रामपुर की गलियों में घूमकर ग़ालिब ने बयां किया, अंग्रेजों के गुलाम होने का दर्द

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17-06-2023 09:36 AM
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रामपुर की गलियों में घूमकर ग़ालिब ने बयां किया, अंग्रेजों के गुलाम होने  का दर्द

इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी आदमी थे काम के! उर्दू शायरी पढ़ने, लिखने और इसपर अमल करने वाला हर शख्स, ग़ालिब और उनकी शेरो-शायरी से जरूर ही वाकिफ होगा। उर्दू के इतिहास में सबसे अधिक गहरे और क्रांतिकारी शायर रहे, ग़ालिब ने अपनी जिंदगी के कई साल हमारे रामपुर में ही बिताएं थे। उनकी कई रचनाएं रामपुर रियासत की इन्हीं गुमनाम गलियों में पैदा हुई थी। उनकी अधिकांश रचनाओं में आपको "इश्क" जैसे नाजुक शब्दों की भरमार नजर आएगी, लेकिन क्या आप जानते हैं कि अंग्रेजों के गुलाम रहे इस देश की मजबूरियों ने ग़ालिब को भी झकझोरा था, जिसका दर्द दबे-दबे शब्दों में उनकी कुछ रचनाओं में झलकता भी है।
मिर्जा असदुल्लाह खां ग़ालिब (Mirza Asadullah Khan Ghalib) 1857 के विद्रोह के दौरान दिल्ली में मौजूद थे। ग़ालिब ने अपने जीवनकाल में बहुत बड़े सामाजिक परिवर्तन देखे, लेकिन इसके बावजूद उनकी रचनाओं में कोई भी शायरी अथवा कविता राजनीतिक या सामाजिक क्रांति से प्रेरित नहीं थी। भले ही ग़ालिब की कुछ ग़ज़लों और शेरो-शायरी को गलती से राजनीतिक क्रांति की अभिव्यक्ति माना जाता है, लेकिन वे सभी वास्तव में विद्रोह से बहुत पहले लिखी गई थी। हालाँकि, ग़ालिब के उर्दू पत्र, 1857 की क्रांति की थोड़ी-बहुत अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। जीवंत और स्पष्ट शैली में लिखे गए इन पत्रों में ग़ालिब ने उस के दौरान अपने अनुभवों को साझा किया है।
ग़ालिब ने अपने ख़तों में 1857 की क्रांति का ज़िक्र करते हुए अपने दर्द और दुख को बयां किया। हालाँकि, उन्होंने यह भी ध्यान रखा कि उनकी रचनाएँ अंग्रेज़ों को नाराज न कर दें। कई ब्रिटिश अधिकारी भी ग़ालिब के मित्र थे तथा ग़ालिब को उनसे वाहवाही और पेंशन भी मिलती थी। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, ग़ालिब ने हमारे रामपुर के शासक को भी पत्र लिखे, जिनमें उन्होंने इन्हें राजनीतिक सलाह दी और क्रांति की चर्चा की। उन्होंने अनुरोध किया कि इन पत्रों को पढ़ने के बाद नष्ट कर दिया जाए, क्योंकि उनमें विद्रोह और मुगलों के प्रति कोई भी सहानुभूति नहीं झलक रही थी। ग़ालिब का मानना था कि शक्तिशाली ब्रिटिश सेना के खिलाफ यह क्रांति विफल हो जाएगी। इसी दौरान ग़ालिब ने फ़ारसी में दस्तंबू नामक एक व्यक्तिगत डायरी (Diary) भी लिखी। इस डायरी में 11 मई, 1857 से 31 जुलाई, 1858 तक के बीच की घटनाओं से जुड़े ग़ालिब के अनुभवों को साझा किया गया था। इसके माध्यम से ग़ालिब का उद्देश्य अंग्रेजों के प्रति अपनी वफादारी प्रदर्शित करना था।
ग़ालिब की भांति ही भारत के अंतिम सम्राट रहे बहादुर शाह जफर भी एक सज्जन व्यक्ति थे। किंतु ग़ालिब की तरह वह भी ऐशो-आराम और विलासिता से भरी जिंदगी के इतने आदि हो चुके थे कि, वह अपने सुख चैन के खो जाने के डर के कारण अंग्रेजों से सीधे-सीधे दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहते थे। हालाँकि, वह भी ब्रिटिश शासन से घृणा करते थे । इसलिए अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति करने के लिए उन्होंने भी अपनी कविताओं के माध्यम से ब्रिटिश शासन के खिलाफ अपने गुस्से, निराशा और विद्रोह को जाहिर किया।
एक बार किसी ने जफर को यह कहकर ताना दिया:
दमदमें में दम नहीं खैर मांगो जान की।
ऐ ज़फर ठंडी हुई शमशीर हिंदुस्तान की।
भावार्थ: आपका किला ढह रहा है, अपने जीवन के लिए प्रार्थना करों।
ओ जफर, भारतीय तलवार, अपनी चमक और ताकत खो चुकी है।
इस ताने पर जफर ने पलटकर जवाब दिया:
गाजियों में बू रहेगी जब तक ईमान की,
तब तो लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।
भावार्थ: जब तक जवानों का विश्वास और गौरव बना रहता है,
भारतीय तलवार तब तक शांत नहीं होगी जब तक कि वह (लंदन की ताकत) झुक न जाए।
अपनी रचनाओं के माध्यम से जफ़र ने बार-बार भारत की धरती पर बढ़ती ब्रिटिश ज्यादतियों के खिलाफ अपना गुस्सा व्यक्त किया:
ना था शहर दिल्ली ये था चमन वाले सब तरह का था यहां अमन।
तो खताब इसका लुट गया फकत अब तो उजड़ा दयार है।
भावार्थ: दिल्ली एक बागों का शहर था जिसमें भरपूर शांति थी।
लेकिन अब यह अपनी भव्य स्थिति से वंचित हो गई है, इसे उजाड़ दिया गया है।
इनपंक्तियों में, वह दिल्ली में निराशा और परेशानी की स्थितियों को स्पष्ट करते हैं।
इस साहित्यिक विरोध की भनक लगने पर अंग्रेजों ने जफर को निशाने पर ले लिया और भारत की आजादी के पहले युद्ध (1857 की क्रांति) का समर्थन करने की उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी! उन्होंने अपने साम्राज्य के साथ-साथ अपने बेटों और भतीजों को भी खो दिया। ग़ालिब और ज़फ़र जैसे शायरों को देश से गहरा लगाव था। जफर एक देशभक्त और कलाओं के संरक्षक थे। हालांकि वह खुले तौर पर 1857 के विद्रोह का समर्थन नहीं कर सके, लेकिन अपनी कविता में ब्रिटिश दासता की भरपूर आलोचना की। जफर की कविताओं में उन्होंने अंग्रेजों को गीदड़ों की तरह चालाक, क्रूर और मतलबी के रूप में चित्रित किया गया था। इन कवियों ने अपने स्वाभिमान को महत्व दिया और ब्रिटिश गुलामी से इनकार कर दिया।
1857 के सिपाही विद्रोह ने न केवल भारतीय लेखकों और चिंतकों को प्रेरित किया, बल्कि इस विद्रोह से जुड़ी कई कहानियां अंग्रेजों द्वारा भी लिखी गई थीं, जिनमें से कुछ में उन्होंने विद्रोहियों को क्रूर भारतीयों के रूप में चित्रित किया। इनके अलावा भी 1857 के विद्रोह के बारे में कई उपन्यास लिखे गए हैं, जो अंग्रेजों की क्रूरता और भारतीय विद्रोहियों द्वारा किए गए अत्याचारों को दर्शाते हैं। इस अवधि के बारे में लिखने वाले कुछ प्रसिद्ध लेखकों में जूल्स वर्ने (Jules Verne), रस्किन बॉन्ड (Ruskin Bond) और फ्लोरा एनी स्टील (Flora Anne Steele) का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। जूल्स वर्ने का दृष्टिकोण इस संदर्भ में बिल्कुल अलग था। वर्ने ने 1857 की घटना के बाद "द स्टीम हाउस (The Steam House)" नामक एक उपन्यास लिखा, जो 1880 में प्रकाशित हुआ, जिसमें "द डेमन ऑफ कानपुर (The Demon of Kanpur)," "द एंड ऑफ नाना साहिब (The End of Nana Sahib)" और "टाइगर्स एंड ट्रैटर्स (Tigers and Traitors)" जैसे वैकल्पिक शीर्षक थे। इन शीर्षकों से पता चलता है कि यह उपन्यास सीधे तौर पर विद्रोह की घटनाओं और पात्रों से संबंधित थे। उपन्यास "द एंड ऑफ नाना साहिब” की कहानी 1857 के सिपाही विद्रोह में नाना साहिब और एक ब्रिटिश अधिकारी कर्नल मुनरो (Colonel Munro,) के इर्द-गिर्द घूमती है, जिनकी पत्नी की विद्रोह के दौरान मृत्यु हो गई थी। नाना साहब और कर्नल मुनरो एक दूसरे से बदला लेने के लिए एक दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं। 1857 के विद्रोह से जुड़ी एक अन्य उल्लेखनीय उपन्यास जे.जी फैरेल (JG Farrell) का "द सीज ऑफ कृष्णापुर (The Siege of Krishnapur)" भी है, जो 1857 के विद्रोह के दौरान कृष्णापुर (कानपुर पर आधारित) में स्थापित है। उपन्यास की कहानी फ्लेरी (Fleury) नाम के एक अंग्रेज और विद्रोह के दौरान उसके अनुभवों का अनुसरण करती है। यह उपन्यास ब्रिटिश सरकार पर व्यंग्य करता है और विभिन्न भारतीय गुटों के बीच जटिल संबंधों की पड़ताल की गई है। इसके अलावा रस्किन बॉन्ड की "कबूतरों की उड़ान (The Flight of the Pigeons)" नामक एक और पुस्तक 1857 के विद्रोह के दौरान की एक दुखद प्रेम कहानी है।
ये सभी लेखक और उपन्यास 1857 की घटनाओं पर अलग-अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं, इतिहास के विस्मृत पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं और हमें याद दिलाते हैं कि युद्ध कभी भी पूरी तरह से न्यायसंगत नहीं होते।

संदर्भ
https://tinyurl.com/43zbmrc6
https://tinyurl.com/2p8y8n7d
https://tinyurl.com/42k272f2
https://tinyurl.com/wma6334j
https://tinyurl.com/cxzddh6e
https://tinyurl.com/2xys7pdx

चित्र संदर्भ

1. ग़ालिब और उनकी शायरी को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. आखिरी मुशायरे में गालिब को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
3. मिर्जा ग़ालिब की श्याम श्वेत छवि को दर्शाता चित्रण (Picryl)
4. मुंबई, भारत के नागपाड़ा इलाके में मिर्जा गालिब की दीवार भित्ति मूर्तिकला को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
5. बहादुर शाह जफर की दरगाह को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
6. रामपुर की रज़ा लाइब्रेरी में मौजूद बहादुर शाह जफर की छवि को दर्शाता एक चित्रण (Picryl)
7. 1857 में मेरठ से शुरू हुए विद्रोह को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)

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