समयसीमा 234
मानव व उनकी इन्द्रियाँ 960
मानव व उसके आविष्कार 743
भूगोल 227
जीव - जन्तु 284
Post Viewership from Post Date to 29- Dec-2023 (31st Day) | ||||
---|---|---|---|---|
City Subscribers (FB+App) | Website (Direct+Google) | Total | ||
215 | 229 | 444 |
ऐसे समाज में जहां पर महिलाओं को ऊँची आवाज में बोलने की भी आजादी नहीं थी, यहां तक की महिलाओं को हमेशा पर्दें में रहना पड़ता था, ऐसी विषम और विपरीत स्थिति में भी महिलाओं के हक़ के लिए वकालत कर देना वाकई में बहुत ही बहादुरी का काम है। इस काम को करने के लिए अथाह हिम्मत, अटूट साहस और पूरे समाज का विरोध झेल सकने की क्षमता की आवश्यकता पड़ती है। कॉर्नेलिया सोराबजी (Cornelia Sorabji) में ये सभी गुण थे, जो एक बहादुर महिला को किसी भी आम महिला से अलग करते हैं।
कॉर्नेलिया सोराबजी का सबसे पहला परिचय यही होगा कि वह ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी (Oxford University) में कानून की पढ़ाई करने वाली पहली महिला थीं। अपने जीवन काल में वह एक अग्रणी भारतीय वकील, समाज सुधारक और एक सफल लेखिका साबित हुई।
कॉर्नेलिया सोराबजी का जन्म 15 नवंबर 1866 के दिन औपनिवेशिक बॉम्बे प्रेसीडेंसी (Bombay Presidency) के नासिक शहर में हुआ था। वह अपने माता-पिता के दस बच्चों में से एक थी और उनका नाम उसकी दत्तक दादी लेडी कॉर्नेलिया मारिया डार्लिंग फोर्ड (Lady Cornelia Maria Darling Ford) के सम्मान में रखा गया था। उनके पिता, एक ईसाई मिशनरी थे, और उनकी माँ को एक ब्रिटिश दंपत्ति ने गोद लिया और पाला था। कॉर्नेलिया के व्यक्तित्व पर इन दोनों के जीवन का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। अपने सभी भाई बहनों में केवल पांच बहनें और एक भाई ही जीवित रहे। कॉर्नेलिया ने अपना बचपन शुरू में बेलगाम और बाद में पुणे में बिताया। उनकी शिक्षा, उनके घर और मिशनरी स्कूलों में हुई।
कॉर्नेलिया ने पहली महिला छात्रा के रूप में डेक्कन कॉलेज (Deccan College) में दाखिला लिया और अंतिम उपाधि की परीक्षा में अपने ग्रुप में सबसे अधिक अंक प्राप्त किए, जिससे वह इंग्लैंड में आगे की पढ़ाई के लिए सरकारी छात्रवृत्ति की हकदार बन गईं। कॉर्नेलिया डेक्कन कॉलेज में अपनी कक्षा की सबसे होनहार छात्रा थी, लेकिन इसके बावजूद, उन्हें इंग्लैंड में अध्ययन के लिए सरकारी छात्रवृत्ति से वंचित कर दिया गया। इसके बाद उन्होंने पुरुषों के लिए एक शैक्षणिक संस्थान, गुजरात कॉलेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर के रूप में एक अस्थायी पद संभाला।
1888 में, कॉर्नेलिया ने अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए नेशनल इंडियन एसोसिएशन (National Indian Association) से सहायता मांगी। इसके बाद कई उल्लेखनीय व्यक्तियों की मदद से, वह 1889 में इंग्लैंड पहुंचीं। 1890 में उन्हें सर विलियम एंसन (Sir William Anson) के निमंत्रण पर ऑक्सफोर्ड के ऑल सोल्स कॉलेज (All Souls College) की कॉड्रिगटन लाइब्रेरी (Codrington Library) में रीडर के रूप में भर्ती किया गया था।
लड़कियों के लिए स्कूल स्थापित करने और जरूरतमंदों की मदद करने में उनकी मां के काम ने कॉर्नेलिया को महिलाओं की वकालत करने के लिए प्रेरित किया। 1892 में उस समय के कई प्रभावशाली लोगो की याचिकाओं के कारण, उन्हें ऑक्सफोर्ड के सोमरविले कॉलेज (Somerville College) में पोस्ट-ग्रेजुएट बैचलर ऑफ सिविल लॉ परीक्षा (Post-Graduate Bachelor Of Civil Law Examination) देने के लिए कांग्रेगेशनल डिक्री (Congregation Decree) द्वारा विशेष अनुमति दी गई थी। इस अनुमति को पाने वाली वह दुनियां की पहली महिला बनीं।
ऑक्सफोर्ड में, उन्होंने मैक्स म्युलर (Max Müller) और मोनियर मोनियर-विलियम्स (Monier Monier-Williams) जैसे विद्वानों के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित किए। हालांकि 1892 में उन्होंने बैचलर ऑफ सिविल लॉ (Bachelor Of Civil Law (BCL) परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी लेकिन इसके बाद भी ऑक्सफोर्ड ने उन्हें डिग्री नहीं दी, क्योंकि उस समय महिलाओं को वकील के रूप में पंजीकरण कराने की अनुमति नहीं थी। निराश होकर वह भारत लौट आईं और नौकरी की तलाश शुरू कर दी। यह भी कोई आसान उपलब्धि नहीं थी और उनका संघर्ष जारी रहा।
ऑक्सफोर्ड डिग्री प्राप्त करने में असमर्थ होने के बावजूद भी सोराबजी ने महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी और भारत में महिलाओं के लिए पर्दे की प्रथा का विरोध किया। उस समय पर्दा करने वाली महिलाएं समाज से अलग-थलग रहती थीं और शिक्षा प्राप्त करने में असमर्थ थीं। हालांकि सोराबजी को इन महिलाओं के लिए याचिका दायर करने की अनुमति जरूर दी गई थी, लेकिन अभी भी वह अदालत में उनका प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती थीं क्योंकि भारत में भी महिलाओं को कानून का अभ्यास करने की अनुमति नहीं थी।
इस अनुमति को प्राप्त करने की आशा में, सोराबजी ने 1897 में बॉम्बे विश्वविद्यालय से एलएलबी परीक्षा (L.L.B) और 1899 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की वकील की परीक्षा के लिए आवेदन किया। हालांकि उन्होंने दोनों परीक्षाओं में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया, फिर भी उन्हें बैरिस्टर के रूप में मान्यता नहीं दी गई। इसलिए उन्होंने पर्दानशीं के मुद्दों और अधिकारों पर सरकार के कानूनी सलाहकार के रूप में काम किया। 1904 में, उन्हें बंगाल के कोर्ट ऑफ वार्ड्स (Court Of Wards) में महिला सहायक के रूप में नियुक्त किया गया था, और 1907 तक, वह उपेक्षित और दबे हुए लोगों की आवाज बन गईं। महिलाओं और अन्य अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करने के लिए उन्होंने बंगाल, बिहार, उड़ीसा और असम जैसे कई प्रांतों में काम किया।
वह कई सामाजिक सेवा अभियान समूहों से जुड़ गई थीं, जिनमें नेशनल काउंसिल फॉर वुमेन इन इंडिया (National Council For Women In India), फेडरेशन ऑफ यूनिवर्सिटी वुमेन (Federation Of University Women) और बंगाल लीग ऑफ सोशल सर्विस फॉर वुमेन (Bengal League Of Social Service For Women) शामिल थे। उन्होंने भारत में महिलाओं के बदलाव के आंदोलन पर पश्चिमी दृष्टिकोण थोपने का विरोध किया और तेजी से बदलाव का विरोध करते हुए सामाजिक सुधार के प्रति कड़ा रुख अपनाया। सोराबजी का मानना था कि जब तक सभी महिलाएं शिक्षित नहीं होंगी, तब तक राजनीतिक सुधार का कोई भी वास्तविक स्थायी मूल्य नहीं होगा।
हालांकि आपको जानकार हैरानी होगी कि उन्होंने ब्रिटिश राज और ऊंची जाति की हिंदू महिलाओं के लिए पर्दा प्रथा का समर्थन किया और भारतीय स्वशासन का विरोध किया था। उनके इन्हीं विचारों के कारण बाद में उन्हें सामाजिक सुधारों के लिए आवश्यक समर्थन भी नहीं मिल सका। अपने जीवनकाल में सोराबजी ने कई प्रकाशन लिखे, जो 20वीं सदी की शुरुआत तक भी बेहद प्रभावशाली माने जाते थे। अपने 20 साल के करियर में, उन्होंने 600 से अधिक महिलाओं और अनाथों की उनके कानूनी मामलों में अक्सर मुफ्त में मदद की। 1924 में, जब महिलाओं को भारत में कानून का अभ्यास करने की अनुमति दी गई, तो सोराबजी ने कलकत्ता में अभ्यास करना शुरू किया। हालांकि, लैंगिक पूर्वाग्रह के कारण, उन्हें केवल मामले की राय तैयार करने की अनुमति दी गई थी, लेकिन उन्हें अदालत में पेश करने की नहीं थी।
कॉर्नेलिया सोराबजी एक जटिल और विरोधाभासी शख्सियत थीं। वह एक समाज सुधारक थीं, जिन्होंने ब्रिटिश राज का समर्थन किया और तेजी से बदलाव का विरोध किया। उनका मानना था कि महिलाओं के अधिकार स्वशासन से जुड़े हैं, लेकिन उन्होंने भारत पर पश्चिमी मूल्यों को थोपने का भी विरोध किया। वह एक कट्टर राष्ट्रविरोधी थीं, जिन्होंने ब्रिटिश राज के शासन का समर्थन किया और महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा अभियान की निंदा की। उनका जीवन "विरोधाभासों से भरा" हुआ था, लेकिन उन्होंने उन शिक्षित महिलाओं की ब्रिटिश आलोचना को विश्वसनीयता देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जो अब राजनीतिक परिदृश्य का हिस्सा थीं। उन्होंने अपने जीवनकाल में कई किताबें भी लिखी, जिनमें इंडिया कॉलिंग: द मेमोरीज ऑफ कॉर्नेलिया सोराबजी और इंडिया रिकॉल्ड (India Calling: The Memories Of Cornelia Sorabji And India Recalled) नामक उनकी आत्मकथा भी शामिल है। 1931 में सोराबजी स्थायी रूप से लंदन वापस चली गई और 6 जुलाई 1954 को मैनर हाउस (Manor House) के नॉर्थंबरलैंड हाउस (Northumberland House) में उनकी मृत्यु हो गई।
संदर्भ
https://tinyurl.com/mr48javs
https://tinyurl.com/43b757kf
https://tinyurl.com/mr4ypupn
चित्र संदर्भ
1. कॉर्नेलिया सोराबजी को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. कॉर्नेलिया सोराबजी की एक अन्य छवि को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. लिंकन इन में कॉर्नेलिया सोराबजी की प्रतिमा को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. द टाइम्स में प्रकाशित मैरी हॉबहाउस के पत्र को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. कॉर्नेलिया सोराबजी को दर्शाता एक चित्रण (youtube)
A. City Subscribers (FB + App) - This is the Total city-based unique subscribers from the Prarang Hindi FB page and the Prarang App who reached this specific post.
B. Website (Google + Direct) - This is the Total viewership of readers who reached this post directly through their browsers and via Google search.
C. Total Viewership — This is the Sum of all Subscribers (FB+App), Website (Google+Direct), Email, and Instagram who reached this Prarang post/page.
D. The Reach (Viewership) - The reach on the post is updated either on the 6th day from the day of posting or on the completion (Day 31 or 32) of one month from the day of posting.