रतिस्थापन (Drop-in Replacement) के रूप में भी परिवर्तित किया जा सकता है। इसके अलावा, लिपिड निष्कर्षण के बाद शैवाल में मौजूद कार्बोहाइड्रेट (carbohydrate) को किण्वित करके बायोएथेनॉल या बायोब्यूटेनॉल (biobutanol) में बदला जा सकता है।
1. डीज़लबायोडीज़ल (Biodiesel): डीज़लबायोडीज़ल एक डीज़ल ईंधन है, जो पौधों या पशु वसा से प्राप्त होता है। शोध से पता चला है कि कुछ शैवाल प्रजातियाँ अपने शुष्क भार का 60% या अधिक तेल का उत्पादन कर सकती हैं। शैवाल जल में बढ़ते हैं, जिससे उन्हें पानी, CO₂ और पोषक तत्वों तक अच्छी पहुँच मिलती है। इसलिए, सूक्ष्म शैवाल को फ़ोटोबायोरिएक्टर या उच्च-दर वाले शैवाल तालाबों में उगाया जाता है, जहाँ वे बड़ी मात्रा में बायोमास और तेल उत्पन्न कर सकते हैं। इस तेल को डीज़लबायोडीज़ल में परिवर्तित करके ऑटोमोबाइल ईंधन के रूप में बेचा जा सकता है। इसके क्षेत्रीय उत्पादन और प्रसंस्करण से ग्रामीण समुदायों को आर्थिक लाभ मिलेगा।
2. बायोब्यूटेनॉल (Biobutanol): बायोब्यूटेनॉल, शैवाल या डायटम (Diatoms) से सौर ऊर्जा चालित बायोरेफ़ाइनरी द्वारा बनाया जाता है। इसका ऊर्जा घनत्व गैसोलीन से 10% कम लेकिन इथेनॉल और मेथनॉल से अधिक होता है। इसे बिना किसी संशोधन के गैसोलीन इंजनों में सीधे इस्तेमाल किया जा सकता है।
शोध में पाया गया है कि गैसोलीन (gasoline) के साथ मिश्रण में ब्यूटेनॉल, E85 (इथेनॉल मिश्रण) की तुलना में बेहतर प्रदर्शन और संक्षारण प्रतिरोध प्रदान करता है। इसके अलावा, शैवाल तेल निष्कर्षण के बाद बचा जैविक कचरा भी ब्यूटेनॉल उत्पादन में उपयोगी हो सकता है।
3. बायोगैस (Biogas) : बायोगैस मुख्य रूप से मीथेन (CH₄) और कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) से बनी होती है। इसमें थोड़ी मात्रा में हाइड्रोजन सल्फ़ाइड, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन और हाइड्रोजन भी हो सकते हैं। अन्य पौधों की तुलना में मैक्रोशैवाल से मीथेन उत्पादन दर अधिक होती है। तकनीकी रूप से, मैक्रोशैवाल से बायोगैस उत्पादन आसान होता है, लेकिन इसकी उच्च लागत इसे आर्थिक रूप से कम व्यवहार्य बनाती है। सूक्ष्म शैवाल में मौजूद कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीन को एनारोबिक पाचन के माध्यम से बायोगैस में बदला जा सकता है। यह प्रक्रिया तीन चरणों (हाइड्रोलिसिस, किण्वन और मीथेन उत्पत्ति) में होती है।
शैवाल से बनाए गए ये जैव ईंधन पर्यावरण-अनुकूल होते हैं और पारंपरिक जीवाश्म ईंधनों के बेहतर विकल्प हो सकते हैं। हालाँकि, इनका उत्पादन अभी भी लागत और तकनीकी चुनौतियों से जुड़ा हुआ है।
बायोगैस क्या है ?
बायोगैस, विभिन्न गैसों का मिश्रण होती है, जिसे मीथेनोजेन्स (Methanogen) नामक सूक्ष्मजीव उत्पन्न करते हैं। यह ईंधन के रूप में उपयोग की जाने वाली गैस है। आमतौर पर, बायोगैस मवेशियों के गोबर से बनाई जाती है क्योंकि इसमें मीथेनोजेन्स भरपूर मात्रा में होते हैं। इसके अलावा, इसमें नाइट्रोजन भी होता है, जो बायोगैस उत्पादन को प्रभावी बनाता है। बायोगैस की संरचना और उसमें मौजूद गैसों की मात्रा उस कच्चे पदार्थ पर निर्भर करती है।
आइए अब बायोगैस उत्पादन में सूक्ष्मजीवों की भूमिका को समझते हैं:
बायोगैस के उत्पादन में सूक्ष्मजीवों की भूमिका बेहद अहम होती है। ये सूक्ष्मजीव, जिन्हें मीथेनोजेन्स (Methanogens) कहा जाता है, बायोगैस बनाने में मदद करते हैं। मीथेनोबैक्टीरियम (methanobacterium) नामक ये जीव मवेशियों के पेट के रूमेन भाग में पाए जाते हैं। जब ये सूक्ष्मजीव एनारोबिक (बिना ऑक्सीजन) परिस्थितियों में बढ़ते हैं, तो बड़ी मात्रा में मीथेन, कार्बन डाइऑक्साइड और हाइड्रोजन जैसी गैसों का उत्पादन करते हैं। इन्हीं गैसों के मिश्रण से बायोगैस बनती है।
बायोगैस उत्पादन में सूक्ष्मजीवों की भूमिका:-
- सूक्ष्मजीव अवायवीय (बिना ऑक्सीजन) परिस्थितियों में बढ़ते हैं और विभिन्न चरणों में अलग-अलग गैसों का उत्पादन करते हैं।
- इन गैसों में मुख्य रूप से मीथेन, कार्बन डाइऑक्साइड (carbon dioxide) और हाइड्रोजन (hydrogen) शामिल होते हैं।
- इन गैसों को उत्पन्न करने वाले सूक्ष्मजीवों को सामूहिक रूप से मीथेनोजेन्स कहा जाता है।
- ये सूक्ष्मजीव मलजल उपचार संयंत्रों में बनने वाले कीचड़ और मवेशियों के रूमेन में पाए जाते हैं।
- बायोगैस उत्पादन के लिए मवेशियों के गोबर और अन्य जैविक कचरे का उपयोग किया जाता है।
इस प्रकार, सूक्ष्मजीवों की सहायता से गोबर और जैविक कचरे को उपयोगी ईंधन में बदला जा सकता है, जिससे पर्यावरण को भी लाभ होता है।
बायोमास के किण्वन से बायोएथेनॉल भी बनाया जाता है, चलिए जानते हैं कैसे?:
कई दशकों से विभिन्न उद्योगों, विशेष रूप से खाद्य और इथेनॉल उत्पादन में खमीर का उपयोग किया जाता रहा है। हाल के वर्षों में, बायोएथेनॉल को स्वच्छ ऊर्जा के रूप में नई पहचान हासिल हुई है। यह ग्लोबल वार्मिंग से जुड़े जीवाश्म ईंधन और परमाणु ऊर्जा के विकल्प के रूप में भी ध्यान आकर्षित कर रहा है। 2011 में जापान में हुई परमाणु दुर्घटना के बाद सुरक्षा को लेकर चिंताएँ और बढ़ गई हैं।
सामान्यतः, बायोएथेनॉल (Bioethanol) का उत्पादन खमीर किण्वन (fermentation) द्वारा बायोमास से किया जाता है। बायोमास के कई स्रोत हैं जिनका उपयोग इथेनॉल बनाने में किया जा सकता है। इनमें गन्ना, मक्का और उनके अवशिष्ट पदार्थ शामिल हैं। बायोएथेनॉल को एक नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत माना जाता है क्योंकि बायोमास ऐसे संसाधन होते हैं जिन्हें लगातार उत्पादित और पुनः नवीनीकृत किया जा सकता है।
हालाँकि, खमीर के उपयोग से बायोमास से बायोएथेनॉल का उत्पादन बहुत अधिक नहीं हो पाता। इसी कारण, जीवाश्म ईंधन और परमाणु ऊर्जा के स्थान पर बायोएथेनॉल का व्यावहारिक उपयोग सीमित रहा है। इसके औद्योगिक उत्पादन के लिए यह आवश्यक है कि बायोमास संस्कृतियों के खमीर किण्वन के लिए उचित तकनीक विकसित की जाए। इसमें नमक, चीनी और इथेनॉल की उच्च सांद्रता का ध्यान रखना जरूरी होता है।
लेकिन, इन प्रक्रियाओं में खमीर तनाव का सामना करता है, जिससे उसकी कोशिकाएँ किण्वन के दौरान कमज़ोर हो सकती हैं। इसी समस्या को हल करने के लिए, हम जलीय पर्यावरण से अलग किए गए विभिन्न प्रकार के तनाव-प्रतिरोधी खमीर का अध्ययन कर रहे हैं। हमने गर्म पानी के झरनों से ऊष्मा-सहिष्णु और किण्वनीय खमीर को अलग किया है। इसके द्वारा, अत्यधिक केंद्रित सैकरीफाइड निलंबन से बायोएथेनॉल का सफलतापूर्वक उत्पादन किया गया है।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: एक माइक्रोबियल ईंधन सेल का निर्माण जिसमें बैक्टीरिया द्वारा अपशिष्ट को विघटित किया जाता है (Wikimedia)
आइए आनद लें, अपनी विशिष्ट दृष्टि के लिए प्रसिद्ध कुछ जीवों के दृश्यों का
व्यवहारिक
By Behaviour
23-03-2025 09:10 AM
Jaunpur District-Hindi

हमारे प्यारे शहर वासियों, क्या आप जानते हैं कि गिरगिट की आंखें, धरती पर सबसे अजीबोगरीब होती हैं, जो एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप से कार्य करने में सक्षम होती हैं। उन्हें लगभग 360 डिग्री की दृष्टि प्राप्त है। सरीसृप भी अपनी आंखों का उपयोग दोनों रूपों में कर सकते हैं। जैसे, उनकी दोनों आँखें कभी-कभी एक ही समय में अलग-अलग दृश्यों को देखती हैं (मोनोक्युलर विज़न -monocular vision), तो कभी-कभी दोनों आंखें केवल एक ही दृश्य को देखती हैं (बाइनौक्युलर विज़न - binocular vision)। वे ऐसा दो तरीकों से करते हैं। पहला है शारीरिक संरचना, जो आँखों को उच्च स्तर की स्वतंत्रता (क्षैतिज रूप से 180 डिग्री और ऊर्ध्वाधर रूप से +/-90 डिग्री) के साथ घूमने में सक्षम बनाती है तथा दूसरा उनका मोनोक्युलर विज़न और बाइनौक्युलर विज़न के बीच सामंजस्य बनाने की क्षमता। इसका अर्थ है कि वे एक समय में केवल एक चीज़ पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं और एक ही समय में दो अलग-अलग चीज़ों पर भी । इसके अलावा, अन्य शारीरिक विशेषताएँ भी गिरगिट को अपनी आँखों को इतने उच्च स्तर तक घुमाने में सक्षम बनाती हैं। जैसे, उनकी आँखें, सिर के विपरीत दिशा में स्थित होती हैं। इसी प्रकार, गरुड़ (Eagles), विशेष रूप से वेज-टेल्ड ईगल (wedge-tailed eagles), जानवरों के साम्राज्य में सबसे शक्तिशाली दृष्टि रखने वाले जीव के रूप में प्रसिद्ध हैं। कुछ प्रजातियों की दृष्टि मनुष्यों की तुलना में आठ गुना शक्तिशाली होती है, जिससे वे बहुत दूर से शिकार को देख सकते हैं। तो आइए, आज हम, इन चलचित्रों के माध्यम से कुछ ऐसे जानवरों के बारे में जानें जिनकी दृष्टि इस दुनिया में सबसे अच्छी मानी जाती है। हम टार्सियर्स (Tarsiers), गेकोस (Geckos), कोलोसल स्क्विड (Colossal squid), फ़ोर-आइड फ़िश (Four-eyed fish), रेंडियर (Reindeer) इत्यादि जैसे जानवरों की दृष्टि के बारे में जानेंगे। इसके अलावा, हम मानव और पशु दृष्टि के बीच के अंतर को भी विस्तार से समझेंगे। साथ ही, एक अन्य वीडियो क्लिप के माध्यम से हम गिरगिट की अविश्वसनीय दृष्टि पर नज़र डालेंगे । फिर हम देखेंगे, कि मैंटिस झींगा (Mantis shrimp) दुनिया को कैसे देखता है।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/2zw7vy44
https://tinyurl.com/32fk4ujt
https://tinyurl.com/hz5wpfpj
https://tinyurl.com/mrczu2ns
https://tinyurl.com/ypdebc52
आइए डालें, उत्तर प्रदेश में जलविद्युत ऊर्जा उत्पादन और इसकी आगामी परियोजनाओं पर एक नज़र
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
22-03-2025 09:05 AM
Jaunpur District-Hindi

हर कोई, जो जौनपुर में रहता है, यह मानता है कि बिजली हमारी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा बन चुकी है। क्या आप जानते हैं कि 2022-23 में, उत्तर प्रदेश ने करीब 39,691 मिलियन यूनिट्स बिजली बनाई थी? आज हम बात करेंगे उत्तर प्रदेश में हाल के सालों में बिजली उत्पादन के बारे में। फिर हम भारत में जलविद्युत ऊर्जा संयंत्रों के बारे में जानेंगे। यहां हम इम्पाउंडमेंट, डाइवर्सन और पंप्ड स्टोरेज पावर प्लांट्स पर ध्यान देंगे। इसके बाद, हम भारत में जलविद्युत संयंत्रों को उनके आकार के आधार पर वर्गीकृत करेंगे। फिर, हम उत्तर प्रदेश के जलविद्युत संयंत्रों के बारे में जानेंगे और उनकी उत्पादन क्षमता पर बात करेंगे। अंत में, हम पूर्वी उत्तर प्रदेश क्षेत्र में आने वाले जलविद्युत संयंत्रों पर ध्यान देंगे।
उत्तर प्रदेश में हाल के वर्षों में बिजली उत्पादन
वित्तीय वर्ष 2022-23 में, उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत उत्पादन निगम (Uttar Pradesh Rajya Vidyut Utpadan Nigam Limited (UPRVUNL)) के तहत आने वाले ताप विद्युत संयंत्र (Thermal Power Plants) जैसे अनपरा, ओबरा, परिछा और हरदुआगंज ने कुल 39,691 मिलियन यूनिट बिजली का उत्पादन किया। यह 2021-22 में 35,022 मिलियन यूनिट्स के मुकाबले 13.33% ज़्यादा है, जैसा कि राज्य सरकार के एक प्रवक्ता ने बताया।
इससे पहले, उत्तर प्रदेश के पावर प्लांट्स ने 2018-19 में सबसे ज़्यादा बिजली उत्पन्न की थी, जब 37,657 मिलियन यूनिट्स का उत्पादन हुआ था। इस तरह, राज्य ने 2018-19 के मुकाबले 5.40% ज़्यादा बिजली उत्पन्न की।
हमारे राज्य के पावर प्लांट्स ने 76.44% की प्लांट लोड फ़ैक्टर (Plant Load Factor (PLF)) पर काम किया। यह 2019-20 (68.80%), 2020-21 (69.71%) और 2021-22 (71.82%) के मुकाबले ज़्यादा था। अनपरा थर्मल पावर स्टेशन के 2x500 MW यूनिट्स ने 95.75% की रिकॉर्ड प्लांट लोड फैक्टर पर बिजली का उत्पादन किया और 8388 मिलियन यूनिट्स का अब तक का सबसे ज़्यादा उत्पादन किया।
भारत में जलविद्युत पावर प्लांट्स के प्रकार
1.) इंपाउंडमेंट (Impoundment): जलविद्युत ऊर्जा संयंत्र का सबसे सामान्य प्रकार इंपाउंडमेंट है। इसमें, एक बड़ी जल-ऊर्जा प्रणाली, एक बांध का उपयोग करके नदी के पानी को एक जलाशय में संग्रहित करती है। जलाशय से पानी छोड़ने पर वह एक टरबाइन से होकर गुज़रता है, जो उसे घुमाता है। इससे जनरेटर शुरू होता है और बिजली उत्पन्न होती है।
2.) डायवर्ज़न (Diversion): डाइवर्जन, जिसे कभी-कभी रन-ऑफ़-रिवर (run-of-river) सुविधा कहा जाता है, नदी के एक हिस्से को एक नहर या पेनस्टॉक के माध्यम से चैनल करता है और फिर वह पानी टरबाइन से होकर गुजरता है, जिससे टरबाइन घूमता है और जनरेटर एक्टिवेट होता है। इसमें बांध की आवश्यकता नहीं होती है।
3.) पंप्ड स्टोरेज (Pumped Storage): यह एक बैटरी की तरह काम करता है, जो अन्य ऊर्जा स्रोतों जैसे सौर, पवन और परमाणु द्वारा उत्पन्न बिजली को बाद में उपयोग के लिए संग्रहित करता है। जब बिजली की मांग कम होती है, तो पंप्ड स्टोरेज सुविधा, पानी को एक निचले जलाशय से ऊपरी जलाशय में पंप करके ऊर्जा संग्रहित करती है। उच्च विद्युत मांग के समय, पानी को फिर से निचले जलाशय में छोड़ दिया जाता है और वह टरबाइन को घुमाता है, जिससे बिजली उत्पन्न होती है।
भारत में जलविद्युत ऊर्जा संयंत्रों के आकार के आधार पर वर्गीकरण
जलविद्युत संयंत्रों का आकार बहुत विविध होता है, जिसमें बड़े पावर संयंत्र होते हैं, जो कई उपभोक्ताओं को बिजली प्रदान करते हैं, और छोटे तथा ‘सूक्ष्म’ प्लांट्स भी होते हैं, जो व्यक्ति अपनी ऊर्जा की जरूरतों के लिए या उपयोगिता कंपनियों को बिजली बेचने के लिए संचालित करते हैं।
- बड़े जलविद्युत ऊर्जा संयंत्र: हालांकि परिभाषाएं अलग-अलग हो सकती हैं, लेकिन DOE (ऊर्जा विभाग) के अनुसार, ये वो ऊर्जा संयंत्र होते हैं जिनकी क्षमता 30 मेगावाट (MW) से अधिक होती है।
- छोटे जलविद्युत ऊर्जा संयंत्र: छोटे जलविद्युत पावर प्लांट्स ऐसे प्रोजेक्ट्स होते हैं जो 100 किलोवाट से लेकर 10 मेगावाट (MW) तक बिजली उत्पन्न करते हैं।
- सूक्ष्म जलविद्युत ऊर्जा संयंत्र: एक सूक्ष्म जलविद्युत पावर प्लांट की क्षमता, 100 किलोवाट तक होती है। एक छोटा या सूक्ष्म जलविद्युत पावर सिस्टम, एक घर, खेत, रेंच या गांव के लिए पर्याप्त बिजली उत्पन्न कर सकता है।
उत्तर प्रदेश के जलविद्युत पावर प्लांट्स
- रिहन्द - 300 मेगावाट (MW)
- ओबरा - 99 मेगावाट (MW)
- खारा - 72 मेगावाट (MW)
- माताटीला - 30.6 मेगावाट (MW)
- निरगजनी - 5 मेगावाट (MW)
- चितौड़ा - 3 मेगावाट (MW)
- सलावा - 3 मेगावाट (MW)
- भोला - 2.7 मेगावाट (MW)
- शीला - 3.6 मेगावाट (MW)
- बेलका - 3.0 मेगावाट (MW)
- बबैल - 3.0 मेगावाट (MW)
पूर्वी उत्तर प्रदेश क्षेत्र में आगामी जलविद्युत ऊर्जा संयंत्र
उत्तर प्रदेश सरकार ने हरित ऊर्जा (Green Energy) के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को मजबूत करते हुए, पूर्वी उत्तर प्रदेश क्षेत्र में तीन जलविद्युत पावर प्रोजेक्ट्स की योजना बनाई है, जिनकी कुल क्षमता 3,250 मेगावाट (MW) होगी। इन तीन पावर प्लांट्स को निजी कंपनियां, जिनमें टोरेंट पावर भी शामिल है, स्थापित करेंगी। इसके लिए सोनभद्र, चंदौली और मिर्ज़ापुर ज़िलों में 1,000 हेक्टेयर से अधिक भूमि की आवश्यकता होगी।
इन तीन जलविद्युत प्रोजेक्ट्स पर लगभग 15,000 करोड़ रुपये का निवेश किया जाएगा और करीब 10,000 नई नौकरियां उत्पन्न होंगी।
गुरुग्राम स्थित एक निजी कंपनी चंदौली और मिर्जापुर जिलों में 900 मेगावाट और 600 मेगावाट की क्षमता वाले दो पंप्ड स्टोरेज हाइड्रो पावर (PSH) संयंत्र स्थापित करेगी, जिनके लिए कुल 670 हेक्टेयर भूमि की आवश्यकता होगी। इस परियोजना के लिए कंपनी ने अप्रैल 2023 में राज्य के साथ समझौता किया था।
पंप्ड स्टोरेज हाइड्रो पावर सिस्टम, एक बैटरी की तरह काम करता , और बिजली को स्टोर कर के जरूरत के हिसाब से उसे जारी करता है। इसमें दो जलाशय होते हैं, जो अलग-अलग ऊचाई पर स्थित होते हैं। जब पानी एक जलाशय से दूसरे जलाशय में बहता है, तो यह पावर जनरेट करता है। जब पावर की जरूरत नहीं होती, तो पानी को फिर से ऊपरी जलाशय में पंप कर लिया जाता है। खास बात यह है कि ये परियोजनाएं किसी भी नदी प्रणाली से जुड़ी नहीं हैं, जिससे स्थानीय जल पारिस्थितिकी पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
इसके अलावा, टोरेंट पावर सोनभद्र जिले में एक जलविद्युत पावर प्लांट बनाएगा, जिसका पानी सोन नदी से लिया जाएगा। इस प्रोजेक्ट के लिए 375 हेक्टेयर भूमि की आवश्यकता होगी।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: ज़िला मुज़फ़्फ़रनगर, उत्तर प्रदेश में नागला कबीर नामक गंगा नहर पर एक लघु जलविद्युत बांध (Wikimedia)
जौनपुर, जानिए क्यों ज़रूरी है निदान और उपचार, मानसिक स्वास्थ्य विकारों का
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
21-03-2025 09:08 AM
Jaunpur District-Hindi

हमारा मानसिक स्वास्थ्य, हमारी सोच, भावनाओं, हमारे आसपास की दुनिया की धारणा और हमारे कार्यों को प्रभावित करता है। वहीं, मानसिक स्वास्थ्य विकार, या मानसिक बीमारी एक चिकित्सीय स्थिति है, जो आपके सोचने और व्यवहार करने के तरीके को प्रभावित करती हैं। मानसिक स्वास्थ्य विकार, कभी कभी गंभीर भी हो सकते हैं और सामाजिक, कार्य या पारिवारिक गतिविधियों में कार्य करना कठिन बना सकते हैं। मानसिक स्वास्थ्य विकारों में अवसाद, चिंता, मनोविदलता शामिल हैं। 2017 में भारत में 197.3 मिलियन लोग मानसिक विकार से पीड़ित थे। इसमें 45.7 मिलियन लोग अवसादग्रस्त विकारों वाले और 44.9 मिलियन लोग चिंता विकारों वाले थे। तो आइए, आज भारत में प्रचलित कुछ सामान्य मानसिक विकारों के बारे में जानते हुए, इन विकारों के लक्षणों और कारणों पर कुछ प्रकाश डालेंगे। इसके साथ ही, हम भारत में इन चिकित्सीय स्थितियों के निदान और उपचार के विभिन्न तरीकों के बारे में जानेंगे। अंत में, हम उत्तर प्रदेश में इन बीमारियों से पीड़ित लोगों से सम्बंधित आंकड़ों पर नज़र डालेंगे।
भारत में प्रचलित मानसिक विकारों के प्रकार:
- अवसाद (Depression): अवसाद एक सामान्य मानसिक स्वास्थ्य विकार है जिसमें लगातार उदासी, निराशा और गतिविधियों में रुचि या आनंद की कमी होती है। अवसाद, किसी व्यक्ति के मूड, विचार, व्यवहार और शारीरिक भलाई पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। इसके लक्षणों में थकान, भूख में बदलाव, नींद में खलल, ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई और खुद को नुकसान पहुंचाने या आत्महत्या के विचार शामिल हो सकते हैं।
- चिंता विकार (Anxiety): चिंता विकार के कारण, व्यक्ति अत्यधिक और लगातार चिंता या भय से ग्रसित रहते हैं। चिंता विकार के कारण व्यक्ति को बार-बार पैनिक अटैक आते हैं, जिसमें अत्यधिक भय, दिल की धड़कन की तीव्रता और सांस की तकलीफ़ जैसे शारीरिक लक्षण दिखाई देते हैं। भय की स्थिति में विशिष्ट वस्तुओं, स्थितियों या गतिविधियों का तीव्र भय होता है।
- द्विध्रुवी विकार (Bipolar Disorder): द्विध्रुवी विकार की स्थिति में किसी व्यक्ति को बारी-बारी से उन्माद और अवसाद के दौरे आते हैं। उन्माद के दौरान, व्यक्तियों को ऊर्जा स्तर में वृद्धि, नींद में कमी, विचारों की उच्चता, आवेगी व्यवहार और आत्म-महत्व की अतिरंजित भावना का अनुभव हो सकता है। अवसादग्रस्तता में उदासी, रुचिहीनता, थकान और भूख और नींद के तरीकों में बदलाव शामिल हैं। द्विध्रुवी विकार, किसी व्यक्ति की भावनाओं, व्यवहार, रिश्तों और समग्र कामकाज़ पर गहरा प्रभाव डाल सकता है।
- विखंडित मनस्कता (Schizophrenia): विखंडित मनस्कता, एक दीर्घकालिक और गंभीर मानसिक विकार है, जो किसी व्यक्ति की वास्तविकता की धारणा, सोचने की प्रक्रिया, भावनाओं और व्यवहार को प्रभावित करता है। इसके लक्षणों में मतिभ्रम, अव्यवस्थित भाषण और व्यवहार, और कम भावनात्मक अभिव्यक्ति शामिल हैं। विखंडित मनस्कता से पीड़ित व्यक्तियों को संज्ञानात्मक कामकाज में कठिनाइयों का अनुभव हो सकता है, जैसे स्मृति, ध्यान और कार्यकारी कामकाज में समस्याएं।
- मादक द्रव्य उपयोग विकार (Substance use disorders): मादक द्रव्य उपयोग विकारों में नकारात्मक परिणामों के बावजूद, शराब या नशीली दवाओं जैसे पदार्थों का अत्यधिक और बाध्यकारी उपयोग शामिल होता है। ये विकार, मानसिक स्वास्थ्य पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकते हैं। इस स्थिति में मादक पदार्थ न मिलने पर, लत, निर्भरता और प्रतिकार के लक्षण हो सकते हैं। मादक द्रव्यों के सेवन से होने वाले विकार विभिन्न मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकते हैं, जिनमें मूड विकार, चिंता विकार, मनोविकृति, संज्ञानात्मक हानि और सामाजिक और व्यावसायिक समस्याएं शामिल हैं।
मानसिक स्वास्थ्य विकारों के कुछ सामान्य कारण:
- शराब या मनोरंजक दवाओं का प्रयोग।
- उचित पोषण की कमी।
- दोस्तों या परिवार के सदस्यों की सहायता न मिलने पर।
- उच्च जोखिम वाली गर्भावस्था से जन्म।
- कैंसर, मधुमेह (Diabetes) या हाइपोथायरायडिज़्म (Hypothyroidism) जैसी पुरानी चिकित्सीय स्थिति।
- व्यवहार संबंधी स्वास्थ्य विकारों का पारिवारिक इतिहास।
- अल्ज़ाइमर रोग (Alzheimer's disease) या मनोभ्रंश जैसे तंत्रिका संबंधी विकार की चिकित्सीय स्थिति।
- नींद संबंधी विकार।
- अत्यधिक तनाव।
- मस्तिष्क में गंभीर चोट।
- जीवन में कोई दर्दनाक घटना या दुर्व्यवहार का इतिहास।
- अपनी आध्यात्मिकता या विश्वासों के साथ संघर्ष।
मानसिक स्वास्थ्य विकार के लक्षण:
- मनोरंजक दवाओं या अल्कोहल का उपयोग।
- सामाजिक स्थितियों और दोस्तों से बचना।
- भ्रम या मतिभ्रम सहित वास्तविकता को समझने में कठिनाई।
- अत्यधिक चिंता या भय।
- थकान या नींद की समस्या।
- उदासी या अलगाव की भावनाएं।
- अन्य लोगों की भावनाओं को समझने में असमर्थता।
- तीव्र चिड़चिड़ापन या क्रोध।
- शारीरिक बनावट, वज़न या खान-पान की आदतों के प्रति जुनून।
- ध्यान केंद्रित करने, सीखने या रोजमर्रा के कार्यों को पूरा करने में समस्याएं।
- अचानक मूड बदलना।
- आत्मघाती विचार आना।
भारत में मानसिक विकारों के निदान के तरीके:
- शारीरिक परीक्षण: इसमें उन शारीरिक समस्याओं को दूर करने का प्रयास किया जाता है, जो मानसिक विकार के लक्षणों का कारण बन सकती हैं।
- प्रयोगशाला परीक्षण: इनमें शामिल हो सकते हैं, उदाहरण के लिए, आपके थायरॉइड प्रणाली की जांच या शराब और नशीली दवाओं की जांच।
- मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन: इसमें मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर आपके लक्षणों, विचारों, भावनाओं और व्यवहार पैटर्न के बारे में आपसे बात करता है। इन प्रश्नों के उत्तर देने में सहायता के लिए आपसे एक प्रश्नावली भरने के लिए कहा जा सकता है।
भारत में मानसिक विकारों के उपचार के तरीके:
मनोचिकित्सा या परामर्श: मानसिक स्वास्थ्य विकारों के लिए यह सबसे आम उपचारों में से एक है। इसे टॉक थेरेपी (talk therapy) भी कहा जाता है। इसमें एक मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर के साथ, अपनी समस्याओं के बारे में बात करना शामिल है। टॉक थेरेपी, कई प्रकार की होती है। इसमें मुख्य रूप से संज्ञानात्मक व्यवहार थेरेपी या द्वंद्वात्मक व्यवहार थेरेपी का प्रयोग किया जाता है। टॉक थेरेपी, अक्सर मनोचिकित्सक और रोगी के बीच प्रत्यक्ष की जाती है। इसे समूह में या परिवार के साथ भी किया जा सकता है। इस प्रकार की थेरेपी उन लोगों के लिए उपयोगी हो सकती है जिनकी कोई मानसिक स्वास्थ्य स्थिति नहीं है और वे चुनौतीपूर्ण जीवन स्थितियों (दुःख, तलाक, आदि) से गुजर रहे हैं।
दवाएं: मानसिक विकारों के लिए दवाएं, भावनाओं और विचार पैटर्न को प्रभावित करने वाले मस्तिष्क के रसायनों में बदलाव लाती हैं। दवाएं मनोरोग स्थितियों या स्वास्थ्य समस्याओं का इलाज नहीं करती हैं। लेकिन वे आपके लक्षणों में सुधार कर सकती हैं और परामर्श जैसे अन्य उपचारों को अधिक प्रभावी बना सकती हैं।
सहायता समूह: स्वयं सहायता और सहायता समूह (Self Help Groups), आपकी स्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त करने में आपकी सहायता कर सकते हैं। वे आपकी स्थिति के संबंध में मित्रता, सहायता, संसाधन और सुझाव प्रदान कर सकते हैं। वे अलगाव की भावनाओं को दूर करने में भी मदद करते हैं, जो अक्सर मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों के साथ जुड़ी होती हैं।
इलेक्ट्रोकन्वल्सिव थेरेपी (Electroconvulsive therapy (ECT)) या अन्य मस्तिष्क उत्तेजना चिकित्सा: ई सी टी, एक ऐसी सुरक्षित प्रक्रिया है जो मस्तिष्क में विद्युत धाराएं भेजती है। इससे मस्तिष्क में ऐसे बदलाव आते हैं जिनसे सुधार हो सकता है और यहां तक कि परेशान करने वाले लक्षणों को उलटा भी किया जा सकता है। ईसीटी और अन्य मस्तिष्क उत्तेजना उपचारों का उपयोग अक्सर तब किया जाता है जब अन्य प्रकार के उपचार काम नहीं करते हैं।
आई मूवमेंट डिसेन्सिटाइजेशन एंड रीप्रोसेसिंग (Eye Movement Desensitization and Reprocessing (EMDR)) थेरेपी: इस प्रकार की थेरेपी का उपयोग, मनोवैज्ञानिक तनाव को दूर करने के लिए किया जाता है। यह आघात, विशेषकर पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (post-traumatic stress disorder (PTSD)) के इलाज में मदद करने का एक प्रभावी तरीका है।
अन्य उपचार: मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के इलाज में मदद के लिए लोग कई प्रकार की अन्य थेरेपी का उपयोग भी करते हैं। इनमें व्यायाम या योग जैसी शारीरिक गतिविधियां शामिल हो सकती है। इनमें रचनात्मक उपचार भी शामिल हो सकते हैं। इनमें कला, संगीत या लेखन का उपयोग शामिल हो सकता है।
उत्तर प्रदेश में लोग मानसिक रोग से पीड़ितों का आंकड़ा:
मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण द्वारा 2017 में उत्तर प्रदेश में एक रिपोर्ट जारी की गई थी, जिसके अनुसार, उत्तर प्रदेश की 8.7% से अधिक आबादी कम से कम एक मानसिक बीमारी से पीड़ित थी। जबकि, विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization (WHO)) द्वारा प्रलेखित राष्ट्रीय औसत 7.5% था। अध्ययन के निष्कर्षों के अनुसार, उस दौरान, उत्तर प्रदेश की 22.4 करोड़ की आबादी में से 1.95 करोड़ लोग किसी न किसी तरह की मानसिक बीमारी से पीड़ित थे। इसमें उच्च आत्मघाती जोखिम वाले 20 लाख से अधिक लोग शामिल थे। अध्ययन से यह भी पता चला कि 8.9 लाख से अधिक लोग डिस्लेक्सिआ (Dyslexia) ऑटिज़्म (Autism) और अटेंशन डेफ़िसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर (Attention Deficit Hyperactivity Disorder (ADHD)) जैसे बौद्धिक विकारों से पीड़ित थे।
संदर्भ:
मुख्य चित्र स्रोत : pexels
चलिए, उत्तरकालीन गुप्त राजवंश के इतिहास, शिलालेखों व महत्वपूर्ण शासकों से अवगत होते हैं
छोटे राज्य 300 ईस्वी से 1000 ईस्वी तक
Small Kingdoms: 300 CE to 1000 CE
20-03-2025 09:19 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर के कई निवासी, इस बात से सहमत होंगे कि, हमारे शहर का एक समृद्ध इतिहास रहा है। इतिहास के बारे में बात करते हुए, क्या आप जानते हैं कि, छठवीं से आठवीं शताब्दी ईसवी के बीच, मगध पर शासन करने वाले राजाओं को, ‘मगध गुप्त’ या ‘उत्तरकालीन ‘गुप्त’ (Later Guptas of Magadha) के रूप में जाना जाता था। शाही गुप्तों के विघटन के बाद, गुप्त राजवंश के सदस्य, मगध और मालवा के शासकों के रूप में उभरे। हालांकि, दो राजवंशों के जुड़ाव का कोई सबूत उपलब्ध नहीं है। इसलिए आज, हम उत्तरकालीन गुप्त राजवंश के इतिहास और उत्पत्ति के बारे में विस्तार से बात करेंगे। फिर हम, इस राजवंश के कुछ महत्वपूर्ण शासकों के बारे में बात करेंगे। उसके बाद, हम उत्तरकालीन गुप्तों के कुछ महत्वपूर्ण शिलालेखों के बारे में पढ़ेंगे। इस संदर्भ में, हम आदित्यसेन के देव बार्नार्क और अफ़सद शिलालेख पर कुछ प्रकाश डालेंगे। अंत में, हम उत्तरकालीन गुप्त राजवंश के सिक्कों की खोज करेंगे।
उत्तरकालीन गुप्त राजवंश का इतिहास और उत्पत्ति:
‘उत्तरकालीन गुप्त’ पदनाम, दरअसल अजीब है। क्योंकि, यह दिखाने के लिए कोई सबूत नहीं है कि, यह परिवार किसी तरह से शाही गुप्तों के साथ रक्त संबंध से जुड़ा हुआ था। यह जानना भी दिलचस्प है कि, इस परिवार ने अपने आप को गुप्त नाम नहीं दिया और इसके एक प्रमुख शासक का एक नाम, गुप्त न होकर, आदित्यसेन था।
संभावना है कि, मौखरियों के रूप में, वे भी शाही गुप्तों के सामंती थे। अपनी शुरूआत के बाद, उन्होंने एक विचारशील राज्य की स्थापना की, जो आठवीं शताब्दी के मध्य तक अस्तित्व में था। इस राजवंश के संस्थापक कृष्णगुप्त थे। उन्होंने और उनके दो उत्तराधिकारी – हर्षगुप्त और जिवितगुप्त ने, मगध पर 550 ईसवी तक शासन किया होगा।
इस राजवंश से संबंधित अधिकांश सबूत, इनके आठवें राजा – आदित्यसेन द्वारा जारी किए गए, एक शिलालेख से मिलते हैं। इन्होंने सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में शासन किया था। यह स्पष्ट रूप से सुझाव दिया गया है कि, किसी भी राजा ने शाही शीर्षक नहीं ग्रहण किया। प्रत्येक राजा को केवल ‘श्री’ कहा जाता था। हालांकि, आदित्यसेन ने, पूर्ण रूप से खिताब ग्रहण किया था।
उत्तरकालीन गुप्ता राजवंश के महत्वपूर्ण शासक:
गया के पास, अफ़साद में पाया गया एक शिलालेख, इस राजवंश के राजाओं की निम्नलिखित वंशावली देता है:
1) कृष्णगुप्त
2) हर्षगुप्त
3) जिवितगुप्त
4) कुमारगुप्त
5) दामोदरगुप्त
6) महासेनगुप्त
7) माधवगुप्त
8) आदित्यसेन।
हर्षगुप्त को हूण (Huns) शासकों से लड़ना पड़ा। उनके बेटे जीवितगुप्त ने, नेपाल के लिच्छवि और बंगाल के गौड़ के खिलाफ़ लड़ाई लड़ी। जीवितगुप्त के उत्तराधिकारी – राजा कुमारगुप्त ने मौखरी राजा इशानवर्मन को हराया। कुमारगुप्त के पुत्र, अगले राजा दामोदरगुप्त को मौखरी राजा सर्ववर्मन ने हराया और मार डाला। इससे, उन्होंने मगध का एक हिस्सा खो दिया। कुछ समय के लिए दामोदरगुप्त के उत्तराधिकारी मौखरियों के कारण मालवा से पीछे हट गए, लेकिन, उन्होंने फिर से मगध में अपना वर्चस्व स्थापित किया।
एक तरफ़, आदित्यसेन ने महाराजधिराज का शीर्षक ग्रहण किया। उनके साम्राज्य में मगध, अंग और बंगाल शामिल थे। यह संभव है कि, उनके राज्य में पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक हिस्सा शामिल हो। वे एक परमभागवत थे, और उन्होंने विष्णु का एक मंदिर बनाया था।
विष्णुगुप्त ने कम से कम 17 साल तक शासन किया। जीवितगुप्त ने संभवतः गोमती के तट पर कुछ क्षेत्र में अपना अधिकार बढ़ाया, जो एक बार मौखरी राज्य का हिस्सा था। जीवितगुप्त का कोई भी उत्तराधिकारी नहीं है और उत्तरकालीन गुप्तों का अंत अस्पष्ट है।
उत्तरकालीन गुप्तों के महत्वपूर्ण शिलालेख:
बिहार में आरा ज़िले में पाए जाने वाले, देव बार्नार्क (Deva Barnark) शिलालेख को गुप्त शासक जीवितगुप्त द्वितीय द्वारा निर्मित किया गया था। वे विष्णुगुप्त और उनकी रानी – इज्जादेवी के पुत्र थे। इस शिलालेख में वरुणवसिना या सूर्य मंदिर के लिए, वरुनिका ग्राम (गांव डीओ-बार्नार्क का मूल नाम) के अनुदान के बारे में उल्लेख किया गया है। यह शिलालेख, उत्तरकालीन गुप्तों और उनसे संबंधित मौखरी शासकों वंश शासकों के बारे में बताता है।
अफ़साद शिलालेख – आदित्यसेन:
मगध के उत्तरकालीन गुप्त राजवंश के आठवें शासक राजा – आदित्यसेन का एक महत्वपूर्ण शिलालेख, मंदार पहाड़ी पर मंदिर के आसपास के क्षेत्र में पाया गया है। इस शिलालेख को आप मुख्य चित्र में देख सकते हैं! इसमें बताया गया है कि, कैसे राजा आदित्यसेन ने विष्णु के लिए एक मंदिर का निर्माण किया, जबकि उनकी पत्नी – कोंडवी ने एक टैंक का निर्माण किया। एक तरफ़, उनकी मां – महादेवी श्रीमती जी ने एक धार्मिक विद्यालय बनाया। हालांकि, यह शिलालेख दिनांकित नहीं है, हम जानते हैं कि, आदित्यसेन वर्ष 672 ईसवी में शासन कर रहे थे। इसलिए, मंदिर का निर्माण इस तिथि से बहुत पहले नहीं हुआ होगा।
उत्तरकालीन गुप्त राजवंश के सिक्के:
उत्तरकालीन गुप्त राजाओं के शासनकाल के सिक्के अपेक्षाकृत काफ़ी दुर्लभ हैं। अब तक खोजे गए एकमात्र प्रकार के सिक्के, राजा महासेनगुप्त की अवधि के हैं, जिन्होंने 562-601 ईसवी में शासन किया था। संख्यात्मक साक्ष्य, यह स्पष्ट करता है कि, उत्तरकालीन गुप्त शैव थे, जो शाही गुप्तों के सिक्कों में मौजूद, गरुड़ के चित्रण को प्रतिस्थापित करने वाले नंदी के चित्रण के लिए प्रख्यात थे। महासेनगुप्त के शासनकाल से, दो प्रकार के सिक्कों की खोज की गई है – पहला, “आर्चर प्रकार” और दूसरा “तलवारबाज़ प्रकार”।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: आदित्यसेन का अफ़सद शिलालेख (लगभग 655-680 ई.) उत्तरकालीन गुप्त राजवंश की वंशावली को आदित्यसेन तक स्थापित करता है। (Wikimedia)
स्वास्थ्यपूर्ण कटहल के बढ़ते अभिनव उपयोगों से कैसे होगा, जौनपुर के किसानों को लाभ ?
फल-सब्ज़ियां
Fruits and Vegetables
19-03-2025 09:11 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर क्षेत्र की गर्म और आर्द्र जलवायु में, कटहल (Jackfruit) फल अच्छी तरह से पनपता है, जिससे यह क्षेत्र के कई घरों में, ये एक आम फ़सल बन जाता है। कटहल का उपयोग, अक्सर कच्चे और पके, दोनों रूपों में किया जाता है। कच्चे कटहल को सब्ज़ी के रूप में पकाया जाता है, जबकि पके फल को इसके मीठे व सुगंधित स्वाद के लिए जाना जाता है। यह विटामिन (Vitamins), फाइबर (Fibre) और एंटीऑक्सिडेंट (Antioxidants) से समृद्ध होता है, और इस कारण, हमारे पाचन में सुधार, प्रतिरक्षा प्रणाली को बढ़ावा देने और हृदय स्वास्थ्य का समर्थन करने में मदद करता है। कटहल के बीज भी पौष्टिक होते हैं, और उन्हें स्नैक के रूप में खाया जा सकता है।
आज, हम कटहल और इसके पोषण मूल्य पर संक्षिप्त चर्चा करेंगे। फिर हम इसके विभिन्न स्वास्थ्य लाभों का पता लगाएंगे। इसके बाद, हम भारत में कटहल की उपलब्धता एवं बाज़ार क्षमता के बारे में जानेंगे। जबकि अंत में, हम कटहल की खेती के लिए आवश्यक, आदर्श जलवायु और मिट्टी पर चर्चा करेंगे।
कटहल क्या है ?
कटहल का वैज्ञानिक नाम – आर्टोकार्पस हेटेरोफ़िलस (Artocarpus heterophyllus) है। कटहल, एशिया, अफ़्रीका और दक्षिण अमेरिका में उगाया जाने वाला एक उष्णकटिबंधीय पेड़ है। इसके मोटे, ऊबड़-खाबड़ और हरे छिलके के अंदर एक पीला गुदा होता है, जिसे आप कच्चे रूप में खा सकते हैं, या विभिन्न प्रकार के व्यंजनों में पका सकते हैं। दिलचस्प बात यह है कि, इसके बीज भी खाने योग्य हैं।
कटहल, दुनिया का सबसे बड़ा पेड़-जनित फल है, जिसका जिसका वज़न 8 से 50 किलो तक हो सकता है । कटहल में बहुत अधिक पोटेशियम (Potassium) होता है, जो उन लोगों के लिए हानिकारक हो सकता है, जिन्हें किडनी रोग या गुर्दे की तीव्र विफ़लता वाली स्थिति है। इन स्थितियों वाले लोग, यदि पोटेशियम की उच्च मात्रा खाते हैं, तो हाइपरक्लेमिया (Hyperkalemia) की स्थिति विकसित कर सकते हैं। हाइपरक्लेमिया रक्त में, पोटेशियम का जमाव है, जो कमज़ोरी, पक्षाघात और दिल का दौरे का कारण बनता है।
कटहल के स्वास्थ्य लाभ-
कई फलों की तरह, कटहल में स्वस्थ पाचन और बहुत कम वसा के लिए, कुछ फ़ाइबर होते हैं। कटहल की प्रति 100-ग्राम में निम्नलिखित गुण मिलते है:
95 कैलोरी,
2 ग्राम प्रोटीन,
0.6 ग्राम वसा, और
3 ग्राम फ़ाइबर।
इसमें विटामिन, खनिज़ और फ़ाइटोकेमिकल्स (Phytochemicals) भी होते हैं, जिनके कई स्वास्थ्य लाभ होते हैं। यह विटामिन सी (Vitamin C) , विटामिन बी 6 (Vitamin B6) , नियासिन (विटामिन बी 3 (Vitamin B3)), विटामिन बी 2 (Vitamin B2), विटामिन बी 9, (Vitamin B9) और कैल्शियम (Calcium), मैग्नीशियम (Magnesium), , फ़ॉस्फोरस (Phosphorus) का भी एक अच्छा स्रोत है।
इसके अलावा, कटहल,
१.प्रतिरक्षा प्रणाली को बढ़ाता है।
२.स्वस्थ पाचन में मदद करता है।
३.कैंसर से बचाता है।
४.आंख और त्वचा के लिए अच्छा है।
५.रक्तचाप को नियंत्रित करता है।
६.अस्थमा को नियंत्रित करता है।
७.स्वस्थ थायरॉयड को बनाए रखता है।
८.हड्डियों को मज़बूत करता है।
९.ऊर्जा को बढ़ाता है, और एनीमिया को रोकता है।
कटहल (हिंदी), फणस (मराठी), फ़णनस (गुजराती), पनासा (तेलुगु), पाल/ वरुकई (तमिल), हलासु (कन्नड़), चक्का (मलयालम), पनासा (उड़िया), आदि कटहल के भारत में स्थानीय नाम हैं।
भारत में प्रमुख कटहल उत्पादन राज्य, तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल, बिहार, उच्च प्रदेश, ओडिशा और असम है। इसके साथ ही, भारत में इस फल की खेती में प्रमुख किस्में निम्नलिखित हैं–
सिंगापुर (Singapore) या सीलोन जैक (Ceylon Jack); कोंकन प्रोलिफ़िक (Konkan Prolific); हाइब्रिड जैक (Hybrid jack); 5 पी एल आर -1 (पालुर -1) (5 PLR-1(Palur-1)); बर्लियार -1 (Burliar-1); एवं पी पी आई -1 (पेचिपराई -1)(PPI-1(Pechiparai-1)); आदि।
भारत में कटहल की उपलब्धता-
भारत के दक्षिण और पूर्वी क्षेत्रों में कटहल बहुतायत से बढ़ता है। इस फल की खेती करने वाले क्षेत्रों में, पश्चिमी घाट, देउरिया, गोरखपुर, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, केरल, तमिलनाडु, कोंकण और कर्नाटक शामिल हैं। साथ ही, क्या आप जानते हैं कि, हमारे राज्य का फ़ैज़ाबाद क्षेत्र, अपनी स्वादिष्ट कटहल किस्म के लिए जाना जाता है।
हालांकि, भारत, कटहल का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है, लेकिन, एक अनुमान है कि, 75% पके फल बर्बाद हो जाते हैं। वास्तव में, इसके उत्पादों की मांग अधिक है। लेकिन निर्माताओं को फलों को संसाधित करने में, मशीनरी और मज़दूरों की खरीद में कठिनाई होती है।
कटहल का सीज़न, सितंबर से दिसंबर तक है, और फिर जून से अगस्त तक भी यह पनपता है। मुख्य पीक उत्पादन मानसून के मौसम के दौरान होता है। एक तरफ़, महाराजपुरम किस्म, दिसंबर से जुलाई तक, ऑफ़-सीज़न के दौरान भी फल देती है।
कटहल बाज़ार की क्षमता-
2019 में, भारत में कटहल बाज़ार का मूल्य, 21.42 अरब रूपए था । यह बाज़ार, अनुमानित अवधि 2020-2025 के दौरान, 3.2% की सी ए जी आर (CAGR) दर से बढ़ रहा है। कटहल एक उष्णकटिबंधीय फल है, जो दुनिया के उष्णकटिबंधीय, उच्च वर्षा वाले क्षेत्र, तटीय और आर्द्र क्षेत्रों में पाया जाता है। इसका आमतौर पर एक टेबल फल के रूप में सेवन किया जाता है, लेकिन, इसके अलावा, अचार, चिप्स, जेली, चटनी, पापड, जाम, आइसक्रीम, स्क्वैश (Squash), नूडल्स, जैक लेदर, मिठाई और विभिन्न अन्य वस्तुओं के उत्पादन में भी इसका उपयोग किया जाता है। इसके मीठे स्वाद के कारण, इसका उपयोग, मानव उपभोग के लिए व्यंजनों की एक विस्तृत श्रृंखला बनाने के लिए किया जाता है। इसकी बनावट के कारण, इसे शाकाहारी लोग, मांस के विकल्प के रूप में भी पसंद करते है। कटहल के अभिनव अनुप्रयोगों के कारण और इसकी खपत के साथ, इसके स्वास्थ्य लाभों के बारे में बढ़ती उपभोक्ता जागरूकता भी, इसके बाज़ार के विकास का समर्थन कर रही है।
कटहल के लिए आवश्यक जलवायु और मिट्टी-
कटहल, अच्छी तरह से उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय जलवायु के लिए अनुकूलित है। इसे सफलतापूर्वक औसत समुद्र तल से 1,600 मीटर की ऊंचाई तक उगाया जा सकता है। इसके लिए गर्म व आर्द्र जलवायु तथा 1,000-1,500 मिलीमीटर की अच्छी तरह से वितरित वर्षा की आवश्यकता होती है। निरंतर बाढ़ एवं नम स्थिति, हालांकि, इस पेड़ के लिए अवांछनीय है। यह फल अच्छी तरह से सूखी मिट्टी पसंद करता है, लेकिन इसे मिट्टी की विविधता में भी उगाया जा सकता है। हालांकि, गहरी जलोढ़; रेतीली बलुई या सामान्य बलुई; कैल्शियम कार्बोनेट युक्त या लेटराइट मिट्टी (laterite soil) ; चूना युक्त या पथरीली; तथा 5.5-7.5 पी एच (pH) वाली मिट्टी सबसे उपयुक्त है।
संदर्भ:
मुख्य चित्र स्रोत : Wikimedia
आज जौनपुर समझेगा, भारत की आधुनिक शिक्षा प्रणाली में वुड्स डिस्पैच की भूमिका को
उपनिवेश व विश्वयुद्ध 1780 ईस्वी से 1947 ईस्वी तक
Colonization And World Wars : 1780 CE to 1947 CE
18-03-2025 09:09 AM
Jaunpur District-Hindi

क्या आप जानते हैं कि 1854 में भारत के तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौज़ी (Lord Dalhousie) को लिखे एक आधिकारिक पत्र में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष सर चार्ल्स वुड (Sir Charles Wood) ने पूरे भारत में अंग्रेज़ी के इस्तेमाल के तरीके में बुनियादी बदलाव की सिफ़ारिश की। सर चार्ल्स ने प्राथमिक शिक्षा में क्षेत्रीय भाषाओं, माध्यमिक शिक्षा में एंग्लो-वर्नाक्युलर (Anglo-Vernacular) और उच्च शिक्षा में प्राथमिक भाषा के रूप में अंग्रेज़ी का समर्थन किया। इसे अनौपचारिक रूप से 'वुड्स डिस्पैच' (Wood’s Despatch) और "भारत में अंग्रेज़ी शिक्षा का मैग्ना कार्टा" (Magna Carta of English Education in India) भी कहा जाता है। इसने औपनिवेशिक काल के दौरान भारत में आधुनिक शिक्षा प्रणाली की नींव रखी। तो आइए, आज वुड्स डिस्पैच के उद्देश्यों, सिफ़ारिशों और प्रमुख विशेषताओं के बारे में विस्तार से जानते हैं और समझते हैं कि वुड्स डिस्पैच ने भारतीय शिक्षा को कैसे बदल दिया। इसके साथ ही, हम इसकी कुछ कमियों पर भी प्रकाश डालेंगे। अंत में हम बनारस संस्कृत कॉलेज के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय की शुरुआत और विकास के बारे में जानेंगे।
वुड्स डिस्पैच के उद्देश्य:
- संस्कृतियों को जोड़ना और विकास को बढ़ावा देना।
- भारतीयों को पश्चिमी संस्कृति के बारे में ज्ञान और तथ्य प्रदान करना।
- सरकारी कर्मचारियों का एक दल तैयार करने के लिए मूल भारतीयों को शिक्षा प्रदान करना।
- अगली पीढ़ी के बौद्धिक विकास के साथ-साथ नैतिक विकास को भी बढ़ावा देना।
- उत्पादों की व्यापक श्रृंखला के उत्पादन के लिए भारतीयों के व्यावहारिक और व्यावसायिक कौशल में सुधार करना, साथ ही ऐसे उत्पादों की खरीद के लिए एक स्वस्थ बाज़ार तैयार करना।
वुड्स डिस्पैच की सिफ़ारिशें:
- भारत के पांच प्रांतों - बॉम्बे, मद्रास, पंजाब और उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में से प्रत्येक में - वुड्स डिस्पैच ने शुरू में सार्वजनिक निर्देश विभाग के निर्माण का सुझाव दिया।
- इसका एक महत्वपूर्ण सुझाव, जन शिक्षा का विस्तार करना था।
- इसमें प्राथमिक, मध्य और उच्च विद्यालयों की संख्या बढ़ाने पर बहुत ध्यान दिया गया क्योंकि यह पाया गया कि आम लोगों के पास शैक्षिक अवसरों की कमी थी।
- चार्ल्स वुड ने तीन प्रेसीडेंसी शहरों: कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास में विश्वविद्यालयों की स्थापना की सिफ़ारिश की। ये विश्वविद्यालय, लंदन विश्वविद्यालय पर आधारित होने चाहिए थे।
- कानूनी और सिविल इंजीनियरिंग विभागों के अलावा, इन विश्वविद्यालयों में अरबी, संस्कृत और फ़ारसी के विभाग भी होने चाहिए थे।
- भारतीय शिक्षा के लिए अनुदान सहायता प्रणाली के निर्माण को बढ़ावा दिया दिया जाए।
- भारतीय भाषाओं को पढ़ाने के महत्व पर ज़ोर देने के अलावा, अंग्रेज़ी सिखाने के महत्व पर भी ज़ोर दिया जाए ।
- डिस्पैच में सरकार को महिलाओं की शिक्षा को प्रोत्साहित करने का सुझाव दिया गया।
- इसके अनुसार, प्रत्येक प्रांत में शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान होने चाहिए। इंजीनियरिंग, चिकित्सा और कानून के शिक्षकों को विशेष शिक्षा प्रशिक्षण प्राप्त होना चाहिए।
- देशभर में श्रेणीबद्ध स्कूलों का एक नेटवर्क स्थापित किया जाना चाहिए।
वुड्स डिस्पैच की मुख्य विशेषताएं:
- शिक्षा का विस्तार और विविधीकरण: इसमें पूरे भारत में एक व्यापक शैक्षिक प्रणाली बनाने के लिए प्राथमिक विद्यालयों, उच्च विद्यालयों और कॉलेजों के नेटवर्क की स्थापना पर ज़ोर दिया गया।
- शिक्षा का माध्यम: उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेज़ी और प्रारंभिक शिक्षा को सुलभ बनाने के लिए प्राथमिक शिक्षा के लिए स्थानीय भाषाओं के उपयोग की सिफ़ारिश की गई।
- शिक्षक प्रशिक्षण: शिक्षण की गुणवत्ता में सुधार लाने और स्कूलों की बढ़ती संख्या के लिए योग्य शिक्षकों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए, शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया।
- महिला शिक्षा: महिला शिक्षा को प्रोत्साहन और समर्थन देने के लिए, महिला विद्यालयों की स्थापना और सामाजिक प्रतिरोध को दूर करने के लिए, आर्थिक प्रोत्साहन की सिफ़ारिश की गई।
- विश्वविद्यालयों की स्थापना: उच्च शिक्षा, मानकीकृत परीक्षाएँ आयोजित करने और डिग्री प्रदान करने के लिए कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास जैसे प्रमुख शहरों में विश्वविद्यालयों की स्थापना का सुझाव दिया गया।
- राज्य की भूमिका: शिक्षा के वित्तपोषण और प्रबंधन में राज्य की ज़िम्मेदारी पर ज़ोर देते हुए यह प्रस्ताव दिया गया कि सरकार को शैक्षणिक संस्थानों के विकास और रखरखाव में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।
- निज़ी क्षेत्र और मिशनरी भागीदारी: शैक्षिक क्षेत्र में निजी क्षेत्र और मिशनरी भागीदारी को प्रोत्साहित किया गया, यह सुझाव दिया गया कि कुछ मानकों को पूरा करने वाले निज़ी स्कूलों को सरकारी सहायता प्रदान की जा सकती है।
- व्यावसायिक और व्यावहारिक शिक्षा: भारतीय छात्रों के लिए रोजगार के अवसरों को बढ़ाने के लिए पाठ्यक्रम में व्यावसायिक और तकनीकी प्रशिक्षण को शामिल करने की सिफ़ारिश की गई।
- धर्मनिरपेक्ष शिक्षा नीति: शिक्षा के प्रति एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण पर ज़ोर देते हुए सुझाव दिया गया कि सरकारी स्कूलों में धार्मिक तटस्थता बनाए रखने के लिए धार्मिक शिक्षा पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा नहीं होनी चाहिए।
- धन और बुनियादी ढांचा: शैक्षिक बुनियादी ढांचे के निर्माण एवं शैक्षिक सामग्री और योग्य कर्मचारियों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक धन और संसाधनों के आवंटन की सिफ़ारिश की गई।
वुड्स डिस्पैच का प्रभाव:
- वुड्स डिस्पैच ने भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव रखी और भारतीय शिक्षा प्रणाली को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया। इसने भारत में अंग्रेज़ी-शिक्षित भारतीय मध्यम वर्ग के उदय में योगदान दिया।
- इसके प्रावधानों के आधार पर 1857 में बॉम्बे, मद्रास और कलकत्ता में विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई।
- सभी प्रांतों में अलग-अलग शैक्षिक विभाग स्थापित किये गये।
- जे.ई.डी. बेथ्यून (J.E.D. Bethune) ने प्रावधानों के तहत अनुदान प्राप्त करके भारत में महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए बेथ्यून स्कूल (Bethune School) की स्थापना की।
- इसने पूसा (बिहार) में एक कृषि संस्थान और रूड़की, संयुक्त प्रांत (अब, उत्तराखंड) में एक इंजीनियरिंग संस्थान की स्थापना का मार्ग भी प्रशस्त किया।
- भारत के स्कूलों और कॉलेजों में बड़ी संख्या में यूरोपीय हेडमास्टर और प्रिंसिपल नियुक्त किए गए, जिसके कारण, ब्रिटिश भारत में शिक्षा प्रणाली का तेज़ी से पश्चिमीकरण हुआ।
वुड्स डिस्पैच की कमियां:
हालाँकि, वुड्स डिस्पैच ने सकारात्मक परिवर्तन लागू किए, लेकिन इसके कुछ पहलुओं की आलोचना भी हुई:
- यूरोसेंट्रिक केंद्रित: भारतीय भाषाओं, संस्कृति और ज्ञान प्रणालियों की सीमित मान्यता के साथ, पत्र में पश्चिमी शिक्षा और मूल्यों पर महत्वपूर्ण ज़ोर दिया गया। इससे समाज का पारंपरिक शिक्षा से अलगाव पैदा हो गया।
- सीमित पहुंच: इस प्रणाली में मुख्य रूप से कुलीन और उच्च वर्गों को लक्षित किया गया, ग्रामीण क्षेत्रों और वंचित समूहों की शिक्षा की उपेक्षा की गई। इसने सामाजिक असमानताओं को कायम रखा और यह प्रणाली, व्यापक शैक्षिक अवसर प्रदान करने में विफल रही।
- परीक्षाओं पर ध्यान: इस प्रणाली में मानकीकृत परीक्षणों और रटने पर ज़ोर दिया गया, जिससे शिक्षा का दायरा सीमित हो गया और छात्रों की क्षमता, आलोचनात्मक सोच, रचनात्मकता और व्यावहारिक कौशल का विकास सीमित हो गया।
- व्यावसायिक प्रशिक्षण की उपेक्षा: यह प्रणाली, रोज़गार और समाज के आर्थिक विकास के लिए व्यावसायिक और तकनीकी कौशल के महत्व को नज़रअंदाज़ करते हुए मुख्य रूप से अकादमिक ज्ञान पर केंद्रित थी।
- कठोर प्रशासन: इसमें केंद्रीकृत और नौकरशाही प्रणाली में स्थानीय आवश्यकताओं के प्रति लचीलेपन और जवाबदेही का अभाव था। इसने, विभिन्न क्षेत्रों में प्रशासन और शिक्षा की वास्तविकताओं के बीच एक अलगाव पैदा कर दिया।
सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय की शुरुआत और विकास:
संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी (Sampurnanand Sanskrit Vishwavidyalaya, Varanasi (पूर्व में वाराणसी संस्कृत विश्वविद्यालय)) दुनिया के सबसे बड़े संस्कृत विश्वविद्यालयों में से एक है। वर्तमान में विश्वविद्यालय विभिन्न विषयों में स्नातक और स्नातकोत्तर कार्यक्रमों की एक श्रृंखला प्रदान करता है। विश्वविद्यालय को 'राष्ट्रीय मूल्यांकन और मान्यता परिषद' (National Assessment and Accreditation Council (NAAC)) और यू जी सी (University Grants Commission (UGC)) द्वारा मान्यता प्राप्त है।
1791 में, बनारस राज्य में, ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी जोनाथन डंकन ने भारतीय शिक्षा के लिए ब्रिटिश समर्थन प्रदर्शित करने के लिए संस्कृत वाक्पटुता के विकास और संरक्षण के लिए एक संस्कृत कॉलेज की स्थापना का प्रस्ताव रखा। इस पहल को गवर्नर जनरल चार्ल्स कॉर्नवालिस ने मंज़ूरी दी। पंडित काशीनाथ इस संस्था के पहले शिक्षक थे और गवर्नर जनरल ने प्रति वर्ष इसके लिए 20,000 रूपये का बजट स्वीकृत किया। गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज के पहले प्रिंसिपल जॉन मुइर (John Muir) थे। 1857 में, इस कॉलेज में स्नातकोत्तर शिक्षण और 1880 में एक परीक्षा प्रणाली शुरू हुई। 1894 में, यहां प्रसिद्ध सरस्वती भवन ग्रंथालय भवन का निर्माण किया गया, जहाँ आज भी हज़ारों पांडुलिपियाँ संरक्षित हैं। 1958 में संपूर्णानंद के प्रयासों से इस कॉलेज को संस्कृत विश्वविद्यालय का दर्जा मिला। 1974 में, इस संस्थान का नाम, औपचारिक रूप से बदलकर संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय कर दिया गया।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: सर चार्ल्स वुड और एक कक्षा में पढ़ते छात्र (Wikimedia)
जौनपुर की प्रकृति को सजाने वाली सुंदर तितलियाँ, आज हमसे चाहती हैं संरक्षण !
तितलियाँ व कीड़े
Butterfly and Insects
17-03-2025 09:21 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर के खेतों में, टाइगर तितलियाँ (Common tiger butterfly), अपने उज्ज्वल नारंगी और काले पंखों के साथ, किसी समय एक आम दृष्टि थी। लेकिन अब, निवास स्थान के नुकसान, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और कीटनाशक के उपयोग के कारण, इनकी संख्या घट रही है। कम देशी पौधों और सुरक्षित स्थानों के कारण, ये तितलियाँ, प्रजनन एवं अंततः जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रही हैं। प्राकृतिक परागणकों के रूप में, वे पौधों के बढ़ने और पर्यावरण को स्वस्थ रखने में मदद करती हैं। उनकी गिरावट एक संकेत है कि, प्रकृति बदल रही है। यह हमें हरी–भरी जगहों की रक्षा करने और हानिकारक रसायनों को कम करने की याद दिलाती है।
आज हम, टाइगर तितलियों, इनकी अनूठी विशेषताओं और प्रकृति में इनकी भूमिका का पता लगाएंगे। फिर हम, इनके के वितरण और पारिस्थितिकी की जांच करेंगे, तथा इसके निवास स्थान और पर्यावरणीय अनुकूलन की खोज करेंगे। हम इन तितलियों के पारिस्थितिक महत्व पर भी चर्चा करेंगे। अंत में, हम भारतीय टाइगर तितली के संरक्षण प्रयासों को देखेंगे, एवं इस प्रजाति की सुरक्षा के लिए उठाए गए आवश्यक कदमों पर ध्यान केंद्रित करेंगे।
टाइगर तितली का परिचय-
डैनॉस जेनुटिया (Danaus genutia) या टाइगर तितली, भारत की आम तितलियों में से एक है। इस तितली को भारत में धारीदार टाइगर तितली भी कहा जाता है। इस तितली प्रजाति को पहली बार, 1779 में पीटर क्रैमर (Pieter Cramer) द्वारा वर्णित किया गया था।
विवरण-
यह तितली अमेरिका के मोनार्क तितली (Monarch butterfly) – डानाउस प्लेक्सिपस (Danaus plexippus) से मिलती-जुलती है। इसके पंखों का क्षेत्रफ़ल, 70 से 95 मिलीमीटर (2.8 से 3.7 इंच) है। इस तितली में गहरे पीले रंग के पंख होते हैं, जिनमें व्यापक काले बैंड(धारी) के साथ, नसों को चिह्नित किया जाता है। नर टाइगर तितली के पिछले छोटे पंखों पर एक थैली होती है। पंखों के मार्जिन, सफ़ेद धब्बों की दो पंक्तियों के साथ काले होते हैं। नर टाइगर तितली के पिछले छोटे पंखों के नीचे, एक प्रमुख काले और सफ़ेद स्थान भी होते है।
वितरण और पारिस्थितिकी-
टाइगर तितलियाँ, पूरे भारत, श्रीलंका, म्यांमार(Myanmar) और दक्षिण-पूर्व एशिया एवं ऑस्ट्रेलिया (Australia) में पाईं जाती हैं । दक्षिण एशियाई भाग में, यह काफ़ी आम हैं । यह तितली झाड़ियों वाले जंगलों में रहती हैं । साथ ही, सूखे और नम पर्णपाती जंगल, बस्तियों से सटी परती भूमि एवं मध्यम से भारी वर्षा के क्षेत्रों को प्राथमिकता देती है। इसके अलावा, यह निम्न पहाड़ी ढलानों और चोटियों पर भी आम है।
जबकि यह प्रबल उड़ान भर सकती है, यह कभी भी तेज़ी से या उच्च ऊंचाई पर नहीं उड़ती है। यह तितली अपने मेज़बान और अमृत पौधों की तलाश में आगे बढ़ती है। यह बागानों का दौरा करती है, जहां यह एडेलोकॅरियम (Adelocaryum), कॉस्मोस (Cosmos), सेलोसिया (Celosia), लैंटाना (Lantana), ज़िननिया (Zinnia) और इसी तरह के फूलों पर अमृत संग्रहीत करती है।
शिकारियों के खिलाफ़ रक्षा रणनीति-
इस जीनस के सदस्य, चमड़ी वाले होते हैं, मारने के लिए कठिन हैं, और ‘नकली मौत’ का प्रदर्शन भी करते हैं। चूंकि वे गंध और स्वाद में खराब हैं, इसलिए, शिकारी जल्द ही उनको छोड़े देते हैं। फिर वे ठीक हो जाते हैं, और उड़ जाते हैं। ये तितलियाँ, एस्क्लेपियाडेसिए (Asclepiadaceae) परिवार के पौधों से विषाक्त पदार्थों को पृथक करती है। शिकार के तौर पर, अपनी अयोग्यता का प्रदर्शन करने हेतु, इन तितलियों में एक उठावदार रंग पैटर्न के साथ, प्रमुख चिह्न हैं। एक तरफ़, टाइगर तितली की भारतीय तमिल लेसविंग (Indian Tamil lacewing) और लेपर्ड लेसविंग (Leopard lacewing) तथा कॉमन पामफ़्लाई (Common palmfly) मादाओं द्वारा, अपने बचाव हेतु नकल भी की जाती है।
तितलियों का पारिस्थितिक महत्व-
तितलियाँ, अन्य शिकारियों के साथ-साथ, परजीवियों की एक श्रृंखला का समर्थन करती हैं। प्रत्येक तितली, शिकारियों और परजीवियों को रोकने हेतु; एक साथी की खोज करने हेतु; एवं अपने मेज़बान पौधे के रासायनिक बचाव के खिलाफ़ रसायनों का अपना सेट विकसित करती है। इनमें से प्रत्येक रसायन का एक संभावित मूल्य है।
तितलियाँ कई कृषि फ़सलों के लिए केंद्रीय परागणकर्ता हैं। इसके अतिरिक्त, वे पक्षियों, मकड़ियों, छिपकलियों और अन्य जानवरों जैसे शिकारियों के लिए एक खाद्य स्रोत भी है। उनके उज्ज्वल रंग, खराब स्वाद का सुझाव देकर, कुछ संभावित शिकारियों को दूर कर देते हैं।
एक तरफ़, सर्दियों से पहले, नाज़ुक मोनार्क तितली, 2000 मील तक पलायन करती है, जिससे मेक्सिको (Mexico) और कैलिफ़ोर्निया (California) के कुछ हिस्सों में इनकी विशाल कॉलोनियां (Colony) बनती हैं। तितलियों का पृथ्वी पर बहुत लंबा इतिहास है। वैज्ञानिकों ने 40 मिलियन साल प्राचीन तितली जीवाश्मों की खोज की है।
हैरानी की बात है कि, 90% पौधों को प्रजनन के लिए परागणकर्ताओं की आवश्यकता होती है। वर्तमान में, मधुमक्खी की आबादी में गिरावट आई है। इसलिए, तितलियाँ पारिस्थितिक तंत्रों के लिए महत्वपूर्ण साबित हो रही हैं। इसमें शामिल पौधे, बीमारियों के प्रति अधिक प्रतिरोधी हो जाते हैं। इससे उन्हें जीवित रहने का बेहतर मौका मिलता है। तितलियों को उन क्षेत्रों के भीतर हुए थोड़े से परिवर्तनों पर भी प्रतिक्रिया करने के लिए जाना जाता है, जहां वे रहती हैं।
तितलियों के संरक्षण के लिए उठाए गए कदम-
रंगीन और नाजुक तितलियाँ, न केवल सुंदर जीव हैं, बल्कि खाद्य श्रृंखला में एक आवश्यक भूमिका भी निभाती हैं, और साथ ही पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य की संकेतक भी हैं। इनके वर्तमान संरक्षण प्रयासों के तहत, ‘तितली पार्क’ (Butteffly Park) एक नई प्रवृत्ति के रूप में उभर रहे हैं। मध्य प्रदेश में, भोपाल और इंदौर जैसे शहरों में, हाल ही में कुछ तितली पार्क खोले गए हैं। कर्नाटक, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, पंजाब, और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में, पहले से ही ऐसे कई पार्क हैं।
भोपाल के वन विहार नेशनल पार्क में, लगभग 36 विभिन्न तितली प्रजातियां दिखाई देती हैं। यह पार्क, लोगों को तितली संरक्षण के बारे में जागरूक करना चाहता है। वे उनके आगंतुकों को, अपने पिछले आंगन में तितलियों को आकर्षित करने हेतु, अमृत और मेज़बान पौधों को रोपने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। सूरजमुखी, मैरीगोल्ड (Marigold), लैंटाना (Lantana), पेटुनिया (Petunia), हिबिस्कस (Hibiscus) भारत में कुछ सामान्य अमृत पौधे हैं। तितलियाँ भोजन के लिए, इन पौधों पर निर्भर हैं। जबकि, करी पत्ते, कपास के पेड़, कैसिया, साइट्रस, आदि इनके मेज़बान पौधों के कुछ उदाहरण हैं। ये ऐसे पौधे हैं, जहां तितलियाँ अंडे देती हैं, और उनका विकास होता है।
कीटनाशक के उपयोग, वनों की कटाई और जलवायु परिवर्तन में वृद्धि, तितलियों के निवास स्थान के नुकसान के कुछ कारण हैं। जबकि ऐसे पार्कों की संख्या बढ़ रही है, प्रश्न है कि, वे तितलियों का संरक्षण करने में सक्षम हैं या नहीं? हमें तितली पार्कों और तितली-रक्षागृह के बीच अंतर करना चाहिए। ऐसे पार्क, संरक्षण के बजाय, लोगों में जागरूकता और शिक्षा के लिए महान हैं।
शहरी आवासों के साथ-साथ, अधिक जंगली आवासों में संरक्षण और लुप्तप्राय एवं खतरे वाली प्रजातियों के संरक्षण हेतु, तितली-रक्षागृह मूल्यवान हैं। हमें उनके प्रजनन कार्यक्रम को भी अच्छी तरह से सोचना होगा, इसके साथ ही उनके आवासों में प्रयोगशाला में विकसित तितलियों की पर्याप्त रिहाई होनी चाहिए। निवास स्थान, मेज़बान और अमृत पौधों का संरक्षण तथा तितली-रक्षागृह में उनका प्रजनन, एक साथ किया जाना चाहिए।
संदर्भ:
मुख्य चित्र: भारतीय टाइगर तितलियाँ (Wikimedia)
चलिए, जौनपुर के लोगों को कराएं, ‘शिंजुकु ग्योएन नेशनल गार्डन’ की सैर
बागवानी के पौधे (बागान)
Flowering Plants(Garden)
16-03-2025 08:56 AM
Jaunpur District-Hindi

यह कहना बिल्कुल भी गलत नहीं होगा कि हमारे जौनपुर के लोगों को फूलों के बगीचों जैसी सुंदर जगहें बहुत पसंद हैं। आखिरकार, जौनपुर की एक समृद्ध ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि है, जिसके कारण यहाँ के निवासी, हमेशा से ही प्रकृति, शांति और सौंदर्य से पूर्ण मनभावन वातावरण की सराहना करते रहे हैं। आज हम. दुनिया के सबसे प्रसिद्ध फूलों के बगीचों में से एक शिंजुकु ग्यो-एन (Shinjuku Gyo-en) या शिंजुकु ग्योएन नेशनल गार्डन (Shinjuku Gyoen National Garden) के बारे में बात करेंगे, जो कि टोक्यो (Tokyo), जापान (Japan) में शिंजुकु और शिबुया (Shibuya) नामक क्षेत्रों का एक बड़ा सार्वजनिक उद्यान है। यह मूल रूप से एदो काल (Edo period) में नाइतो (Naitō) परिवार का निवास स्थान था और बाद में, 1949 में जनता के लिए खुला। इस बगीचे में 20,000 से अधिक पेड़ हैं, जिनमें लगभग 1,500 चेरी (cherry) के पेड़ शामिल हैं जिन्हें साकुरा (Sakura) भी कहा जाता है । चेरी के पेड़, मार्च के अंत से लेकर अप्रैल की शुरुआत तक खिलते हैं और कभी कभी अप्रैल के अंत तक भी खिल सकते हैं। इस उद्यान में मौजूद अन्य पेड़ों में राजसी हिमालयी देवदार शामिल है , जो बगीचे के बाकी पेड़ों से अधिक ऊँचा होता है । इसके अलावा यहाँ ट्यूलिप (tulip ), सरू (cypresses) आदि के पेड़ भी मौजूद हैं। शिंजुकु ग्योएन नेशनल गार्डन में वास्तव में एक ही स्थान पर मौजूद तीन उद्यान हैं, जिनमें पश्चिमी और जापानी वास्तुकला शैली नज़र आती । इसका फ़्रांसीसी शैली (French style) का औपचारिक क्षेत्र, सबसे रोमांटिक माना जाता है। ऐसा इसलिए है, क्यों कि उद्यान के इस क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में विशेष गुलाब के फूल, मौजूद हैं। बगीचे का यह हिस्सा, वसंत में विशेष रूप से लोकप्रिय होता है जब अधिकांश फूल खिलते हैं। तो आइए, आज हम कुछ चलचित्रों के ज़रिए, यह समझने की कोशिश करेंगे कि यह उद्यान, पर्यटकों के लिए एक प्रमुख आकर्षण क्यों बन गया है। फिर हम, इस उद्यान का पूरा दौरा भी करेंगे। इसके अलावा, हम शिंजुकु ग्योएन नेशनल गार्डन की उन बेहतरीन जगहों के बारे में भी जानेंगे, जहाँ चेरी के फूलों को खिलते हुए देखा जा सकता है।
संदर्भ:
उचित वस्तु या सेवा न मिलने पर, जौनपुर के ग्राहक, कर सकते हैं शिकायत, उपभोक्ता न्यायालय मे
आधुनिक राज्य: 1947 से अब तक
Modern State: 1947 to Now
15-03-2025 09:07 AM
Jaunpur District-Hindi

आप सभी ने 'उपभोक्ता न्यायालय' (Consumer Courts) शब्द के बारे में सुना होगा। उपभोक्ता न्यायालय, भारत में विशेष अदालतें हैं, जो उपभोक्ताओं और व्यवसायों के बीच विवादों का समाधान करती हैं। ये अदालतें, 'उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986' (Consumer Protection Act, 1986) के तहत स्थापित की गईं थीं। ये एक ऐसा मंच हैं जहां यदि उपभोक्ता को लगता है कि विक्रेता ने उसे धोखा दिया है या उसका शोषण किया है, तो वह विक्रेता के खिलाफ़ मामला दर्ज कर सकता है। उपभोक्ता विवादों के लिए एक अलग फ़ोरम रखने का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि ऐसे विवादों का त्वरित समाधान हो और यह कम खर्चीला हो। तो आइए, इस 'विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस' (World Consumer Rights Day) के मौके पर, भारत में उपभोक्ता न्यायालों के विभिन्न स्तरों के बारे में जानते हैं और देश में उपभोक्ता न्यायालों के क्षेत्राधिकार को समझने का प्रयास करते हैं। इसके साथ ही, हम देखेंगे कि इन न्यायालों में आधार पर मामला दायर किया जा सकता है। इसके अलावा, हम भारत में उपभोक्ता आयोगों में शिकायत दर्ज करने से पहले अपनाए जाने वाले विभिन्न चरणों और आवश्यक दस्तावेज़ों के बारे में जानेंगे। अंत में, हम उपभोक्ता आयोग में मामला दायर करने की प्रक्रिया के बारे में जानेंगे।

भारत में उपभोक्ता न्यायालयों के विभिन्न स्तर:
- राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (National Consumer Disputes Redressal Commission (NCDRC)): यह न्यायालय, राष्ट्रीय स्तर पर संचालित होता है और उन मामलों से करता है, जहां दावा किए गए मुआवज़े की राशि, 2 करोड़ रूपये से अधिक होती है। 'राष्ट्रीय आयोग', उपभोक्ता न्यायालयों का सर्वोच्च निकाय है; यह सर्वोच्च अपीलीय अदालत भी है। एन सी डी आर सी (NCDRC), भारत का सर्वोच्च उपभोक्ता न्यायालय है।
- राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (State Consumer Disputes Redressal Commission (SCDRC)): ये न्यायालय, उन मामलों में राज्य स्तर पर काम करते हैं जहां दावा किए गए मुआवज़े की राशि, 50 लाख से 2 करोड़ रुपये के बीच होती है। राज्य आयोग के पास ज़िला फ़ोरम पर अपीलीय क्षेत्राधिकार होता है।
- ज़िला ज़िला उपभोक्ता विवाद निवारण फ़ोरम (District Consumer Disputes Redressal Forum (DCDRF)): ये न्यायालय उन मामलों में करते हैं स्तर पर काम जहां मुआवज़े की राशि, 50 लाख रुपये तक होती है।
भारत में उपभोक्ता न्यायालयों के क्षेत्राधिकार:
न्यायालयों के क्षेत्राधिकार न्यायालयों के पदानुक्रम पर आधारित होते हैं;
आर्थिक क्षेत्राधिकार:
- ज़िला उपभोक्ता विवाद निवारण फ़ोरम का आर्थिक क्षेत्राधिकार, 50 लाख तक की राशि की सुनवाई का है।
- राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग का आर्थिक क्षेत्राधिकार, 50 लाख से 2 करोड़ रुपये से तक की राशि की सुनवाई का है।
- राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग का आर्थिक क्षेत्राधिकार, 2 करोड़ रुपये से अधिक के दावे की राशि का है।

प्रादेशिक क्षेत्राधिकार:
- प्रादेशिक क्षेत्राधिकार के अंतर्गत, शिकायत, उस अदालत में दायर की जा सकती है जो उन स्थानीय सीमाओं के भीतर है जहां;
- जब विरोधी पक्ष, स्वेच्छा से उन स्थानीय सीमाओं में निवास करता है या काम करता है। जहां से कार्य का कारण उत्पन्न हुआ है।
- यह निर्धारित करने के लिए कि कार्रवाई का कारण कहां उत्पन्न होता है, आप अनुबंध कानून पर लागू समान कानून लागू कर सकते हैं।
- जब कोई लेन-देन, ऑनलाइन किया गया तो क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार।
- ऑनलाइन किए गए लेन-देन प्रभावी रूप से क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार को नकारते हैं। इस मामले में, क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार में दावे का कारण उत्पन्न होने वाले कई स्थानों में से किसी एक में हो सकता है, जिसमें वह स्थान भी शामिल है जहां अपीलकर्ता रहता है।
अपीलीय क्षेत्राधिकार:
- यदि कोई उपभोक्ता, ज़िला फ़ोरम के निर्णय से संतुष्ट नहीं है तो वह राज्य आयोग में अपील कर सकता है।
- यदि उपभोक्ता, राज्य आयोग द्वारा लिए गए निर्णय से व्यथित है तो वह राष्ट्रीय आयोग में अपील कर सकता है।
- यदि कोई उपभोक्ता, राष्ट्रीय आयोग द्वारा दिए गए निर्णय से संतुष्ट नहीं है तो वह अपील के लिए, सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है।
उपभोक्ता न्यायालय में मामला दायर करने का आधार:
- सेवा प्रदाता द्वारा अनुचित या प्रतिबंधात्मक व्यापार व्यवहार को अपनाना;
- दोषपूर्ण सामान, चाहे शिकायतकर्ता ने उसे खरीदा लिया हो या शिकायतकर्ता उसे खरीदने के लिए प्रतिबद्ध हो;
- सेवाओं में कमी, चाहे किराए पर ली गई हो या किराए पर लेने पर सहमति हुई हो;
- वस्तुओं या सेवाओं की उस कीमत से अधिक कीमत वसूलना, जो कानून द्वारा तय की गई हो, वस्तुओं की पैकेजिंग पर प्रदर्शित हो, प्रदर्शित मूल्य सूची पर हो या पार्टियों के बीच सहमति हुई हो;
- ऐसे खतरनाक सामान या सेवाओं को बेचना या बेचने की पेशकश करना, जो उपयोग किए जाने पर जीवन और सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करते हैं।

उपभोक्ता आयोगों में शिकायत दर्ज करने से पहले अपनाए जाने वाले चरण:
उपभोक्ता फ़ोरम में शिकायत दर्ज करने से पहले नीचे दी गई तीन-चरणीय प्रक्रिया का पालन करना होगा:
चरण 1: नोटिस के माध्यम से सूचना देना (वैकल्पिक चरण)
पीड़ित व्यक्ति को सेवा प्रदाता को एक नोटिस भेजना होगा जिसमें उन्हें सामान में दोष, सेवा में कमी और मुकदमेबाज़ी का सहारा लेने के उपभोक्ता के इरादे के बारे में सूचित करना होगा।
चरण 2: उपभोक्ता द्वारा शिकायत का मसौदा तैयार करना
यदि सेवा प्रदाता मुआवज़ा या कोई अन्य उपाय नहीं देता है, तो उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के तहत एक औपचारिक शिकायत का मसौदा तैयार किया जाना चाहिए। शिकायत में शामिल होना चाहिए:
- शिकायतकर्ता(ओं) और विपरीत पक्ष का नाम, विवरण और पता।
- कार्रवाई का कारण, अनुमानित तिथि, समय और स्थान।
- कार्रवाई के कारण से संबंधित प्रासंगिक तथ्य।
- शिकायतकर्ता द्वारा दावा की गई राहत या उपाय।
- शिकायतकर्ता या अधिकृत एजेंट द्वारा हस्ताक्षर और सत्यापन।
चरण 3: कुछ दस्तावेज़ एकत्र करना
मामले का समर्थन करने वाले भौतिक साक्ष्य वाले प्रासंगिक दस्तावेज़ एकत्र किए जाने चाहिए। इन दस्तावेज़ों में शामिल हो सकते हैं:
- अधिनियम के दिशानिर्देशों के अनुसार तैयार की गई उपभोक्ता शिकायत,
- बिल, रसीदें, वारंटी/गारंटी प्रमाणपत्र जैसे भौतिक साक्ष्य की प्रतियां,
- सेवा प्रदाता को भेजी गई लिखित शिकायतों और नोटिस की प्रतियां,
- शपथ-पत्र जिसमेंमें बताया गया हो कि प्रस्तुत तथ्य सत्य हैं।
उपभोक्ता को भुगतान किए गए प्रतिफल के आधार पर एक निर्धारित शुल्क का भुगतान करना होता है। इसके अलावा, सुनिश्चित करें कि शिकायत कारण उत्पन्न होने की तारीख से दो साल के भीतर दर्ज की गई है।
किसी भी उपभोक्ता आयोग में मामला कैसे दाखिल करें:
उपभोक्ता अपनी शिकायत निम्नलिखित दो तरीकों से दर्ज कर सकते हैं:
- संबंधित जिला आयोग में सीधे ऑफ़लाइन, या
- ई-दाखिल पोर्टल (edakhil.nic.in) के माध्यम से ऑनलाइन
ई-दाखिल पोर्टल पर केस दर्ज करने के लिए निम्नलिखित दस्तावेज़ अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं:
- शिकायत का सूचकांक,
- शिकायत की परिस्थितियों का वर्णन करने वाली तारीखों और घटनाओं की सूची,
- पार्टियों का ज्ञापन जिसमें शिकायतकर्ता के साथ-साथ विपक्षी पार्टी का नाम और पता भी शामिल हो,
- शिकायतकर्ता के सत्यापन और शपथ पत्र द्वारा समर्थित शिकायत,
- रसीदें, भुगतान का प्रमाण, अनुबंध, यदि कोई हो, आदि जैसे सहायक दस्तावेज़ अवश्य संलग्न करें। सभी अनुलग्नकों को नाम और हस्ताक्षर के साथ अंतिम पृष्ठ पर सच्ची प्रति के रूप में सत्यापित किया जाना चाहिए।
संदर्भ:
मुख्य चित्र स्रोत : Wikimedia
पहाड़ों से लेकर मैदानों तक होली मनाने के हैं, गहरे दार्शनिक, ज्योतिषीय और सांस्कृतिक अर्थ
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
14-03-2025 09:20 AM
Jaunpur District-Hindi

रंग बरसे, भीगे चुनर वाली,
होली की मस्ती छाई निराली।
उत्तर प्रदेश के अन्य हिस्सों की तरह, जौनपुर में भी होली को बड़े ही हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। इस दौरान, सैकड़ों लोग, सड़कों पर इकट्ठा होते हैं, एक-दूसरे पर रंग-बिरंगे गुलाल डालते हैं, नाचते-गाते हैं और होली से एक दिन पहले होलिका दहन भी करते हैं।लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि हम यह त्योहार क्यों मनाते हैं? आज के इस लेख में, हम होली मनानेके पीछे के कारणों को विस्तार से समझेंगे।साथ ही, हम होली की उत्पत्ति और इतिहास पर भी चर्चा करेंगे।फिर हम, इस त्योहार में रंगों के महत्व को जानने का प्रयास करेंगे।इसके अलावा, हम इसके ज्योतिषीय महत्व पर भी प्रकाश डालेंगे।अंत में, हम यह जानेंगे कि, भारत के अलग-अलग हिस्सों में होली कैसे मनाई जाती है।साथ ही, विभिन्न राज्यों में इस त्योहार के अलग-अलग नामों के बारे में भी जानेंगे।
आइए, सबसे पहले यह जानते हैं कि हम होली क्यों मनाते हैं?
भारत में होली गर्मियों की शुरुआत और सर्दियों के अंत का प्रतीक मानी जाटी है। यह प्यार, उमंग और नई फसल के स्वागत का त्योहार भी है। होली हिंदू कैलेंडर के फाल्गुन महीने की पूर्णिमा को मनाया जाता है, जो ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार मार्च के मध्य में आता है।
होली का उत्सव एक रात और एक दिन तक चलता है। पहले दिन को होलिका दहन या छोटी होली कहा जाता है, जिसमें पवित्र अग्नि जलाकर बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न मनाया जाता है। दूसरे दिन को रंगवाली होली कहते हैं! इसे देश के अलग-अलग हिस्सों में डोल पूर्णिमा, धुलंडी, उकुली, मंजल कुली, योसांग, शिग्मो, फगवा और जजीरी जैसे नामों से भी जाना जाता है। इस दिन लोग रंगों से खेलते हैं और खुशियां मनाते हैं।
दार्शनिक अर्थों में होली बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व भी मानी जाती है।इसके अलावा यह भगवान कृष्ण और राधा के दिव्य प्रेम का भी प्रतीक है।साथ ही, होली वसंत के आगमन और सर्दियों के अंत का स्वागत करने वाला एक फसल उत्सव भी है।हिंदू धर्म में इससे जुड़ी एक अत्यंत रोचक किवदंती प्रचलित है! हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार,भगवान कृष्ण का रंग सांवला था जबकि राधा रानी अत्यंत गोरी थीं।श्री कृष्ण त्वचा के रंग को लेकर कृष्ण शंकित रहते थे और सोचते थे कि राधा उन्हें स्वीकार करेंगी या नहीं? उन्होंने अपनी मां यशोदा से इस बारे में शिकायत की।माँ यशोदा ने हंसते हुए सुझाव दिया कि वे राधा के चेहरे पर रंग लगा दें।श्री कृष्ण ने ऐसा ही किया और गुलाल से राधा का चेहरा रंग दिया।मान्यता है कि तभी से रंगों के साथ होली मनाने की परंपरा शुरू हुई।
होली का ज्योतिषीय महत्व क्या है?
होली का पर्व फाल्गुन महीने में आता है।इस समय सूर्य कुंभ राशि में पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र में होते हैं, जबकि चंद्रमा सिंह राशि में पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में स्थित होता है। यह स्थिति ज्योतिषीय दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है।सिंह राशि में स्थित चंद्रमा अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करता है और सूर्य के दिव्य प्रकाश के कारण किसी नकारात्मक प्रभाव में नहीं आता।सूर्य के प्रकाश से नकारात्मक ऊर्जा नष्ट होती है और सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित होती है।
होली के दिन वास्तु शांति यज्ञ, हनुमान पूजा और भगवान विष्णु की आराधना करना अत्यंत शुभ माना जाता है। ग्रहों की स्थिति भी इस दिन विशेष महत्व रखती है।बृहस्पति को सूर्य के नक्षत्र का स्वामी और शुक्र को चंद्रमा के नक्षत्र का स्वामी माना जाता है।ये दोनों ग्रह ज्ञान और शिक्षा के प्रतीक होते हैं।बृहस्पति देवगुरु का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि शुक्र असुरगुरु का प्रतिनिधित्व करता है।इस कारण होली का पर्व आध्यात्मिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण माना जाता है। पूरे भारत में इस पर्व को अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है। हर राज्य की अपनी परंपराएं और अनोखे रंग होते हैं।
आइए जानते हैं कि, विभिन्न राज्यों में होली के उत्सव को कैसे मनाया जाता है?
1) रंग पंचमी, महाराष्ट्र: महाराष्ट्र में होली को "रंग पंचमी" के रूप में मनाया जाता है। इस दिन, लोग रंग-बिरंगे गुलाल उड़ाते हैं, ढोल-नगाड़ों की थाप पर नाचते-गाते हैं और पारंपरिक मिठाइयों व नमकीन व्यंजनों का आनंद लेते हैं। महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में सड़कों पर गीत-संगीत और वाद्ययंत्र बजाने की अनूठी परंपरा भी देखने को मिलती है।
2) होला मोहल्ला, पंजाब: पंजाब में "होला मोहल्ला", एक अनोखा उत्सव है, जिसमें मार्शल आर्ट, घुड़सवारी और कविता पाठ का प्रदर्शन किया जाता है। यह उत्सव, खासतौर पर निहंग सिखों की बहादुरी को श्रद्धांजलि देने के लिए मनाया जाता है। इस कार्यक्रम के बाद, रंगों, संगीत और नृत्य का आयोजन किया जाता है, जिससे यह त्योहार, और भी उत्साहपूर्ण बन जाता है।
3) शिग्मो, गोवा: गोवा में होली को "शिग्मो" कहा जाता है। यहाँ पर होली सिर्फ रंगों का त्योहार ही नहीं, बल्कि एक भव्य कार्निवल भी है। पारंपरिक लोकगीतों और सड़क नृत्यों के साथ इसे बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। मछुआरे, अपनी नावों को धार्मिक और पौराणिक चित्रों से सजाते हैं। इस उत्सव के दो रूप होते हैं—'धाक्तो शिग्मो' (छोटा शिग्मो), जिसे ग्रामीण किसान और मज़दूर मनाते हैं, और 'वधलो शिग्मो' (बड़ा शिग्मो), जो सभी लोगों द्वारा बड़े स्तर पर मनाया जाता है।
4) कुमाऊँनी होली, उत्तराखंड: उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में होली एक संगीतमय उत्सव के रूप में मनाई जाती है। यह त्योहार, कई महीनों तक चलता है और खासतौर पर लोकगीतों और भजन संध्याओं का आयोजन किया जाता है। रंगों की तुलना में संगीत का अधिक महत्व होता है। किसानों के लिए, यह बुवाई के मौसम की शुरुआत का प्रतीक होता है।
5) धुलेटी, गुजरात: गुजरात में होली को "धुलेटी" कहा जाता है। लोग पारंपरिक नृत्य और संगीत के साथ, जुलूस में भाग लेते हैं और एक-दूसरे पर रंग उड़ाते हैं। होलिका दहन के दौरान, राक्षसी होलिका के पुतले जलाए जाते हैं, जो बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। साथ ही, लोग पारंपरिक मिठाइयों और व्यंजनों का स्वाद लेते हैं। पूरे भारत में यह त्योहार उत्साह और जोश के साथ मनाया जाता है, जो देश की सांस्कृतिक विविधता और एकता को दर्शाता है।
6) डोल जात्रा, पश्चिम बंगाल: पश्चिम बंगाल में होली को "डोल जात्रा" कहा जाता है। यह उत्सव, भगवान कृष्ण की पूजा के साथ शुरू होता है, जिन्हें रंगों से खेलने की परंपरा का प्रेरणास्रोत माना जाता है। लोग पारंपरिक लोकगीतों पर नाचते-गाते हैं और एक-दूसरे पर गुलाल लगाते हैं। कुछ स्थानों पर "फूल डोल" या "फूलों की लड़ाई" भी होती है, जिसमें लोग रंगों की जगह फूल बरसाते हैं। होली पूरे भारत में अलग-अलग तरीकों से मनाई जाती है, लेकिन इसकी भावना एक ही रहती है—”प्यार, खुशी और उल्लास फैलाना”।
संदर्भ:
मुख्य चित्र स्रोत : Pexels
गोमती तट सफ़ाई अभियान से वाकिफ़ जौनपुर,देखिये हमारे समुंद्री तटों पर सफ़ाई व सुरक्षा का स्तर
समुद्र
Oceans
13-03-2025 09:15 AM
Jaunpur District-Hindi

समुद्र तट पर घूमने की बात करें, तो यह कोई हैरान करने वाली बात नहीं होगी कि जौनपुर के कुछ लोग अपनी ज़िंदगी में कम से कम एक बार समुद्र तट पर गए होंगे। भारत में समुद्री पर्यटन (Ocean Tourism) एक बहुत बढ़ता हुआ उद्योग है। यह पर्यटकों को समुद्र तटों, कोरल रीफ़्स (Coral Reefs) और झीलों पर आकर्षित करता है। यह तटीय इलाकों और सरकार के लिए बहुत ज़्यादा आय का स्रोत है।
आज हम अपने देश के समुद्री पर्यटन के बारे में जानने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले, हम यह जानेंगे कि भारत के तटीय इलाकों में कितने पर्यटक आते हैं। फिर, हम यह जानेंगे कि भारत के कौन से तटीय राज्य सबसे ज़्यादा पर्यटकों को आकर्षित करते हैं, चाहे वह स्थानीय हों या विदेशी। इसके बाद, हम भारत के कुछ सबसे लोकप्रिय समुद्र तटों के बारे में बात करेंगे। अंत में, हम यह भी जानेंगे कि भारत के समुद्र तटों पर कचरा प्रबंधन और स्वच्छता को बेहतर बनाने के लिए कौन-कौन से प्रयास किए जा रहे हैं।
भारत का समुद्री पर्यटन
भारत का समुद्री पर्यटन बहुत खास है, क्योंकि यहाँ के समुद्र तट, कोरल रीफ़, मैनग्रोव जंगल और तटीय पारिस्थितिकी तंत्र बहुत विविध हैं। गोवा, जो 101 किलोमीटर लंबा समुद्र तट है, हर साल 7 मिलियन से ज़्यादा पर्यटकों को आकर्षित करता है। इससे राज्य को बहुत आय होती है।
पुदुचेरी (Puducherry) , जो फ़्रांस के प्रभाव से प्रेरित है, यहाँ के सुंदर समुद्र तट जैसे पैराडाइस बीच (Paradise Beach) के कारण, हर साल 2 मिलियन से ज़्यादा पर्यटकों को आकर्षित करता है। यहाँ पर तटीय संस्कृति का बहुत अच्छा मिश्रण देखने को मिलता है। महाराष्ट्र का मालवण, जो अपने सिंधुदुर्ग किले और समुद्री जीवन के लिए प्रसिद्ध है, लगभग 3 लाख पर्यटकों को आकर्षित करता है जो साहसिक यात्रा और सांस्कृतिक अनुभव के लिए आते हैं।
भारत के तटीय पानी में समुद्री जीवन की बहुत विविधता है। यह समुद्र प्रेमियों और प्रकृति प्रेमियों के लिए स्वर्ग जैसा है। अंडमान और निकोबार द्वीप, जहाँ दुनिया के सबसे विविध कोरल पारिस्थितिकी तंत्र हैं, हर साल 5 लाख से ज़्यादा पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। मन्नार की खाड़ी, जो यूनेस्को बायोस्फ़ीयर रिज़र्व (UNESCO Biosphere Reserve) है, लगभग 2 लाख पर्यटकों को आकर्षित करती है। यहाँ के अद्भुत समुद्री जीवन को देखने के लिए लोग आते हैं, जिसमें लुप्तप्राय डुगोंग भी शामिल है।
साहसिक पर्यटन (Adventure Tourism)
भारत के समुद्र के किनारे पर बहुत सारे साहसिक खेलों के लिए मौके हैं। लक्षद्वीप जैसे स्थानों पर बहुत सारे लोग आते हैं, जो पानी में साहसिक गतिविधियाँ करना चाहते हैं। अंडमान द्वीपों में स्कूबा डाइविंग और स्नॉर्कलिंग जैसी गतिविधियाँ काफी लोकप्रिय हैं। इन गतिविधियों से हर साल 10 मिलियन डॉलर से ज़्यादा की कमाई होती है, जो न केवल लोगों के लिए रोज़गार लाती है, बल्कि यह स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी मदद करती है।
भारत के शीर्ष 5 तटीय राज्यों का 2015 में विदेशी पर्यटकों के आगमन में योगदान
क्र.सं. | राज्य | संख्या | प्रतिशत (%) |
1 | तमिल नाडु | 46,84,707 | 20.1 |
2 | महाराष्ट्र | 44,08,916 | 18.9 |
3 | पश्चिम बंगाल | 14,89,500 | 6.4 |
4 | केरल | 9,77,479 | 4.2 |
5 | कर्नाटका | 6,36,502 | 2.7 |
भारत के शीर्ष 5 तटीय राज्यों का 2015 में घरेलू पर्यटकों के आगमन में योगदान
क्र.सं. | राज्य | संख्या | प्रतिशत (%) |
1 | तमिल नाडु | 33,34,59,047 | 23.3 |
2 | महाराष्ट्र | 12,15,91,054 | 8.5 |
3 | पश्चिम बंगाल | 11,98,63,942 | 8.4 |
4 | केरल | 10,34,03,934 | 7.2 |
5 | कर्नाटका | 7,01,93,450 | 4.9 |
भारत के कुछ सबसे प्रसिद्ध समुद्र तट
1.) तरकर्ली बीच, महाराष्ट्र (Tarkarli Beach, Maharashtra) - डाइविंग के लिए सबसे अच्छा:
तरकर्ली बीच, जो महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग में स्थित है, एक सुंदर और शांत समुद्र तट है। यह गोवा के भीड़-भाड़ वाले समुद्र तटों से कुछ घंटों की दूरी पर है। यहां से आप प्रसिद्ध सिंधुदुर्ग किला भी देख सकते हैं। यह एक ऐसा स्थान है जहाँ आप डाइविंग सीख सकते हैं और समुद्र की गहरी पानी में मौजूद दुर्लभ समुद्री जीवन को देख सकते हैं।
2.) राधानगर बीच, अंडमान और निकोबार द्वीप (Radhanagar Beach, Andaman & Nicobar Island) - पोस्टकार्ड जैसा सुंदर तट:
अंडमान द्वीप, जो दुनिया के सबसे दूरस्थ स्थानों में से एक हैं, अपने सुंदर समुद्र तटों के लिए प्रसिद्ध हैं। राधानगर बीच, हैवलॉक द्वीप पर स्थित, एक स्वप्निल तट है। यहां के सफेद रेत, नीले पानी, रंगीन कोरल और हिलते हुए नारियल के पेड़, इसे एक आदर्श उष्णकटिबंधीय पर्यटन बनाते हैं।
3.) औरोविले बीच, पुडुचेरी (Auroville Beach, Puducherry) - सर्फ़िंग के लिए सबसे अच्छा:
“औरो बीच” पुडुचेरी के औरोविले में स्थित है और यह सर्फ़िंग के शौकिनों के बीच बहुत प्रसिद्ध है। यहां के साफ और उथले पानी में पैडलिंग करने के लिए आदर्श स्थिति है। साथ ही, यहां के समुद्र तट के पास अच्छे रेस्तरां हैं, जहां आप सर्फ़िंग के बाद ऊर्जा पा सकते हैं। इस बीच से पुडुचेरी का प्रसिद्ध लाइटहाउस भी दिखता है, जो सूर्यास्त के समय शानदार दृश्य प्रस्तुत करता है।
4.) कैलंगुटे बीच, गोवा (Calangute Beach, Goa):
कैलंगुटे बीच, जिसे “गोवा का राजा” भी कहा जाता है, एक जीवंत और सुंदर समुद्र तट है। यहां आप पैरासेलिंग, जेट-स्कीइंग जैसे पानी के खेलों का आनंद ले सकते हैं। यह समुद्र तट नॉर्थ गोवा का सबसे बड़ा समुद्र तट है और पर्यटकों के बीच बहुत लोकप्रिय है। मानसून के बाद यहां पानी के खेलों का मज़ा लें।
5.) मिनिकॉय आइलैंड बीच, लक्षद्वीप द्वीपसमूह (Minicoy Island Beach, Lakshwadeep Inslands):
लक्षद्वीप द्वीपसमूह का हिस्सा मिनिकॉय आइलैंड, एक शांत और सुंदर स्वर्ग है। यहां के साफ पानी, रंगीन कोरल और दक्षिण भारतीय तथा मालदीव संस्कृति का अद्भुत मेल है। आप यहां के पारंपरिक लावा नृत्य का आनंद ले सकते हैं और प्राचीन लाइटहाउस से सुंदर दृश्य देख सकते हैं।
6.) कन्याकुमारी बीच (Kanyakumari Beach):
कन्याकुमारी बीच, अपनी रंग-बिरंगी रेत और भारत के दक्षिणी सिरे पर स्थित होने के कारण प्रसिद्ध है। यहां पर आप बंगाल की खाड़ी, अरब सागर और भारतीय महासागर के मिलन का दृश्य देख सकते हैं। यह समुद्र तट सूर्योदय और सूर्यास्त देखने के लिए एक जादुई स्थान है और पास में स्थित विवेकानंद रॉक मेमोरियल इसकी सुंदरता को और बढ़ाता है।
समुद्र तटों पर कचरा प्रबंधन और सफ़ाई के लिए किए जा रहे प्रयास
हमारे समुद्र तटों को साफ़ और सुरक्षित रखने के लिए कई सफ़ाई अभियान चलाए जा रहे हैं। इन सफ़ाई अभियानों में लोग अपने समुद्र तटों को स्वच्छ बनाने के लिए सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। इसके अलावा, शहरी स्थानीय निकाय (ULBs) लोगों को यह समझाने के लिए विभिन्न जागरूकता कार्यक्रम भी चलाते हैं कि समुद्र तटों और समुद्री जीवन की सुरक्षा क्यों जरूरी है।
भारत में 12 समुद्र तट हैं जिन्हें ‘ब्लू फ्लैग’ प्रमाणपत्र मिला है, यानी ये समुद्र तट सफ़ाई , सुरक्षा और पर्यावरण की दृष्टि से बहुत अच्छे हैं। इनमें ओडिशा का गोल्डन बीच, गुजरात का शिवराजपुर बीच, केरल का कप्पाद बीच, दीव का घोघला बीच, अंडमान-निकोबार का राधानगर बीच, कर्नाटका के कासडगोड और पदुबिद्री बीच, आंध्र प्रदेश का रुशिकोंडा बीच, तमिलनाडु का कोवलम बीच, पुडुचेरी का एडन बीच, और लक्षद्वीप के मिनिकॉय थंडी और कदमत बीच शामिल हैं।
मुंबई से लेकर विशाखापत्तनम, चेन्नई और ओडिशा तक, समुद्र तटों को साफ़ रखने के लिए कई जगहों पर अभियान चलाए जा रहे हैं। इन अभियानों में आम लोग और कई बड़े संगठन भी शामिल हो रहे हैं।
उदाहरण के लिए, युवा पर्यटन, क्लब मुंबई में समुद्र तटों से प्लास्टिक हटाने के लिए सफ़ाई अभियान चला रहा है। अफ़रोज़ शाह फ़ाउंडेशन भी इस तरह के कई अभियानों में शामिल है। हाल ही में, उन्होंने वर्सोवा बीच पर सफ़ाई की, जिसमें 80,000 किलो कचरा और 7000 से ज़्यादा गणेश प्रतिमाएं निकाली गईं।
मुंबई में प्रोजेक्ट मुंबई के “जललोष-क्लीन कोस्ट्स” अभियान में भी समुद्र तटों, नदियों और मैंग्रोव जंगलों की सफ़ाई की गई। इस अभियान में 16,000 किलो से ज़्यादा कचरा इकट्ठा किया गया। इसके अलावा, यह संगठन कई समुदाय-आधारित कार्यक्रम भी चलाता है, ताकि लोग साफ-सफ़ाई में भाग लें।
संदर्भ:
मुख्य चित्र स्रोत : flickr
संस्कृति 1961
प्रकृति 733