जौनपुर - शिराज़-ए-हिंद












जौनपुरवासियों, जानिए कैसे कृत्रिम फाइबर भारत के वस्त्र भविष्य को बदल रहे हैं!
स्पर्शः रचना व कपड़े
Touch - Textures/Textiles
13-10-2025 09:27 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों, क्या आपने कभी सोचा है कि जिस कपड़े को हम रोज़ पहनते हैं, वह केवल एक परिधान नहीं, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था, तकनीक और रोज़गार का आधार बन चुका है? बदलते भारत में कपड़ा उद्योग अब सिर्फ पारंपरिक करघों या हाथों से बुने धागों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (Artificial Intelligence), ऑटोमेशन (Automation) और नवाचार जैसे अत्याधुनिक पहलू जुड़ चुके हैं। यह उद्योग अब लाखों लोगों की आजीविका का साधन है और भारत को वैश्विक बाज़ार में एक नई पहचान दिला रहा है। भारत आज मानव-निर्मित टेक्सटाइल फाइबर (Man-Made Textile Fibers) जैसे पॉलिएस्टर (Polyester), विस्कोस (Viscose) और ऐक्रेलिक (Acrylic) के उत्पादन में दुनिया के शीर्ष देशों में गिना जाता है। इन कृत्रिम रेशों से बने वस्त्र न केवल देश में बिकते हैं, बल्कि विदेशों में भी भारत की गुणवत्ता, डिज़ाइन और टिकाऊपन की पहचान बन चुके हैं। यह उद्योग 4.5 करोड़ से अधिक लोगों को सीधा रोज़गार देता है और इससे जुड़े छोटे-बड़े उद्योगों में 10 करोड़ से अधिक लोग कार्यरत हैं। जौनपुर जैसे शहर, जहाँ एक ओर पारंपरिक कशीदाकारी, जरदोज़ी और बुनाई की समृद्ध विरासत रही है, वहीं दूसरी ओर यहां की नई पीढ़ी तकनीक आधारित भविष्य की संभावनाओंको भी तलाश रही है। स्थानीय स्तर पर यदि प्रशिक्षण, निवेश और सरकारी योजनाओं से समर्थन मिले, तो जौनपुर भी कृत्रिम वस्त्र उद्योग की इस राष्ट्रीय यात्रा में अपना मुकाम बना सकता है।
इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि भारत में मानव-निर्मित टेक्सटाइल फाइबर का उत्पादन किस स्तर पर है और इसके प्रमुख प्रकार कौन-कौन से हैं। फिर हम भारत के निर्यात क्षेत्र में इसकी स्थिति, चुनौतियाँ और वैश्विक मांग के बारे में बात करेंगे। इसके बाद, हम यह समझेंगे कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) कैसे वस्त्र उद्योग को आधुनिकता की ओर ले जा रहा है। फिर, हम जानेंगे कि सरकार की कौन-कौन सी योजनाएँ इस क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए सक्रिय हैं। अंत में, हम भारत के कुछ प्रमुख वस्त्र निर्माण शहरों के योगदान पर एक नज़र डालेंगे।
भारत में मानव-निर्मित टेक्सटाइल फ़ाइबरों की वर्तमान स्थिति
भारत आज मानव-निर्मित टेक्सटाइल फ़ाइबरों (एमएमएफ - MMF) के क्षेत्र में एक मज़बूत वैश्विक खिलाड़ी बन चुका है। वर्तमान में भारत इस क्षेत्र में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है, जो इस बात का प्रमाण है कि टेक्सटाइल उद्योग किस तेज़ी से तकनीकी रूप से उन्नत और सशक्त हो रहा है। भारत हर साल लगभग 1700 मिलियन (million) किलोग्राम कृत्रिम रेशे और 3400 मिलियन किलोग्राम कृत्रिम धागे (filaments) का उत्पादन करता है। इनसे तैयार होने वाले कपड़े की कुल मात्रा 35,000 मिलियन वर्ग मीटर से भी अधिक है, जो एक विशाल उद्योग क्षमता का परिचायक है। भारत में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय रेशे पॉलिएस्टर और विस्कोस हैं, लेकिन साथ ही ऐक्रेलिक और पॉलीप्रोपाइलीन (Polypropylene) जैसे रेशों की मांग भी तेज़ी से बढ़ रही है। ये सभी फाइबर अब फैशन, होम टेक्सटाइल्स (home textiles), औद्योगिक उपयोग और स्पोर्ट्सवेयर (sportwear) तक हर क्षेत्र में उपयोग हो रहे हैं। इस सफलता के पीछे सबसे बड़ा कारण है भारत में इस्तेमाल हो रही अत्याधुनिक मशीनें और तकनीक, जो उत्पादन की गुणवत्ता, स्थिरता और गति - तीनों में सुधार लाती हैं। इनका परिणाम है कि भारत आज वैश्विक कंपनियों के लिए एक भरोसेमंद उत्पादन केंद्र बनता जा रहा है।
कृत्रिम वस्त्रों के निर्यात में भारत की स्थिति और चुनौतियाँ
भारत का टेक्सटाइल निर्यात क्षेत्र पिछले कुछ दशकों में तेज़ी से विकसित हुआ है और विशेष रूप से मानव-निर्मित वस्त्रों की माँग में निरंतर वृद्धि देखी गई है। वर्तमान में भारत से हर साल लगभग 6 बिलियन (billion) अमेरिकी डॉलर मूल्य के एमएमएफ टेक्सटाइल्स का निर्यात किया जाता है, जो भारत के कुल वस्त्र निर्यात का लगभग 30% हिस्सा है (परिधानों को छोड़कर)। पॉलिएस्टर और विस्कोस जैसे रेशों में भारत का निर्यात लगातार बढ़ा है, जिससे देश की वैश्विक उपस्थिति भी मज़बूत हुई है। हालांकि 2015 के बाद वैश्विक आर्थिक सुस्ती और 2020 में आई कोविड-19 (Covid-19) महामारी के कारण निर्यात में ठहराव आया, लेकिन भारतीय टेक्सटाइल उद्योग ने जल्द ही अपनी स्थिति संभाल ली। भारत की ताकत इसकी स्वदेशी और आत्मनिर्भर आपूर्ति श्रृंखला (supply chain) है, जिसमें कच्चे माल से लेकर कपड़ा निर्माण तक की पूरी प्रक्रिया देश के भीतर ही होती है। इससे गुणवत्ता पर नियंत्रण, समय की बचत और प्रतिस्पर्धी मूल्य जैसी विशेषताएँ सुनिश्चित होती हैं। भारत सरकार ने अब लक्ष्य रखा है कि 2029-30 तक वस्त्र निर्यात को 100 बिलियन डॉलर तक पहुँचाया जाए, जिसमें मानव-निर्मित टेक्सटाइल्स का योगदान 12 बिलियन डॉलर तक होगा। यह संकेत है कि भारत आने वाले वर्षों में वैश्विक बाज़ार में और अधिक मज़बूती से खड़ा होने वाला है।

भारतीय वस्त्र उद्योग में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का बढ़ता उपयोग
वस्त्र उद्योग में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) का आगमन अब केवल भविष्य की कल्पना नहीं, बल्कि वर्तमान की आवश्यकता बन गया है। एआई अब केवल डिज़ाइन तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उत्पादन, गुणवत्ता नियंत्रण, आपूर्ति प्रबंधन और ग्राहकों की पसंद को समझने तक इसका उपयोग हो रहा है। एआई आधारित स्वचालन से फैब्रिक की गुणवत्ता की जाँच पहले से कई गुना तेज़ और सटीक हो गई है। छोटे-छोटे दोष जिन्हें पहले पकड़ना मुश्किल होता था, अब स्वचालित प्रणाली उन्हें तुरंत चिन्हित कर सकती है। इससे उत्पाद की क्वालिटी (quality) और ब्रांड वैल्यू (brand value) दोनों में वृद्धि होती है। एआई के माध्यम से डिज़ाइनर अब कस्टमाइज़्ड (customized) उत्पाद और ट्रेंड (trend) आधारित डिज़ाइन बना पा रहे हैं। ग्राहक के व्यवहार और डेटा का विश्लेषण कर एआई यह समझता है कि अगले सीज़न (season) में कौन-से डिज़ाइन चलन में रहेंगे, जिससे उत्पादन और बिक्री दोनों में लाभ होता है। सबसे अहम बात यह है कि एआई अब पर्यावरणीय स्थिरता में भी बड़ा योगदान दे रहा है। एआई की सहायता से संसाधनों का बेहतर प्रबंधन होता है, जिससे ऊर्जा की बचत, कच्चे माल की बर्बादी में कमी और कम कार्बन उत्सर्जन (carbon emissions) सुनिश्चित होता है। इस तरह एआई तकनीक, भारत को एक जिम्मेदार और भविष्य उन्मुख वस्त्र राष्ट्र बनाने में मदद कर रही है।
सरकारी योजनाएं और नीतियाँ जो वस्त्र उद्योग को दे रही हैं गति
भारत सरकार ने वस्त्र उद्योग की संभावनाओं को देखते हुए कई योजनाएं शुरू की हैं जो इसे वैश्विक मंच पर प्रतिस्पर्धी बनाए रखने में मदद करती हैं। पीएम मित्र योजना (PM MITRA - Prime Minister Mega Integrated Textile Region and Apparel Parks) के अंतर्गत देश में 7 विशाल टेक्सटाइल पार्क बनाए जा रहे हैं। इन पार्कों का उद्देश्य पूरे उत्पादन चक्र (फाइबर से लेकर तैयार वस्त्र तक) को एक ही जगह पर उपलब्ध कराना है, जिससे निवेशक आकर्षित हों और औद्योगिक प्रक्रिया अधिक सुदृढ़ और केंद्रित बने। पीएलआई स्कीम (PLI - Production Linked Incentive Scheme) वस्त्र कंपनियों को बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए प्रोत्साहन देती है। इस योजना के तहत दो स्तर की श्रेणियाँ बनाई गई हैं, जिनमें से बड़ी कंपनियों को अधिक निवेश और कारोबार के आधार पर अधिक प्रोत्साहन मिल सकता है। अब तक 64 टेक्सटाइल कंपनियों को इस योजना के तहत लाभ के लिए चुना गया है। एनटीटीएम (NTTM - National Technical Textiles Mission) का केंद्र-बिंदु तकनीकी वस्त्रों (Technical Textiles) पर है - जैसे कि मेडिकल (medical), कृषि, स्पोर्ट्स (sports), ऑटोमोबाइल (automobile) और रक्षा क्षेत्र में उपयोग होने वाले फैब्रिक। इस योजना का उद्देश्य देश में बायोडिग्रेडेबल फैब्रिक (Biodegradable Fabric), स्वदेशी मशीनों और नई तकनीकों का विकास करना है। इन योजनाओं के ज़रिए भारत न केवल उत्पादन कर रहा है, बल्कि नवाचार और अनुसंधान के क्षेत्र में भी तेज़ी से अग्रसर हो रहा है।

भारत के प्रमुख वस्त्र निर्माण शहर और उनका योगदान
भारत के विभिन्न क्षेत्र विशेष वस्त्र उत्पादों के लिए प्रसिद्ध हैं और ये मिलकर पूरे देश की टेक्सटाइल छवि को आकार देते हैं।
- करूर (तमिलनाडु) – यह शहर मुख्य रूप से होम टेक्सटाइल्स के लिए जाना जाता है। यहाँ लगभग 3 लाख से अधिक लोग स्पिनिंग मिल्स (Spinning Mills), डाइंग यूनिट्स (Dyeing Units) और हैंडलूम (Handloom) में कार्यरत हैं। करूर के उत्पाद आइकिया (IKEA), वॉलमार्ट (Walmart), टारगेट (Target) जैसे वैश्विक ब्रांड्स (Brands) तक पहुँचते हैं, जिससे यह भारत के सबसे बड़े निर्यात हब में से एक बन चुका है।
- सूरत (गुजरात) – सूरत को “सिंथेटिक टेक्सटाइल कैपिटल” (Scientific Textiles Company) के नाम से जाना जाता है। यहां से भारत के कुल पॉलिएस्टर कपड़े का 90% हिस्सा आता है। सूरत प्रतिदिन लगभग 25 मिलियन मीटर कपड़े और 30 मिलियन मीटर कच्चा माल तैयार करता है, जो इसके औद्योगिक कौशल का प्रमाण है।
- पोचमपल्ली (तेलंगाना) – यह शहर अपनी हस्तनिर्मित इकट (Ikat) बुनाई तकनीक के लिए प्रसिद्ध है। इसे "सिल्क सिटी" (Silk City) भी कहा जाता है, और यहाँ के डिज़ाइनों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ध्यान खींचा है।
- मुंबई (महाराष्ट्र) – यहाँ कच्चे माल की उपलब्धता, मौसम और बंदरगाहों के कारण यह एक आदर्श वस्त्र व्यापार केंद्र बन चुका है। महाराष्ट्र ने अगले पाँच वर्षों में टेक्सटाइल क्षेत्र में 25,000 करोड़ रुपये निवेश लाने और 5 लाख लोगों को रोज़गार देने का लक्ष्य रखा है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/mw4fazv9
जौनपुर की गलियों से ज़ायकों तक: ऐतिहासिक स्वाद और संस्कृति का अनमोल सफ़र
द्रिश्य 3 कला व सौन्दर्य
Sight III - Art/ Beauty
12-10-2025 09:18 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों, हमारा शहर सिर्फ़ नक्शे पर एक बिंदु नहीं, बल्कि एक इतिहास की ज़मीन है - वो ज़मीन जिसने शर्की सल्तनत की राजधानी होकर लगभग एक सदी तक हिंदुस्तानी तहज़ीब को दिशा दी। यही वजह है कि आज भी हमारे शहर की गलियों में शाही किले की परछाई, अटाला मस्जिद की गूंज और जामा मस्जिद की बुलंदी महसूस होती है। शर्की दौर की शानदार वास्तुकला के अलावा, अकबर काल का शाही पुल, मां शीतला चौकिया धाम और गूजर ताल जैसे स्थान भी आज पर्यटकों और स्थानीय श्रद्धालुओं दोनों के आकर्षण का केंद्र हैं। इलाहाबाद रोड पर स्थित शेर-की-मस्जिद, सदर इमामबाड़ा, जलालपुर पुल और मड़ियाहूं की जामा मस्जिद - ये सभी स्मारक इतिहास से सीधा संवाद करते हैं। धर्मपुर का शिव मंदिर, केराकत का काली मंदिर, गोमती के किनारे बसा गोमतेश्वर महादेव, औंका गांव की परमहंस समाधि, सुजानगंज का गैसुरी शंकर मंदिर, रसमादल का गुरुद्वारा और शारदा मंदिर, विजेथुआ महावीर और मछलीशहर स्थित कबीर मठ - ये सभी स्थल न केवल धार्मिक आस्था के प्रतीक हैं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक जड़ों को भी मज़बूती से थामे हुए हैं। जौनपुर की ये धरोहरें आज भी हमें याद दिलाती हैं कि हम सिर्फ़ एक शहर में नहीं रहते - हम उस विरासत में रहते हैं, जो पीढ़ियों से इतिहास, आस्था और संस्कृति को सहेजती आई है।
आइए, आज कुछ खूबसूरत चलचित्रों के ज़रिए हम जौनपुर की ऐतिहासिक विरासत, उसकी वास्तुकला और सांस्कृतिक झलक को करीब से जानें। इसके बाद हम शहर की गलियों में घूमते हुए समोसा, लौंग लता, इमरती और ककरोई कबाब जैसे लोकप्रिय व्यंजनों की खुशबू महसूस करेंगे। इस सफ़र में हम जौनपुर के कुछ मशहूर रेस्तरां और स्थानीय ठेलों की झलक भी देखेंगे, जो इस शहर के स्वाद और आत्मा का अहम हिस्सा हैं।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/3n9wnmvr
https://tinyurl.com/24r63bsc
https://tinyurl.com/5n8yead7
https://tinyurl.com/ymt38225
चारा फसलों से दुग्ध उत्पादन तक: जौनपुर के किसानों की पोषण यात्रा
भूमि प्रकार (खेतिहर व बंजर)
Land type and Soil Type : Agricultural, Barren, Plain
11-10-2025 09:15 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियो, जब आप सुबह की चाय में दूध डालते हैं या गर्मागर्म दाल-चावल के साथ घी का स्वाद लेते हैं, तो क्या आपने कभी सोचा है कि उस हर बूंद दूध के पीछे किसकी मेहनत छिपी है? वह सिर्फ़ किसान की नहीं, बल्कि उस पशु की भी है जिसे हर दिन सही और पोषक चारा खिलाया जाता है। और यही चारा फसलें, जो अक्सर हमारी बातचीत में नहीं आतीं, असल में हमारे स्वास्थ्य, हमारे किसानों की आजीविका और पर्यावरण - तीनों की कड़ी जोड़ती हैं। जौनपुर जैसे कृषि-प्रधान जिले में, जहाँ हज़ारों परिवार पशुपालन के ज़रिए अपना घर चलाते हैं, वहाँ चारा केवल घास नहीं बल्कि आर्थिक आत्मनिर्भरता का एक स्तंभ है। चाहे गाँव की किसी महिला का सुबह उठकर मवेशियों को खिलाना हो या किसान का खेत की मेड़ों पर चारे वाले वृक्ष लगाना - यह सारा प्रयास सिर्फ़ दूध के लिए नहीं, बल्कि एक संतुलित जीवन प्रणाली के लिए होता है। लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि आज यह क्षेत्र अनेक चुनौतियों से घिरा है - चरागाह कम हो रहे हैं, चारे की मांग बढ़ रही है, और पशुपालकों को सब्सिडी (subsidy) या तकनीकी जानकारी बहुत सीमित रूप में मिल रही है। आज जब हम जलवायु परिवर्तन, कुपोषण और ग्रामीण बेरोज़गारी की चर्चा करते हैं, तो चारा फसलों का महत्व और इनकी स्थायी आपूर्ति एक बेहद अहम मुद्दा बन जाता है। यह केवल डेयरी (dairy) किसानों का विषय नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति से जुड़ा है जो शुद्ध दूध, घी या दही का सेवन करता है। और इसलिए ज़रूरत है कि हम चारा फसलों को ‘हाशिए’ से निकालकर ‘केन्द्र’ में लाएँ - ताकि जौनपुर का हर किसान, हर पशु और हर परिवार एक स्वस्थ, समर्थ और आत्मनिर्भर जीवन की ओर बढ़ सके।
इस लेख में हम जानेंगे कि चारा फसलें क्या हैं और दूध उत्पादन में इनकी भूमिका कैसी है। इसके बाद, भारत में इन फसलों की स्थिति और चुनौतियाँ समझेंगे। फिर, पेरी-अर्बन (Peri-Urban) क्षेत्रों में चारे की बढ़ती मांग और इसके पर्यावरणीय प्रभाव पर नजर डालेंगे। अंत में, हम सरकार की हरे चारे वाले वृक्षों की सब्सिडी योजनाओं और इससे किसानों को मिलने वाले लाभ पर चर्चा करेंगे।

चारा फसलें क्या होती हैं और दूध उत्पादन में इनकी भूमिका
चारा फसलें (Forage Crops) वे विशेष फसलें होती हैं जिन्हें सिर्फ़ पशुओं के भोजन के लिए उगाया जाता है, न कि मानवीय उपभोग के लिए। भारत में इन फसलों में ज्वार, बरसीम, मकई, नेपियर (Napier) घास और जई जैसी घासें प्रमुख हैं, जो गाय, भैंस और बकरी जैसे दुधारू जानवरों को हरे चारे के रूप में खिलाई जाती हैं। हरे चारे का पोषण सीधे पशुओं के स्वास्थ्य पर असर डालता है, जिससे दूध की मात्रा और गुणवत्ता दोनों बेहतर होती हैं। यह बात अक्सर लोग नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि जो जानवर जो खाता है, उसका असर दूध, दही और घी की पौष्टिकता पर पड़ता है - और अंततः हमारे शरीर पर भी। इसलिए चारा फसलें केवल खेत की उपज नहीं, बल्कि एक सम्पूर्ण पोषण-चक्र की शुरुआत हैं - खेत से चारा, चारे से जानवर, जानवर से दूध और फिर दूध से हमारे भोजन का पोषण। यदि हम दूध की मात्रा और गुणवत्ता में सुधार चाहते हैं, तो सबसे पहला कदम बेहतर चारे की उपलब्धता और गुणवत्ता सुनिश्चित करना होगा।
भारत में चारा फसलों की वर्तमान स्थिति और चुनौतियाँ
आज भारत में लगभग 8.3 मिलियन हेक्टेयर (million hectare) भूमि पर चारा फसलें उगाई जाती हैं, जो कुल कृषि भूमि का बहुत छोटा हिस्सा है, जबकि देश में पशुधन की संख्या विश्व में सबसे अधिक है। खरीफ मौसम में ज्वार और रबी मौसम में बरसीम जैसी फसलें प्रमुख हैं, लेकिन इनके लिए भूमि का विस्तार पिछले तीन-चार दशकों से लगभग स्थिर बना हुआ है। चरागाहों का क्षेत्र लगातार घट रहा है और अत्यधिक चराई के कारण उनकी उत्पादकता भी गिर रही है। इसके अलावा, भूमि कवर डेटा रिपोर्टिंग (Land Cover Data Reporting) की कमी के चलते न तो सही आंकड़े उपलब्ध हो पाते हैं और न ही नीतियाँ ज़मीनी हकीकत पर आधारित बन पाती हैं। नतीजा यह है कि पशुओं के लिए चारे की मांग और वास्तविक उत्पादन के बीच एक गहरी खाई बनती जा रही है। यह असंतुलन न केवल पशुपालकों के लिए समस्या है, बल्कि पूरे डेयरी उद्योग की स्थिरता के लिए एक गंभीर चुनौती है।

पेरी-अर्बन क्षेत्रों में चारे की मांग और पर्यावरणीय प्रभाव
पिछले कुछ वर्षों में शहरीकरण के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों - जिन्हें पेरी-अर्बन (Peri-Urban) क्षेत्र कहा जाता है - में डेयरी फार्मिंग (Dairy Farming) का तेज़ी से विकास हुआ है। इन क्षेत्रों में ‘मिल्क शेड’ (Milk Shade) बनाए गए हैं, जहाँ सघन डेयरी उत्पादन होता है और रोज़ाना हजारों लीटर दूध का संग्रह किया जाता है। इससे चारे की मांग अचानक बढ़ गई है, जिससे पारंपरिक चरागाह अब पर्याप्त नहीं रह गए। नतीजतन, आसपास के घास के मैदानों और प्राकृतिक रेंजलैंड (natural rangeland) पर अत्यधिक दबाव पड़ा है। इस अंधाधुंध उपयोग ने न केवल जैव विविधता को नुकसान पहुँचाया है, बल्कि पर्यावरणीय संतुलन को भी प्रभावित किया है। साथ ही, बढ़ती पशुधन आबादी के कारण जैविक कचरे की मात्रा में भी वृद्धि हुई है। यदि इस कचरे का सही तरीके से उपयोग किया जाए, तो यह खाद और ऊर्जा के रूप में लाभदायक हो सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में चारा उत्पादन अब केवल पशुपालन की समस्या नहीं रह गई है, बल्कि यह पर्यावरणीय नीति, भूमि योजना और सतत कृषि के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण विषय बन चुका है।
हरे चारे वाले वृक्ष: सरकार की नई सब्सिडी योजना
चारा संकट से निपटने और पर्यावरण के अनुकूल विकल्पों को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार और राज्य सरकारों ने हरे चारे वाले वृक्षों की खेती पर विशेष ध्यान देना शुरू किया है। विशेष रूप से पशुपालन विभाग ने एक योजना शुरू की है जिसमें डेयरी किसानों को सब्सिडी के तहत चारा देने वाले वृक्षों के पौधे उपलब्ध कराए जा रहे हैं। इन पेड़ों की खासियत यह है कि इन्हें खेत की सीमाओं पर लगाया जा सकता है और ये वर्ष भर हरा चारा प्रदान कर सकते हैं। इससे न केवल पशुओं को स्थिर पोषण मिलेगा, बल्कि भूमि की गुणवत्ता भी सुधरेगी और पारिस्थितिकी को लाभ होगा। किसानों को सलाह दी जा रही है कि वे अपने खेतों की मेड़ पर इन पौधों को लगाकर अपने पशुओं के लिए चारे की आत्मनिर्भरता हासिल करें। इससे उनकी लागत भी घटेगी और उत्पादन की निरंतरता भी बनी रहेगी।
चारा उत्पादन और दूध उत्पादन की लागत का सम्बन्ध
डेयरी उद्योग में यह बात लगभग सर्वमान्य है कि कुल लागत का 65% से 70% हिस्सा केवल चारे पर खर्च होता है। यानी अगर चारा महंगा या अनुपलब्ध हो, तो दूध उत्पादन का पूरा गणित बिगड़ सकता है। आज की स्थिति में हरे चारे की मांग लगातार बढ़ रही है, लेकिन आपूर्ति उस दर से नहीं बढ़ रही। यह अंतर न केवल किसानों की आय को प्रभावित करता है, बल्कि दूध की कीमतों और गुणवत्ता पर भी असर डालता है। यही वजह है कि सरकार ने चारा फसलों और चारा वृक्षों पर सब्सिडी देने की नीति अपनाई है ताकि किसानों को राहत मिले। इससे न केवल उनकी लागत घटेगी, बल्कि वे अधिक टिकाऊ और लाभदायक डेयरी प्रणाली भी अपना सकेंगे। इसके अलावा, जब चारे की लागत नियंत्रण में होगी, तो छोटे और सीमांत किसान भी डेयरी व्यवसाय में प्रवेश करने में सक्षम होंगे। सब्सिडी, बीज वितरण और तकनीकी जानकारी के सही समन्वय से यह अंतर भरना संभव है और यही भविष्य की दिशा भी है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/sjfe7ram
मानसिक स्वास्थ्य की ओर एक ज़रूरी नज़र: जौनपुर में जागरूकता की नई शुरुआत
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
10-10-2025 09:36 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियों, हमारी ज़िंदगी की रफ्तार आज इतनी तेज़ हो चुकी है कि हम सुबह से रात तक काम, जिम्मेदारियों और सोशल मीडिया (Social Media) की भागदौड़ में उलझे रहते हैं। ऐसे में कब हमारा मन थकने लगता है, कब भीतर एक ख़ामोशी घर करने लगती है - हमें खुद भी पता नहीं चलता। हम मुस्कुराते रहते हैं, दूसरों के साथ सामान्य व्यवहार करते हैं, लेकिन अंदर ही अंदर कोई तकलीफ़ चुपचाप गहराती जाती है। देशभर में आत्महत्या के जो आंकड़े सामने आ रहे हैं, वो सिर्फ संख्या नहीं हैं - वे हज़ारों अनकही पीड़ाओं, टूटी उम्मीदों और सुनी-अनसुनी कहानियों की निशानियाँ हैं। कई बार व्यक्ति अपनी परेशानी किसी से कह भी नहीं पाता, क्योंकि उसे डर होता है कि लोग क्या सोचेंगे। यही सोच उसे और अकेला कर देती है। आज समय आ गया है कि हम मानसिक स्वास्थ्य को भी उसी तरह गंभीरता से लें जैसे बुखार या कोई शारीरिक बीमारी को लेते हैं। यह कोई कमजोरी नहीं, बल्कि एक स्वाभाविक मानवीय स्थिति है, जिसका इलाज और सहयोग - दोनों संभव हैं। विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस हमें यह याद दिलाने का मौका है कि हम एक-दूसरे के मन की हालत को समझें, समय पर बात करें, और अगर ज़रूरत हो तो मदद लेने या देने से बिल्कुल न हिचकें। हमें यह समझने की ज़रूरत है कि कभी-कभी सिर्फ किसी का हालचाल पूछ लेना भी किसी के टूटते मन को थाम सकता है।
इस लेख में हम सबसे पहले हम देखेंगे कि भारत में आत्महत्या की स्थिति क्या है और हाल के वर्षों में आंकड़े किस ओर इशारा कर रहे हैं। इसके बाद हम जानेंगे कि किस तरह अलग-अलग वर्ग - जैसे छात्र, गृहिणियां, किसान और दैनिक मजदूर - आज मानसिक दबाव से जूझ रहे हैं। फिर हम यह समझेंगे कि कैसे बड़े शहरों की तेज़ रफ्तार ज़िंदगी मानसिक स्वास्थ्य पर असर डाल रही है। इसके साथ ही, हम विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस की भूमिका, जागरूकता अभियानों की ज़रूरत और आत्महत्या की रोकथाम के लिए समाज और सरकार की साझा ज़िम्मेदारी पर भी बात करेंगे। अंत में, हम यह जानेंगे कि कैसे प्रकृति के संपर्क में आकर मानसिक शांति पाई जा सकती है ।
भारत में आत्महत्या से जुड़ी वर्तमान स्थिति: आँकड़ों की दृष्टि से एक समीक्षा
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, 2021 में भारत में 1,64,033 आत्महत्याएं दर्ज की गईं - जो 2020 की तुलना में 7.2% की वृद्धि को दर्शाता है। यह वृद्धि सिर्फ आंकड़ों की बात नहीं, बल्कि एक गहरी सामाजिक बेचैनी का संकेत है। आत्महत्या, जो कभी व्यक्तिगत दुर्भाग्य मानी जाती थी, अब एक राष्ट्रव्यापी मानसिक स्वास्थ्य आपातकाल का रूप लेती जा रही है। विशेष रूप से महाराष्ट्र (22,207), तमिलनाडु (18,925), मध्य प्रदेश (14,965), पश्चिम बंगाल (13,500), और कर्नाटक (13,056) जैसे राज्य, जो कुल आत्महत्याओं का 50% से अधिक वहन करते हैं - ये आंकड़े देश के मानसिक स्वास्थ्य ढांचे की गंभीर कमज़ोरियों को उजागर करते हैं। उत्तर प्रदेश, जो देश की सबसे अधिक जनसंख्या वाला राज्य है, वहां आत्महत्या की दर 3.6% है - यह अपेक्षाकृत कम ज़रूर लगती है, लेकिन इस राज्य की विशाल जनसंख्या को देखते हुए वास्तविक संख्या कहीं अधिक भयावह हो सकती है। इन आंकड़ों के पीछे वे अनसुनी कहानियाँ छिपी हैं - जो कभी नौकरी छूटने से शुरू हुईं, तो कभी रिश्तों की टूटन से। हर एक आत्महत्या अपने पीछे कई सवाल छोड़ जाती है - और यह केवल संबंधित परिवार की नहीं, बल्कि पूरे समाज की ज़िम्मेदारी है कि वह इन मौन पीड़ाओं को सुने और समझे।

जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में मानसिक दबाव की स्थिति
भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में आत्महत्या अब किसी एक वर्ग या तबके की त्रासदी नहीं रही। नसीआरबी (NCRB) की रिपोर्ट साफ़ बताती है कि दैनिक वेतनभोगी, गृहिणियां, स्वरोज़गार करने वाले, छात्र और किसान - हर वर्ग में मानसिक तनाव और निराशा की लहर फैल रही है। 2021 में स्वरोज़गार करने वालों में ही 20,231 आत्महत्याएं दर्ज की गईं। यह संख्या दर्शाती है कि व्यापार में अस्थिरता, ऋण का बोझ, और भविष्य की अनिश्चितता अब आम बात हो गई है। गृहिणियों की आत्महत्याएं एक अलग कहानी कहती हैं - एक ऐसी कहानी जिसमें आर्थिक निर्भरता, घरेलू हिंसा, भावनात्मक अकेलापन और सामाजिक चुप्पी शामिल हैं। 2021 में 23,000 से अधिक गृहिणियों ने आत्महत्या की, जिनमें तमिलनाडु, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में सबसे अधिक घटनाएं हुईं। इसी तरह, छात्रों की आत्महत्याएं भी लगातार बढ़ रही हैं। केवल परीक्षा में असफलता नहीं, बल्कि करियर का डर, माता-पिता की अपेक्षाएं, सोशल मीडिया की तुलना और आत्म-संदेह जैसे कारक उन्हें अंदर से खा रहे हैं। किसान, जो कभी भारत की आत्मा माने जाते थे, आज वे फसल की विफलता, कर्ज़ और प्राकृतिक आपदाओं के चलते खुद को असहाय पा रहे हैं। जब एक किसान आत्महत्या करता है, तो उसके साथ उसकी ज़मीन, उसके बच्चों का भविष्य और पूरे गांव की उम्मीदें भी टूट जाती हैं। यह स्थिति हमें साफ़ चेतावनी देती है कि अब मानसिक स्वास्थ्य केवल "शहरी" चिंता नहीं रह गई है - यह गाँव से लेकर शहर तक हर व्यक्ति का सवाल बन चुका है।
शहरों में मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियों की बढ़ती प्रवृत्ति
शहरों में जीवन की रफ्तार जितनी तेज़ हुई है, मानसिक शांति उतनी ही पीछे छूटती जा रही है। दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, और बेंगलुरु जैसे महानगरों में आत्महत्या के मामले सबसे अधिक दर्ज हो रहे हैं - और यह कोई संयोग नहीं है। उच्च प्रतिस्पर्धा, काम का अत्यधिक दबाव, नौकरी की अस्थिरता, और सामाजिक अकेलापन - ये सभी कारक मिलकर एक भयावह मानसिक स्थिति बना देते हैं। यहां तक कि जब हम परिवार और दोस्तों के बीच होते हैं, तब भी कई लोग खुद को अंदर से बेहद अकेला महसूस करते हैं। कॉलेज के छात्र, युवा प्रोफेशनल्स (professional) और यहां तक कि गृहिणियां भी अब उस तनाव का सामना कर रही हैं जो पहले सिर्फ मेट्रो (metro) शहरों में देखा जाता था। इंटरनेट (internet) और सोशल मीडिया ने भले ही सूचना को नज़दीक कर दिया हो, लेकिन इंसानी रिश्तों की गर्माहट को कहीं दूर ले गया है। अब 'डिजिटल संवाद' (Digital Dialogue) तो है, लेकिन 'संवेदनशील संवाद' नहीं। शहरों में खुलेपन की कमी, प्रकृति से दूरी, और हमेशा उपलब्ध रहने की अपेक्षा ने लोगों को मानसिक थकावट की स्थायी स्थिति में डाल दिया है। मानसिक स्वास्थ्य अब केवल एक वैकल्पिक विषय नहीं - यह शहरी जीवन की अनिवार्यता बन चुकी है।

मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता और विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस का महत्व
हर साल 10 अक्टूबर को मनाया जाने वाला विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस, केवल एक औपचारिक आयोजन नहीं - बल्कि एक सामाजिक संकल्प का प्रतीक है। यह दिन हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हमने मानसिक स्वास्थ्य को उतना महत्व दिया, जितना हम शारीरिक स्वास्थ्य को देते हैं? क्या हम अपने आस-पास किसी उदास व्यक्ति को पहचानते हैं? मानसिक स्वास्थ्य को लेकर समाज में अब भी काफी भ्रांतियां हैं। कई लोग इसे 'कमज़ोरी' समझते हैं, या फिर इसे छिपाकर रखने लायक विषय। लेकिन सच यह है कि मानसिक बीमारियां भी उतनी ही वास्तविक हैं, जितनी डायबिटीज़ (diabetes) या ब्लड प्रेशर (blood pressure)। इस दिन का उद्देश्य है - लोगों को मानसिक स्वास्थ्य के बारे में खुलकर बात करने, मदद मांगने और दूसरों की मदद करने के लिए प्रोत्साहित करना। स्कूलों में मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा, कॉलेजों में काउंसलिंग सेंटर (counselling center), और कार्यस्थलों पर तनाव प्रबंधन कार्यक्रम - ये सब जागरूकता के ठोस उपाय हैं। जब हम यह समझेंगे कि 'मन' भी 'तन' की तरह बीमार हो सकता है, तब हम सही मायनों में स्वस्थ समाज की ओर बढ़ सकेंगे। जागरूकता सिर्फ पोस्टर (poster) या अभियान नहीं - यह जीवन बचाने का माध्यम बन सकती है।

आत्महत्या की रोकथाम हेतु समाज और प्रणाली की साझा जिम्मेदारी
जब कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है, तो हम अक्सर यह सोचते हैं - "उसने ऐसा क्यों किया?" लेकिन सही सवाल यह होना चाहिए - "हमने ऐसा होने से पहले क्या किया?" आत्महत्या को केवल व्यक्ति की निजी विफलता समझना हमारी सबसे बड़ी सामाजिक चूक है। यह एक संरचनात्मक संकट है - जो समाज, परिवार, नीति और संवाद के स्तर पर हमारी विफलता को दर्शाता है। भारत सरकार द्वारा लागू मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम 2017 इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जो मानसिक रूप से बीमार लोगों को गरिमा और अधिकार प्रदान करता है। इसके अंतर्गत मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता, इलाज की गोपनीयता, और ज़बरदस्ती इलाज पर रोक जैसे प्रावधान शामिल हैं। लेकिन कानून तभी कारगर होता है जब समाज उसे अपनाए। मीडिया को आत्महत्या की रिपोर्टिंग में अधिक संवेदनशील और जिम्मेदार होना होगा। विद्यालयों और कॉलेजों में परामर्शदाता अनिवार्य किए जाने चाहिए। पंचायत स्तर तक सामुदायिक सहायता समूह बनने चाहिए। ये समस्या अकेले एक डॉक्टर नहीं सुलझा सकता - हमें पूरी सामाजिक व्यवस्था को उत्तरदायी बनाना होगा।

मानसिक स्वास्थ्य पर प्रकृति का सकारात्मक प्रभाव
आज जब जीवन तकनीक से बंधा हुआ है - जहां हर पांच मिनट में एक नोटिफिकेशन (notification) आता है, हर काम की डेडलाइन (deadline) है, और हर चेहरे पर मुस्कान नकली लगती है - वहां प्रकृति एक वास्तविक राहत बनकर सामने आती है। शोध बताते हैं कि प्राकृतिक वातावरण में समय बिताने से मस्तिष्क शांत होता है, तनाव कम होता है और आत्म-संयम बढ़ता है। टहलना, हरे-भरे पेड़ों के बीच कुछ समय बिताना, या पानी के किनारे बैठना - यह सब सिर्फ गतिविधियाँ नहीं, मानसिक पुनर्स्थापनाएं हैं। हरे-भरे पार्कों की हरियाली, नदियों या झीलों के किनारे का वातावरण, और गांव के प्राकृतिक नज़ारे - ये सभी मानसिक सुकून के सहज माध्यम हैं। आज जब हम मानसिक स्वास्थ्य की बात कर रहे हैं, तो यह भी याद रखना चाहिए कि हर इलाज दवाओं से नहीं होता - कभी-कभी मन को बस कुछ खुला आसमान, थोड़ी धूप और हरियाली चाहिए होती है। प्रकृति हमें याद दिलाती है कि जीवन केवल दौड़ नहीं, कभी-कभी रुककर सांस लेना भी जरूरी है। अगर हम अपने दिन में 15 मिनट भी पेड़ों के नीचे बैठ लें, तो शायद मन कुछ हल्का हो जाए।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/j4pwmejw
https://tinyurl.com/yc3uvcny
लद्दाख की चोटियों से लेकर त्योहारों तक, क्यों हर भारतीय यहाँ खुद को जोड़ता है?
मरुस्थल
Desert
09-10-2025 09:20 AM
Jaunpur District-Hindi

भारत के उत्तरी छोर पर फैला लद्दाख केवल एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं, बल्कि प्रकृति और संस्कृति का अद्भुत संगम है। हिमालय की ऊँची चोटियों और काराकोरम की कठोर पर्वतमालाओं के बीच स्थित यह भूमि हर उस यात्री के लिए आश्चर्य का अनुभव कराती है, जो यहाँ कदम रखता है। इसे "ठंडा रेगिस्तान" कहा जाता है क्योंकि यहाँ वर्षा बेहद कम होती है, ज़मीन बंजर दिखाई देती है और हरियाली सीमित है। फिर भी, बर्फ़ से ढके पहाड़, नीले आकाश, और कठोर हवाएँ इसे एक रहस्यमय सौंदर्य प्रदान करती हैं। यह विरोधाभास ही लद्दाख को विशेष बनाता है - जहाँ सूखा और बर्फ़ दोनों साथ-साथ मौजूद हैं। लेकिन लद्दाख केवल अपनी भौगोलिक बनावट या जलवायु के कारण ही प्रसिद्ध नहीं है। यहाँ की सभ्यता, परंपरा और जीवनशैली सदियों पुरानी समृद्ध विरासत की झलक दिखाती है। बौद्ध मठों की घंटियाँ, कारवां व्यापार की कहानियाँ, सिंधु नदी का जीवनदायिनी प्रवाह और रंग-बिरंगे सांस्कृतिक उत्सव - यह सब मिलकर लद्दाख को जीवंत बनाते हैं। यहाँ का हर कोना अलग कहानी कहता है: कहीं पर्वतों के बीच बसे गाँव, कहीं नील रंग से चमकती झीलें, तो कहीं बर्फ़ीली घाटियों में जीवित रहने का संघर्ष। यही विविधता लद्दाख को केवल एक स्थान नहीं, बल्कि एक अनुभव बना देती है, जो जीवन भर याद रह जाता है।
इस लेख में हम चरणबद्ध ढंग से लद्दाख के विभिन्न पहलुओं को समझेंगे। सबसे पहले, हम जानेंगे कि इसकी भौगोलिक स्थिति इसे "ठंडा रेगिस्तान" क्यों बनाती है। इसके बाद, हम इसकी जलवायु और मौसम की विशेषताओं पर नज़र डालेंगे, जो यहाँ के जीवन को बाकी भारत से अलग बनाती हैं। फिर, हम लद्दाख की अर्थव्यवस्था और पारंपरिक जीविका साधनों का अध्ययन करेंगे। इसके साथ ही, हम यहाँ पाए जाने वाले विशिष्ट वन्यजीव और हेमिस नेशनल पार्क (Hemis National Park) जैसे संरक्षित क्षेत्रों की चर्चा करेंगे। आगे बढ़ते हुए, हम लद्दाख के प्रमुख पर्यटन स्थलों जैसे पैंगोंग झील (Pangong Lake), नुबरा घाटी और लेह पैलेस (Leh Palace) का परिचय पाएंगे। अंत में, हम लद्दाख के त्योहारों और सांस्कृतिक उत्सवों की दुनिया में झांकेंगे, जो यहाँ की पहचान को जीवंत और रंगीन बनाए रखते हैं।

लद्दाख का भौगोलिक परिचय और ठंडा रेगिस्तान स्वरूप
भारत के उत्तरी छोर पर बसा लद्दाख एक ऐसा इलाका है जो अपने भौगोलिक स्वरूप और रहन-सहन की कठिनाइयों के कारण दुनिया भर के यात्रियों और शोधकर्ताओं को आकर्षित करता है। यह क्षेत्र समुद्र तल से औसतन 3,000 मीटर से भी अधिक ऊँचाई पर स्थित है, जिससे यहाँ की जलवायु और जीवन दोनों बेहद चुनौतीपूर्ण हो जाते हैं। लद्दाख को उत्तर में काराकोरम और दक्षिण में हिमालय की पर्वत श्रृंखलाएँ घेरे हुए हैं, जो इसे प्राकृतिक रूप से एक विशाल दुर्ग जैसा स्वरूप देती हैं। यहाँ बहने वाली सिंधु नदी और उसकी सहायक नदियाँ न केवल सिंचाई और पेयजल का आधार हैं, बल्कि लद्दाखी सभ्यता की निरंतरता की धड़कन भी हैं। इसे "ठंडा रेगिस्तान" इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहाँ वर्षा बेहद कम होती है, बादल आते तो हैं लेकिन ऊँचे पहाड़ों की वजह से अधिकतर नमी वहीं रुक जाती है। रेगिस्तान जैसा सूखा स्वरूप और बर्फ़ीली हवाओं का संगम लद्दाख को दुनिया के उन दुर्लभ क्षेत्रों में शामिल करता है जहाँ रेगिस्तान और हिमालय का मेल दिखता है।

लद्दाख की जलवायु और मौसम की विशेषताएँ
लद्दाख की जलवायु इंसानों की परीक्षा लेती है। यहाँ पर गर्मी, सर्दी और हवा - सबकी परिभाषा बिल्कुल अलग है। समुद्र तल से अधिक ऊँचाई पर स्थित होने के कारण यहाँ ऑक्सीजन (Oxygen) की मात्रा कम रहती है, जिससे बाहरी लोगों को शुरुआत में साँस लेने में कठिनाई और सिरदर्द जैसी समस्याएँ हो सकती हैं। सालभर में औसतन 10 से 20 सेंटीमीटर तक ही वर्षा होती है, जिससे यह इलाका लगभग शुष्क रहता है। सर्दियों में यह क्षेत्र बर्फ़ से ढक जाता है और तापमान कई बार माइनस 40 डिग्री सेल्सियस (°C) तक पहुँच जाता है। गर्मियों में दिन में तापमान 20–25 डिग्री तक रहता है, लेकिन जैसे ही सूरज ढलता है, रातें फिर से बेहद ठंडी हो जाती हैं। यही कारण है कि लद्दाख को "ठंडा रेगिस्तान" कहा जाता है, जहाँ मौसम की कठोरता और प्राकृतिक खूबसूरती एक साथ देखने को मिलती हैं।
लद्दाख की अर्थव्यवस्था और जीविका के साधन
लद्दाख की अर्थव्यवस्था परंपरा और आधुनिकता का एक अद्भुत संगम है। यहाँ के लोग कठिन परिस्थितियों में भी जीवनयापन करना जानते हैं। खेती यहाँ की मुख्य आजीविका है, लेकिन यहाँ की ज़मीन और मौसम केवल जौ, गेहूँ और सीमित मात्रा में चावल जैसी फसलों को ही सहारा दे पाते हैं। सिंधु और उसकी सहायक नदियाँ खेतों को पानी उपलब्ध कराती हैं, वरना यहाँ कृषि असंभव हो जाती। इतिहास की दृष्टि से देखें तो लद्दाख कभी रेशम मार्ग और कारवां संस्कृति का अहम हिस्सा रहा है। यहाँ से होकर तिब्बत, चीन और मध्य एशिया से व्यापारिक काफिले गुज़रते थे, जो इस क्षेत्र को आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से जोड़ते थे। आज भी लद्दाख में स्थानीय हस्तशिल्प, ऊनी वस्त्र और पारंपरिक व्यापार उसकी पहचान बनाए हुए हैं। खनिज संसाधनों में चूना पत्थर और जिप्सम यहाँ प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। आधुनिक समय में पर्यटन लद्दाख की अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा आधार है। यहाँ की झीलें, मठ और पर्वतीय दर्रे हर साल लाखों यात्रियों को आकर्षित करते हैं। यही कारण है कि होटल व्यवसाय, साहसिक खेल और गाइड (guide) सेवाएँ यहाँ के लोगों के लिए नई रोज़गार संभावनाएँ पैदा कर रही हैं।

लद्दाख का विशिष्ट वन्यजीव और राष्ट्रीय उद्यान
लद्दाख केवल पहाड़ों और झीलों की भूमि ही नहीं है, बल्कि यह दुर्लभ जीव-जंतुओं का घर भी है। हिमप्रदेशीय तेंदुआ (Snow Leopard) यहाँ का सबसे प्रसिद्ध और रहस्यमयी जीव है, जिसे देख पाना बेहद कठिन माना जाता है। इसके अलावा तिब्बती भेड़िया, आइबेक्स (Ibex), तिब्बती गज़ेल और जंगली याक जैसी प्रजातियाँ यहाँ पाई जाती हैं। पक्षियों में काली गर्दन वाला सारस लद्दाख की पहचान है, जिसे स्थानीय लोग शुभता का प्रतीक मानते हैं। हेमिस नेशनल पार्क लद्दाख का सबसे प्रमुख संरक्षित क्षेत्र है, जिसे स्नो लेपर्ड की राजधानी कहा जाता है। यह पार्क न केवल जैव विविधता का खज़ाना है, बल्कि वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के लिए शोध का बड़ा केंद्र भी है। यहाँ का पारिस्थितिकी संतुलन इस बात की गवाही देता है कि कठिनतम परिस्थितियों में भी प्रकृति कितनी अद्भुत ढंग से जीवन को सहारा देती है।
लद्दाख के प्रमुख पर्यटक आकर्षण
लद्दाख को पर्यटन की दृष्टि से किसी जन्नत से कम नहीं कहा जा सकता। पैंगोंग झील का नीला विस्तार हर मौसम में अलग रंग धारण करता है और पर्यटकों को मंत्रमुग्ध कर देता है। खारदुंग ला दर्रा, जिसे दुनिया के सबसे ऊँचे मोटरेबल पास (motorable pass) में गिना जाता है, रोमांच प्रेमियों के लिए विशेष आकर्षण है। नुबरा घाटी अपने रेत के टीलों और ऊँट की सवारी के लिए जानी जाती है, जो एक रेगिस्तानी एहसास देती है। लेह पैलेस और मठ न केवल ऐतिहासिक महत्व रखते हैं बल्कि स्थानीय संस्कृति और कला का भी केंद्र हैं। वहीं सिंधु और ज़ांस्कर नदियों का संगम प्रकृति की उस शक्ति का परिचायक है जहाँ दो विशाल जलधाराएँ मिलकर नई ऊर्जा का संचार करती हैं। यह स्थान साहसिक खेलों जैसे रिवर राफ्टिंग (river rafting) के लिए भी लोकप्रिय है।

लद्दाख के प्रमुख त्योहार और सांस्कृतिक उत्सव
लद्दाख की पहचान केवल उसकी भौगोलिक या प्राकृतिक खूबसूरती से नहीं है, बल्कि उसकी जीवंत संस्कृति और त्योहारों से भी है। यहाँ का हर उत्सव लोगों को एक-दूसरे से जोड़ता है। हेमिस महोत्सव सबसे बड़ा और प्रसिद्ध पर्व है, जिसमें बौद्ध भिक्षु पारंपरिक वेशभूषा पहनकर मुखौटा नृत्य करते हैं। यह उत्सव न केवल धार्मिक आस्था बल्कि लद्दाख की सामूहिकता का भी प्रतीक है। साका दवा, स्टोक गुरु त्सेचू (Stoke Guru Tsechu) और मैथो नागंग (Maitho Nagang) जैसे उत्सव स्थानीय जीवन में गहराई से जुड़े हुए हैं। लद्दाख हार्वेस्ट फेस्टिवल (Harvest Festival) किसानों और आम जनता के लिए उत्सव का मौका होता है, जिसमें फसल के साथ-साथ स्थानीय कला, संगीत और नृत्य भी मनाए जाते हैं। इन त्योहारों से यहाँ का सांस्कृतिक ताना-बाना और अधिक मज़बूत होता है, और साथ ही यह पर्यटन को भी नई दिशा देता है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/5dp9ndpu
कैसे भारतीय वायु सेना, जौनपुर के युवाओं के सपनों को नई ऊँचाइयों तक ले जा सकती है
आधुनिक राज्य: 1947 से अब तक
Modern State: 1947 to Now
08-10-2025 09:20 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियो, क्या आपने कभी आसमान में उड़ते लड़ाकू विमानों की गर्जना सुनी है? वह गूंज सिर्फ़ इंजनों की आवाज़ नहीं होती, बल्कि उसमें देश की सुरक्षा, साहस और गौरव की धड़कन सुनाई देती है। भारतीय वायु सेना (IAF) हमारी सशस्त्र सेनाओं की वायु शाखा है और इसे दुनिया की चौथी सबसे बड़ी और सबसे सक्षम वायु सेनाओं में गिना जाता है। इसकी स्थापना 8 अक्तूबर 1932 को हुई थी, जब इसे ब्रिटिश वायु सेना (British Air Force) की सहायक इकाई के रूप में गठित किया गया था। तब से लेकर आज तक इसने हर युद्ध, हर संकट और हर प्राकृतिक आपदा में देश की रक्षा और मदद का मोर्चा संभाला है। आज की भारतीय वायु सेना केवल आकाश में दुश्मन को रोकने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह अंतरिक्ष से निगरानी, ज़मीनी और नौसैनिक बलों को समर्थन देने और देश के नागरिकों को आपदा के समय सुरक्षित निकालने का भी काम करती है। जो युवा आसमान में उड़ने का सपना देखते हैं, अपनी काबिलियत को परखना चाहते हैं और राष्ट्र की सेवा में योगदान देना चाहते हैं, उनके लिए भारतीय वायु सेना सिर्फ़ एक करियर नहीं, बल्कि एक रोमांचक और गर्व से भरा जीवन मिशन है। यह वह जगह है जहाँ अनुशासन, साहस और देशभक्ति एक साथ मिलकर जीवन को एक नई दिशा देते हैं।
आज हम भारतीय वायु सेना के इतिहास और उसकी प्रमुख ज़िम्मेदारियों को समझेंगे। फिर फ्लाइंग (Flying), टेक्निकल (Technical) और ग्राउंड ड्यूटी (Ground Duty) शाखाओं की भूमिकाओं पर नज़र डालेंगे। इसके बाद, 12वीं के बाद वायु सेना में शामिल होने के रास्ते, आवश्यक योग्यता और चयन प्रक्रिया की जानकारी लेंगे। हम शारीरिक और चिकित्सीय मानकों को भी समझेंगे। अंत में, वायु सेना दिवस के महत्व और इससे जुड़े करियर विकल्पों पर चर्चा करेंगे।

भारतीय वायु सेना का परिचय और इतिहास
भारतीय वायु सेना की शुरुआत 8 अक्तूबर 1932 को हुई थी, जब इसे ब्रिटिश वायु सेना की सहायक इकाई के रूप में गठित किया गया था। इसे शुरू में बहुत छोटी इकाई माना जाता था, लेकिन इसकी भूमिका समय के साथ बढ़ती गई। 1 अप्रैल 1933 को इसकी पहली ऑपरेशनल स्क्वाड्रन Operational Squadron) का गठन किया गया, जिसमें चार वेस्टलैंड वेपिटी बाइप्लेन (Westland Vapiti biplane) और पाँच भारतीय पायलट (Pilot) शामिल थे। यह भारतीयों के लिए एक गर्व का क्षण था क्योंकि पहली बार देश के युवा पायलटों ने आसमान में उड़ान भरी। स्वतंत्रता के बाद वायु सेना ने अपने उपकरणों, विमानों और रणनीतियों को लगातार आधुनिक बनाया। आज यह न केवल हवाई हमलों से देश की रक्षा करती है बल्कि अंतरिक्ष से निगरानी, दुश्मन की गतिविधियों का पता लगाने, युद्धकाल में जमीनी और नौसेना बलों को सपोर्ट (support) करने और प्राकृतिक आपदाओं के समय राहत एवं बचाव अभियान चलाने में भी अग्रणी है। इसकी भूमिका केवल युद्ध तक सीमित नहीं है - बल्कि शांति के समय भी यह देश की सुरक्षा और मानवीय सहायता के कार्यों में महत्वपूर्ण योगदान देती है।

वायु सेना की प्रमुख शाखाएँ और उनकी ज़िम्मेदारियाँ
भारतीय वायु सेना को तीन मुख्य शाखाओं में बाँटा गया है, और हर शाखा की अपनी विशेष भूमिका है।
फ्लाइंग ब्रांच (Flying Branch) वायु सेना का सबसे ग्लैमरस (glamorous) और चुनौतीपूर्ण हिस्सा है। इसमें फाइटर पायलट (fighter pilot) शामिल होते हैं, जो हवाई युद्ध में भाग लेते हैं और दुश्मन के ठिकानों पर हमले करते हैं। ट्रांसपोर्ट पायलट्स (transport pilot) का काम सैनिकों, सैन्य सामग्री और आपूर्ति को दूर-दराज़ इलाकों तक पहुँचाना होता है। वहीं हेलिकॉप्टर पायलट (helicopter pilot) युद्ध और राहत दोनों स्थितियों में अहम भूमिका निभाते हैं - कभी सैनिकों को युद्धक्षेत्र में उतारने के लिए, तो कभी बाढ़ या भूकंप जैसी आपदाओं में लोगों को बचाने के लिए।
टेक्निकल ब्रांच (Technical Branch) को वायु सेना का रीढ़ कहा जा सकता है। यह सभी इंजीनियरिंग (engineering) उपकरणों, राडार सिस्टम (radar system), मिसाइल लॉन्चर (missile launcher), और विमानों के रख-रखाव का काम देखती है। यह सुनिश्चित करती है कि हर विमान और हथियार हमेशा ऑपरेशनल (operational) स्थिति में रहे।
ग्राउंड ड्यूटी (नॉन-टेक्निकल) ब्रांच (Ground Duty Branch) पर्दे के पीछे रहकर वायु सेना को मज़बूती देती है। इसमें प्रशासनिक काम, लॉजिस्टिक्स (logistics) (आपूर्ति और परिवहन की योजना), मौसम विज्ञान (मिशनों के लिए मौसम का पूर्वानुमान), शिक्षा, और प्रशिक्षण शामिल हैं। इन शाखाओं के तालमेल से ही पूरी वायु सेना एक कुशल मशीन की तरह काम करती है।

12वीं के बाद वायु सेना में शामिल होने के रास्ते
कई युवा छात्र 12वीं कक्षा के बाद भारतीय वायु सेना में शामिल होने का सपना देखते हैं। सबसे प्रमुख रास्ता है नेशनल डिफेंस अकादमी (National Defense Academy) परीक्षा। यह परीक्षा यूपीएससी (UPSC) द्वारा साल में दो बार कराई जाती है। इसमें गणित और सामान्य योग्यता (GAT) की लिखित परीक्षा पास करने के बाद एसएसबी इंटरव्यू (SSB interview), ग्रुप टास्क (group task), मनोवैज्ञानिक परीक्षण और मेडिकल टेस्ट (medical test) होते हैं। चयनित उम्मीदवार तीन साल की कठिन ट्रेनिंग (training) एनडीए (NDA) खड़कवासला में पूरी करते हैं और फिर एयर फ़ोर्स अकादमी (Air Force Academy), डंडीगल में विशेष ट्रेनिंग लेकर अधिकारी बनते हैं। एक और लोकप्रिय रास्ता है अग्निवीर वायु योजना, जिसमें युवा लड़के और लड़कियाँ स्टार (STAR - Selection Test for Airmen Recruitment) परीक्षा पास करके शामिल हो सकते हैं। यह चार साल की सेवा होती है, जिसके दौरान उन्हें बेसिक फिजिकल ट्रेनिंग (Basic Physical Training), कॉम्बैट ट्रेनिंग (Combat Training) और ट्रेड-विशेष (Trade-special) प्रशिक्षण दिया जाता है। अच्छा प्रदर्शन करने वाले अग्निवीरों को नियमित सेवा में शामिल होने का अवसर भी मिलता है। इन दोनों रास्तों के लिए आवश्यक है कि उम्मीदवार ने 10+2 में भौतिकी और गणित लिया हो और कम से कम 50% अंक प्राप्त किए हों।
शारीरिक और चिकित्सीय मानक
भारतीय वायु सेना में चयन केवल लिखित परीक्षा पास करने भर से नहीं हो जाता। इसके बाद उम्मीदवार की शारीरिक क्षमता, मानसिक ताकत और स्वास्थ्य का गहन परीक्षण किया जाता है। चयन प्रक्रिया में 1.6 किलोमीटर की दौड़ को निर्धारित समय में पूरा करना ज़रूरी होता है - पुरुषों को यह दूरी 7 मिनट में पूरी करनी होती है, जबकि महिलाओं को 8 मिनट का समय दिया जाता है। इसके अलावा पुरुष उम्मीदवारों को एक मिनट में 10 पुश-अप्स और 20 स्क्वैट्स (Squats) करने होते हैं, जो उनकी सहनशक्ति और मांसपेशियों की ताकत को परखते हैं। महिला उम्मीदवारों के लिए पुश-अप्स आवश्यक नहीं हैं, लेकिन उन्हें 15 स्क्वैट्स और 10 सिट-अप्स करने होते हैं। इन सबके अलावा, उम्मीदवार की ऊँचाई और वजन का अनुपात मेडिकल मानकों के अनुरूप होना चाहिए। दृष्टि की जाँच की जाती है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उम्मीदवार दिन और रात दोनों समय साफ़ देख सकता है। सुनने की क्षमता, फेफड़ों की क्षमता, हड्डियों और जोड़ों की लचीलापन भी परखा जाता है। इस सख्त मेडिकल परीक्षण का उद्देश्य यह है कि केवल वे युवा, जो शारीरिक रूप से सबसे फिट और मानसिक रूप से सबसे मज़बूत हैं, भारतीय वायु सेना में चयनित हों।
भारतीय वायु सेना दिवस और उसका महत्त्व
हर साल 8 अक्तूबर को पूरे देश में भारतीय वायु सेना दिवसबड़े गर्व और उत्साह के साथ मनाया जाता है। यह दिन भारतीय वायु सेना की स्थापना और उसकी गौरवशाली यात्रा का प्रतीक है। इस अवसर पर देशभर में भव्य परेड और शानदार एयर शो आयोजित किए जाते हैं। इन कार्यक्रमों में लड़ाकू विमान आसमान में करतब दिखाते हैं, ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट (transport aircraft) अपनी क्षमता का प्रदर्शन करते हैं, और हेलिकॉप्टर विभिन्न फ़ॉर्मेशन (formation) बनाकर दर्शकों का मन मोह लेते हैं। 2024 में यह आयोजन चेन्नई के मशहूर मरीना बीच पर हुआ था, जो पहली बार दक्षिण भारत में आयोजित होने के कारण ऐतिहासिक रहा। इस बार का थीम था - “भारतीय वायु सेना: सक्षम, सशक्त, आत्मनिर्भर।” यह थीम दर्शाती है कि वायु सेना न केवल आधुनिक तकनीक से लैस है बल्कि स्वदेशी उत्पादन और आत्मनिर्भर भारत की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ रही है। यह दिन युवाओं के दिलों में देशभक्ति की नई लहर पैदा करता है और उन्हें प्रेरित करता है कि वे भी इस गौरवशाली संगठन का हिस्सा बनें।
करियर विकल्प और प्रेरणा स्रोत
भारतीय वायु सेना में करियर सिर्फ़ एक नौकरी नहीं बल्कि एक मिशन है। यहाँ अधिकारी बनकर आप नेतृत्व की जिम्मेदारी निभाते हैं और अपनी टीम को प्रेरित करते हैं। करियर विकल्प कई प्रकार के हैं - आप फाइटर पायलट, ट्रांसपोर्ट पायलट, हेलिकॉप्टर पायलट बन सकते हैं या टेक्निकल ब्रांच में इंजीनियर के रूप में काम कर सकते हैं। ग्राउंड ड्यूटी शाखा में प्रशासन, लॉजिस्टिक्स, शिक्षा, अकाउंट्स (accounts) और मौसम विज्ञान में करियर के अवसर हैं। यहाँ मिलने वाली ट्रेनिंग आपको आत्मविश्वास, साहस और अनुशासन सिखाती है, जो जीवनभर आपके काम आते हैं। यह करियर न केवल रोमांचक और सम्मानजनक है बल्कि आपको राष्ट्र सेवा का अनोखा अवसर भी देता है।
संदर्भ-
क्यों जौनपुर का शाही किला, आज भी हमें मध्यकालीन वैभव की याद दिलाता है?
वास्तुकला 1 वाह्य भवन
Architecture I - Exteriors-Buildings
07-10-2025 09:20 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर, गंगा और गोमती नदियों के दोआब में बसा एक ऐतिहासिक नगर है, जिसकी मिट्टी ने अनगिनत सभ्यताओं, राजवंशों और संस्कृतियों को पनपते और ढलते देखा है। यह शहर केवल एक भूगोलिक स्थान नहीं, बल्कि मध्यकालीन भारतीय इतिहास का जीवंत दस्तावेज है। यहाँ की धरती ने न केवल युद्ध और सत्ता संघर्षों का साक्षात्कार किया, बल्कि ज्ञान, कला और स्थापत्य की ऐसी परंपरा विकसित की, जिसने इसे देश-दुनिया में विशिष्ट पहचान दिलाई। यही कारण है कि 14वीं और 15वीं शताब्दी में इसे "भारत का शिराज़" कहा जाने लगा। यह उपाधि केवल नाम भर नहीं थी, बल्कि यहाँ के सांस्कृतिक उत्कर्ष, स्थापत्य वैभव और शैक्षिक वातावरण की वास्तविक झलक थी। इस नगर की सबसे भव्य और ऐतिहासिक धरोहरों में शाही किला एक अद्वितीय स्थान रखता है। गोमती नदी के किनारे स्थित यह किला केवल एक सैन्य दुर्ग भर नहीं, बल्कि शासकों की दृष्टि, कलात्मक रुचि और सांस्कृतिक समझ का उत्कृष्ट प्रतीक है। इसकी प्राचीरें आज भी सामरिक शक्ति की कहानी सुनाती हैं, तो भीतर की इमारतें स्थापत्य कला के अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। ऊँचे मेहराब, गहरे शिलालेख, मस्जिदों के गुंबद और विशाल आँगन - ये सब मिलकर उस युग के वैभव का प्रत्यक्ष प्रमाण देते हैं। शाही किला केवल अतीत का अवशेष नहीं, बल्कि वह दर्पण है जिसमें हम मध्ययुगीन जौनपुर के उत्कर्ष, शौर्य और सांस्कृतिक चेतना की छवि स्पष्ट देख सकते हैं।
आज हम जानेंगे कि शर्की राजवंश ने जौनपुर को स्थापत्य और संस्कृति के क्षेत्र में कैसे नई पहचान दी। इसके बाद, हम विस्तार से पढ़ेंगे कि शाही किले का निर्माण कब और किस उद्देश्य से हुआ तथा यह सत्ता और सैन्य दृष्टि से क्यों अहम था। फिर, हम किले की वास्तुकला की विशेषताओं - भव्य द्वार, हम्माम, भूलभुलैया, शिलालेख और मस्जिदों - को सरल भाषा में समझेंगे। अंत में, हम शाही पुल और उससे जुड़ी ऐतिहासिक धरोहरों के महत्व पर नज़र डालेंगे और देखेंगे कि ये आज भी जौनपुर की पहचान और पर्यटन का अभिन्न हिस्सा कैसे बने हुए हैं।
शर्की राजवंश और जौनपुर की स्थापत्य परंपरा
14वीं और 15वीं शताब्दी का दौर जौनपुर के इतिहास का स्वर्णिम अध्याय माना जाता है। जब शर्की राजवंश का उदय हुआ, तब जौनपुर केवल एक प्रशासनिक केंद्र नहीं था, बल्कि कला, शिक्षा और स्थापत्य का गढ़ बन चुका था। शर्की शासक न सिर्फ कुशल सेनानी थे बल्कि कला और संस्कृति के बड़े संरक्षक भी थे। यही वजह है कि उस समय जौनपुर को "भारत का शिराज़" कहा जाने लगा। शर्की स्थापत्य शैली, फ़ारसी और भारतीय शिल्पकला के मेल से विकसित हुई। इसमें ऊँचे मेहराब, विशाल गुम्बद, जटिल नक्काशी और मजबूत संरचनाएँ शामिल थीं। अटाला मस्जिद, जामा मस्जिद और शाही किला इसी शैली के ऐसे उदाहरण हैं जो आज भी पर्यटकों और इतिहासकारों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। इन इमारतों की भव्यता देखकर यह सवाल उठना लाजमी है कि उस दौर में बिना किसी आधुनिक तकनीक या मशीनरी (machinery) के इतनी सुदृढ़ और कलात्मक संरचनाएँ कैसे बनाई गई होंगी। जौनपुर की धरती पर खड़े ये स्मारक उस समय की प्रतिभा, मेहनत और दृष्टिकोण का जीवंत प्रमाण हैं।

शाही किले का निर्माण और ऐतिहासिक महत्व
शाही किले का निर्माण 1362 ईस्वी में फिरोज शाह तुगलक के सेनापति इब्राहीम नायब बरबक द्वारा करवाया गया। गोमती नदी के किनारे इसकी स्थिति इस किले को सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण बनाती थी। नदी का किनारा होने के कारण यह किला न केवल आक्रमणों से सुरक्षा देता था बल्कि व्यापार और आवागमन के लिए भी अहम साबित होता था। समय बीतने के साथ इस किले ने कई उतार-चढ़ाव देखे। ब्रिटिश (British) और लोधी शासकों ने कई बार इसे नुकसान पहुँचाया, लेकिन मुगलों के शासनकाल में इसका पुनर्निर्माण भी हुआ। इतिहासकारों का मानना है कि यह किला सिर्फ सत्ता का प्रतीक नहीं था, बल्कि यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान और सैन्य रणनीतियों का केंद्र भी था। इसकी दीवारें सदियों पुराने किस्सों को संजोए हुए हैं। जब कोई आज इसकी ओर देखता है, तो उसे लगता है जैसे पत्थरों की इन प्राचीरों के बीच इतिहास अब भी अपनी कहानियाँ फुसफुसा रहा हो।
किले की वास्तुकला और मुख्य संरचनाएँ
शाही किले की संरचना अपने आप में अनोखी है। इसका आकार अनियमित चतुर्भुज है, जो इसे प्राकृतिक भूगोल और सुरक्षा की दृष्टि से लाभकारी बनाता है। मुख्य द्वार लगभग 36 फीट ऊँचा है - इतना भव्य कि कोई भी प्रवेश करने वाला शासकों की शक्ति और वैभव का अनुभव किए बिना नहीं रह सकता। भीतरी द्वार 26.5 फीट ऊँचा और 16 फीट चौड़ा है, जो उस समय की स्थापत्य कुशलता का शानदार उदाहरण है। अकबर के समय मुनीम खान ने इस किले में नया प्रवेश द्वार और विशाल प्रांगण का निर्माण कराया। दीवारों में राख के पत्थरों का प्रयोग किया गया है, जिससे यह किला आज भी मजबूती से खड़ा है। अंदर प्रवेश करने पर तुर्की शैली का स्नानघर (हम्माम), रहस्यमयी भूलभुलैया और इब्राहीम बनबांक द्वारा निर्मित मस्जिद दिखाई देती है। यहाँ घूमते हुए ऐसा लगता है जैसे कोई व्यक्ति अचानक समय के उस दौर में पहुँच गया हो, जब यह किला सैनिकों की गूंज और दरबारियों की आवाज़ों से गूंजता था।
किले के भीतर मौजूद शिलालेख, मस्जिदें और स्मारक
किले के भीतर की संरचनाएँ अपने आप में इतिहास का जीवंत संग्रहालय हैं। यहाँ बनी मस्जिद, बंगाल शैली की झलक प्रस्तुत करती है। इसकी लंबाई लगभग 39 मीटर है और छत पर बने तीन विशाल गुम्बद दूर से ही इसकी पहचान कराते हैं। मस्जिद के पास 12 मीटर ऊँचा एक स्तंभ स्थित है, जिस पर फ़ारसी शिलालेख अंकित हैं। ये शिलालेख केवल शब्द नहीं, बल्कि उस समय की सामाजिक, धार्मिक और प्रशासनिक स्थितियों की झलक हैं। इनमें से कई जानकारी 1376 ईस्वी के मस्जिद निर्माण से जुड़ी हुई है, जिसे इब्राहीम नायब बरबक ने बनवाया था। इसके अलावा, किले के मुख्य द्वार के सामने रखा गया 1766 का शिलालेख उस समय के प्रशासनिक आदेशों और शाही घोषणाओं का साक्षी है। जब कोई इन्हें पढ़ता है तो ऐसा प्रतीत होता है मानो सदियाँ पुराना इतिहास सीधे उससे संवाद कर रहा हो।

शाही पुल और जौनपुर की समृद्ध धरोहर
शाही पुल, जिसे सुल्तान हुसैन शाह शर्की ने बनवाया था, गोमती नदी पर बना एक अद्भुत स्थापत्य चमत्कार है। यह पुल न केवल किले और शहर को जोड़ता था, बल्कि व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का प्रमुख मार्ग भी था। इस पुल की मजबूती और सुंदरता को देखकर यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि मध्यकालीन इंजीनियर (engineer) किस स्तर पर उन्नत थे। इसके मेहराब और स्तंभ आज भी गर्व से खड़े हैं। इस पुल ने सदियों तक जौनपुर की समृद्धि, व्यापार और सांस्कृतिक जुड़ाव को मजबूत बनाए रखा। शाही किला और शाही पुल, दोनों मिलकर जौनपुर की उस ऐतिहासिक पहचान को साकार करते हैं जो आज भी हमारे हृदय में जीवित है।

आज का शाही किला: संरक्षित धरोहर और पर्यटन आकर्षण
आज शाही किला भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के अंतर्गत संरक्षित धरोहर है। जब कोई इसकी ऊँची प्राचीरों पर खड़ा होकर गोमती नदी और पूरे जौनपुर का नज़ारा देखता है, तो उसे ऐसा लगता है मानो किसी चित्रकार ने कैनवास पर एक अद्भुत चित्र उकेरा हो। यह किला आज भी शोधकर्ताओं और इतिहास प्रेमियों के लिए खजाना है। पर्यटक यहाँ आकर केवल स्थापत्य नहीं देखते, बल्कि जौनपुर की आत्मा और उसकी संस्कृति से जुड़ाव महसूस करते हैं। यही कारण है कि शाही किला आज भी उतना ही जीवंत है, जितना यह सदियों पहले था। यह केवल अतीत की याद नहीं, बल्कि जौनपुर की पहचान और गर्व का प्रतीक भी है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/5emf6c7v
जौनपुरवासियों, आकर्षक ऑनलाइन नौकरियाँ आपके लिए जाल भी हो सकती हैं
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
06-10-2025 09:22 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियो, बेरोज़गारी की समस्या हम सबकी ज़िंदगी से गहराई से जुड़ी हुई है। हमारे शहर की गलियों से लेकर कॉलेजों और बाज़ारों तक, हर जगह आपको ऐसे युवा मिलेंगे जो अच्छी नौकरी की तलाश में दिन-रात मेहनत कर रहे हैं। पढ़ाई पूरी करने के बाद हर किसी का सपना होता है कि वह अपने परिवार की मदद करे, अपने पैरों पर खड़ा हो और अपने भविष्य को सुरक्षित बनाए। लेकिन जब मनचाहे अवसर नहीं मिलते और उम्मीदें धीरे-धीरे टूटने लगती हैं, तो ज़्यादातर लोग इंटरनेट (Internet) और ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म्स (Online Platforms) का सहारा लेने लगते हैं। ये प्लेटफ़ॉर्म्स देखने में बेहद आसान और आधुनिक लगते हैं - सिर्फ़ कुछ क्लिक कीजिए और ढेरों नौकरी ऑफ़र (Job Offers) सामने आ जाते हैं। लेकिन यही सुविधा, कई बार धोखे और ठगी का नया रास्ता भी बन जाती है। आजकल ऑनलाइन नौकरी घोटाले इतनी तेज़ी से फैल रहे हैं कि कई बार असली और नकली ऑफ़र में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। ठग लोग युवाओं की इस विवशता को पहचानते हैं और लालच भरे ऑफ़रों के ज़रिए उन्हें अपने जाल में फँसा लेते हैं। “जल्दी नौकरी, ऊँची तनख़्वाह और विदेश जाने का मौका” - ये सुनकर कई युवा अपनी मेहनत की कमाई ठगों को सौंप देते हैं। लेकिन हक़ीक़त सामने आने पर पता चलता है कि यह सिर्फ़ एक झूठा सपना था। ऐसे धोखों से न केवल पैसों का नुकसान होता है, बल्कि कई युवाओं की ज़िंदगी भी दाँव पर लग जाती है।
आज हम इस लेख में ऑनलाइन नौकरी घोटालों की पूरी सच्चाई को विस्तार से समझेंगे। सबसे पहले, हम देखेंगे कि भारत में बेरोज़गारी किस तरह युवाओं को इन जालसाज़ों के निशाने पर ला रही है। इसके बाद, हम जानेंगे कि ऑनलाइन ठगी से जुड़े आंकड़े और किन-किन आयु वर्गों पर इसका सबसे ज़्यादा असर हो रहा है। फिर हम समझेंगे कि कैसे फर्जी कंपनियाँ और अंतरराष्ट्रीय गिरोह नकली नौकरियों के नाम पर युवाओं को विदेश ले जाकर अवैध कामों में धकेल देते हैं। अंत में, हम चर्चा करेंगे कि भारत सरकार और विदेश मंत्रालय इन खतरों से निपटने के लिए क्या चेतावनियाँ जारी कर रहे हैं और नकली नौकरी प्रस्तावों को पहचानने के 5 प्रमुख संकेत कौन से हैं।
भारत में बेरोज़गारी और ऑनलाइन नौकरी घोटालों की बढ़ती चुनौती
भारत में बेरोज़गारी लंबे समय से एक गंभीर सामाजिक और आर्थिक समस्या रही है। लाखों युवा हर साल अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी की तलाश में निकलते हैं, लेकिन अवसर सीमित होने के कारण प्रतिस्पर्धा अत्यधिक बढ़ जाती है। यही कारण है कि युवा अब इंटरनेट और विभिन्न ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म्स के माध्यम से नौकरी ढूँढने लगे हैं। ऑनलाइन विकल्प उन्हें घर बैठे आवेदन करने की सुविधा तो देता है, लेकिन यही सुविधा कई बार उनके लिए जोखिमभरा साबित होती है। ठग और साइबर अपराधी युवाओं की इस विवशता को भली-भाँति समझते हैं और नकली कंपनियों के नाम पर नौकरी देने का वादा कर उन्हें अपने जाल में फँसा लेते हैं। कई बार युवाओं को आकर्षक वेतन और विदेशी अवसरों का प्रलोभन दिखाया जाता है, जिससे वे और भी जल्दी विश्वास कर बैठते हैं। परिणामस्वरूप, कुछ लोग अपने मेहनत से जमा किए हुए पैसे गँवा बैठते हैं, तो वहीं कई युवाओं को विदेश बुलाकर ज़बरन अवैध गतिविधियों में धकेल दिया जाता है। यह समस्या केवल व्यक्तिगत स्तर तक सीमित नहीं है, बल्कि समाज, अर्थव्यवस्था और देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए भी गहरी चुनौती बन चुकी है।

ऑनलाइन ठगी के आंकड़े और प्रभावित आयु वर्ग
हाल ही में नौकरी दिलाने वाले चैट-आधारित (Chat-based) मंच हायरेक्ट (Hirect) की एक रिपोर्ट ने इस समस्या की भयावहता को उजागर किया है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लगभग 56% नौकरी चाहने वाले युवा किसी न किसी प्रकार की ऑनलाइन धोखाधड़ी का शिकार हो चुके हैं। यह आँकड़ा बताता है कि हर दो में से एक नौकरी खोजने वाला व्यक्ति ठगी का सामना कर चुका है, जो इस समस्या की व्यापकता को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि इसमें 20 से 29 वर्ष आयु वर्ग के युवा सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं। यह वही उम्र होती है जब कोई व्यक्ति अपने करियर (career) की नींव रखता है, सपनों और उम्मीदों से भरा होता है, लेकिन अनुभव की कमी और जल्दी नौकरी पाने की अधीरता उन्हें जाल में फँसा देती है। इस उम्र के युवा अक्सर नौकरी प्रस्तावों में लिखे शब्दों के पीछे की सच्चाई को समझ नहीं पाते और धोखे का शिकार बन जाते हैं। यह स्थिति न केवल उनके व्यक्तिगत भविष्य को प्रभावित करती है, बल्कि समाज में एक निराशा का माहौल भी पैदा करती है।

फर्जी कंपनियों और अंतरराष्ट्रीय गिरोहों की चालबाज़ियाँ
आज के दौर में यह धोखाधड़ी केवल भारत तक सीमित नहीं है, बल्कि एक संगठित अंतरराष्ट्रीय जाल के रूप में फैल चुकी है। कई फर्जी कंपनियाँ, विशेष रूप से थाईलैंड (Thailand), म्यांमार (Myanmar), कंबोडिया (Cambodia) और दुबई (Dubai) जैसे देशों में सक्रिय हैं। ये कंपनियाँ सोशल मीडिया (Social Media) विज्ञापनों और बिचौलियों के नेटवर्क (network) का उपयोग करके भारतीय युवाओं को आकर्षित करती हैं। "डिजिटल सेल्स एंड मार्केटिंग ऑफिसर" (Digital Sales & Marketing Officer) या "कस्टमर सपोर्ट एग्ज़िक्यूटिव" (Customer Support Executive) जैसे आकर्षक पदों और ऊँची तनख्वाह का लालच देकर उन्हें भरोसा दिलाया जाता है कि यह उनके करियर के लिए सुनहरा अवसर है। लेकिन वास्तविकता इससे बिल्कुल अलग होती है। वहाँ पहुँचने पर इन नौकरियों का कोई अस्तित्व नहीं होता और पीड़ितों को जबरन अवैध गतिविधियों जैसे कॉल सेंटर फ्रॉड (Call Center Fraud), क्रिप्टोकरेंसी (Cryptocurrency) की चोरी, ऑनलाइन जुआ और डिजिटल स्कैमिंग (Digital Scamming) में धकेल दिया जाता है। कई बार युवाओं के पासपोर्ट (Passport) तक छीन लिए जाते हैं, जिससे उनके पास भागने या कानूनी मदद लेने का कोई विकल्प नहीं बचता। इस तरह यह एक संगठित अपराध का हिस्सा बन जाता है, जहाँ युवा मजबूर होकर गिरोह के आदेशों का पालन करने पर विवश हो जाते हैं।

भारत सरकार और विदेश मंत्रालय की चेतावनियाँ
ऑनलाइन और अंतरराष्ट्रीय नौकरी घोटालों की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए भारत सरकार लगातार सतर्कता बरतने की अपील कर रही है। विदेश मंत्रालय ने समय-समय पर आधिकारिक चेतावनियाँ जारी की हैं कि किसी भी विदेशी नौकरी प्रस्ताव को स्वीकार करने से पहले उसकी पूरी जाँच-पड़ताल करें। हाल ही में म्यांमार में फँसे दर्जनों भारतीय युवाओं को बचाया गया, जिन्हें बेहद कठिन और अमानवीय परिस्थितियों में काम करने के लिए मजबूर किया गया था। सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि किसी भी लालच में बिना सत्यापन के विदेश न जाएँ। यदि किसी कंपनी या एजेंसी की साख पर ज़रा भी संदेह हो, तो उसमें शामिल न हों। विदेश यात्रा पर जाने से पहले आधिकारिक जॉब कॉन्ट्रैक्ट (Job Contract), वर्क परमिट (Work Permit) और कंपनी की वैधता की जाँच करना बेहद ज़रूरी है। साथ ही, सरकार ने युवाओं से यह भी अपील की है कि वे अपने परिजनों और स्थानीय अधिकारियों को सूचित किए बिना ऐसे प्रस्ताव स्वीकार न करें। सरकार के ये कदम युवाओं को सुरक्षित रखने और अंतरराष्ट्रीय गिरोहों के जाल से बचाने की दिशा में अहम हैं।

नकली नौकरी की पेशकश पहचानने के 5 प्रमुख संकेत
युवाओं को ठगी से बचाने के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि वे नकली नौकरी प्रस्तावों की पहचान करना सीखें। कुछ संकेत ऐसे होते हैं जो अक्सर धोखाधड़ी की ओर इशारा करते हैं:
- अस्पष्ट नौकरी विवरण – यदि नौकरी की ज़िम्मेदारियाँ साफ़-साफ़ न लिखी हों और केवल आकर्षक शब्दों में पद का विवरण दिया गया हो।
- त्वरित ऑफर लेटर – यदि बिना इंटरव्यू (interview), टेस्ट (test) या चयन प्रक्रिया के सीधे नियुक्ति की पेशकश की जाए।
- खराब लिखित ईमेल – नौकरी से जुड़ा पत्र या ईमेल (e-Mail) यदि पेशेवर न लगे, उसमें वर्तनी और व्याकरण की गलतियाँ हों।
- भुगतान की मांग – यदि किसी एजेंसी या कंपनी द्वारा नौकरी दिलाने के बदले पहले से पैसे माँगे जाएँ, तो यह निश्चित रूप से धोखा है।
- गोपनीय जानकारी का अनुरोध – यदि प्रारंभिक चरण में ही बैंक डिटेल्स (bank details), आधार कार्ड नंबर (card number) या अन्य निजी जानकारी माँगी जाए।
यदि इन संकेतों में से कोई भी सामने आए, तो समझना चाहिए कि नौकरी का प्रस्ताव नकली है। ऐसे मामलों में तुरंत उस प्रस्ताव को ठुकराना ही सबसे सुरक्षित विकल्प है। साथ ही, इन घटनाओं की सूचना साइबर (Cyber) अपराध शाखा को देकर दूसरों को भी सतर्क करना समाज के लिए एक जिम्मेदारी है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/vnryvp6e
जौनपुरवासियों, जानिए रागों की रानी भैरवी: संगीत में करुणा और उल्लास की अद्भुत दुनिया
ध्वनि 1- स्पन्दन से ध्वनि
Sound I - Vibration to Music
05-10-2025 09:20 AM
Jaunpur District-Hindi

राग भैरवी को अक्सर 'रागों की रानी' कहा जाता है। इसका नाम हिंदू देवी भैरवी से लिया गया है और यह विविध भावनाओं को संगीत में पिरोता है। यह राग कुछ लोगों में भय और अराजकता की अनुभूति जगा सकता है, जबकि दूसरों में प्रेम, भक्ति और संतोष का सुखद अनुभव प्रदान करता है। इसे आम तौर पर सूर्योदय के समय या संगीत समारोह में अंतिम प्रस्तुतिकरण के रूप में गाया जाता है। भैरवी थाट का आश्रय राग है। हालांकि इसका समय प्रातःकाल है, परंपरा के अनुसार महफिल समाप्त करने के लिए भी इसे प्रस्तुत किया जाता है। आजकल इस राग में बारह स्वरों का स्वतंत्र प्रयोग बढ़ गया है, जिससे कलाकार विभिन्न रागों के अंशों को भी इसमें शामिल कर सकते हैं। राग भैरवी भाव-अभिव्यक्ति के लिए अत्यंत उपयुक्त और प्रभावशाली है। इसके प्रारंभिक भाग में करुण और शोक रस प्रमुख होते हैं, और जैसे-जैसे राग का मध्य और उत्तरार्ध आता है, इसकी वृत्ति उल्लसित और सजीव हो जाती है।
कौन संगीत प्रेमी होगा जिसने राग भैरवी का नाम न सुना हो या इसके मधुर स्वर नहीं अनुभव किए हों। इसके भावपूर्ण, लचीले और रसपूर्ण स्वर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। इस राग का विस्तार मुख्यतः मध्य और उच्च सप्तक में होता है। जब इसमें शुद्ध रिषभ का प्रयोग किया जाता है, तो इसे सिंधु-भैरवी के नाम से जाना जाता है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/yt62ybjn
https://tinyurl.com/2td7ekxm
https://tinyurl.com/wm2rzy3
बारिश के बाद शहर की सबसे बड़ी चुनौती: जलभराव और हमारी ज़िंदगी पर उसका असर
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
04-10-2025 09:24 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियो, क्या आपने कभी मानसून के दौरान शहर के कुछ इलाके ऐसे देखे हैं जहाँ सड़कें, गलियाँ और खाली मैदान पूरी तरह पानी में डूब जाते हैं और यह पानी कई दिनों तक जमा रह जाता है? यह सिर्फ बारिश का असर नहीं है, बल्कि इसे हम वॉटरलॉगिंग (Waterlogging) कहते हैं - एक ऐसी समस्या जो केवल जलजमाव तक सीमित नहीं है, बल्कि हमारे जीवन, स्वास्थ्य, कृषि और पर्यावरण पर गहरा असर डालती है। जब जमीन में पानी का संतुलन बिगड़ जाता है और मिट्टी पूरी तरह पानी से संतृप्त हो जाती है, तो पौधों की जड़ें आवश्यक ऑक्सीजन (Oxygen) नहीं पा पातीं, मिट्टी की उर्वरता कम हो जाती है और आसपास के क्षेत्रों में जीवन चलना मुश्किल हो जाता है। शहरी क्षेत्रों में यह समस्या और भी गंभीर रूप ले लेती है। भारी बारिश, बाढ़, बंद नालियाँ और अव्यवस्थित निर्माण कार्य मिलकर शहर के मार्गों, पार्किंग क्षेत्रों (Parking Areas), फुटपाथों (Footpath) और निर्माण स्थलों पर पानी जमा कर देते हैं। इसके परिणामस्वरूप न केवल लोगों की रोज़मर्रा की जिंदगी प्रभावित होती है, बल्कि स्वास्थ्य पर खतरा, आर्थिक नुकसान और शहर की बुनियादी अवसंरचना पर दबाव भी बढ़ जाता है।
इस लेख में हम पांच महत्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान देंगे। सबसे पहले, हम जानेंगे कि वॉटरलॉगिंग वास्तव में है क्या और मिट्टी, पौधों और जीवन पर इसका क्या असर होता है। फिर, हम देखेंगे कि इसके पीछे कौन-कौन से प्राकृतिक और मानवजनित कारण जिम्मेदार हैं। इसके बाद, हम वॉटरलॉगिंग के विभिन्न प्रकारों को समझेंगे और जानेंगे कि ये अलग-अलग परिस्थितियों में कैसे अलग ढंग से प्रभावित करते हैं। उसके बाद, हम इसके मानव, कृषि और पर्यावरणीय प्रभावों पर चर्चा करेंगे। अंत में, हम देखेंगे कि इस समस्या से निपटने के लिए तकनीकी और प्राकृतिक उपाय क्या हैं और कैसे इन्हें अपनाकर हम इस संकट को कम कर सकते हैं।
शहरी वॉटरलॉगिंग क्या है?
शहरी क्षेत्रों में वॉटरलॉगिंग वह स्थिति है जब भारी बारिश, अचानक बाढ़, या जलनिकासी प्रणाली में अवरोध के कारण शहर की सड़कों, गलियों, फुटपाथों, पार्किंग क्षेत्रों, खेल मैदानों और निर्माण क्षेत्रों में पानी जमा हो जाता है। जब पानी लंबे समय तक जमा रहता है, तो न केवल लोगों का दैनिक जीवन प्रभावित होता है, बल्कि शहर की बुनियादी अवसंरचना भी अस्थिर हो जाती है। सड़कों पर पानी जमा होने से वाहन फंस सकते हैं, यातायात बाधित हो जाता है और लोग अपने कार्यस्थल, स्कूल या मेडिकल सुविधाओं (medical facilities) तक पहुँचने में कठिनाई महसूस करते हैं। इसके अलावा, जमा पानी शहर की अर्थव्यवस्था पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है क्योंकि बाजार, परिवहन, और दैनिक गतिविधियाँ बाधित हो जाती हैं। शहरी वॉटरलॉगिंग केवल जलजमाव की समस्या नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक समस्या है जो मानव जीवन, स्वास्थ्य, आर्थिक स्थिरता, पर्यावरण और आसपास की कृषि भूमि पर भी असर डालती है। इससे शहर की सामाजिक संरचना भी प्रभावित होती है क्योंकि आपातकालीन सेवाएँ जैसे एम्बुलेंस (ambulance) और फायर ब्रिगेड (Fire Brigade) समय पर अपनी सेवाएँ नहीं दे पाती हैं, जिससे जीवन पर भी खतरा बढ़ जाता है।
शहरी वॉटरलॉगिंग के कारण
शहरों में वॉटरलॉगिंग के पीछे कई प्राकृतिक और मानवजनित कारण होते हैं। प्राकृतिक कारणों में सबसे प्रमुख है लगातार और भारी बारिश, जो शहर की जलनिकासी क्षमता से अधिक होती है। अचानक बाढ़, उच्च जल स्तर (High Water Table) और भूगर्भीय संरचनाएँ भी जलजमाव को बढ़ाती हैं। मानवजनित कारणों में अधिक सिंचाई, जंगलों की कटाई, अतिक्रमण और असंगठित निर्माण कार्य शामिल हैं। शहरों में नालियों और सीवर लाइनों की सफाई न होना, अवैध कचरा फेंकना, और प्राकृतिक ढलानों या जलनिकासी चैनलों में अवरोध डालना भी पानी के जमाव का मुख्य कारण है। इसके अलावा, कंक्रीट (concrete) और एस्फाल्ट (asphalt) की बनी सतहें और गैर-पारगम्य फ्लोरिंग वर्षा (Non-permeable flooring showers) के पानी को मिट्टी में अवशोषित नहीं होने देतीं, जिससे सतही जलजमाव और बढ़ जाता है। इन सभी प्राकृतिक और मानवजनित कारणों का सम्मिलित प्रभाव शहर में वॉटरलॉगिंग की गंभीरता और अवधि को लंबा कर देता है। उदाहरण के लिए, मेट्रो शहरों में जहां अधिक भवन और सड़कों के निर्माण ने प्राकृतिक जल निकासी को बाधित किया है, वहाँ वर्षा के पानी के कारण कई बार मुख्य मार्गों और आवासीय क्षेत्रों में जलजमाव हो जाता है।

शहरी वॉटरलॉगिंग के प्रकार
शहरी वॉटरलॉगिंग मुख्यतः तीन प्रकार की होती है। पहला प्रकार है सतही (Surface Waterlogging), जिसमें बारिश या बाढ़ का पानी सीधे सड़क, पार्किंग स्थल, फुटपाथ, खेल मैदान और खुले मैदानों पर जमा हो जाता है। यह प्रकार तुरंत दिखाई देता है और आम जनता को तुरंत असुविधा पहुँचाता है, जैसे कि वाहन फंस जाना, पैदल चलना मुश्किल हो जाना और बच्चों के खेल पर प्रभाव पड़ना। दूसरा प्रकार है भूमिगत (Subsurface Waterlogging), जिसमें पानी मिट्टी के भीतर जाकर भवनों की नींव, पाइपलाइन (pipeline) और भूमिगत संरचनाओं को प्रभावित करता है। यह प्रकार दीर्घकालिक समस्याएँ उत्पन्न करता है क्योंकि यह निर्माण कार्यों और संरचनाओं की स्थायित्व क्षमता को कमजोर करता है। तीसरा प्रकार है जल स्तर आधारित (Groundwater / High Water Table Waterlogging), जिसमें भूजल का स्तर बढ़कर शहर के निचले इलाकों, बोरवेल और भूमिगत संरचनाओं तक पहुँच जाता है। यह दीर्घकालिक जलजमाव का कारण बनता है और शहर के लिए स्थायी अवसंरचनात्मक खतरा उत्पन्न करता है। इन प्रकारों के प्रभाव अलग-अलग होते हैं और इनके निवारण के लिए भी स्थिति, भूगोल और अवसंरचना के अनुसार अलग-अलग उपाय करने पड़ते हैं।

शहरी जीवन, स्वास्थ्य और पर्यावरण पर प्रभाव
शहरी वॉटरलॉगिंग का प्रभाव केवल जलजमाव तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह शहरवासियों के जीवन, स्वास्थ्य और पर्यावरण पर गंभीर असर डालता है। जब सड़कें और गलियां जलमग्न हो जाती हैं, तो सार्वजनिक और निजी परिवहन बाधित हो जाता है। लोग अपने कार्यस्थल, स्कूल, कॉलेज और अस्पताल समय पर नहीं पहुँच पाते। स्वास्थ्य पर इसका सबसे बड़ा असर मच्छरों के प्रजनन और जलजनित रोगों के फैलाव के रूप में देखा जाता है। जमा हुआ पानी मलेरिया (malaria), डेंगू (dengue), चिकनगुनिया, हैजा, टाइफाइड (typhoid) और अन्य जलजनित रोगों का मुख्य कारण बनता है। इसके अलावा, वॉटरलॉगिंग शहर की अवसंरचना को कमजोर करता है। इमारतों, पुलों और सड़क संरचनाओं पर लंबे समय तक जमा पानी का दबाव बढ़ता है, जिससे नींव कमजोर होती है और मरम्मत की लागत बढ़ जाती है। पर्यावरणीय दृष्टि से यह कचरे और प्रदूषित पानी के जमाव को बढ़ाता है, जिससे जलप्रदूषण और बायोडायवर्सिटी (biodiversity) पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। लंबे समय तक जलजमाव शहर की हरितभूमियों, पार्कों और झीलों को भी प्रभावित करता है, जिससे शहर का वातावरण दूषित होता है और प्राकृतिक सौंदर्य कम हो जाता है।

शहरी वॉटरलॉगिंग से बचाव और समाधान
शहरी वॉटरलॉगिंग से निपटने के लिए तकनीकी और प्राकृतिक उपायों का संयोजन सबसे प्रभावी होता है। तकनीकी उपायों में उन्नत जल निकासी तंत्र (drainage system) जैसे सीवर लाइन (sewer line), नालियाँ, पंपिंग स्टेशन (pumping station), उपयुक्त ढलान बनाए रखना और जल निकासी की नियमित जाँच शामिल हैं। इसके साथ ही, ऊँची सड़कें और पैदलपथ बनाए जा सकते हैं ताकि सतही जलजमाव रोका जा सके। भूजल स्तर नियंत्रित करने के लिए परकोलेशन पिट्स (percolation pits), रिचार्ज वेल्स (recharge wells) और भूमिगत जल भंडारण टैंक (underground storage tanks) बनाए जा सकते हैं। प्राकृतिक और स्थायी उपायों में वनीकरण और हरित क्षेत्र (green space) बढ़ाना, वर्षा जल संचयन करना, शहरी आर्द्रभूमि, तैरते बगीचे, ऊँचे क्यारियाँ और छोटे तालाब शामिल हैं। सामुदायिक प्रयास भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं; नागरिकों को नालियों की सफाई, जल संरक्षण और जलभराव की समस्या के प्रति जागरूक करना आवश्यक है। जब तकनीकी और प्राकृतिक उपाय एक साथ अपनाए जाते हैं, तो शहर की जीवनशैली सुरक्षित रहती है, स्वास्थ्य बेहतर होता है और पर्यावरणीय संतुलन भी बना रहता है। उदाहरण के लिए, यदि शहर के निवासी और नगर निगम मिलकर वर्षा जल संचयन और नालियों की सफाई करते हैं, तो पानी जल्दी निकल जाता है और शहर की सड़कों व घरों में जलभराव की समस्या नहीं होती।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/5n75zjpr
https://tinyurl.com/fkhbekh8
https://tinyurl.com/3daepudy
https://tinyurl.com/4786r3zp
कैसे कॉफ़ी अब जौनपुरवासियों की रोज़मर्रा की दिनचर्या का अहम हिस्सा बन गई है?
स्वाद- खाद्य का इतिहास
Taste - Food History
03-10-2025 09:23 AM
Jaunpur District-Hindi

सुबह की पहली किरण के साथ जब हम दिन की शुरुआत करते हैं, तो अक्सर एक गरमागरम कप कॉफ़ी (coffee) हमारी थकान और सुस्ती को दूर कर देता है। उसकी सोंधी ख़ुशबू मानो नींद को चुरा लेती है और हमारे भीतर ऊर्जा की एक नई लहर दौड़ जाती है। कॉफ़ी सिर्फ़ एक पेय नहीं, बल्कि वह साथी है जो हमें लंबे दिन की चुनौतियों के लिए तैयार करता है। शोध बताते हैं कि कॉफ़ी ध्यान और एकाग्रता को बढ़ाती है, स्मरण शक्ति को मज़बूत बनाती है और शरीर को एंटीऑक्सिडेंट्स (Antioxidants) की शक्ति से रोगों से लड़ने की क्षमता भी देती है। यही कारण है कि विद्यार्थी पढ़ाई में जागे रहने के लिए, और कामकाजी लोग थकान के बाद ऊर्जा पाने के लिए कॉफ़ी का सहारा लेते हैं। लेकिन कॉफ़ी का रिश्ता केवल शरीर या दिमाग़ तक सीमित नहीं है, यह हमारी भावनाओं और जीवनशैली से भी गहराई से जुड़ गया है। सोचिए, बरसात की ठंडी शाम हो और हाथ में एक गरम कप कॉफ़ी - उस घड़ी की ख़ुशी का कोई मोल नहीं। या फिर ठिठुरती सुबह में, जब ठंडी हवा हड्डियों तक सिहरन पहुँचा दे, तब कॉफ़ी की गरमाहट भीतर तक सुकून भर देती है। यही नहीं, दोस्तों की महफ़िलों में गपशप का मज़ा भी बिना कॉफ़ी के अधूरा लगता है, और अकेलेपन के पलों में भी यह हमें एक अनकहा साथ देती है।
इस लेख में हम सबसे पहले जानेंगे कि कॉफ़ी की उत्पत्ति कहाँ हुई और इसके पीछे कौन-सी दिलचस्प लोककथाएँ प्रचलित हैं। फिर, हम देखेंगे कि खेत से लेकर आपके कप तक कॉफ़ी पहुँचने की यात्रा कितने चरणों से गुज़रती है। इसके बाद, हम पढ़ेंगे कि दुनिया के कौन-कौन से देश कॉफ़ी उत्पादन में अग्रणी हैं। आगे, हम चर्चा करेंगे कि भारत में किन राज्यों में कॉफ़ी उगाई जाती है और यहाँ किस प्रकार की कॉफ़ी अधिक होती है। अंत में, हम समझेंगे कि भारतीय कॉफ़ी उद्योग का आर्थिक महत्व क्या है और आने वाले समय में इसके भविष्य की क्या संभावनाएँ हैं।

कॉफ़ी की उत्पत्ति और लोककथाएँ
कॉफ़ी का इतिहास उतना ही पुराना है जितना रहस्यमयी और आकर्षक। इसकी शुरुआत से जुड़ी कई दिलचस्प कहानियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाई जाती रही हैं। सबसे प्रसिद्ध कथा एथियोपिया (Ethiopia) के चरवाहे काल्दी की है, जिसने देखा कि जब उसकी बकरियाँ लाल फलों को खाती हैं तो वे असामान्य रूप से चंचल और जागृत रहती हैं। बकरियों की इस ऊर्जा ने काल्दी का ध्यान खींचा और उसने भी उन फलों को चखा। स्वाद और प्रभाव ने उसे हैरान कर दिया क्योंकि उसने महसूस किया कि उनमें अद्भुत ऊर्जा छिपी हुई है। धीरे-धीरे यह रहस्य लोगों तक पहुँचा और इन फलों से बना पेय कॉफ़ी कहलाने लगा। दूसरी ओर, यमन (Yemen) के सूफ़ी संतों से जुड़ी कथाएँ भी कम दिलचस्प नहीं हैं। वे लंबी इबादत और रातभर जागरण के दौरान थकान मिटाने के लिए इन बीजों का उपयोग करते थे। इन कथाओं से यह साफ़ झलकता है कि कॉफ़ी केवल एक स्वादिष्ट पेय नहीं, बल्कि यह संस्कृति, अध्यात्म और मानवीय जीवन की गहराइयों से जुड़ा हुआ एक अनुभव है।
कॉफ़ी उत्पादन की पूरी यात्रा: खेत से कप तक
कॉफ़ी आपके कप तक पहुँचने से पहले खेतों से होकर गुजरती हुई कई चरणों की एक लंबी और जटिल यात्रा पूरी करती है। इस यात्रा की शुरुआत होती है उपयुक्त मौसम और मिट्टी में पौधों को लगाने से। जब पौधे फल देते हैं और फल पक जाते हैं, तो किसानों द्वारा बड़ी सावधानी से उनकी कटाई की जाती है। इसके बाद फलों से गूदा निकालने की प्रक्रिया होती है जिसे पल्पिंग (pulping) कहते हैं। पल्पिंग के बाद बीजों को प्राकृतिक तरीके से या जल के सहारे किण्वित किया जाता है ताकि उनमें से अतिरिक्त परतें हट जाएँ और उनका स्वाद निखर सके। इसके बाद बीजों को धूप में सुखाया जाता है या फिर मशीनों की मदद से सुखाया जाता है, जिससे वे भंडारण और आगे की प्रक्रिया के लिए तैयार हो जाते हैं। फिर आता है रोस्टिंग (roasting) का चरण, जहाँ बीजों को हल्का, मध्यम या गहरा भुना जाता है। हर स्तर की रोस्टिंग कॉफ़ी को अलग स्वाद और ख़ुशबू देती है। रोस्टिंग के बाद बीजों को पीसा जाता है, पैक किया जाता है और अंततः ब्रूइंग (brewing) की प्रक्रिया से कॉफ़ी का प्याला तैयार होता है। इस पूरी यात्रा में मेहनत, तकनीक और कला तीनों का सुंदर मेल दिखाई देता है, तभी यह साधारण फल हमारी ऊर्जा और ताज़गी का स्रोत बन जाता है।

दुनिया के प्रमुख कॉफ़ी उत्पादक देश
कॉफ़ी का नाम आते ही कई देशों की छवियाँ हमारे सामने उभरती हैं। इनमें सबसे प्रमुख है ब्राज़ील (Brazil), जिसने कई दशकों से कॉफ़ी उत्पादन में अपना वर्चस्व बनाए रखा है। ब्राज़ील की उपजाऊ ज़मीन और अनुकूल जलवायु वहाँ की कॉफ़ी को एक विशिष्ट स्वाद और सुगंध प्रदान करती है। इसके बाद वियतनाम का स्थान आता है, जो रोबस्टा (Robusta) किस्म के लिए प्रसिद्ध है और बड़े पैमाने पर निर्यात करता है। कोलम्बिया (Colombia) की कॉफ़ी अपने संतुलित स्वाद और मुलायमपन के लिए जानी जाती है, जबकि इंडोनेशिया (Indonesia) की कॉफ़ी मिट्टी और जलवायु की विशेषताओं को अपने अंदर समेटे हुए है। इथियोपिया, जहाँ से कॉफ़ी की उत्पत्ति मानी जाती है, वहाँ की कॉफ़ी अपने सुगंधित और गहरे स्वाद के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। हर देश की कॉफ़ी उस क्षेत्र के वातावरण और प्राकृतिक परिस्थितियों की छाप लिए होती है, और यही विविधता कॉफ़ी प्रेमियों को अलग-अलग अनुभव और स्वाद प्रदान करती है।
भारत में कॉफ़ी का उत्पादन
भारत भले ही दुनिया के सबसे बड़े कॉफ़ी उत्पादक देशों में शामिल न हो, लेकिन यहाँ की कॉफ़ी अपनी विशेषताओं के लिए दुनिया भर में पहचानी जाती है। देश में मुख्य रूप से दक्षिण भारत में कॉफ़ी की खेती होती है। कर्नाटक सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है और यहाँ लगभग आधे से अधिक हिस्से में कॉफ़ी की खेती होती है। इसके बाद केरल और तमिलनाडु का स्थान आता है। हाल के वर्षों में आंध्रप्रदेश और ओडिशा में भी कॉफ़ी की खेती को बढ़ावा मिला है, जिससे उत्पादन में विविधता आई है। भारत में दो प्रमुख किस्में उगाई जाती हैं - रोबस्टा और अरेबिका (Arabica)। रोबस्टा का उत्पादन अधिक है क्योंकि यह पौधा कठिन परिस्थितियों में भी आसानी से उग जाता है, जबकि अरेबिका अपने ख़ास स्वाद और सुगंध के कारण अधिक मूल्यवान मानी जाती है। भारतीय कॉफ़ी की विशेषता यह भी है कि इसे अक्सर मसालों जैसे काली मिर्च और इलायची के साथ उगाया जाता है। इससे इसमें एक अलग ही स्वाद और सुगंध आ जाती है। यही कारण है कि भारतीय कॉफ़ी धीरे-धीरे वैश्विक बाज़ार में अपनी अलग पहचान बना रही है।

भारतीय कॉफ़ी उद्योग का आर्थिक महत्व और भविष्य
भारत आज दुनिया का सातवाँ सबसे बड़ा कॉफ़ी उत्पादक देश है और अपनी उच्च गुणवत्ता के कारण अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में प्रीमियम पहचान बनाए हुए है। यहाँ मुख्य रूप से दो किस्में – अरेबिका और रोबस्टा – उगाई जाती हैं। अरेबिका का स्वाद हल्का, सुगंधित और अधिक मूल्यवान माना जाता है, जबकि रोबस्टा का स्वाद गाढ़ा और कड़वा होता है, जिसका उपयोग अक्सर विभिन्न ब्लेंड्स बनाने में किया जाता है। भारत में कुल कॉफ़ी उत्पादन का लगभग 72% हिस्सा रोबस्टा का है, इसी वजह से भारत को विश्व का पाँचवाँ सबसे बड़ा रोबस्टा उत्पादक भी माना जाता है। यह उद्योग केवल निर्यात पर आधारित नहीं है, बल्कि देश में दो मिलियन (million) से अधिक लोगों को प्रत्यक्ष रोज़गार भी देता है। दिलचस्प तथ्य यह है कि चूँकि कॉफ़ी का अधिकांश हिस्सा निर्यात होता है, इसलिए घरेलू खपत और मांग का इसके दामों पर ज़्यादा असर नहीं पड़ता। आने वाले वर्षों में इसका महत्व और बढ़ने की उम्मीद है। अनुमान है कि 2028 तक भारतीय कॉफ़ी बाज़ार 8.9% की वार्षिक दर (CAGR) से बढ़ेगा। इसके साथ ही, आउट-ऑफ़-होम कॉफ़ी मार्केट (Out of Home Coffee Market) भी तेज़ी से बढ़कर सालाना 15–20% की दर से 2.6 से 3.2 बिलियन (billion) अमेरिकी डॉलर तक पहुँच सकता है। कॉफ़ी बोर्ड ऑफ़ इंडिया (Coffee Board of India) ने भविष्य के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किए हैं। वित्त वर्ष 2025 तक उत्पादन 3.633 लाख टन तक पहुँचने का अनुमान है, जबकि 2047 तक इसे 9 लाख टन तक ले जाने का लक्ष्य रखा गया है। इसमें अरेबिका के उत्पादन को 1 लाख टन से बढ़ाकर 1.13 लाख टन और रोबस्टा के उत्पादन को 2.52 लाख टन से बढ़ाकर 2.61 लाख टन तक ले जाने की योजना है। भौगोलिक दृष्टि से देखें तो भारत के दक्षिणी राज्य कॉफ़ी उत्पादन के केंद्र हैं। कर्नाटक कुल उत्पादन का 71%, केरल लगभग 20% और तमिलनाडु करीब 5% योगदान देते हैं। तमिलनाडु के नीलगिरि क्षेत्र में विशेष रूप से अरेबिका उगाई जाती है, जबकि ओडिशा और उत्तर-पूर्वी राज्यों का योगदान अपेक्षाकृत कम है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/ms8s59nn
https://tinyurl.com/5ecjbfhx
https://tinyurl.com/yeyuh3ak
https://tinyurl.com/35th4zfs
https://tinyurl.com/ykxekd5p
जौनपुर की संस्कृति और दशहरा: धर्म, साहस और विजय की अनूठी परंपरा
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
02-10-2025 09:05 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुरवासियो, हमारी भारतीय संस्कृति की जड़ें सदियों से त्योहारों, परंपराओं और आस्थाओं से पोषित होती रही हैं। यही त्योहार हमारी सामाजिक एकता, धार्मिक चेतना और सांस्कृतिक विविधता को जीवंत बनाए रखते हैं। इन्हीं में से एक महान पर्व है दशहरा या विजयादशमी, जिसे हर वर्ष नवरात्रि की साधना और उत्सवपूर्ण नौ रातों के बाद अत्यंत उल्लास, श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है। यह पर्व केवल अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जीवन का गहन दर्शन कराता है - जहाँ अच्छाई अंततः हर बार बुराई पर विजय पाती है। जौनपुर की ऐतिहासिक धरती, जिसने ज्ञान, संगीत, स्थापत्य और संस्कृति की अनुपम धरोहरों को संजोकर रखा है, आज भी ऐसे पर्वों से प्रेरणा पाती है। जिस प्रकार शर्की शासकों के समय से यहाँ की धरती ने धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक समन्वय का संदेश दिया, उसी प्रकार दशहरे का संदेश भी हमें यह सिखाता है कि जीवन में चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ और अन्याय सामने हों, अंततः सत्य, धर्म और साहस ही विजयी होते हैं। विजयादशमी का पर्व हमें यह याद दिलाता है कि यह केवल राम-रावण की कथा या देवी दुर्गा की विजय का स्मरण मात्र नहीं है, बल्कि यह समाज और प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में निरंतर चलने वाले नैतिक संघर्षों की ओर संकेत करता है। यही कारण है कि यह पर्व आस्था, प्रेरणा और आत्मबल का स्रोत बनकर हर वर्ष हमारे जीवन को नई ऊर्जा प्रदान करता है।
इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि दशहरा और विजयादशमी का धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्व क्या है और यह हमारे जीवन में क्यों विशेष स्थान रखता है। इसके बाद हम जानेंगे कि भारत के विभिन्न हिस्सों में दशहरा मनाने की परंपराएं कैसी-कैसी हैं और वे किस तरह हमारी विविधता में एकता को दर्शाती हैं। फिर हम रामायण से जुड़ी कथाओं और रावण पर भगवान राम की विजय की कथा को दोबारा याद करेंगे और देखेंगे कि इसका क्या संदेश है। साथ ही, हम यह भी जानेंगे कि महाभारत और विजयादशमी का संबंध किस प्रकार इस पर्व की गहराई को और बढ़ाता है। अंत में, हम इस पर्व का मूल संदेश - बुराई पर अच्छाई की जीत - को समझेंगे और देखेंगे कि यह आज की जिंदगी में हमें कौन-सी प्रेरणा देता है।

दशहरा और विजयादशमी का धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्व
दशहरा, जिसे विजयादशमी भी कहा जाता है, भारतीय संस्कृति में न केवल एक त्योहार है बल्कि धर्म, साहस और सत्य की जीवंत परंपरा का प्रतीक है। यह पर्व हर साल नवरात्रि के नौ दिनों की साधना, व्रत और देवी दुर्गा की आराधना के पश्चात मनाया जाता है। “विजया” शब्द का अर्थ है विजय और “दशमी” का तात्पर्य चंद्र मास की दसवीं तिथि से है। इस प्रकार विजयादशमी वह दिन है जब बुराई पर अच्छाई की जीत का उत्सव मनाया जाता है। पौराणिक दृष्टि से देखें तो इस दिन दो महत्त्वपूर्ण घटनाओं की स्मृति जुड़ी हुई है - पहली, माता दुर्गा द्वारा महिषासुर का वध और दूसरी, भगवान श्रीराम द्वारा रावण का वध। यही कारण है कि विजयादशमी को शक्ति, धर्म और साहस का पर्व माना जाता है। यह त्योहार केवल धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सामाजिक जीवन में भी हमें प्रेरित करता है कि हर कठिन परिस्थिति में सत्य का साथ न छोड़ें और साहस के साथ आगे बढ़ें। इस दिन का संदेश यह है कि चाहे अंधकार कितना ही गहरा क्यों न हो, प्रकाश और सत्य अंततः विजयी होते हैं।
भारत के विभिन्न हिस्सों में दशहरा मनाने की परंपराएं
भारत की सांस्कृतिक विविधता में दशहरा एक ऐसा त्योहार है जो अलग-अलग क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न रूपों में मनाया जाता है, परंतु इसका सार एक ही रहता है - बुराई पर अच्छाई की विजय। उत्तर भारत में, विशेषकर दिल्ली, वाराणसी और जौनपुर जैसे शहरों में रामलीला का मंचन नौ दिनों तक चलता है, और दशमी के दिन रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतलों का दहन किया जाता है। यह आयोजन केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक और धार्मिक शिक्षा का साधन भी है। पश्चिम भारत में, विशेषकर गुजरात और महाराष्ट्र में, गरबा और डांडिया के उत्सव पूरे वातावरण को उल्लास और ऊर्जा से भर देते हैं। इस दौरान मंदिरों और चौकों में भक्ति संगीत गूंजता है और लोग सामूहिक रूप से नृत्य करके देवी की आराधना करते हैं। दक्षिण भारत में दशहरा शक्ति पूजा के रूप में प्रसिद्ध है। यहाँ देवी चामुंडेश्वरी की आराधना होती है और मैसूर का दशहरा तो पूरे विश्व में विख्यात है, जहाँ भव्य झांकी और शोभायात्रा निकलती है। पूर्वी भारत में, खासकर बंगाल, ओडिशा और असम में, दुर्गा पूजा के विशाल पंडाल सजते हैं और माँ दुर्गा की प्रतिमाओं का विसर्जन विजयादशमी के दिन किया जाता है। इन सब परंपराओं से यह स्पष्ट झलकता है कि भारत की आत्मा विविधता में एकता से ओतप्रोत है।

रामायण से जुड़ी कथाएं और रावण पर भगवान राम की विजय
दशहरे की सबसे लोकप्रिय कथा रामायण से जुड़ी है, जो हर भारतीय के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। कथा के अनुसार, जब लंका के राजा रावण ने माता सीता का हरण किया, तब भगवान राम ने अपने भाई लक्ष्मण और वानरराज सुग्रीव की सेना के साथ उसका सामना किया। यह युद्ध केवल दो शासकों के बीच का संघर्ष नहीं था, बल्कि यह धर्म और अधर्म का निर्णायक संग्राम था। दस दिनों तक चले इस भीषण युद्ध में अनेक योद्धाओं ने शौर्य और बलिदान का उदाहरण प्रस्तुत किया। अंततः दशमी के दिन भगवान राम ने रावण का वध किया और सीता जी को वापस लाकर धर्म की पुनः स्थापना की। इस विजय का प्रतीक आज भी हम रामलीला के मंचन और रावण दहन के माध्यम से जीवित रखते हैं। रावण दहन केवल एक प्रथा नहीं है, बल्कि यह एक गहरा संदेश देता है - कि बुराई चाहे कितनी ही शक्तिशाली क्यों न हो, अंततः उसका पतन अवश्य होता है। इस कथा का महत्व केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं है, बल्कि यह हमें जीवन के संघर्षों में साहस, धैर्य और धर्म के मार्ग पर टिके रहने की प्रेरणा भी देती है।
महाभारत और विजयादशमी का संबंध
विजयादशमी का संबंध केवल रामायण से ही नहीं, बल्कि महाभारत की महाकथा से भी गहराई से जुड़ा है। पौराणिक कथा के अनुसार, जब पांडव अज्ञातवास के लिए जाने वाले थे, तब अर्जुन ने अपने दिव्यास्त्र शमी वृक्ष में छिपा दिए। बारह वर्षों के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास के बाद जब वे वापस लौटे, तो अर्जुन ने उसी वृक्ष से अपने अस्त्र-शस्त्र पुनः प्राप्त किए। इन अस्त्रों का सुरक्षित मिलना विजय और शुभ संकेत माना गया। इसके पश्चात अर्जुन ने उन्हीं अस्त्रों का प्रयोग करके कुरुक्षेत्र के युद्ध में विजयी होने का मार्ग प्रशस्त किया। इस प्रसंग के कारण विजयादशमी के दिन शस्त्र पूजन की परंपरा प्रचलित हुई। लोग शमी वृक्ष की पूजा करते हैं और उसके पत्तों का आदान-प्रदान करते हैं, जिसे ‘सोनपत्ती’ कहा जाता है, जो धन, सफलता और विजय का प्रतीक माना जाता है। यह परंपरा हमें यह भी बताती है कि इस दिन किया गया कोई भी कार्य, विशेषकर युद्ध या नए आरंभ, सफलता की ओर अग्रसर होता है।

त्योहार का मूल संदेश: बुराई पर अच्छाई की जीत
दशहरा केवल पौराणिक कथाओं और धार्मिक अनुष्ठानों का स्मरण भर नहीं है, बल्कि यह एक गहन जीवन-दर्शन भी है। यह पर्व हमें यह सिखाता है कि बाहरी रावण का वध जितना आवश्यक है, उतना ही जरूरी है कि हम अपने भीतर छिपी बुराइयों - जैसे क्रोध, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या और मोह - को भी समाप्त करें। रावण का पुतला जलाना केवल प्रतीक है, असली विजय तब होती है जब हम अपने अंदर के नकारात्मक विचारों और प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त करें। दशहरा हमें साहस, नि:स्वार्थ सेवा, सदाचार और न्याय का मार्ग अपनाने की प्रेरणा देता है। यह दिन यह भी याद दिलाता है कि जीवन के हर संघर्ष में यदि हम सत्य और धर्म का साथ दें, तो अंततः सफलता और विजय हमारी होगी। इसलिए दशहरा केवल एक पर्व नहीं, बल्कि यह जीवनभर के लिए एक मार्गदर्शन है - एक संदेश कि चाहे अंधकार कितना भी गहरा क्यों न हो, प्रकाश और सत्य की जीत अवश्य होती है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/f7yyy644
संस्कृति 799