जौनपुर - सिराज़-ए-हिन्द












जौनपुर में दफ़्तर हो या घर, जानिए क्यों ज़रूरी है इंटरनेट उपयोग की साक्षरता
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
07-05-2025 09:32 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर के कई नागरिक, एक मैसेजिंग ऐप के रूप में टेलीग्राम(Telegram) का उपयोग करते हैं, लेकिन हर कोई इसके अंधेरे पक्ष के बारे में नहीं जानता है। हालांकि टेलीग्राम को सुरक्षित चैट और गोपनीयता के लिए जाना जाता है, यहां कुछ छिपे हुए समूहों और चैनलों का उपयोग, अवैध गतिविधियों के लिए किया जाता है। कई अपराधी ड्रग्स बेचने, नकली दस्तावेज़ों को साझा करने, गलत सूचना फ़ैलाने और यहां तक कि, संवेदनशील डेटा का व्यापार करने के लिए भी, एन्क्रिप्शन (Encryption) का शोषण करते हैं। चूंकि इन समूहों को ट्रैक (track) करना मुश्किल है, इसलिए कई हानिकारक गतिविधियों पर किसी का ध्यान नहीं जाता है। इसलिए टेलीग्राम का उपयोग करते समय लोगों को सावधान रहना चाहिए; संदिग्ध चैनलों से बचना चाहिए; और कभी भी अवैध गतिविधियों में संलग्न नहीं होना चाहिए। क्योंकि इसके गंभीर जोखिम और परिणाम हो सकते हैं।
आज, हम टेलीग्राम और इसके एक नए ‘डार्क वेब(Dark Web)’ के रूप में उभरने पर चर्चा करेंगे। फिर हम यह पता लगाएंगे कि, टेलीग्राम की तुलना डार्क वेब से क्यों की जा रही है, और कैसे इसकी एन्क्रिप्शन और गुप्तता विशेषताएं, अवैध गतिविधियों का कारण बनती हैं। अंत में, हम इस प्लेटफ़ॉर्म पर होने वाली विभिन्न अवैध गतिविधियों पर नज़र डालेंगे।

टेलीग्राम का परिचय-
टेलीग्राम, साइबर अपराधियों के लिए एक मंच के रूप में उभरा है, जो चोरी किए गए डेटा और हैकिंग टूल्स (Hacking tools) को खरीदने, बेचने और साझा करने की चाह रखते हैं। साइबर इंटेलिजेंस ग्रुप – साइबरिंट (Cyberint) द्वारा, फ़ाइनेंशियल टाइम्स (Financial Times) के साथ मिलकर किए गए एक शोध के अनुसार, कई हैकर्स (hackers) टेलीग्राम पर अनुचित डेटा साझा करते हैं और यह कभी-कभी हज़ारों ग्राहकों के साथ चैनलों में साझा किया जाता है।
कई मामलों में, यह कंटेंट, डार्क वेब पर पाए जाने वाले मार्केटप्लेस (Marketplaces) से मिलता– जुलता है। हम आपको यहां बता दें कि, डार्क वेब, छिपी हुई वेबसाइटों का एक समूह है, जो हैकर्स के बीच लोकप्रिय हैं। यहां तक विशिष्ट गुप्त सॉफ़्टवेयर का उपयोग करके पहुंच हासिल की जाती है।
अगस्त 2021 तक, 500 मिलियन से अधिक सक्रिय उपयोगकर्ताओं और 1 बिलियन डाउनलोड के साथ, टेलीग्राम, व्हाट्सऐप (WhatsApp) का एक विकल्प बन गया है। हालांकि, उस समय अपनी गोपनीयता नीति में किए गए बदलावों के साथ, इसने कई उपयोगकर्ताओं को दूर किया था।
हज़ारों सदस्यों के साथ, चैनलों में अनुचित डेटा और हैकिंग टूल को साझा करने, बेचने और खरीदने से, हैकर्स, साइबर अपराध के लिए इस ऐप का उपयोग करते हैं। यह उसी प्रकार है, जिस प्रकार डार्क वेब पर अपराध होते हैं। अपने समूहों और चैनलों पर साइबर अपराध में हो रही तेज़ वृद्धि के कारण, टेलीग्राम को अपने कंटेंट के विनियमन को मज़बूत करना पड़ सकता है।
क्या टेलीग्राम एक नया ‘डार्क वेब’ बन रहा है?
टेलीग्राम की दृश्यता और आसान पहुंच, डार्क वेब की अधिक अस्पष्ट प्रकृति के विपरीत है। डार्क वेब को विशेष सॉफ़्टवेयर की आवश्यकता होती है, और यह गोपनीयता में संचालित होता है। जबकि, टेलीग्राम मानक उपकरणों और अनुप्रयोगों के माध्यम से सुलभ है। इसके उपयोगकर्ता अनुकूल इंटरफ़ेस (Interface) और व्यापक नवाचारों से, यह असंख्य दर्शकों के लिए उपलब्ध है, जिसमें वैध और अवैध उपयोगकर्ता दोनों शामिल हैं। यह पहुंच, अवैध गतिविधियों के लिए एक मंच के रूप में, इस प्लेटफ़ॉर्म की भूमिका को बढ़ाती है। इससे उपयोगकर्ताओं की एक विविध श्रेणी, गुप्त संचालन में संलग्न हो सकती है। टेलीग्राम के चैनलों और समूहों की सार्वजनिक प्रकृति भी, डार्क वेब के छिपे हुए वातावरण से अलग है। जबकि डार्क वेब गुप्त रूप से संचालित होता है, टेलीग्राम के चैनल और समूह, दर्शकों को दिखाई देते हैं। यह दृश्यता, कानूनन दबाव का ध्यान आकर्षित कर सकती है; लेकिन, अवैध गतिविधियों को व्यापक उपयोगकर्ता आधार तक पहुंचने की अनुमति भी देती है।
टेलीग्राम चैनलों में क्या होता है?
टेलीग्राम की बड़ी समूह क्षमता, एन्क्रिप्शन सुविधाएं और गुप्त उपयोगकर्ता बल क्षमताएं, इसे साइबर अपराधियों के लिए एक आकर्षक उपकरण बनाती हैं। इस प्रकार, यहां निम्नलिखित गतिविधियों को अंजाम दिया जाता हैं –
•चोरी किए गए डेटा को साझा करना और बेचना, जिसमें परिचय जानकारी, क्रेडिट कार्ड जानकारी और निगमित डेटाबेस शामिल हैं।
•हैकिंग टूल, मैलवेयर (Malware) और रैंसमवेयर (Ransomware) सेवाओं की पेशकश।
•डिस्ट्रिब्यूटेड डिनायल ऑफ़ सर्विस (Distributed Denial-of-Service) हमलों और हैक्टिविस्ट अभियानों (Hacktivist campaigns) का समन्वय करके, अक्सर सरकारों, निगमों और वित्तीय संस्थानों को लक्षित करना।
•साइबर सुरक्षा कमज़ोरियों पर चर्चा करना, और संभावित लक्ष्यों की पहचान करना।
•संवेदनशील डेटा और साइबर अपराध सेवाओं का आदान-प्रदान करने के लिए, ग्राहकों के लिए निजी समूहों की मेजबानी करना।
•मैलवेयर वितरण और परिचय डेटा चोरी को स्वचालित करने के लिए, टेलीग्राम बॉट (Bot) का उपयोग करना।
•वेबसाइट डिफ़ेसमेंट (Website defacements), डेटा चोरी और किसी सिस्टम में खराबी लाने के लिए, हैकिंग सेवाएं प्रदान करना।
टेलीग्राम में होने वाली विभिन्न प्रकार की अवैध गतिविधियां-
•वित्तीय धोखाधड़ी-
कई टेलीग्राम विक्रेता, भौतिक और डिजिटल कार्ड, चोरी किया गया बैंक खाता डेटा, अपहृत खातों, या पूर्व के वाई सी(KYC) सत्यापित क्रिप्टो एक्सचेंज खातों(Crypto exchange accounts) की पेशकश करते हैं।
•डेटा उल्लंघन-
डेटा को मूल रूप से चैनलों में वितरित किया जाता है, या विभिन्न मंचों पर इन्हें बेचा जाता है। कुछ डेटा को स्वतंत्र रूप से भी साझा किया जाता है और बेचा जाता है।
•अपहृत खाते-
स्ट्रीमिंग सेवाओं(Streaming services) की एक विस्तृत विविधता, वी पी एन(VPN) और अन्य अपहृत खातों को स्वतंत्र रूप से, टेलीग्राम पर पोस्ट किया जाता है या कम कीमतों पर बेचा जाता है। अपराधी, पासवर्ड और ईमेल चोरी करने हेतु, इन खातों का दुरुपयोग करते हैं।
•नकली आई डी(ID), दस्तावेज़ एवं टीकाकरण प्रमाण पत्र-
टेलीग्राम, टीकाकरण प्रमाणपत्र बेचने वाले कई सक्रिय चैनलों के कारण, हाल ही में जांच और नकारात्मक मीडिया कवरेज के तहत आया था।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Pexels, Wikimedia
सांसों की समस्या को न करें नज़रअंदाज, विश्व अस्थमा दिवस पर जानिए ज़रूरी बातें!
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
06-05-2025 09:34 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर के नागरिकों, क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिज़ीज़ (Chronic Obstructive Pulmonary Disease) एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या बनती जा रही है, खासकर उन लोगों में जो धूम्रपान करते हैं या प्रदूषित वातावरण में रहते हैं। यह फेफड़ों को प्रभावित करने वाली एक दीर्घकालिक बीमारी है, जो सांस लेने में परेशानी पैदा करती है और समय के साथ सांस लेने की क्षमता को कम कर देती है। इसके आम लक्षणों में लगातार खांसी, सांस फूलना, सीटी जैसी आवाज़ आना (Wheezing) और सीने में जकड़न शामिल हैं। यह बीमारी मुख्य रूप से धूम्रपान, वायु प्रदूषण या लंबे समय तक हानिकारक धुएं के संपर्क में रहने से होती है।
हालांकि क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिज़ीज़ (COPD) का पूरी तरह इलाज संभव नहीं है, लेकिन इन्हेलर (inhaler), दवाइयां, ऑक्सीजन थेरेपी और जीवनशैली में बदलाव से इसके लक्षणों को नियंत्रित किया जा सकता है। धूम्रपान से दूर रहकर और हवा को साफ़ रखकर इस बीमारी से बचा जा सकता है और फेफड़ों को स्वस्थ रखा जा सकता है।
आज हम जानेंगे कि सी ओ पी डी क्या है। फिर हम इसके मुख्य लक्षणों के बारे में समझेंगे, जिससे इसे समय पर पहचाना और नियंत्रित किया जा सके। आखिर में, हम जानेंगे कि सी ओ पी डी का इलाज कैसे किया जाता है।
सी ओ पी डी क्या है?
सी ओ पी डी (COPD) यानी क्रॉनिक ऑब्स्ट्रक्टिव पल्मोनरी डिज़ीज़ फेफड़ों की एक बीमारी है, जिसमें सांस लेना मुश्किल हो जाता है। यह तब होती है जब फेफड़ों की नलियाँ या अंदर के हिस्से खराब हो जाते हैं, जिससे सूजन आ जाती है और हवा का प्रवाह रुकने लगता है।
इस बीमारी का खतरा ज़्यादातर उन लोगों को होता है जो धूम्रपान करते हैं या ज़्यादा प्रदूषित हवा में रहते हैं। यह धीरे-धीरे बढ़ता है और समय के साथ लक्षण गंभीर हो जाते हैं।
सी ओ पी डी में खांसी के साथ गाढ़ा बलगम (Mucus) निकलना, सांस लेने में दिक्कत, सीने में जकड़न और थकान होती है। जैसे-जैसे यह बढ़ता है, व्यक्ति के लिए चलना, खाना बनाना, और अपना ध्यान रखना भी मुश्किल हो सकता है।
अगर समय पर सही इलाज न किया जाए, तो यह समस्या और ज़्यादा बढ़ सकती है। इसलिए, अगर आपको या आपके किसी जानने वाले को लंबे समय से सांस की परेशानी हो रही है, तो डॉक्टर से सलाह ज़रूर लें।
क्रॉनिक ऑब्स्ट्रक्टिव पल्मोनरी डिज़ीज़ दो मुख्य बीमारियों से जुड़ी होती है— एम्फ़ाइज़िमा (Emphysema) और क्रॉनिक ब्रोंकाइटिस (Chronic bronchitis)।
एम्फ़ाइज़िमा तब होता है जब फेफड़ों के अंदर मौजूद छोटी-छोटी हवा की थैलियों (air sacs) की दीवारें खराब हो जाती हैं। आमतौर पर, ये थैलियाँ लचीली होती हैं—जब हम सांस लेते हैं, तो ये फूल जाती हैं, और जब सांस छोड़ते हैं, तो सिकुड़कर हवा बाहर निकाल देती हैं। लेकिन एम्फ़ाइज़िमा में फेफड़ों से हवा बाहर निकालना मुश्किल हो जाता है।
क्रॉनिक ब्रोंकाइटिस तब होता है जब सांस की नलियों की अंदरूनी परत में बार-बार सूजन और जलन होने लगती है। इससे गाढ़ा बलगम बनने लगता है, जो सांस लेना और भी मुश्किल बना देता है।
सी ओ पी डी के लक्षण
सी ओ पी डी के लक्षण तब तक दिखाई नहीं देते जब तक फेफड़ों को ज्यादा नुकसान नहीं हो जाता। समय के साथ ये लक्षण और गंभीर हो सकते हैं, खासकर अगर धूम्रपान या प्रदूषित हवा में रहना जारी रहता है। सी ओ पी डी के सामान्य लक्षण कुछ निम्नलिखित हैं:
- सांस लेने में दिक्कत, खासकर शारीरिक गतिविधियों के दौरान।
- सांस लेते समय घरघराहट जैसी आवाज़।
- लगातार खांसी, जिसमें ज्यादा मात्रा में बलगम बन सकता है। बलगम का रंग सफ़ेद, पीला, हरा या साफ़ हो सकता है।
- सीने में जकड़न या भारीपन महसूस होना।
- थकान या ऊर्जा की कमी।
- बार-बार फेफड़ों में संक्रमण होना।
- बिना किसी वजह के वज़न कम होना, खासकर बीमारी बढ़ने पर।
- टखनों, पैरों या पैरों में सूजन आना।
लक्षणों का अचानक बिगड़ना (एक्सेसरबेशन):
कभी-कभी सी ओ पी डी के लक्षण सामान्य दिनों से ज्यादा खराब हो सकते हैं, इसे एक्सेसरबेशन कहते हैं। यह कुछ दिनों से लेकर हफ़्तों तक रह सकता है और तेज गंध, ठंडी हवा, वायु प्रदूषण, सर्दी या संक्रमण जैसी चीज़ो से हो सकता है।
इस दौरान लक्षण और भी ज़्यादा गंभीर हो सकते हैं:
- सांस लेने में ज़्यादा परेशानी होना।
- सीने में ज़्यादा जकड़न।
- खांसी बढ़ जाना।
- बलगम की मात्रा, रंग या गाढ़ापन बदल जाना।
- बुखार आना।
क्रॉनिक ऑब्स्ट्रक्टिव पल्मोनरी डिज़ीज़ का इलाज कैसे किया जाता है
क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिज़ीज़ का कोई इलाज नहीं है, लेकिन सही इलाज से इसके लक्षणों को कम किया जा सकता है और बीमारी को बिगड़ने से रोका जा सकता है। डॉक्टर इसके लिए कई तरह के इलाज सुझा सकते हैं
- धूम्रपान छोड़ना अगर आप धूम्रपान करते हैं तो इसे छोड़ने से बीमारी की गति को धीमा किया जा सकता है
- इनहेलर दवाएँ (Inhaled medications), ब्रोंकोडाइलेटर्स (Bronchodilators) और स्टेरॉयड (steroids) दवाएँ सूजन को कम करके फेफड़ों की नलियों को खोलने में मदद करती हैं। इन्हें इनहेलर या नेबुलाइज़र (nebulizer) के ज़रिए लिया जा सकता है
- ऑक्सीजन थेरेपी शरीर में ऑक्सीजन की मात्रा को बढ़ाने के लिए कभी-कभी अतिरिक्त ऑक्सीजन की ज़रूरत होती है
- पल्मोनरी रिहैबिलिटेशन (Pulmonary rehabilitation) यह एक व्यायाम और शिक्षा कार्यक्रम होता है जो फेफड़ों को मज़बूत बनाने और सी ओ पी डी को संभालने में मदद करता है
- कॉर्टिकोस्टेरॉयड्स (Corticosteroids) जब बीमारी अधिक बढ़ जाती है तब सूजन को कम करने के लिए स्टेरॉयड दवाएँ दी जा सकती हैं
- सकारात्मक वायुमार्ग दबाव BiPAP मशीन यह मशीन सांस लेने में मदद कर सकती है खासकर जब बीमारी का असर ज़्यादा हो जाता है
- एंटीबायोटिक्स अगर फेफड़ों में बार-बार बैक्टीरिया से संक्रमण हो रहा हो तो डॉक्टर संक्रमण और बीमारी को बढ़ने से रोकने के लिए एंटीबायोटिक्स दे सकते हैं
- लंग वॉल्यूम रिडक्शन (Lung volume reduction/LVR) फेफड़ों का आकार घटाना अगर बीमारी बहुत गंभीर हो तो डॉक्टर सर्ज़री या वाल्व प्रक्रिया करने की सलाह दे सकते हैं जिससे फेफड़ों में फंसी हुई हवा कम की जा सके
- क्लिनिकल ट्रायल कभी-कभी डॉक्टर नई दवाओं या उपचार के परीक्षण क्लिनिकल ट्रायल (clinical trial) में भाग लेने की सलाह दे सकते हैं जिससे यह पता लगाया जाता है कि कोई नया इलाज कितना असरदार और सुरक्षित है |
इस तरह के इलाज से सी ओ पी डी को नियंत्रित किया जा सकता है और मरीज की ज़िंदगी को बेहतर बनाया जा सकता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज से पीड़ित एक महिला का स्रोत : Wikimedia
जौनपुर की गलियों में सूफ़ी बसंत उत्सव व् संगीत की गूंज है अमीर ख़ुसरो की अनमोल विरासत
मघ्यकाल के पहले : 1000 ईस्वी से 1450 ईस्वी तक
Early Medieval:1000 CE to 1450 CE
05-05-2025 09:28 AM
Jaunpur District-Hindi

ख़ुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूं पी के संग
जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग
ये पंक्तियाँ प्रसिद्ध सूफ़ी कवि हजरत अमीर ख़ुसरो के द्वारा लिखी गई हैं। यह ब्रज भाषा में रचित एक दोहा है, जिसमें प्रेम और भक्ति की गहरी भावना प्रकट होती है। इन पंक्तियों के ज़रिए ख़ुसरो कहते हैं कि "मैं प्रेम का खेल अपने प्रियतम (ईश्वर) के साथ खेल रहा हूँ। अगर मैं जीत गया, तो प्रियतम मेरे हो जाएंगे; और अगर हार गया, तो मैं प्रियतम का हो जाऊंगा।" आज भी जौनपुर की गलियों में जब कोई सूफ़ी संगीत की मधुर धुन सुनता है, तो अमीर ख़ुसरो की इसी तरह की जादुई लेखनी याद आती है, जिसने प्रेम, भक्ति और ईश्वर से जुड़ाव को शब्दों की माला में पिरो दिया। उनकी कविताएँ केवल साहित्य का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि आध्यात्मिकता की गहरी झलक प्रस्तुत करती हैं। ख़ुसरो की सूफ़ी रचनाएँ भावनाओं की गहराई को छूती हैं, जहाँ हर शब्द में ईश्वरीय प्रेम की झलक मिलती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि ख़ुसरो ने सिर्फ़ सूफ़ी काव्य तक खुद को सीमित नहीं रखा? उन्होंने ज्योतिष पर भी लिखा, जहाँ सितारों और ग्रहों के माध्यम से जीवन और भाग्य के रहस्यों को समझाने का प्रयास किया। उनकी लेखनी में विविधता और गहराई थी, जिसने उनकी कविता को कालजयी बना दिया। आइए इन सभी विषयों को विस्तार से समझते हैं!
अमीर ख़ुसरो का जन्म 1253 में पटियाली (ज़िला कासगंज, उत्तर प्रदेश ) में हुआ था। उनके पिता दिल्ली सल्तनत में एक तुर्की अधिकारी थे, जिन्होंने ख़ुसरो को धर्मशास्त्र, फ़ारसी भाषा और कुरान की शिक्षा दिलाई। वहीं, उनकी माँ हिंदुस्तानी मूल की थीं, जिनकी वजह से उन्हें स्थानीय भाषाओं और परंपराओं के प्रति गहरा लगाव हुआ। इस मिश्रित सांस्कृतिक पृष्ठभूमि ने उन्हें एक अनूठी साहित्यिक और कलात्मक दृष्टि प्रदान की। अमीर ख़ुसरो अपनी युवावस्था में ही दिल्ली के प्रसिद्ध संत निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्य बन गए थे। हालाँकि, यह भी माना जाता है कि उन्होंने सिर्फ़ आठ साल की उम्र में पहली बार निज़ामुद्दीन औलिया के ख़ानक़ाह (सूफ़ी निवास) के दरवाज़े पर कदम रखा था। उस समय उनके पिता भी उनके साथ थे। ख़ानक़ाह एक ऐसा स्थान होता था, जहाँ शाही दरबार की चकाचौंध और अभिजात्य संस्कृति से अलग एक शांत माहौल में सूफ़ी कविता की रचना और प्रस्तुति होती थी। अमीर ख़ुसरो एक सूफ़ी कवि थे, जिनकी कविताएँ गहरे रहस्यवाद और आध्यात्मिकता से भरी होती थीं।
आइए अब जानते हैं कि ख़ुसरो और ज्योतिष का क्या संबंध था?
अपनी कविताओं में अमीर ख़ुसरो ने खगोल विज्ञान और ज्योतिष के तत्वों का सुंदरता के साथ प्रयोग किया है। उन्होंने ग्रहों, तारों और ज्योतिषीय प्रतीकों को रूपकों के रूप में इस्तेमाल करके अपनी ऐतिहासिक कविताओं को अलंकृत किया। उनके काव्य में संपूर्ण कुंडली का भी कलात्मक वर्णन मिलता है। अपनी पाँच प्रमुख मसनवियों—किरान-उस-सादैन, नूह सिपीहर, देवल रानी ख़िज्र ख़ान, तुग़लक़नामा और मिफ़्ता-उल-फुतूह में उन्होंने ज्योतिषीय सिद्धांतों का उल्लेख किया है। उनकी भविष्यवाणियाँ और ज्योतिषीय मान्यताएँ आज भी प्रासंगिक मानी जाती हैं। प्रसिद्ध ज्योतिषी सैय्यद समद हुसैन रिज़वी ने उनके विचारों को आधुनिक ज्योतिष से सटीक और अद्यतन पाया है। ख़ुसरो ने अपनी कविताओं में ज्योतिषीय संकेतों, परंपराओं और संपूर्ण कुंडली को कला के रूप में प्रस्तुत किया। इस अनोखी शैली के जनक होने का श्रेय भी उन्हें दिया जाता है। उनकी रचनाएँ नूह सिपीहर और तुग़लक़नामा यह साबित करती हैं कि उन्हें खगोल विज्ञान और ज्योतिष का गहरा ज्ञान था। उनकी रुचि विज्ञान में भी थी, और वे प्राचीन हिंदू वैज्ञानिक उपलब्धियों से प्रभावित नज़र आते हैं। उन्होंने लिखा कि भौतिकी, गणित, खगोल विज्ञान और भविष्यवाणी की विद्या हिंदुओं को पहले से ही ज्ञात थी। ख़ुसरो स्वयं भी विज्ञान की बारीकियों से परिचित थे। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें ‘एस्ट्रोलेब’ (Astrolabe) का तकनीकी ज्ञान था, जो सितारों और ग्रहों की स्थिति मापने का एक यंत्र है। उनकी कविताओं में यह ज्ञान झलकता है, जो उन्हें एक अद्वितीय कवि और विद्वान बनाता है।
आइए अब संगीत के क्षेत्र में अमीर ख़ुसरो के योगदान और विरासत से आपको रूबरू कराते हैं:
अमीर ख़ुसरो 13वीं शताब्दी के प्रसिद्ध सूफ़ी कवि और संगीतकार थे। उन्हें तूती-ए-हिंद यानी 'भारत का तोता' की उपाधि दी गई थी। उन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत, सूफ़ी क़व्वाली और फ़ारसी साहित्य में बहुत बड़ा योगदान दिया। उनकी रचनाओं ने भारतीय और फ़ारसी संस्कृतियों को जोड़ने का काम किया। अमीर ख़ुसरो सूफ़ी संत निज़ामुद्दीन औलिया के प्रिय शिष्य थे। उन्हीं से उन्हें आध्यात्मिक प्रेरणा मिली, जिसने उनकी कविता और संगीत को गहराई दी। उनकी रचनाएँ प्रेम, भक्ति और ईश्वर से सीधे संबंध की भावना को दर्शाती हैं। जब उन्होंने निज़ामुद्दीन औलिया को अपना गुरु बनाया, तब वे सूफ़ीवाद के चिश्ती संप्रदाय से जुड़ गए। ख़ुसरो ने अपने आध्यात्मिक गुरु, जिन्हें "महबूब-ए-इलाही" (भगवान का प्रिय) कहा जाता था, की प्रशंसा में कई शैलियों में कविताएँ लिखीं। उनकी रचनाओं में ईश्वर के प्रति अत्यधिक भक्ति और समर्पण दिखाई देता है। सूफ़ीवाद का मुख्य उद्देश्य सिर्फ़ वास्तविकता का बौद्धिक ज्ञान प्राप्त करना नहीं, बल्कि ईश्वर की सेवा करना है।
सूफ़ीवाद क्या है?
सूफ़ीवाद इस्लाम का आध्यात्मिक और रहस्यमय पहलू है। इसका मुख्य उद्देश्य आत्मिक शुद्धि, प्रेम और ईश्वर से सीधा संबंध स्थापित करना है। यह 7वीं से 10वीं शताब्दी के बीच उभरा और इसने संस्थागत धर्म की कठोरता के विरुद्ध एक मार्ग प्रस्तुत किया। सूफ़ी संत भक्ति, आत्म-अनुशासन और भौतिकवाद के त्याग पर ज़ोर देते हैं। सूफ़ीवाद और भारतीय भक्ति आंदोलन में कई समानताएँ हैं। दोनों ने कर्मकांडों के बजाय प्रेम, भक्ति और आंतरिक अनुभूति को महत्व दिया। दोनों ने समाज में समरसता और आध्यात्मिकता को बढ़ावा दिया। अमीर ख़ुसरो का साहित्य और संगीत भारत की बहुलवादी और समन्वयवादी परंपराओं को दर्शाता है। उनकी रचनाओं ने फ़ारसी और भारतीय संस्कृतियों को जोड़ा। साथ ही, सूफ़ीवाद ने भक्ति आंदोलन और सामाजिक सद्भाव को मज़बूत किया। यह परंपराएँ भारत के सांस्कृतिक और धार्मिक ताने-बाने को आकार देने में अहम रही हैं। उनकी कविताएँ सूफ़ी विचारधारा से गहराई से जुड़ी हुई हैं। इनमें ईश्वरीय प्रेम, जीवन की नश्वरता और आत्मा की ईश्वर से मिलन की तड़प का उल्लेख मिलता है। चिश्ती सूफ़ी संप्रदाय से उनका गहरा नाता था। विशेष रूप से, उनके गुरु निज़ामुद्दीन औलिया के प्रति उनकी अटूट भक्ति ने उनकी साहित्यिक रचनाओं को प्रभावित किया। ख़ुसरो की कविताओं में प्रियतम (माशूक़) को एक ईश्वरीय और दिव्य रूप में प्रस्तुत किया गया है।
आइए अब आपको ख़ुसरो के जीवन से जुड़े एक रोचक किस्से से रूबरू कराते हैं, जो आगे चलकर एक परंपरा बन गया:
एक समय की बात है, जब हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया अपने प्रिय भतीजे ख्वाजा तकीउद्दीन नूह की मृत्यु से अत्यधिक दुखी हो गए थे। वे लंबे समय तक शोक में डूबे रहे और एकांतवास में रहने लगे। हर दिन वे अपने भतीजे की कब्र "चिल्ला-ए-शरीफ" पर जाकर समय बिताते थे। उनके इस दुखी और एकाकी रूप को देखकर उनके शिष्य, विशेष रूप से अमीर ख़ुसरो, बहुत चिंतित हो गए। ख्वाजा को उनके पुराने रूप में वापस लाने के कई असफल प्रयासों के बाद, एक दिन ख़ुसरो ने देखा कि कई महिलाएँ पीले वस्त्र पहनकर, पीले फूल हाथों में लिए सड़कों पर नाचते-गाते हुए जा रही हैं। जब उन्होंने जाना कि वे महिलाएँ "बसंत" का उत्सव मना रही हैं और भगवान को फूल चढ़ा रही हैं, तब उनके मन में एक अनोखा विचार आया। ख़ुसरो ने तुरंत पीले रंग का घाघरा और चुन्नी पहन ली। कुछ कथाओं में उन्हें साड़ी में लिपटे हुए बताया गया है। उन्होंने अपने चेहरे को घूंघट से ढक लिया और गेंदे के फूलों से खुद को सजाया। साथ में उन्होंने एक ढोल भी उठाया, जिसमें सरसों के फूल रखे थे। इस तरह सजकर वे अपने प्रिय ख्वाजा के दरवाजे पर पहुँचे और ढोल की थाप पर ब्रज भाषा में गाने लगे—
"आज बसंत मनाए सुहागन,
आज बसंत मनाए सुहागन!"
ख़ुसरो की यह अनोखी श्रद्धा रंग लाई। जैसे ही निज़ामुद्दीन औलिया ने यह दृश्य देखा, उनके चेहरे पर मुस्कान आ गई और उनका शोक समाप्त हो गया। आज भी, इस परंपरा को सूफ़ी बसंत उत्सव के रूप में उसी प्रेम और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। दरगाह पीले रंग से सराबोर होती है, कव्वालियां गूंजती हैं, और श्रद्धालु उत्सव में शामिल होते हैं। यह वही एकमात्र दिन होता है, जब कव्वाल मुख्य दरगाह के अंदर जाकर गाते हैं। चारों ओर पीले फूलों की खुशबू और कव्वालियों की मधुर ध्वनि फैल जाती है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/2xvs4x4p
मुख्य चित्र में जौनपुर के शाही पुल और सूफ़ियों का स्रोत : Wikimedia, प्रारंग चित्र संग्रह
जौनपुर वासियों, इस रविवार देखते हैं, रबींद्रनाथ टैगोर के शिक्षा दर्शन चलचित्र
ध्वनि 2- भाषायें
Sound II - Languages
04-05-2025 09:15 AM
Jaunpur District-Hindi

हम जौनपुर के नागरिक इस तथ्य से भली-भाँति अवगत हैं कि, रवींद्रनाथ टैगोर जी ने शिक्षा के लिए एक अनूठी और विचारशील दृष्टि प्रदान की है। उनका मानना था कि, सीखना कक्षाओं और पुस्तकों तक सीमित नहीं होना चाहिए, और छात्रों को प्रकृति, कला और वास्तविक जीवन के अनुभवों से भी जोड़ा जाना चाहिए। उन्होंने शांतिनिकेतन में ‘विश्व-भारती विश्वविद्यालय’ की स्थापना की, जहां छात्र पेड़ों के नीचे स्वतंत्र रूप से सीख सकते थे, गाते थे, चित्र बना सकते थे और उनकी रचनात्मकता का पता लगा सकते थे। टैगोर ने भय और दबाव के बजाय, आनंद, स्वतंत्रता और जिज्ञासा के माध्यम से, शिक्षा प्राप्त करने पर ज़ोर दिया।
रबींद्रनाथ जी के शैक्षिक विचार-
टैगोर एक अत्यधिक कुशल भारतीय कवि, दार्शनिक, लेखक और शिक्षक थे, जिन्होंने उनकी बोलचाल की भाषा – बंगाली में उपन्यास, निबंध, नाटक और काव्यात्मक कार्य लिखे थे। वह ‘बंगाल पुनर्जागरण’ के एक प्रमुख व्यक्ति थे। बंगाल पुनर्जागरण, दरअसल, कोलकाता शहर में एक सांस्कृतिक राष्ट्रवादी आंदोलन था। 1901 में, उन्होंने बोलपुर के शांतिनिकेतन में एक विद्यालय की स्थापना की, जिसे बाद में उन्होंने अपने शिक्षा सिद्धांतों के आधार पर एक अंतरराष्ट्रीय संस्थान – ‘विश्वभारती’ के रूप में विकसित किया। शांतिनिकेतन में सभी विशेषताएं हैं, जैसे कि – “शिक्षा की गुरुकुल प्रणाली”, जिसमें छात्र और शिक्षक भीड़-भाड़ वाले शहर से दूर रहते हैं, प्राकृतिक आवास में शिक्षा प्राप्त करते हैं।
दूसरी ओर, शांतिनिकेतन का अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय – विश्वभारती, भारतीय एवं पश्चिमी संस्कृति, विज्ञान, साहित्य, कला आदि को जोड़ती है। यह भाईचारे और अंतर्राष्ट्रीय समझ पर ज़ोर देता है। टैगोर के ‘शिक्षा दर्शन’ ने राष्ट्रवादी परंपरा, पश्चिमी और पूर्वी दर्शन, विज्ञान और तर्कसंगतता के संश्लेषण, तथा एक अंतरराष्ट्रीय महानगरीय दृष्टिकोण को शामिल किया है।
आज, हम कुछ ऐसे चलचित्रों को देखेंगे, जो हमें रबींद्रनाथ टैगोर के शैक्षिक दर्शन को समझने में मदद करते हैं। हम आज के लेख में, अतः उनके मुख्य शैक्षिक दर्शन की खोज करेंगे।
नीचे कुछ मुख्य मुद्दे, एवं उनसे संबंधित चलचित्रों की लिंक दी गई है, जिन्हें आप देख सकते हैं।
संदर्भ
https://tinyurl.com/vntpdsw6
https://tinyurl.com/ysfwd9wh
https://tinyurl.com/3m5veu6s
https://tinyurl.com/aawa8u49
https://tinyurl.com/25fanby8
जौनपुर के जिज्ञासु और प्रतिभाशाली युवा, पत्रकारिता में बना सकते हैं सुनहरा भविष्य!
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
03-05-2025 09:18 AM
Jaunpur District-Hindi

हमारे शहर की गलियों में सुबह-सुबह जब चाय की दुकानों पर लोग अख़बार पलटते हैं, तो वे सिर्फ़ ख़बरें नहीं पढ़ते, बल्कि शहर की धड़कन को भी महसूस करते हैं। नुक्कड़ों पर बहस हो या चौपालों पर चर्चा, प्रेस की हर ख़बर यहाँ लोगों की सोच को आकार देने का काम करती है। लोकल मीडिया से लेकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख़बरों तक, पत्रकारिता जौनपुर को दुनिया से जोड़ने की एक मज़बूत कड़ी के रूप काम करती है।
आधुनिक युग में पत्रकारिता केवल काग़ज़ तक ही सीमित नहीं है। टीवी चैनल, डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म (Digital Platform) और सोशल मीडिया ने इसे हर घर तक पहुँचा दिया है। जो लोग सच्चाई उजागर करने, गहराई से शोध करने और कहानियाँ बुनने में रुचि रखते हैं, उनके लिए पत्रकारिता एक शानदार करियर विकल्प बन सकती है। पत्रकारिता में संभावनाएँ अपार हैं। जौनपुर जैसे शहर में भी युवा इस क्षेत्र को अपना भविष्य बना रहे हैं। वे लोकल मुद्दों को उठाकर डिजिटल माध्यमों से अपनी आवाज़ देश-दुनिया तक पहुँचा रहे हैं। इसलिए आज के इस लेख में हम भारत में पत्रकारिता के करियर के क्षेत्र पर बात करेंगे। हम जानेंगे कि यह क्षेत्र युवाओं के लिए कैसे नए मौके लेकर आ रहा है। साथ ही, इसमें उपलब्ध भूमिकाओं और करियर पथों को समझेंगे। अंत में, उन कौशलों और योग्यताओं पर चर्चा करेंगे, जो पत्रकारिता में सफ़ल होने के लिए ज़रूरी हैं।
भारत की संस्कृति विविध और यहाँ का इतिहास समृद्ध रहा है। देश की अर्थव्यवस्था भी तेज़ी से बढ़ रही है। यही वजह है कि आज के समय में पत्रकारिता में करियर बनाना एक बेहतरीन विकल्प हो सकता है। एक पत्रकार हमारे समाज में अहम भूमिका निभाता है। वह लोगों तक सही और निष्पक्ष जानकारी पहुँचाता है, जिससे जनता की राय बनती है। अगर आप भी भारत में पत्रकार बनने का सपना देख रहे हैं, तो यह गाइड आपके लिए मददगार साबित होगी।
देश में मीडिया इंडस्ट्री (media industry) लगातार बढ़ रही है। खासकर डिजिटल मीडिया (digital media) के बढ़ते प्रभाव के कारण, नए करियर विकल्प सामने आ रहे हैं। ऑनलाइन रिपोर्टिंग (online reporting), सोशल मीडिया मैनेजमेंट(social media management) और कंटेंट क्रिएशन (content creation) जैसे फ़ील्ड में अवसर तेज़ी से बढ़ रहे हैं।
आइए, जानते हैं कि पत्रकारिता का क्षेत्र कितना विस्तृत हो सकता है:
- प्रिंट पत्रकारिता (Print Journalism) : भारत में अख़बार और पत्रिकाएँ आज भी सूचना का भरोसेमंद स्रोत मानी जाती हैं। इस फ़ील्ड में आप रिपोर्टर, संपादक या कॉलम (column) लिखने वाले लेखक बन सकते हैं। आपका काम ख़बरों की खोज, रिपोर्टिंग, लेखन और संपादन करना होगा। प्रिंट मीडिया में सटीक और स्पष्ट भाषा में लिखना सबसे ज़रूरी होता है।
- इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (Electronic Media) : टीवी और रेडियो पत्रकारिता भी एक लोकप्रिय क्षेत्र है। इसमें आप एंकर, प्रोड्यूसर, स्क्रिप्ट राइटर या कैमरा ऑपरेटर बन सकते हैं। लाइव रिपोर्टिंग, इंटरव्यू और ग्राउंड कवरेज इस फ़ील्ड का अहम हिस्सा है। यहाँ आपको तेज़, सटीक और आकर्षक रिपोर्टिंग करनी होती है, ताकि दर्शक आपके साथ जुड़े रहें।
- डिजिटल मीडिया: डिजिटल युग में ऑनलाइन न्यूज़ पोर्टल, ब्लॉग और सोशल मीडिया तेज़ी से लोकप्रिय हो रहे हैं। यहाँ कंटेंट क्रिएटर, कॉपी एडिटर और सोशल मीडिया मैनेजर जैसे करियर विकल्प हैं। इस फ़ील्ड में ट्रेंडिंग टॉपिक्स पर तेज़ी से ख़बरें बनाना और उसे आकर्षक तरीके से प्रस्तुत करना ज़रूरी होता है।
- कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन (Corporate Communications) : अपनी ब्रांड छवि को बेहतर बनाने के लिए कई कंपनियाँ जनसंपर्क (PR) विशेषज्ञ नियुक्त करती हैं। इसका मुख्य काम मीडिया से संपर्क बनाए रखना, प्रेस रिलीज़ तैयार करना और इवेंट्स का आयोजन करना होता है। इस क्षेत्र में भाषा पर अच्छी पकड़ और प्रभावी संचार कौशल की ज़रूरत होती है।
- स्वतंत्र लेखन (Freelance Journalism): अगर आप फ़िक्स नौकरी के बजाय स्वतंत्र रूप से काम करना चाहते हैं, तो फ़्रीलांस पत्रकारिता आपके लिए बेहतरीन विकल्प हो सकती है। आप विभिन्न न्यूज़ पोर्टल, वेबसाइट और पत्रिकाओं के लिए लेख या फ़ीचर लिख सकते हैं। इसमें आपको अपनी लेखन शैली और रिसर्च स्किल्स को निखारने का मौका मिलता है।
- शोध और शिक्षा: अगर आपको पढ़ाने या रिसर्च में रुचि है, तो आप पत्रकारिता स्कूलों या शोध संस्थानों में शिक्षक या शोधकर्ता बन सकते हैं। यहाँ आप पत्रकारिता की नई तकनीक और रुझानों पर शोध कर सकते हैं। साथ ही, नए पत्रकारों को प्रशिक्षित करने का मौका भी मिलेगा।
अगर आप पत्रकारिता और जनसंचार में करियर बनाने का सपना देख रहे हैं, तो आपके लिए यह जानना ज़रूरी है कि इस क्षेत्र में आपके लिए कौन-कौन से अवसर उपलब्ध हैं। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जहां आपको लगातार सीखने और आगे बढ़ने के ढेरों मौके मिलते हैं।
आइए अब इस क्षेत्र के प्रमुख करियर विकल्पों के बारे में जानते हैं:
- जनसंपर्क अधिकारी (Public Relations Officer – PRO): किसी व्यक्ति या संगठन की सार्वजनिक छवि को बेहतर बनाने की ज़िम्मेदारी जनसंपर्क अधिकारी की होती है।
वे मीडिया से संपर्क करते हैं, प्रेस विज्ञप्तियाँ जारी करते हैं और कार्यक्रमों की योजना बनाते हैं। इसके अलावा, वे ब्रांड की छवि सुधारने के लिए रणनीतियाँ भी तैयार करते हैं। अगर आपको लोगों से संवाद करने और छवि प्रबंधन में दिलचस्पी है, तो यह करियर आपके लिए परफ़ेक्ट हो सकता है।
- रिपोर्टर (Reporter): रिपोर्टर का काम ख़बरें इकट्ठा करके, इन्हें जनता तक पहुँचाना होता है। वे घटनास्थल पर जाकर जानकारी जुटाते हैं और सच्चाई को सामने लाते हैं।
रिपोर्टर अख़बार, टीवी चैनल या डिजिटल मीडिया में काम कर सकते हैं। अगर आपको फ़ील्ड में जाकर काम करने और ब्रेकिंग न्यूज़ कवर करने का शौक है, तो रिपोर्टर बनना एक शानदार विकल्प है। - पत्रकार (Journalist): पत्रकार और रिपोर्टर के काम में थोड़ा फ़र्क होता है। पत्रकार किसी ख़बर पर गहराई से रिसर्च करते हैं और उसका विश्लेषण करके उसे लिखते हैं। वे राजनीति, खेल, मनोरंजन या किसी अन्य क्षेत्र के विशेषज्ञ हो सकते हैं। अगर आपको लिखने और रिसर्च करने में रुचि है, तो यह प्रोफ़ेशन आपके लिए बेहतरीन रहेगा।
- समाचार संपादक (News Editor): ख़बरों को संपादित करने और जाँचने का काम समाचार संपादक का होता है। वही तय करते हैं कि कौन-सी ख़बरें प्रकाशित होंगी और उनकी प्रस्तुति कैसी होगी। अगर आपको भाषा और लेखन में महारत हासिल है, तो आप एक कुशल संपादक बन सकते हैं।
- सोशल मीडिया मैनेजर (Social Media Manager): डिजिटल युग में सोशल मीडिया मैनेजर की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो गई है। वे किसी ब्रांड या संगठन का सोशल मीडिया अकाउंट संभालते हैं। वे रोचक कंटेंट तैयार करते हैं, पोस्ट शेड्यूल करते हैं और दर्शकों के साथ इंटरैक्ट करते हैं। अगर आपको क्रिएटिविटी और सोशल मीडिया का शौक है, तो यह प्रोफ़ेशन आपके लिए उपयुक्त है।
- फ़िल्म निर्माता (Film Producer): अगर आपको क्रिएटिव फ़ील्ड (creative field) में काम करने का शौक है, तो फ़िल्म निर्माता बनना एक शानदार विकल्प हो सकता है। फ़िल्म निर्माता फ़िल्म, डॉक्यूमेंट्री या वेब सीरीज़ का निर्माण और प्रबंधन करते हैं। इसमें फ़ंडिंग, कास्टिंग और प्रोडक्शन जैसे काम शामिल होते हैं। अगर आपको स्टोरीटेलिंग और विजुअल मीडिया में दिलचस्पी है, तो यह करियर आपके लिए उपयुक्त हो सकता है।
- कंटेंट डेवलपर (Content Developer): कंटेंट डेवलपर किसी कंपनी या ब्रांड के लिए डिजिटल कंटेंट (digital content) तैयार करते हैं। वे ब्लॉग, सोशल मीडिया पोस्ट, वेबसाइट लेख और मार्केटिंग सामग्री बनाते हैं। इनका लक्ष्य ग्राहकों का ध्यान आकर्षित करना और ब्रांड की पहचान को मज़बूत बनाना होता है। अगर आपको लिखने और क्रिएटिव सोच में रुचि है, तो कंटेंट डेवलपर के रूप में शानदार करियर बना सकते हैं।
आइए अब जानते हैं कि आप पत्रकारिता और जनसंचार के क्षेत्र में सफ़लता कैसे पा सकते हैं?
अगर आप पत्रकारिता में करियर बनाने का सपना देख रहे हैं, तो केवल एक डिग्री हासिल कर लेना ही काफ़ी नहीं है। इस क्षेत्र में सफ़ल होने के लिए आपको अनुभव, कौशल और निरंतर सीखने की भूख को साथ लेकर चलना होगा। इससे आपको पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों की गहरी समझ मिलेगी और आपके पास एक मज़बूत शैक्षणिक आधार होगा। लेकिन केवल डिग्री होना काफ़ी नहीं है। व्यावहारिक अनुभव भी उतना ही ज़रूरी है। इसके लिएन आप अलग-अलग मीडिया संस्थानों में इंटर्नशिप (internship) कर सकते हैं। वर्कशॉप (Workshop) में भाग ले सकते हैं और छोटे मीडिया हाउस के साथ काम करके अपने पोर्टफ़ोलियो को मज़बूत बना सकते हैं। इससे आपको फ़ील्ड में काम करने का वास्तविक अनुभव मिलेगा और आपकी स्किल्स बेहतर होंगी।
पत्रकारिता का क्षेत्र तेज़ी से बदल रहा है। इसलिए, खुद को हमेशा अपडेट (update) रखें। नए ट्रेंड्स (trends), तकनीकों और मीडिया टूल्स (media tools) के बारे में सीखते रहें। फ़ोटोग्राफ़ी (photography), वीडियो एडिटिंग (video editing) और कंटेंट प्रोडक्शन (content production) जैसे स्किल्स (skills) में महारत हासिल करें। ये एक्स्ट्रा स्किल्स आपको भीड़ से अलग बनाएंगे और आपके करियर को रफ़्तार देंगे। अगर आप अपने ज्ञान को और निखारना चाहते हैं, तो मास्टर डिग्री करने पर भी विचार करें। इससे आपको रिसर्च (research) , लेखन और मीडिया एनालिसिस (Media analysis) में गहराई से सीखने का मौका मिलेगा, जिससे आपके करियर के नए दरवाज़े खुलेंगे।
सबसे ज़रूरी बात “सीखने की भूख बनाए रखें।” इस क्षेत्र में वही लोग सफ़ल होते हैं, जो नई तकनीकों को अपनाने के लिए तैयार रहते हैं और बदलते समय के साथ खुद को ढालते हैं। पत्रकारिता में सफ़लता का रास्ता़ निरंतर सीखने और प्रयोग करने से ही गुज़रता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : flickr
जौनपुर के मंदिरों में अद्वैत वेदांत की झलक – आदि शंकराचार्य की शिक्षाओं का प्रभाव!
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
02-05-2025 09:32 AM
Jaunpur District-Hindi

प्रातः काल में जौनपुर के श्री गोमेतेश्वर महादेव और त्रिलोचन महादेव मंदिरों में गूंजती घंटियों की ध्वनि से पूरा वातावरण भक्तिमय हो उठता है। भोर में ही भगवान के दर्शन के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है। मंदिर परिसर में व्याप्त भक्ति-भावना मन को शांति से भर देती है। क्या आपने ध्यान दिया है, कि ऐसे पावन स्थानों पर कदम रखते ही अक्सर मन में जीवन को लेकर गहरे प्रश्न मन में उमड़ने लगते हैं! जैसे कि क्या जीवन बस वही है, जो हमारी आंखें देखती हैं? या इसके पार भी कोई अदृश्य सत्य छिपा है? लेकिन क्या आप जानते हैं कि ऐसे कई रहस्यमयी प्रश्नों का उत्तर आदि शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत दर्शन में मिलता है। उन्होंने कर्मकांड से अधिक ज्ञान (बोध) पर बल दिया और आत्म-जागरूकता व आंतरिक शांति का मार्ग दिखाया। उनकी शिक्षाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जो हमें सिखाती हैं कि भेदभाव से ऊपर उठकर जीवन के हर पहलू में एकता को देखना चाहिए। आज आदि शंकराचार्य की जयंती के इस पावन अवसर पर, हम उनके द्वारा प्रदत्त अद्वैत वेदांत दर्शन को विस्तार से समझने का प्रयास करेंगे । हम जानेंगे कि आत्म-साक्षात्कार में ज्ञान की क्या भूमिका है। साथ ही, उनके साहित्यिक और दार्शनिक योगदानों पर भी चर्चा करेंगे। अंत में, उनके हिंदू दर्शन और आध्यात्मिकता पर पड़े स्थायी प्रभाव का विश्लेषण करेंगे ।
आदि शंकराचार्य भारतीय इतिहास के एक महान दार्शनिक और अद्वैत वेदांत के पुनर्जागरणकर्ता थे। उनका संदेश स्पष्ट था "यह संपूर्ण ब्रह्मांड और सभी जीव ब्रह्म के साथ एक हैं।" आइए सबसे पहले आदि शंकराचार्य की शिक्षाओं और वेदांत के सार को समझते हैं:
क्या है अद्वैत वेदांत?
अद्वैत वेदांत को आदि शंकराचार्य के दर्शन की बुनियाद माना जाता है। 'अद्वैत' का अर्थ होता है – "दो नहीं, बस एक"। उनके अनुसार, यह एकमात्र अंतिम सत्य ब्रह्म है – जो निराकार, असीम और शाश्वत वास्तविकता है। शंकराचार्य का मानना था कि व्यक्तिगत आत्मा (जीवात्मा) और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है – “वे दोनों एक ही हैं।” जो भेदभाव या द्वैत हमें संसार में दिखाई देता है, वह सिर्फ़ एक भ्रम (माया) है। वास्तव में, यह सारा संसार मिथ्या (भ्रम) है, जबकि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है। शंकराचार्य के अनुसार, मोक्ष (मुक्ति) तभी संभव है, जब व्यक्ति इस अद्वैत सत्य को जान लेता है और अपनी आत्मा को ब्रह्म के साथ एक रूप में अनुभव करता है।
शंकराचार्य ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "ब्रह्म सूत्र भाष्य" में लिखा है:
"ब्रह्म सत्यम, जगत मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव न अपारः"
इसका अर्थ है:
"ब्रह्म ही परम सत्य है, यह संसार मात्र एक भ्रम है, और जीवात्मा ब्रह्म से अलग नहीं है।"
यह वाक्य उनके अद्वैत वेदांत दर्शन का सार है।
उनका मानना था कि: दुनिया की असली पहचान को जानना ही ज्ञानोदय (आत्मिक जागृति) का मार्ग है। जब व्यक्ति इस सत्य को जान लेता है, तभी उसे मुक्ति मिलती है।
शंकराचार्य के अनुसार, मुक्ति का मार्ग ज्ञान योग यानी ज्ञान की खोज है। उनका मानना था कि व्यक्ति अज्ञान (अविद्या) के कारण जन्म और मृत्यु के चक्र में फ़ंसा रहता है। इस अज्ञान को मिटाने के लिए उन्होंने आत्म-चिंतन और आत्म-जांच पर जोर दिया।
उन्होंने साधकों को खुद से यह सवाल पूछने के लिए प्रेरित किया:
"मैं कौन हूँ?" (कोहम)
इस प्रश्न का उत्तर अंततः व्यक्ति को यह अनुभव कराता है:
"मैं ब्रह्म हूँ" (अहम ब्रह्मास्मि)
यह शिक्षा बताती है कि हर व्यक्ति की असली पहचान उसकी भौतिक देह नहीं, बल्कि ब्रह्मस्वरूप आत्मा है। जो व्यक्ति इस सत्य को जान लेता है, वही मोक्ष को प्राप्त करता है। शंकराचार्य ने लोगों को भौतिक संसार की क्षणभंगुरता को समझने की सलाह दी।
उनका मानना था कि धन, संबंध और बाहरी सुख-सुविधाएं अस्थायी हैं। इन क्षणिक चीज़ो में उलझने के बजाय, व्यक्ति को शाश्वत सत्य (ब्रह्म) को पाने का प्रयास करना चाहिए। उनकी शिक्षाएँ हमें सिखाती हैं कि सच्चा सुख बाहरी चीज़ो में नहीं, बल्कि आत्म-ज्ञान में छिपा है। वे आज भी आत्म-अनुसंधान और आध्यात्मिक जागरूकता की प्रेरणा देती हैं।
आइए अब आदि शंकराचार्य के दार्शनिक और साहित्यिक योगदान को समझते हैं:
भारतीय दर्शन, धर्म और आध्यात्मिक विकास में आदि शंकराचार्य का योगदान अतुलनीय रहा है। उनकी शिक्षाएँ साधक को ब्रह्म (परम सत्य) का अनुभव कराती हैं। उन्होंने हिंदू सनातन धर्म को मज़बूत आधार देने के लिए कई महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की, जो आज भी धार्मिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए प्रमुख स्रोत हैं। आदि शंकराचार्य ने संस्कृत में लगभग 300 ग्रंथ लिखे, जिनमें टिप्पणियाँ (भाष्य), व्याख्याएँ और काव्य रचनाएँ शामिल हैं।
हालाँकि, इनमें से सभी को प्रमाणिक नहीं माना जाता, फिर भी कुछ प्रमुख रचनाएँ पूरी तरह प्रमाणिक मानी जाती हैं:
- ब्रह्मसूत्र-भाष्य: यह उनकी कालजयी कृति है, जो वेदांत दर्शन का आधारभूत ग्रंथ है। इसमें उन्होंने अद्वैत वेदांत का मूल सिद्धांत प्रस्तुत किया है।
- उपनिषदों पर भाष्य: शंकराचार्य ने प्रमुख उपनिषदों पर भी भाष्य लिखे, जिन्हें उनकी मौलिक रचनाएँ माना जाता है। हालांकि, "श्वेताश्वतर उपनिषद" पर भाष्य की प्रमाणिकता को लेकर संदेह है।
- मांडूक्य-कारिका पर भाष्य: यह अद्वैत दर्शन का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिस पर शंकराचार्य ने विस्तृत व्याख्या लिखी है।
- योग-सूत्रभाष्य-विवरण: ऐसा माना जाता है कि उन्होंने "योग-सूत्रभाष्य-विवरण" भी लिखा, जो महर्षि व्यास द्वारा रचित योग-सूत्र पर उनकी व्याख्या है। यह ग्रंथ योग प्रणाली का प्रमुख आधार है।
- उपदेशसहस्री: यह उनकी एकमात्र गैर-भाष्य रचना है, जिसे पूरी तरह प्रमाणिक माना जाता है। इसमें शंकराचार्य ने अद्वैत दर्शन को सरल और स्पष्ट रूप में समझाया है।
आदि शंकराचार्य का उद्देश्य मानव जाति को सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त करना था। उनका मानना था कि संसार में हर व्यक्ति तीन प्रकार के दुखों से पीड़ित है:
- आध्यात्मिक दुख: यह आत्मा और परमात्मा के बीच असंतुलन के कारण होता है। जब व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचानता, तब उसे यह पीड़ा होती है।
- दैविक दुख: यह प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़, भूकंप या सूखा से उत्पन्न होता है।
- भौतिक दुख: यह शारीरिक बीमारियों, मानसिक तनाव या पीड़ा से संबंधित होता है।
आदि शंकराचार्य के अनुसार, इन कष्टों से मुक्ति का एकमात्र मार्ग ब्रह्मज्ञान है – यानी यह समझना कि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं। उन्होंने जीवनभर अद्वैत वेदांत का प्रचार किया, जिसका मूल संदेश है: "ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है।"
आइए अब जानते हैं कि हिंदू दर्शन और अध्यात्म में आदि शंकराचार्य का क्या योगदान रहा है:
आदि शंकराचार्य का हिंदू दर्शन में योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण और अतुलनीय माना जाता है। उन्होंने उपनिषद, भगवद गीता और ब्रह्मसूत्र जैसे जटिल ग्रंथों पर सरल और स्पष्ट भाष्य (टिप्पणियाँ) लिखकर इन दार्शनिक ग्रंथों को आम लोगों के लिए भी सुलभ बना दिया। उनके प्रयासों ने विभिन्न विचारधाराओं को एकीकृत किया और अद्वैत वेदांत को एक मज़बूत आधार प्रदान किया।
- दर्शन के साथ भक्ति का समावेश: शंकराचार्य ने केवल दार्शनिक विचार ही नहीं दिए, बल्कि भक्ति को भी उतना ही महत्व दिया। उन्होंने 'भज गोविन्दम् ', 'आत्म शतकम' और 'सौंदर्य लहरी' जैसे मधुर और गहरे भक्ति भजन भी रचे। ये भजन आध्यात्मिक ज्ञान को सरल और काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिससे साधकों में भक्ति और आत्मचिंतन की भावना जाग्रत होती है।
- अध्यात्म और जीवन का समन्वय: शंकराचार्य ने अपने ग्रंथों और भजनों के माध्यम से सिर्फ़ दर्शन का प्रचार नहीं किया, बल्कि लोगों को आध्यात्मिक जीवन का महत्व भी समझाया। उनके विचार आज भी लाखों लोगों को आत्मज्ञान, भक्ति और मोक्ष की राह दिखाते हैं। उनका जीवन और शिक्षा हमें सिखाते हैं कि ज्ञान और भक्ति, दोनों का समन्वय ही सच्चा अध्यात्म है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में सांता क्रूज़, कैलिफ़ोर्निया में शंकराचार्य की मूर्ति का स्रोत : Wikimedia
जौनपुर की रसोई में इस्तेमाल होने वाला ‘आर ओ’ पानी कितना भरोसेमंद है?
वास्तुकला 2 कार्यालय व कार्यप्रणाली
Architecture II - Office/Work-Tools
01-05-2025 09:28 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर में अब हर घर में आर ओ (रिवर्स ऑस्मोसिस) यानी वॉटर प्यूरीफ़ायर (Water Purifier), दैनिक जीवन का अहम हिस्सा बन गया हैं। यह तकनीक हम लोगों को साफ़ और सुरक्षित पीने का पानी उपलब्ध कराने में मदद कर रही हैं। बढ़ते जल प्रदूषण और अशुद्धियों की चिंताओं के चलते, आज कई घर, कार्यालय और रेस्तरां बैक्टीरिया, भारी धातुओं और हानिकारक रसायनों को हटाने के लिए आर ओ प्रणाली (RO Systems) पर निर्भर हो गए हैं। ये प्यूरीफ़ायर न सिर्फ़ पानी की गुणवत्ता और स्वाद बेहतर बनाते हैं, बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी फ़ायदेमंद साबित होते हैं। इसलिए, लोग पीने और खाना पकाने के लिए इन्हें प्राथमिकता देने लगे हैं। जैसे-जैसे स्वच्छ पानी की ज़रूरत बढ़ रही है, आर ओ तकनीक जौनपुर में परिवारों को शुद्ध और विश्वसनीय पेयजल उपलब्ध कराने में अहम भूमिका निभा रही है।
इसलिए, आज के लेख में हम रिवर्स ऑस्मोसिस (RO) के बारे में बड़ी ही आसान भाषा में विस्तार से जानेंगे। इसके तहत हम आर ओ प्रणाली के प्रमुख लाभों, ख़ासतौर पर अशुद्धियों को हटाने में इसकी प्रभावशीलता पर चर्चा करेंगे। साथ ही, हम इसकी सीमाओं और संभावित कमियों को भी जानेंगे। अंत में, पारंपरिक निस्पंदन विधियों की तुलना में आर ओ प्रणाली की भूमिका को समझने की कोशिश करेंगे।
रिवर्स ऑस्मोसिस क्या है?
रिवर्स ऑस्मोसिस (RO) एक भौतिक निस्पंदन प्रक्रिया है, जो उच्च दबाव वाले पंप की मदद से काम करती है। इसमें अत्यधिक दबाव डालकर पानी के अणुओं को उनके प्राकृतिक प्रवाह के विपरीत धकेला जाता है, ताकि वे एक अर्ध-पारगम्य झिल्ली (Semi-permeable Membrane) से होकर गुज़र सकें। इस प्रक्रिया में पानी उच्च सांद्रता वाले घोल से कम सांद्रता वाले घोल में परिवर्तित होता है। झिल्ली बड़े कणों और दूषित पदार्थों को छानकर अलग कर देती है, जिससे शुद्ध पानी और अशुद्धियाँ अलग हो जाती हैं। आर ओ सिस्टम का मुख्य उद्देश्य सीधे नल के पानी को छानकर घरेलू उपयोग के लिए सुरक्षित और स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराना होता है।

रिवर्स ऑस्मोसिस (RO) के क्या लाभ होते हैं?
रिवर्स ऑस्मोसिस (RO) सिस्टम पानी को शुद्ध करने का एक प्रभावी तरीका होता है, जो जैविक और रासायनिक दोनों तरह के संदूषकों को हटाने में सक्षम होता है।
संदूषकों की व्यापक कमी – आर ओ सिस्टम पानी में मौजूद घुले हुए लवण, भारी धातुएँ, नाइट्रेट (nitrate), फ़्लोराइड (floride) और अन्य हानिकारक रसायनों को प्रभावी रूप से हटाता है।
रोगजनकों से सुरक्षा – इसकी अर्ध-पारगम्य झिल्ली बैक्टीरिया (bacteria), वायरस (virus) और प्रोटोज़ोआ (protozoa) को हटाने में बेहद प्रभावी होती है, जिससे दूषित पानी से पैदा होने वाली बीमारियों का ख़तरा कम हो जाता है।
घुले हुए ठोस पदार्थों की कमी – आर ओ सिस्टम पानी में मौजूद अकार्बनिक तत्वों को हटाकर उसकी कठोरता को कम करता है, जिससे स्केलिंग (Scaling) जैसी समस्याएँ नहीं होतीं।
फ़ार्मास्यूटिकल अवशेषों की कमी – यह पानी में मौजूद दवाइयों के अवशेष और हार्मोनल असंतुलन पैदा करने वाले तत्वों को भी प्रभावी रूप से हटाने में सक्षम होता है।
हालांकि इन फ़ायदों के इतर रिवर्स ऑस्मोसिस (Reverse osmosis) सिस्टम की कुछ सीमाएँ भी हैं, जिनमें शामिल हैं:
आवश्यक खनिजों की कमी – आर ओ सिस्टम न केवल हानिकारक तत्वों को हटाता है, बल्कि कैल्शियम (calcium), मैग्नीशियम (magnesium) और पोटैशियम (potassium) जैसे आवश्यक खनिजों को भी निकाल देता है। ये खनिज हमारे स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी होते हैं। हालाँकि, डेनमार्क जैसे कई देशों में लोग संतुलित आहार से ये खनिज प्राप्त कर लेते हैं, जिससे पानी से खनिजों की पूर्ति आवश्यक नहीं रह जाती।
स्वाद में बदलाव – खनिज हटने से पानी का स्वाद बदल सकता है, जिससे यह कुछ लोगों को कम स्वादिष्ट लग सकता है, ख़ासकर उन लोगों को जो प्राकृतिक रूप से खनिजयुक्त पानी पीने के आदी हैं।
अब आइए आपकी सबसे बड़ी उलझन दूर करते हैं और जानते हैं कि रिवर्स ऑस्मोसिस (RO) और पारंपरिक फ़िल्टर में से कौन बेहतर है?
फ़िल्टरेशन क्षमता: आर ओ फ़िल्टर गहराई से सफ़ाई करते हैं और लगभग सभी अशुद्धियों को हटा देते हैं। ये घुले हुए लवण, भारी धातुएँ और कई हानिकारक रसायनों को भी साफ़ कर देते हैं, जिन्हें आमतौर पर पारंपरिक फ़िल्टर नहीं हटा पाते। दूसरी ओर, पारंपरिक फ़िल्टर कुछ ख़ास संदूषकों को हटाने में कारगर होते हैं, लेकिन वे आर ओ सिस्टम जितनी व्यापक सफ़ाई नहीं दे सकते।
इंस्टालेशन और रखरखाव: पारंपरिक फ़िल्टर लगाना और उनका रखरखाव करना आसान होता है। इन्हें सिर्फ़ समय-समय पर बदलना पड़ता है, जबकि आर ओ सिस्टम के लिए पेशेवर प्लंबर की ज़रूरत होती है। इसके अलावा, इसमें झिल्ली बदलने और नियमित सफ़ाई जैसे अतिरिक्त रखरखाव की भी आवश्यकता होती है।
पानी की बर्बादी और दक्षता: आर ओ सिस्टम की सबसे बड़ी कमी यह है कि ये पानी बहुत बर्बाद करते हैं। कुछ सिस्टम शुद्ध पानी के हर 1 गैलन के बदले 3-5 गैलन तक पानी बहा देते हैं। इसके विपरीत, पारंपरिक फ़िल्टर, ख़ासकर वे जिनमें बैकवॉशिंग चक्र नहीं होता, पानी की इस तरह बर्बादी नहीं करते।
लागत: आर ओ सिस्टम की शुरुआती क़ीमत और रखरखाव का ख़र्च पारंपरिक फ़िल्टर से ज़्यादा होता है। हालाँकि, यह बेहतर फ़िल्टरेशन देता है, जिससे कई लोगों को यह एक सही निवेश लगता है।
कुल मिलाकर अगर आपको बेहद शुद्ध पानी चाहिए और आप उच्च लागत व रखरखाव संभाल सकते हैं, तो आर ओ फ़िल्टर बेहतर है। लेकिन अगर आप कम लागत में बुनियादी सफ़ाई चाहते हैं और पानी बचाना प्राथमिकता है, तो पारंपरिक फ़िल्टर ज़्यादा उचित रहेगा।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Wikimedia
आइए जौनपुर को बताएं, आखिर मधुमक्खी पालन कैसे और किन उपकरणों की सहायता से किया जाता है
वास्तुकला 2 कार्यालय व कार्यप्रणाली
Architecture II - Office/Work-Tools
30-04-2025 09:35 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर के निवासियों, क्या आपको पता है कि मधुमक्खी पालन, जिसे एपीकल्चर (Apiculture) भी कहा जाता है, वह प्रक्रिया है जिसमें इंसान मधुमक्खी की कॉलोनियों को संभालते हैं। यह आमतौर पर कृत्रिम मधुमक्खी के छत्तों में किया जाता है ताकि शहद और अन्य उत्पाद जैसे मोम, मधुमक्खियों द्वारा बनाई गई एक पदार्थ (प्रोपोलिस/Propolis), रॉयल जेली, और फसल की परागण (Pollination) किया जा सके। इस प्रक्रिया का उद्देश्य मधुमक्खियों का पालन करना भी हो सकता है।
भारत में मधुमक्खी पालन में लकड़ी के बक्सों (Artificial Beehives) का उपयोग किया जाता है। इन छत्तों में मधुमक्खियों के लिए शहद उत्पादन और परागण के लिए उचित वातावरण प्रदान किया जाता है। मधुमक्खी पालक छत्तों की सेहत का ध्यान रखते हैं, रोगों से बचाव करते हैं, और बेहतर शहद के स्रोतों के लिए मौसमी प्रवास को नियंत्रित करते हैं।
आज हम भारत के मधुमक्खी पालन बाज़ार से जुड़ी कुछ अहम जानकारी और आंकड़े जानेंगे। इसके बाद, हम मधुमक्खी पालन के कुछ महत्वपूर्ण फायदों पर चर्चा करेंगे। इनमें कृषि उत्पादकता में वृद्धि, रोज़गार सृजन, और पारिस्थितिकी तंत्र की स्थिरता जैसे लाभ शामिल हैं। फिर हम जानेंगे कि भारत में मधुमक्खी पालन कैसे किया जाता है। अंत में, हम इसके लिए आवश्यक उपकरणों के बारे में बात करेंगे।
भारत के मधुमक्खी पालन बाज़ार से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण आंकड़े और रुझान
भारत के मधुमक्खी पालन बाज़ार का मूल्य 2020 में लगभग 18,836.2 मिलियन रुपये था। यह उद्योग 2021-2026 के अनुमानित अवधि में 12.4% की वार्षिक वृद्धि दर (CAGR) से बढ़ने की उम्मीद है, और 2026 तक इसका मूल्य 37,235.9 मिलियन रुपये तक पहुँच सकता है।
फ़ैक्ट एम आर (FactMR) के एक अध्ययन के अनुसार, शहद का बाज़ार 2019-2029 के दौरान 5.1% की सकारात्मक CAGR से बढ़ने की संभावना है। शहद की मांग दुनिया भर में स्वस्थ आहार के लिए बढ़ रही है।
एशिया-प्रशांत क्षेत्र में शहद और इसके उत्पादों की खपत बढ़ रही है, क्योंकि इन उत्पादों के स्वास्थ्य लाभ के बारे में जागरूकता बढ़ी है।
भारत के शहद बाज़ार का मूल्य 2020 में लगभग 17.29 बिलियन रुपये था। यह बाज़ार 2021-2026 के बीच लगभग 10% की सी ए जी आर से बढ़ने की उम्मीद है, और 2026 तक इसका मूल्य लगभग 30.6 बिलियन रुपये तक पहुँच सकता है।
भारत में मधुमक्खी पालन के कुछ महत्वपूर्ण लाभ
- कृषि उत्पादकता में सुधार: मधुमक्खी के छत्ते अतिरिक्त भूमि स्थान की मांग नहीं करते हैं, और न ही वे कृषि में किसी इनपुट से प्रतिस्पर्धा करते हैं। इसके अलावा, ये फसलों की परागण करते हैं, जिससे अधिक उपज और उच्च गुणवत्ता वाली पैदावार मिलती है। उदाहरण के तौर पर: जिन खेतों में मधुमक्खी के बॉक्स होते हैं और जिनमें नहीं होते, उनके बीच अध्ययन में 227% (शिमला मिर्च), 160% (टमाटर), 133% (तूर दाल) का अंतर पाया गया है।
- पोषण सुरक्षा में वृद्धि: यह शहद, प्रोटीन से भरपूर पराग (pollen) और कोपले (brood) के रूप में मूल्यवान पोषण और पारंपरिक औषधि प्रदान करता है। इससे भारत को गंभीर कुपोषण से निपटने में मदद मिल सकती है।
- रोज़गार सृजन: मधुमक्खी पालन और शहद प्रसंस्करण (honey processing) श्रम-प्रधान होते हैं, लेकिन कौशल-प्रधान नहीं। इसलिए, यह बड़ी जनसंख्या के लिए रोज़गार के अवसर प्रदान करता है, विशेषकर ग्रामीण महिलाओं के लिए।
- पर्यावरणीय स्थिरता: मधुमक्खियां जटिल, आपस में जुड़ी हुई पारिस्थितिकी प्रणालियों में योगदान करती हैं, जो विभिन्न प्रकार की प्रजातियों को साथ रहने की अनुमति देती हैं। परागणक के रूप में, मधुमक्खियां पारिस्थितिकी तंत्र के हर पहलू में भूमिका निभाती हैं। ये पेड़ों, फूलों और अन्य पौधों की वृद्धि में मदद करती हैं, जो बड़े और छोटे जीवों के लिए भोजन और आश्रय प्रदान करते हैं।
- जैविक नियंत्रण: मधुमक्खी के छत्ते की बाड़—फसलों के खेतों को मधुमक्खी के छत्तों से घेरना—हाथियों से फ़सलों को बचाने के लिए एक मानवीय और पारिस्थितिकीय रूप से अनुकूल तरीका हो सकता है। इसके अलावा, फूलों का प्रभावी परागण फ़सलों को कीट हमलों से बचाने में मदद करता है।
भारत में मधुमक्खी पालन कैसे किया जाता है?
आधुनिक मधुमक्खी पालन के तरीके में, मधुमक्खियों को लकड़ी के बॉक्सों में ब्रूड चेंबरों (brood chambers) में पाला जाता है। ब्रूड चेंबर में एक लकड़ी का प्लेटफॉर्म होता है, जिसमें नीचे की ओर मधुमक्खियों के प्रवेश और निकासी के लिए एक उद्घाटन होता है।
सामान्यतः कुछ फ़्रेम्स को मोम की चादरों से कोट किया जाता है, जिनमें षटकोणीय निशान होते हैं, और इन्हें चेंबर में ऊर्ध्वाधर रूप से रखा जाता है। यह काम तारों की मदद से किया जाता है। जब मधुमक्खियाँ इन फ्रेम्स पर स्थानांतरित होती हैं, तो वे इन षटकोणीय निशानों के किनारों पर कोशिकाएं बनाती हैं। प्रत्येक मोम की चादर को सामान्यतः “कॉम्ब फ़ाउंडेशन (Comb Foundation)” कहा जाता है। यह मधुमक्खियों को एक आधार प्रदान करता है, ताकि वे मोम की चादरों के दोनों तरफ़ कॉम्ब बना सकें। एक चेंबर में कॉलोनियों के विस्तार के लिए अधिक फ्रेम्स हो सकते हैं।
एक सुपर (Super), जो कि एक ऊपरी स्तर का हाइव बॉक्स होता है, सामान्यतः ब्रूड चेंबर के ऊपर रखा जाता है। इसका उपयोग अतिरिक्त शहद को संग्रहित करने के लिए किया जाता है। उचित वेंटिलेशन, रोशनी और सुरक्षा प्रदान करने के लिए, सुपर के ऊपर एक कवर लगाया जाता है, जिसमें छेद होते हैं।
भारत में मधुमक्खी पालन के लिए जरूरी उपकरण
- मधुमक्खी के बक्से (Hives): ये इंसान द्वारा बनाए गए बक्से होते हैं, जहाँ मधुमक्खियाँ रहती हैं। इनकी लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई 19 7/8″ X 16 1/4″ X 9 5/8″ होती है।
- फ़्रेम्स (Frames): ये आयताकार होते हैं और हाइव्स के अंदर एक फाइलिंग सिस्टम की तरह काम करते हैं। यहाँ पर मधुमक्खियाँ अपना कॉम्ब बनाती हैं।
- सुरक्षात्मक वस्त्र (Protective Clothing): इसमें एक बॉडी सूट, सिर को बचाने के लिए घूंघट, हाथों के लिए दस्ताने, जूते आदि शामिल होते हैं। ये सब जरूरी होते हैं। आप इन्हें ऑनलाइन खरीद सकते हैं। दस्ताने मज़बूत सामग्री से बने होने चाहिए।
- मधुमक्खी के बक्से के उपकरण(Hive Tool): यह एक बहुउपयोगी उपकरण होता है, जिसे मुख्य रूप से एपीयरियों की जांच करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
- बी स्मोकर (Bee smoker): यह उपकरण, मधुमक्खियों को शांत करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जब हाइव्स की जांच की जाती है।
- क्वीन कैचर (Queen Catcher): यह उपकरण, राजा मधुमक्खी (Queen Bee) को कॉलोनी से अलग करने में मदद करता है।
- फ़ीडर्स (Feeders): इनका उपयोग उन परिस्थितियों में किया जाता है, जब फूलों का खिलना देर से होता है। मधुमक्खियों को पराग, शहद, और अन्य विकल्प प्रदान करते हैं, ताकि वे जीवित रह सकें।
- बी ब्रश (Bee Brush): इसका उपयोग, शहद के फ़्रेम्स से मधुमक्खियों को अलग करने के लिए किया जाता है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/3hepbpn9
मुख्य चित्र में मधुमक्खी पालक का स्रोत : Wikimedia
आज जौनपुर जानेगा, भारत की मछली उत्पादन क्षमता और उससे संबंधित कुछ महत्वपूर्ण आंकड़ों को
मछलियाँ व उभयचर
Fishes and Amphibian
29-04-2025 09:18 AM
Jaunpur District-Hindi

हमारा शहर जौनपुर, गोमती नदी से निकटता के साथ, अंतर्देशीय मत्स्य पालन के लिए अप्रयुक्त क्षमता रखता है। यह कहते हुए हम आपको बता दें कि, भारत विश्व स्तर पर तीसरा सबसे बड़ा मछली-उत्पादक देश है। देश में वित्त वर्ष 2022-23 में कुल 175.45 लाख टन मछली उत्पादन हुआ है, जिसमें अंतर्देशीय और समुद्री मछली क्षेत्र शामिल हैं। भारत वैश्विक मछली उत्पादन में लगभग 8% योगदान देता है। वित्तीय वर्ष 2023-24 में, भारत ने 17,81,602 मेट्रिक टन समुद्री भोजन का निर्यात किया, जिसका मूल्य, 60,523.89 करोड़ रुपए है। इसलिए आज, हम भारत में मछली उत्पादन की वर्तमान स्थिति का पता लगाएंगे। उसके बाद, हम भारत के समुद्री भोजन निर्यात के बारे में विस्तार से बात करेंगे। इसके अलावा, हम अपने देश के मत्स्य पालन क्षेत्र के सामने आने वाली प्रमुख चुनौतियों पर भी चर्चा करेंगे। जबकि अंत में, हम देश में मछली उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए, हालिया वर्षों में किए गए कुछ उपायों और पहलों के बारे में जानेंगे।
भारत में मछली उत्पादन की वर्तमान स्थिति:
1.भारत, दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा मछली उत्पादक है, और चीन (China) के बाद दूसरा सबसे बड़ा जलीय कृषि उत्पाद उत्पादक है।
2.चीन का मछली उत्पादन में प्रथम स्थान है, और फिर इंडोनेशिया (Indonesia) दूसरे स्थान पर है।
3.भारत ने वित्तीय वर्ष 2022-23 में, 175.45 लाख टन का मछली उत्पादन किया है, जो वैश्विक उत्पादन का 8% है।
4.यह देश के सकल मूल्य वर्धित में लगभग 1.09% और कृषि सकल मूल्य वर्धित में 6.72% से अधिक का योगदान देता है।
5.यह क्षेत्र, देश में 28 मिलियन से अधिक लोगों की आजीविका का भी समर्थन करता है।
भारत के समुद्री भोजन निर्यात की खोज:
2023-24 के दौरान सबसे अधिक निर्यात, जमे हुए झींगों का था, जिसका कुल वज़न 7,16,004 मेट्रिक टन था। संयुक्त राज्य अमेरिका (United States of America) इसका सबसे बड़ा बाज़ार है, और 2,97,571 मेट्रिक टन झींगों का आयात करता है। इसके बाद क्रमशः चीन (1,48,483 मेट्रिक टन), यूरोपीय संघ (89,697 मेट्रिक टन), दक्षिण पूर्व एशिया (52,254 मेट्रिक टन), जापान (35,906 मेट्रिक टन) और मध्य पूर्व (28,571 मेट्रिक टन), का स्थान आता है।
जमी हुई मछलियां, दूसरी सबसे अधिक निर्यात की गई जलीय खाद्य वस्तु है, जिसका मूल्य 5,509.69 करोड़ रुपए है। मात्रा में ये 21.42% योगदान देती है। 2024 में मछलियों की निर्यात मात्रा में 3.54% और मूल्य में 0.12% वृद्धि हुई थी। छठे स्थान पर, कटलफ़िश का निर्यात किया गया था, जिसकी मात्रा 54,316 मेट्रिक टन एवं मूल्य 2252.63 करोड़ रुपए था ।
भारत के लिए प्रमुख समुद्री भोजन निर्यात बाज़ार:
विदेशी बाज़ारों के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका, मूल्य के संदर्भ में भारतीय समुद्री भोजन का प्रमुख आयातक बना रहा, जिसमें 2,549.15 मिलियन डॉलर का आयात मूल्य शामिल है। चीन – हॉंगकॉंग (Hongkong) और ताइवान (Taiwan) को छोड़कर – भारत के लिए दूसरा सबसे बड़ा समुद्री भोजन निर्यात गंतव्य था, जिसकी आयात मात्रा, 4,51,363 मेट्रिक टन थी एवं मूल्य, 1,384.89 मिलियन अमेरिकी डॉलर था ।
जापान (Japan) हमारे लिए तीसरा सबसे बड़ा आयातक है, जिसकी वज़न मात्रा में 6.06% की हिस्सेदारी और यूएस डॉलर मूल्य में 5.42% हिस्सेदारी है। जमे हुए झींगे जापान को निर्यात की गई प्रमुख समुद्री भोजन वस्तु बनी रही, जिसकी मात्रा में 33.26% और मूल्य में 65.94% हिस्सेदारी थी। दूसरी ओर, वियतनाम (Vietnam) हमारे लिए चौथा सबसे बड़ा निर्यात बाज़ार था।
भारत के मत्स्य पालन क्षेत्र के सामने आने वाली प्रमुख चुनौतियां:
•वित्तीय पहुंच का अभाव: कई मछुआरे अपर्याप्त वित्तीय सहायता, सीमित उत्पादकता और आधुनिक मछली पकड़ने की प्रथाओं के कारण, उन्नत उपकरण प्राप्त करने में कठिनाइयों का सामना करते हैं।
•जल प्रदूषण: नदियों, झीलों और तटीय क्षेत्रों जैसे जल निकायों में प्रदूषण, जलीय पारिस्थितिक तंत्र और मत्स्य पालन की स्थिरता को खतरे में डालता है।
•सिकुड़ते मछली फ़ार्मिंग क्षेत्र: शहरीकरण, औद्योगीकरण और जनसंख्या वृद्धि के कारण, मछली पालन खेती के लिए पहले इस्तेमाल किए जाने वाले धान के खेतों में आई कमी के कारण, जलीय कृषि के लिए जगह कम कर दी।
•मानसून अप्रत्याशितता: अप्रत्याशित मानसून पानी के स्तर में उतार-चढ़ाव का कारण बनकर, अंतर्देशीय मत्स्य पालन को प्रभावित करता है, जिससे कुछ मौसमों के दौरान मछलियों की खराब पैदावार होती है।
•बुनियादी ढांचे की कमी: खराब विपणन, भंडारण और परिवहन सुविधाएं, मछलियों के कुशल वितरण और बिक्री को रोकती हैं, तथा इस क्षेत्र की वृद्धि और लाभप्रदता को सीमित करती हैं।
•अपर्याप्त अनुसंधान और विस्तार सेवाएं: सीमित अनुसंधान और कमज़ोर विस्तार सेवाएं, मत्स्य उद्योग के भीतर नई प्रौद्योगिकियों और स्थायी प्रथाओं को अपनाने में बाधा डालती हैं।
भारत में मछली उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए की गई पहलें:
•प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना (Pradhan Mantri Matsya Sampada Yojana (PMMSY)):
जलीय कृषि उत्पादकता को बढ़ाना, मत्स्य प्रबंधन में सुधार, एकीकृत एक्वापार्कों (Aquaparks) की स्थापना, आदि इस योजना के महत्वपूर्ण लक्ष्य है। इसकी उप-योजना – ‘प्रधानमंत्री मत्स्य किसान समृद्धि सह-योजाना’ का उद्देश्य, वित्तीय और तकनीकी हस्तक्षेपों के माध्यम से, कमज़ोरियों को संबोधित करना है।
•नील क्रांति योजना (Blue Revolution Scheme):
इसमें समुद्री और अंतर्देशीय मत्स्य पालन के विकास और प्रबंधन के लिए एकीकृत दृष्टिकोण शामिल है।
•मत्स्य पालन और जलीय कृषि ढांचा विकास निधि (Fisheries and Aquaculture Infrastructure Development Fund):
इस निधि से समुद्री और अंतर्देशीय मत्स्य पालन में, बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए धन प्रदान किया जाता है।
•राष्ट्रीय समुद्री मत्स्य नीति (National Marine Fisheries Policy, 2017):
यह योजना भारत के समुद्री मत्स्य संसाधनों के संरक्षण और प्रबंधन में मार्गदर्शन करती है।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Wikimedia
जौनपुर सल्तनत का इतिहास समझकर जानते हैं उस दौर में हमारे शहर के संचालन के बारे में
मघ्यकाल के पहले : 1000 ईस्वी से 1450 ईस्वी तक
Early Medieval:1000 CE to 1450 CE
28-04-2025 09:32 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर के नागरिकों, क्या आप जानते हैं कि जौनपुर सल्तनत, जो 1394 से 1479 तक अस्तित्व में थी, की स्थापना 1394 में सुल्तान नसीरुद्दीन मुहम्मद शाह तुगलक (Sultan Nasiruddin Muhammad Shah IV Tughluq) के शासनकाल के दौरान, एक किन्नर और दिल्ली सल्तनत के पूर्व राज्यपाल मलिक सरवर (Malik Sarwar) द्वारा की गई थी। मलिक सरवर ने तैमूर के आक्रमण के बाद मची अराजकता के बीच स्वतंत्रता की घोषणा की और स्वयं को "ख्वाज़ा-ए-जहाँ मलिक-उस-शर्की" की उपाधि देकर शर्की राजवंश की शुरुआत की। जौनपुर उनकी नई सल्तनत की राजधानी बना। जौनपुर शहर में आज भी मौजूद कई उत्कृष्ट स्मारकों में अपने समृद्ध इतिहास के पर्याप्त संकेत मिलते हैं। एक समय में जौनपुर इस्लामी अध्ययन और गंगा-जमुनी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण केंद्र एवं कई लोगों के लिए विस्मय का स्थान था। यह दिल्ली सल्तनत के पतन के दौरान उभरा, शर्की वंश के तहत एक स्वतंत्र राज्य के रूप में विकसित हुआ, और इसने दिल्ली सल्तनत में पुनः शामिल होने से पहले संस्कृति, वास्तुकला और प्रशासन में उल्लेखनीय योगदान दिया। तो आइए, आज जौनपुर सल्तनत की उत्पत्ति और इतिहास के बारे में जानते हुए, जौनपुर साम्राज्य की सीमा पर प्रकाश डालते हैं और इसके क्षेत्रीय प्रभाव को समझते हैं। इसके साथ ही, हम शर्की शासकों के अधीन जौनपुर के प्रशासन और जौनपुर सल्तनत की सेना के बारे में जानेंगे। अंत में, हम जौनपुर सल्तनत के दौरान निर्मित कुछ सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्मारकों और शर्की शैली की वास्तुकला की विशेषताओं के बारे में जानेंगे।
जौनपुर सल्तनत की उत्पत्ति और इतिहास:
1394 ईसवी में, फ़िरोज़ शाह तुगलक (Firoz Shah Tughlaq) की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार के युद्ध से उत्पन्न अराजकता का लाभ उठाते हुए, मलिक सरवर ने दिल्ली सल्तनत से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की और ख्वाजा-ए-जहाँ मलिक-उस-शर्की अर्थात 'दुनिया का प्रमुख हिजड़ा, पूर्व का भगवान', की उपाधि ली। उसी वर्ष, उसने अपने दत्तक पुत्रों, मुबारक शाह और इब्राहिम शाह के साथ मिलकर शर्की राजवंश के साम्राज्य की स्थापना की। जौनपुर सल्तनत पश्चिम में इटवा से लेकर पूर्व में लखनौती (बंगाल) तक और दक्षिण में विंध्याचल से लेकर उत्तर में नेपाल तक फैली हुई थी। शर्की काल के दौरान, जौनपुर सल्तनत उत्तर भारत में एक मजबूत सैन्य शक्ति थी और कई मौकों पर उसने दिल्ली सल्तनत को भी चुनौती दी थी।
शर्की शासकों के अधीन जौनपुर का प्रशासन:
मलिक सरवर और उनके उत्तराधिकारियों, विशेष रूप से इब्राहिम शाह शर्की (1402-1440) ने सल्तनत का विस्तार करते हुए इसमें आधुनिक उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ हिस्सों को शामिल किया। इब्राहिम शाह शर्की (Ibrahim Shah Sharqi) अपनी प्रशासनिक कुशलता के लिए विशेष रूप से जाने जाते थे । सल्तनत ने एक कुशल राजस्व प्रणाली और स्थापित की और अपनी आबादी के साथ अपेक्षाकृत सामंजस्यपूर्ण संबंध बनाए रखा। शर्की शासकों ने शासन की एक ऐसी प्रणाली बनाई, जिसमें इस्लामी सिद्धांतों को दिल्ली सल्तनत से विरासत में मिली प्रशासनिक प्रथाओं के साथ मिश्रित किया गया। शर्की शासकों के अधीन शिक्षा और संस्कृति के केंद्र के रूप में अपनी स्थिति के कारण जौनपुर को "भारत का शिराज़" के नाम से जाना जाने लगा।
सैन्य शक्ति: शर्की शासकों ने दिल्ली और बंगाल से अपने क्षेत्रों की रक्षा के लिए एक दुर्जेय सेना तैयार की। उन्होंने दिल्ली सल्तनत द्वारा पुनः नियंत्रण स्थापित करने के कई प्रयासों का विरोध किया। जौनपुर में सुल्तानों के अधीन कई राजपूत जागीरदार थे। समकालीन राजपूत वंशों में, जो जौनपुर सुल्तानों के क्षेत्र या परिधि में स्थित थे, उनमें रीवा के बाघेल, उत्तर प्रदेश में सुल्तानपुर के बछगोती, भोजपुर के उज्जैनिया और साथ ही ग्वालियर के तोमर शामिल थे। एक समसामयिक स्रोत के अनुसार, राजपूतों के बचगोती कबीले के प्रमुख जुगा ने अंतिम सुल्तान हुसैन शाह का समर्थन करने के लिए, 200,000 पैदल और 15,000 घुड़सवार सैनिकों की एक विशाल सेना एकत्र की थी।
जौनपुर सल्तनत द्वारा निर्मित कुछ सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्मारक:
- अटाला मस्जिद: अटाला मस्जिद का निर्माण 1408 ईसवी में शम्स-उद-दीन इब्राहिम (Shams-ud-Din Ibrahim) द्वारा किया गया था। हालांकि, इसकी नींव 30 वर्ष पूर्व फ़िरोज़ शाह तुगलक द्वारा रखी गई थी। इस मस्जिद में 177′ का एक वर्गाकार प्रांगण था जिसके तीन तरफ़ मठ थे और चौथी (पश्चिमी) तरफ़ अभयारण्य था। पूरी मस्जिद 258′ का एक वर्गाकार है।
- खालिस मुखलिस मस्जिद: इस मस्जिद का निर्माण 1430 ईसवी में शहर के दो राज्यपालों, मलिक खालिस (Malik Khalis) और मलिक मुखलिस (Malik Mukhlis) के आदेश पर किया गया था। इसे अटाला मस्जिद के समान सिद्धांतों पर संरचित किया गया था।
- झांझरी मस्जिद: झांझरी मस्जिद का निर्माण भी 1430 ईसवी में किया गया था। हालांकि, इसका केवल सामने का मध्य भाग ही शेष है। इसे इसका नाम धनुषाकार तोरण जैसी आकृति के प्रवेश द्वार के कारण मिला है।
- लाल दरवाज़ा मस्जिद: इस मस्जिद को 1450 ईसवी में बीबी राजा द्वारा स्थापित किया गया था। इसका निर्माण लगभग अटाला मस्जिद के समान किया गया था, सिवाय इस तथ्य के कि यह आकार में अटाला मस्जिद की लगभग 2/3 थी और जनाना कक्ष केंद्रीय क्षेत्र में स्थित है। इसका प्रांगण 132′ का वर्गाकार है। छोटे आकार के कारण, अभयारण्य के सामने केवल केंद्रीय तोरण बनाया गया है, छोटे पार्श्व तोरण को छोड़ दिया गया है। इस मस्जिद का नाम लाल रंग के ऊँचे दरवाज़े के कारण पड़ा था।
- जामी मस्जिद: इसे हुसैन शाह (Hussain Shah) ने 1470 ईसवी में बनवाया था। यह मस्जिद भी बड़े पैमाने पर अटाला मस्जिद की कई उल्लेखनीय विशेषताओं से प्रभावित है। यह पूरी इमारत 16′-20′ ऊंचाई के एक चबूतरे पर खड़ी है और ऊपर तक खड़ी लेकिन भव्य सीढ़ियां जाती हैं।
जौनपुर की शर्की वास्तुकला शैली की विशेष विशेषताएं:
जौनपुर की शर्की वास्तुकला में तुगलक शैली का एक विशिष्ट प्रभाव है, जो बुर्ज़ों, मीनारों और मेहराब-बीम के संयोजन में दिखाई देता है। हालाँकि, जौनपुर शैली की सबसे खास विशेषता के अग्रभाग का डिज़ाइन है। यह अभयारण्य के केंद्र में उभरे हुए ढलान वाले मुख्यद्वार में दिखाई देता है। मुख्यद्वार में एक विशाल मेहराब होता है, जो असाधारण, विशाल और दृढ़ पतले वर्गाकार मीनारों से बना होता है। इसके सबसे अच्छे उदाहरण अटाला मस्जिद और जामी मस्जिद हैं। वास्तव में, मुख्यद्वार, जौनपुर वास्तुकला शैली की मुख्य विशेषता थी और यह भारतीय-इस्लामी वास्तुकला की किसी अन्य अभिव्यक्ति में नहीं पाई जाती है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में गोमती नदी से जौनपुर किले का स्रोत : प्रारंग चित्र संग्रह
चलिए आज, मंत्रमुग्ध कर देने वाली डॉल्फ़िनों की छलांग को धीमी गति में देखें
व्यवहारिक
By Behaviour
27-04-2025 09:14 AM
Jaunpur District-Hindi

वाराणसी में, गंगा के कुछ हिस्सों में जल की गति धीमी और वातावरण शांत रहता है — विशेष रूप से अस्सी घाट के नीचे की ओर। ऐसे स्थानों पर गंगा नदी डॉल्फ़िन (Ganges river dolphin) कभी-कभी दिखाई दे जाती हैं । पानी से बाहर उनकी सुंदर छलांग एक खूबसूरत नज़ारा होता है, जिसे अक्सर स्थानीय लोग और आगंतुक नाव की सवारी या घाटों पर शांत सुबह के समय देखते हैं। क्या आप जानते हैं कि डॉल्फ़िन कई कारणों से पानी से बाहर छलांग लगाती हैं, जिसमें संचार, नैविगेशन (navigation), शिकार और यहाँ तक कि मौज-मस्ती भी शामिल है। वे परजीवियों को दूर भगाने नाव की लहर का उपयोग करके ऊर्जा बचाने के लिए भी छलांग लगा सकती हैं। इसके अलावा, शिकारियों से बचने के लिए भी वे ऐसा करती हैं । इनके शिकारियों से बचने के लिए पानी से बाहर छलांग लगाने को “स्पाई-हॉपिंग”(spy-hopping) कहा जाता है। इस प्रतिक्रिया के दौरान, ये पानी की सतह पर अपना सिर छिपाते हुए पानी की ओर देखती हुई दिखाई देती हैं। इनमें सुनने और इकोलोकेशन (echolocation) की उत्कृष्ट क्षमता होती है, जिसका उपयोग ये आस-पास के क्षेत्रों में भोजन का पता लगाने के लिए करती हैं। इसके अलावा, डॉल्फ़िन अपने आस-पास के वातावरण को बेहतर ढंग से देखने के लिए भी हवा में ऊंची छलांग लगाती हैं। इनकी अधिकांश प्रजातियाँ अन्य समुद्री स्तनधारियों और की तुलना में बहुत छोटी होती हैं, इसलिए इन्हें शार्क और वेल जैसे बड़े शिकारियों से अधिक खतरा होता है। अपने आस-पास की चीज़ों पर नज़र रखने और अन्य डॉल्फ़िनों को खतरों के बारे में सूचित करने के लिए, वे अक्सर हवा में छलांग लगाती हैं। तो आइए, आज हम, कुछ धीमी गति के चलचित्रों के ज़रिए, डॉल्फ़िनों के व्यवहारों को विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं। इस संदर्भ में हम इन्हें पानी से बाहर छलांग लगाते हुए देखेंगे। हम हवा में उनके सुंदर घुमाव, गोता लगाते समय उनकी सहज छपाक और उनकी हरकतों से संबंदित कुछ सुंदर दृश्यों का आनंद भी लेंगे। ये मंत्रमुग्ध करने वाला दृश्य हैं जिनसे नज़र हटाना मुश्किल है।
संदर्भ:
क्या है जौनपुर में विस्कोस और लायोसेल जैसे टेक्सटाइल फ़ाइबरों के बढ़ते बाज़ार का कारण ?
स्पर्शः रचना व कपड़े
Touch - Textures/Textiles
26-04-2025 09:28 AM
Jaunpur District-Hindi

जौनपुर के लोग विस्कोस (Viscose) और लायोसेल (Lyocell) से बने कपड़ों को उनकी आरामदायकता, हवा को अंदर जाने की क्षमता और सस्ती कीमत के लिए पसंद करते हैं। सेलूलोज़िक फ़ाइबर पौधों से उत्पन्न हुए टेक्सटाइल फ़ाइबर होते हैं, जो सेलूलोज़ नामक जटिल कार्बोहाइड्रेट से बनते हैं। इनमें प्राकृतिक फ़ाइबर जैसे कि सूती, पटसन (flax) और भांग, और मानव निर्मित फ़ाइबर जैसे विस्कोस, लायोसेल और मोडल शामिल होते हैं।
लायोसेल और विस्कोस (जिसे विस्कोस रेयॉन भी कहा जाता है) के कपड़े, अपनी खासियतों जैसे मुलायमियत, सांस लेने की क्षमता और मज़बूती के कारण, कपड़े, घरेलू वस्त्रों और यहां तक कि औद्योगिक स्थानों में भी इस्तेमाल होते हैं। 2018 में भारत का विस्कोस फ़ाइबर उत्पादन 369.820 मिलियन किलोग्राम तक पहुँच गया, जो 1981 के बाद से सबसे ज़्यादा था और 2017 के मुकाबले इसमें काफी बढ़ोतरी हुई थी (364.990 मिलियन किलोग्राम)।
तो आज हम जानेंगे कि भारत में बनाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के कृत्रिम सेलूलोज़ फ़ाइबर कौन से हैं। उसके बाद, हम विस्कोस और लायोसेल की विशेषताओं और उपयोगों के बारे में बात करेंगे। फिर हम, अपने देश में विस्कोस के उत्पादन प्रक्रिया के बारे में जानेंगे। इसके बाद, इस फ़ैब्रिक के बाज़ार से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण आंकड़े देखेंगे, इसमें इसके आयात और निर्यात पर ध्यान दिए जाएगा । अंत में, हम जानेंगे कि हमारे देश में विस्कोस रेयॉन के प्रमुख निर्माता कौन से हैं।
भारत में बनाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के कृत्रिम सेलूलोज़ कपड़े
- विस्कोस – यह एक प्रकार का उत्पादन प्रक्रिया है जिसमें कार्बन डाईसल्फ़ाइड (Carbon disulfide) , सोडियम हाइड्रॉक्साइड (Sodium hydroxide) और सल्फ़्यूरिक एसिड (Sulfuric acid) का इस्तेमाल होता है। ये सभी रसायन मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए हानिकारक होते हैं।
- मोडल – इस प्रक्रिया में भी वही रसायन इस्तेमाल होते हैं, लेकिन इन रसायनों के बदलते तरीके से मोडल फ़ाइबर की गीली मजबूती बढ़ती है।
- लायोसेल – यह भी विस्कोस जैसी ही प्रक्रिया है, लेकिन इसमें सोडियम हाइड्रॉक्साइड की जगह एक जैविक विलयन, जिसे एन-मिथाइलमॉर्फोलिन एन-ऑक्साइड (N-Methylmorpholine N-oxide) कहा जाता है, का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें उपयोग किए गए रसायनों और पानी का 100% पुनर्चक्रण किया जाता है। लायोसेल आमतौर पर दो ब्रांड नामों टेंसेल (TENCEL) और मोनोसिल (MONOCEL) के तहत बेचा जाता है।
- पुनर्नवीनीकरण फ़ाइबर आधारित मानव निर्मित फ़ाइबर – हाल के तकनीकी सुधारों की वजह से अब पुनर्नवीनीकरण सामग्री से बने मानव निर्मित फ़ाइबर का विकास किया गया है।
विस्कोस और लायोसेल की विशेषताएँ और उपयोग
विस्कोस: विस्कोस एक सेमी-सिंथेटिक कपड़ा है, जिसे शहद जैसी तरल से बनाया जाता है। इसे फ़ाइबर बनाने के लिए प्रोसेस किया जाता है। यह कपड़ा आरामदायक और सस्ता होता है, इसलिए यह बहुत से कपड़ों में इस्तेमाल होता है। विस्कोस में सांस लेने की क्षमता होती है, यानी यह शरीर की गर्मी को फंसाता नहीं है, जिससे यह गर्म और गीले मौसम के लिए अच्छा होता है। हालांकि, यह कपड़ा कुछ समय बाद फट सकता है और आसानी से सिकुड़ सकता है। इसका इस्तेमाल सांस लेने की क्षमता और सस्ती कीमत के कारण कई कपड़ों में किया जाता है।
लायोसेल: लायोसेल पर्यावरण के लिए अच्छा होता है। इसे बनाने की प्रक्रिया में रसायनों का 100% पुनर्चक्रण किया जाता है। लायोसेल के फ़ाइबर में सांस लेने की क्षमता और नमी को सोखने के गुण होते हैं, जो इसे संवेदनशील त्वचा वाले लोगों के लिए आदर्श बनाते हैं। यह कपड़ा बहुत मुलायम और चिकना होता है, जो अच्छे से लटकता है, जिससे यह कपड़ों और घर के कपड़े बनाने में बहुत अच्छा होता है। लायोसेल विस्कोस से ज़्यादा मज़बूत होता है, खासकर जब यह गीला होता है, और यह आसानी से सिकुड़ता नहीं है। इसका इस्तेमाल कपड़े और घर के कपड़े बनाने में किया जाता है।
भारत में विस्कोस का उत्पादन कैसे होता है ?
विस्कोस रेयॉन (Viscose Rayon) सबसे प्रसिद्ध और सबसे पुराना मानव निर्मित रेशमी फ़ाइबर है, जो मानव निर्मित सेलूलोज़ फ़ैब्रिक (Man Made Cellulose Fabric (MMCF)) का 80% हिस्सा बनाता है। इसकी शुरुआत सेल्युलोसिक सामग्री (ज़्यादातर पेड़ों) को तोड़कर पल्प बनाने से होती है। फिर इसे कैस्टिक सोडा (सोडियम हाइड्रॉक्साइड) में मिलाया जाता है। इसे कुछ समय तक घोलने के बाद, इसे काटकर रखा जाता है। फिर, इस पल्प को कार्बन डाईसल्फ़ाइड से ट्रीट किया जाता है, जिससे एक नारंगी रंग का पदार्थ बनता है। फिर इसे कम घनत्व वाले कैस्टिक सोडा में डाला जाता है। इसके बाद, यार्न की चमक बढ़ाने के लिए इसे एक खास रासायनिक मिश्रण मिलाया जाता है। फिर, शुद्ध सेलूलोज़ को एक घुलनशील यौगिक में बदला जाता है। इस घोल को एक स्पिनरेट के माध्यम से एक बाथ में डाला जाता है, जिसमें सल्फ़्यूरिक एसिड के यौगिक होते हैं, जो सेलूलोज़ को फिर से ठोस फ़ाइबर में बदल देते हैं।
भारत में विस्कोस बाज़ार से कुछ महत्वपूर्ण आंकड़े
विस्कोस फ़ाइबर का आयात-निर्यात: वित्तीय वर्ष 2012-2016 के दौरान अंतरराष्ट्रीय बाज़ार से बढ़ती मांग के कारण विस्कोस फ़ाइबर के निर्यात में वृद्धि हुई। हालांकि, वित्तीय वर्ष 2017 में विस्कोस रेयान का निर्यात घटा है। 2016 में 154 मिलियन किलोग्राम से घटकर 2017 में 107.83 मिलियन किलोग्राम हो गया। विस्कोस फ़ाइबर का आयात वित्तीय वर्ष 2012 से लेकर 2016 तक बढ़ा, फिर 2017 में यह घटकर 26.74 मिलियन किलोग्राम रह गया।
विस्कोस फ़िलामेंट यार्न (VFY) का आयात-निर्यात: विस्कोस फ़िलामेंट यार्न का आयात निर्यात से ज़्यादा है। वित्तीय वर्ष 2014 में VFY का आयात 16.8 मिलियन किलोग्राम था, जो 2017 में घटकर 5.3 मिलियन किलोग्राम रह गया। भारत में अच्छे गुणवत्ता वाली लकड़ी की पल्प उपलब्ध नहीं है, जबकि उत्पादन क्षमता अधिक है। उच्च गुणवत्ता वाले विस्कोस फ़िलामेंट यार्न के लिए, भारत अन्य देशों से आयात पर निर्भर है।
भारत में विस्कोस रेयान के प्रमुख निर्माता
ग्रासिम इंडस्ट्रीज़ भारत और वैश्विक स्तर पर विस्कोस फ़ाइबर के प्रमुख निर्माता हैं। भारत में विस्कोस फ़ाइबर की स्थापित क्षमता 416.68 मिलियन किलोग्राम है। 2017 में विस्कोस फ़िलामेंट यार्न के सात निर्माता थे, जिनकी स्थापित क्षमता 81.27 मिलियन किलोग्राम थी। इन कंपनियों में सेंचुरी रेयान, आदित्य बिड़ला न्यूवो (इंडियन रेयान कॉर्पोरेशन), केसराम रेयान, नेशनल रेयान कॉर्पोरेशन और अन्य शामिल हैं।
आदित्य बिड़ला न्यूवो (इंडियन रेयान) और सेंचुरी रेयान मिलकर 80 प्रतिशत से अधिक उत्पादन करते हैं। केसराम रेयान लगभग 18 प्रतिशत रेयान उत्पादन में योगदान करता है, और अन्य कंपनियाँ केवल 2 प्रतिशत विस्कोस रेयान का उत्पादन करती हैं।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Wikimedia
संस्कृति 1994
प्रकृति 744