स्वतंत्रता संग्राम के सबसे प्रसिद्ध चिन्ह 'गाँधी टोपी' की उत्पत्ति हुई रामपुर रियासत में

उपनिवेश व विश्वयुद्ध 1780 ईस्वी से 1947 ईस्वी तक
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स्वतंत्रता संग्राम के सबसे प्रसिद्ध चिन्ह 'गाँधी टोपी' की उत्पत्ति हुई रामपुर रियासत में

आपने मशहूर अभिनेता राजकुमार का यह संवाद "जानी! ये बच्चों के खेलने की चीज़ नहीं, ये रामपुरी है, लग जाए तो खून निकल आता है" तो अवश्य ही सुना होगा। इस संवाद ने हमारे रामपुर की शान रामपुरी चाकू को पूरी दुनिया में मशहूर कर दिया। लेकिन क्या आप जानते हैं कि हमारे शहर रामपुर की एक और वस्तु ने, जिसने जब अपना उचित स्थान पा लिया, तो अंग्रेजों को देश से बाहर निकाल दिया। मेरी इस बात से आप थोड़ा हैरान तो जरूर हुए होंगे। लेकिन हम यहाँ बात कर रहे हैं गाँधी टोपी की। जी हाँ, गाँधी टोपी। कई लोग सोचते हैं कि गाँधी टोपी की उत्पत्ति या तो साबरमती (गुजरात) या वर्धा (महाराष्ट्र) में हुई है क्योंकि ये दोनों ही स्थान महात्मा गाँधी से जुड़े हुए हैं।
लेकिन वास्तव में गाँधी टोपी की उत्पत्ति रामपुर रियासत में हुई थी। एक सदी से भी अधिक समय पहले, रामपुर की रियासत से चाकू के बिल्कुल विपरीत वस्तु सफ़ेद गांधी टोपी का जन्म हुआ। विपरीत इसलिए क्योंकि यदि चाकू हिंसा, अपराध, रक्तपात, आतंक और क्रूर शक्ति का प्रतीक है, तो गांधी टोपी अहिंसा, शांति, प्रेम, तपस्या, देशभक्ति और एकता का प्रतीक बन गई है। 1920 में महात्मा गांधी ने पहली बार रामपुर में घरेलू कपड़े से बनी टोपी पहनी थी। उस समय महात्मा गाँधी की टोपी बनाने के लिए खादी का नहीं बल्कि एक मोटे कपड़े का उपयोग किया गया था जिसे ‘गारा’ कहते हैं। रामपुर की अदालत के एक वकील 75 वर्षीय शौकत अली इस टोपी के विषय में अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि "महात्मा गांधी ने 1920 में रामपुर रियासत का दौरा किया और पहली बार खुरदरे कपड़े से बनी टोपी पहनी, जो धीरे-धीरे गांधी टोपी के रूप में लोकप्रिय हो गई।"
रामपुर की रियासत में तब वर्तमान रामपुर जिला और आसपास के कई अन्य जिले शामिल थे। अली के अनुसार, 1920 में, मोहम्मद अली जौहर की बेटी की शादी में शामिल होने के लिए महात्मा गांधी मुरादाबाद में आए थे, जो उस समय रामपुर का एक हिस्सा था। विवाह समारोह के समाप्त होने के बाद महात्मा गांधी ने रामपुर के नवाब से मिलने का फैसला किया।
अली के अनुसार: “गांधी जी को नवाब के दरबार में उनसे मिलना था। लेकिन रामपुर में उस समय की परंपरा के अनुसार कोई भी नंगे सिर नवाब के सामने पेश नहीं हो सकता था। गांधी जी के पास टोपी नहीं थी, इसलिए उनके साथ आए लोग एक उपयुक्त टोपी की तलाश में बाज़ार की ओर दौड़े। लेकिन उन्हें गाँधी जी के माप की टोपी नहीं मिली।" इस मुलाकात की महत्ता को समझते हुए जौहर की मां अबादी बेगम ने तुरंत ही गाँधीजी के लिए एक टोपी बनाई। अली अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि, ''महात्मा गांधी को यह टोपी इतनी पसंद थी कि उन्होंने रियासत में अपने प्रवास के दौरान शायद ही कभी इसे हटाया था।'' उस समय महात्मा गांधी ने जो टोपी पहनी थी, वह जनता के बीच गांधी टोपी के रूप में लोकप्रिय हो गई।
मोटे कपड़े से बनी यह साधारण टोपी, शक्तिशाली ब्रिटिश शासकों के खिलाफ लड़ाई में लाखों भारतीयों के लिए विरोध का प्रतीक और एक शक्तिशाली हथियार बन गई थी। गाँधी जी के साथ साथ यह लगभग प्रत्येक स्वतंत्रता सेनानी के सिर पर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का प्रतीक चिन्ह बन गई।
भारत की स्वतंत्रता के 75 साल बाद भी गाँधी टोपी आज भी लोगों के दिलों में एक विशेष जगह रखती है। यह आज भी मुख्य रूप से राजनीतिक वर्ग से जुड़ी मानी जाती है, विशेषकर उत्तर भारत में और कुछ हद तक महाराष्ट्र में। इस टोपी का मूल डिजाइन वही है जो पहले था, हालांकि इसके रंग में एक राजनीतिक दल से दूसरे राजनीतिक दल में अंतर हो सकता है। एक और अल्पज्ञात तथ्य यह है कि दिल्ली के राजघाट की तरह, रामपुर में भी महात्मा गांधी को समर्पित एक स्मारक है जहाँ गाँधी जी की अस्थियों का एक हिस्सा स्मारक में जमीन से आठ फुट नीचे दफन है। अली के अनुसार रामपुर के नवाब सर रज़ा अली खान बहादुर, गांधी जी की अस्थियों को इस स्थान पर लाए थे जिसके लिए उन्होंने शहर के मध्य भाग में स्मारक का निर्माण करवाया।
अब बात करते हैं हमारे रामपुर के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी मोहम्मद अली जौहर की। प्रसिद्ध कवि और स्वतंत्रता सेनानी मोहम्मद अली जौहर का जन्म 10 दिसंबर 1878 को उत्तर प्रदेश के रामपुर में हुआ था। 1911 में अली जौहर ने कोलकाता से अंग्रेजी साप्ताहिक 'द कॉमरेड' The Comrade) शुरू किया। 1912 में वे दिल्ली चले आए, और वहां उन्होंने 1913 में एक उर्दू भाषा के दैनिक समाचार पत्र हमदर्द का शुभारंभ किया। अपने अधिकांश लेखों में उन्होंने भारतीयों पर ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों को उजागर किया। जिसके कारण 1914 में प्रेस अधिनियम के तहत साप्ताहिक पर प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन फिर भी निडर होकर, अली जौहर ने अपने लेखन में शाही शासन की आलोचना जारी रखी। राष्ट्रवादी लेखन के लिए उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया, लेकिन इससे उनकी देशभक्ति की भावना कम नहीं हुई। 1915 से 1919 तक राजनीतिक बंदी रहने के बाद अली जौहर एक राष्ट्रवादी नेता के रूप में उभरे। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए भी काम किया और सभी समुदायों के लोगों से एकजुट होकर अंग्रेजों से लड़ने का आग्रह किया। 1919 में अली जौहर ने खिलाफत आंदोलन में दृढ़ता से भाग लिया और बाद में गाँधी जी के असहयोग आंदोलन में शामिल हो गये। उन्होंने राष्ट्रीय मुस्लिम विश्वविद्यालय, जिसे अब जामिया मिलिया इस्लामिया के नाम से जाना जाता है, की स्थापना की और इसके पहले कुलपति बने। अस्वस्थ होने के बावजूद, अली जौहर ने 1930 के गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया और घोषणा की कि वह ब्रिटिश शासित भारत नहीं लौटेंगे, जिसके कुछ दिनों बाद 4 जनवरी 1931 को उनकी मृत्यु हो गई।

संदर्भ
https://shorturl.at/azEG2
https://shorturl.at/bfuE3
https://shorturl.at/cRZ79

चित्र संदर्भ
1. गाँधी टोपी पहने खुद गांधीजी को संदर्भित करता एक चित्रण ( Flickr)
2. गाँधी टोपी पहने बुजुर्ग व्यक्ति को संदर्भित करता एक चित्रण (pexels)
3. 1938 में हरिपुरा में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की वार्षिक बैठक में गांधीजी कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस के साथ। को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. महाराष्ट्र के वारी देहुगांव के दौरान गांधी टोपी पहने लोगों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. मुहम्मद अली जौहर को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)

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