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भारत में ‘राष्ट्रीय पशु आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो’ (The National Bureau of Animal Genetic Resources (NBAGR) नामक संस्थान पशुधन के नए पहचाने गए जननद्रव्य (Germplasm) को पंजीकृत करता है। जननद्रव्य अर्थात जर्मप्लाज्म आनुवंशिक संसाधन जैसे कि बीज, ऊतक और डीएनए (DNA) होते हैं, , जो पशु और पौधों के प्रजनन, संरक्षण प्रयासों, कृषि और अन्य अनुसंधानों के लिए उपयोग किए जाते हैं। एनबीएजीआर ने हाल ही में कुत्तों की तीन नस्लों को पंजीकृत किया है– तमिलनाडु से राजापलायम और चिप्पिपराई नस्ल और कर्नाटक से मुधोल हाउंड (Mudhol Hound) नस्ल। इस पंजीकरण से अब कुल पंजीकृत पशुधन की संख्या 200 हो गई है।
यह पहली बार हुआ है कि कुत्तों की नस्लों को भी पंजीकृत किया गया है। कुत्तों को पहले पशुधन श्रेणी में शामिल नहीं किया गया था, लेकिन अब इन्हें साथी जानवर के रूप में शामिल किया गया है और अब इनका एनबीएजीआर द्वारा अध्ययन किया जाएगा। संस्थान ने अब तक मवेशियों की 50 नस्लों के साथ-साथ 17 भैंस, 44 भेड़, 34 बकरी, 19 मुर्गे, 10 सुअर, 9 ऊंट, 7 घोड़े, 3 गधे, 2 बत्तख, 1 याक (Yak) और 1 हंस का पंजीकरण किया है।
संस्थान जल्द ही हिमाचली हाउंड, हमारे शहर के रामपुर हाउंड, कारवां हाउंड और अन्य सहित सभी देशी कुत्तों की नस्लों का पंजीकरण करेगा। चूंकि, कुत्तों की हिमाचली नस्ल, ठंडे जलवायु के अनुकूल है, संस्थान सीमावर्ती क्षेत्रों में इनके तलाशी अभियान में रक्षा बलों की मदद भी लेगा।
पिछले साल, ‘भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद’ (Indian Council of Agricultural Research (ICAR) ने पशुधन प्रजातियों की 10 नई नस्लों को पंजीकृत किया है, जिनमें मवेशी, भैंस, बकरी और सुअर शामिल हैं। जिससे अब जनवरी 2023 तक स्वदेशी नस्लों की कुल संख्या 212 हो गई है। 10 नई नस्लों में मवेशियों की तीन नई नस्लें (कथानी, सांचोरी, मसीलम), भैंस की एक नस्ल (पूर्णाथदी), तीन बकरी की नस्लें (सोजत, करौली, गुजरी) और तीन सुअर की नस्लें (बांदा, मणिपुरी ब्लैक, वाक चंबिल) शामिल हैं।
2018-19 में 15 नई नस्लों और 2019-20 में 13 नई नस्लों के पंजीकरण के बाद, स्वदेशी नस्लों के पंजीकरण में यह तीसरी सबसे बड़ी वृद्धि है। जबकि 2010 में, केवल 129 स्वदेशी नस्लें पंजीकृत थीं। देशी नस्लों की पहचान और पंजीकरण का कार्यक्रम मुख्य रूप से 2010 के बाद ही शुरू हुआ। परंतु, अभी भी नई नस्लों की पहचान करने की जरूरत है। देश में कई नस्लें हैं जो अभी तक पंजीकृत नहीं हैं। पशु उत्पादन की दृष्टि से इन नस्लों में अच्छी क्षमता हो सकती है। इन नस्लों की संख्या कम होती जा रही है और अगर इन्हें पंजीकृत नहीं किया गया और इनकी देखभाल नहीं की गई, तो ये विलुप्त हो सकते हैं।
जानवरों की स्वदेशी नस्लें जलवायु परिवर्तन के लिए बेहतर अनुकूल हैं। स्वदेशी नस्लों के जानवर अधिक गर्मी में सहनशीलता, बेहतर प्रतिरक्षा और रोग प्रतिरोधक क्षमता रखते हैं। लेकिन कुछ स्वदेशी पशुओं, विशेषकर मवेशियों में घटती प्रवृत्ति भी होती है। 20वीं पशुधन गणना में जहां विदेशी या संकर नस्ल के मवेशियों की आबादी में 29.3% की वृद्धि हुई, वहीं 2012 की जनगणना की तुलना में देशी मवेशियों की आबादी में 6% की गिरावट हुई है। मवेशियों और भैंसों की स्वदेशी नस्लों में एक बड़ी अप्रयुक्त क्षमता है जिसमें भारतीय जलवायु परिस्थितियों के लिए प्रमुख अनुकूलन क्षमता भी शामिल है। इन मवेशियों का पंजीकरण नस्लों के संरक्षण और संवर्धन गतिविधियों में मदद करता है, क्योंकि राज्य सरकारों को विशेष रूप से इन नस्लों के लिए धन मिलता है।
भारत के प्रत्येक क्षेत्र में विशिष्ट विशेषताओं के साथ देशी नस्लें पाई जाती हैं, जो स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल होती हैं। भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के अनुसार, भारत में पशुओं की 37 ऐसी देशी नस्लें हैं जो स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल हैं। अन्य देशी नस्लों को जिनमें विशेष लक्षणों की कमी होती है, गैर-वर्णित नस्लों के रूप में संदर्भित किया जाता है। आज जलवायु परिवर्तन के संकेत हर जगह स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे हैं, ऐसे में देशी नस्लों का संरक्षण, जो कठोर और उच्च तापमान का सामना करने में सक्षम हैं, जोर पकड़ रहा है।
भारत में दूध देने वाली विदेशी और संकर नस्लों की गायों की संख्या 16 दशलक्ष है और गैर-वर्णित और देशी दूध देने वाली गायों की संख्या 33 दशलक्ष है। पशुपालन, डेयरी और मत्स्य पालन विभाग (Department of Animal Husbandry, Dairying & Fisheries) की 2012 की 19वीं पशुधन जनगणना रिपोर्ट के अनुसार, विदेशी और संकर मवेशियों की आबादी का प्रतिशत हिस्सा 1992 में 7% से बढ़कर 2012 में 21% हो गया है। जबकि इसी दो दशक की अवधि में, स्वदेशी मवेशियों की आबादी का हिस्सा 93% से घटकर 79% हो गया है।
अतः प्रश्न उठता हैं कि क्या देशी नस्लों की आबादी में गिरावट चिंता का विषय है? देशी नस्लें गर्मी में भी खुद को वातावरण के अनुकूल डालकर स्वस्थ रह सकती हैं, जबकि संकर नस्लें गर्मियों में हांपने लगती हैं और कभी-कभी उनके मुंह में झाग भी आता है।
किसानों को परिवेश के तापमान को बनाए रखने के लिए संकर गायों को शेड (Shed) के नीचे रखना होता है; जबकि देशी मवेशियों को विशेष देखभाल की आवश्यकता नहीं होती है। संतुलित खाने के बिना, संकरों की उपज कम हो जाती है। जबकि, देशी नस्लों के लिए, सूखा चारा भी पर्याप्त होता हैं। देशी नस्लों की दूध की गुणवत्ता और बछड़ों की संख्या भी दोगुना से अधिक है। संकर गायों को बीमारियों से बचाने के लिए अधिक दवा, टीकाकरण और कीड़ों से दूर रखने की आवश्यकता होती है। अध्ययनों से पता चला है कि तापमान में भिन्नता संकर नस्लो की प्रतिरोधक क्षमता को कम कर देती है, जिससे वे रोगों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं। चूंकि मवेशियों के लिए घातक साबित होने वाली कुछ बीमारियाँ आयातित नस्लों के साथ ही आईं है, वैज्ञानिक बताते हैं कि स्वदेशी नस्लों में बेहतर प्रतिरोधक क्षमता भी होती है।
कई शोध यह भी बताते है कि संकर मवेशियों के मुकाबले देशी मवेशियों का दूध मानव स्वास्थ्य के लिए अधिक गुणकारी एवं लाभदायक होता है । मवेशी जैविक खेती का एक अभिन्न अंग हैं। उनका मल एवं मूत्र जैविक खेती में प्रयुक्त किया जाता है। कई किसानों का दावा है कि कीट नियंत्रण, मिट्टी के स्वास्थ्य और इसलिए उपज के संबंध में देशी नस्लें बेहतर परिणाम देती हैं।
निश्चित रूप से देशी गाय का दूध न केवल हमारे लिए बल्कि पर्यावरण के लिए भी बेहतर है। और यह गुण विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन के खतरे के साथ और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
संदर्भ
https://bit.ly/41yokwI
https://bit.ly/3Ai6RfR
https://bit.ly/3LiRjyI
चित्र संदर्भ
1. मैदान में खेलते रामपुर ग्रेहाउंड को दर्शाता चित्रण (rawpixel)
2. ऊँची कद काठी वाले ग्रेहाउंड को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के लोगो को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. भैंसों के झुण्ड को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. दूध दोहते किसान को दर्शाता एक चित्रण (Flickr)
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