पारंपरिक इस्लामिक फर्नीचर का इतिहास और उसका भारत में विस्तार

घर- आन्तरिक साज सज्जा, कुर्सियाँ तथा दरियाँ
24-04-2023 09:59 PM
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पारंपरिक इस्लामिक फर्नीचर का इतिहास और उसका भारत में विस्तार

लकड़ी पर मीनाकारी का काम, मेज के ऊपरी भाग पर सिरेमिक टाइलों या सजीले टुकड़े का उपयोग, और आभूषण के डिब्बों पर तथा दराजों जैसी वस्तुओं पर जटिल कारीगरी का काम पारंपरिक इस्लामिक फर्नीचर की प्रमुख विशेषताएं हैं। 7वीं शताब्दी ईस्‍वी में इस्लाम के भारत आगमन के बाद भारतीय फर्नीचर बनाने के तरीकों और रीति-रिवाजों पर इस्लामी प्रभाव पड़ा। इस तरह के बारीकी से जड़े हुए इस्लामी फर्नीचर बनाने के कार्य संभवतः हथियारों और संगीत वाद्ययंत्रों के निर्माण में उपयोग की जाने वाली शैलियों और तकनीकों से विकसित हुए। 7वीं शताब्दी के बाद से इस्लामी फर्नीचर कला में इस्लाम शासित क्षेत्रों की संस्कृति से संबंधित दृश्य देखे जा सकते हैं। हालांकि इस कला को परिभाषित करना बहुत कठिन कार्य है क्योंकि इस कला ने लगभग 1,400 वर्षों में कई देशों और विभिन्न लोगों की संस्कृति को दर्शाया है; यह विशेष रूप से किसी एक धर्म, या किसी एक समय, या किसी एक स्थान की, या चित्रकला जैसे किसी एक माध्यम की कला नहीं है। भारत में अति प्राचीन काल से ही उच्च स्थानों पर बैठने की परंपरा रही है। भारत में बैठने के लिए विशेष उपकरणों की व्‍यवस्‍था मध्यकाल में ही शुरू हो गयी थी, जिसके संकेत 200 ईसा पूर्व की बौद्ध मूर्तियों में मिलते हैं। खगोल शास्त्री वराहमिहिर के ग्रंथ ‘बृहत् संहिता’ (छठी शताब्दी) में चंदन, सागौन और काली लकड़ी सहित फर्नीचर बनाने के लिए उपयोग की जाने वाली लकड़ी की 14 प्रजातियों का उल्लेख किया गया है। प्राचीन शिल्पशास्त्रों में कला और शिल्प की 64 तकनीकों और मौसम के अनुसार लकड़ी की कटाई के लिए विस्तृत समयसूची दी गई है, जिससे पता चलता है कि भारत में लकड़ी का उपयोग कई शताब्दियों से हो रहा था। समय के साथ साथ भारत में बैठने के लिए उपयोग किए जाने वाले स्थानों के सौंदर्य और बहुमुखी प्रतिभा में विविधता आई है। चाहे वह रमणीय मनोरंजन के लिए दो झूलों वाली कुर्सियाँ हों, विद्वानों के लिए ऊँची कुर्सियाँ हों, सभी के लिए नीची चौकियाँ हों या राजाओं के लिए आरक्षित सिंहासन - भारत ने हर अवसर के लिए उपयुक्त बैठने का एक रूप विकसित किया था।
हालांकि पारंपरिक इस्लामी समाजों में मेज और कुर्सी जैसे लकड़ी के फर्नीचर के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्‍ध थी। उत्तरी अफ्रीका (North Africa), मध्य पूर्व, भारत और मध्य एशिया की गर्म और शुष्क भूमि में, अधिकांश लोग जमीन पर या फर्श पर बैठना या घुटने टेकना व्यावहारिक और साथ ही आरामदायक मानते थे। वे खुद को गंदगी से बचाने के लिए मुलायम कालीनों का इस्तेमाल करते थे; वे कुशन और रूई से भरे हुए मसंद का उपयोग करते थे। यहां तक कि शासक भी आमतौर पर इस सामान्य प्रथा का पालन करते थे और थोड़े ऊंचे चबूतरे पर आसनों और तकियों पर पालती लगाकर बैठते थे। दुनिया के इन हिस्सों में फर्नीचर की कमी का एक महत्वपूर्ण कारण लकड़ी की कमी और उच्च लागत थी। इमारती लकड़ी आमतौर पर आवश्यक उपयोगों के लिए आरक्षित थी, जैसे कि नावों का निर्माण, छतों के लिए, या दरवाजे बनाना, कई स्थानों पर पुरानी इमारती लकड़ी के पुन: उपयोग के संकेत भी मिलते हैं। फर्नीचर के उपयोग की शुरुआत 9वी शताब्दी के पूर्व से मानी जाती है। 661-750 ईस्वी के बीच उमेद शासन काल में इस्लामिक धार्मिक वास्तुकला शैली का विकास होना शुरू हो गया था। हालांकि लकड़ी पर नक्काशी का काम मध्ययुगीन काल में शुरू हुआ। इस काल में कलाकारों द्वारा लकड़ी पर मानव और जानवर दोनों की जीवंत आकृतियां उकेरी गई। मैड्रिड के पुरातत्व संग्रहालय में आज भी मंसूरिया (Mansuriyya) में इमाम उल मुइज़ द्वारा बनाया गया एक लकड़ी का बक्सा आज भी संरक्षित है। इसी प्रकार मध्ययुगीन काल से लकड़ी की एक मेज के भी चित्र प्राप्त होते हैं जिस पर सुंदर फूलों की आकृतियों को उकेरा गया है।
इसी दौरान मिस्र (Egypt) और सीरिया (Syria ) (1250-60) में अय्युबिद क्षेत्र के कमजोर होने से मामलुक सल्तनत (1250-1517) उभरकर सामने आई। शीघ्र ही मामलुक सल्तनत की राजधानी, काहिरा, अरब इस्लामी दुनिया का आर्थिक, सांस्कृतिक और कलात्मक केंद्र बन गई। मामलुक इतिहास को दो अवधियों में बांटा गया है, बहरी मामलुक (1250-1382) और बुर्जी मामलुक (1382-1517)। बहरी शासनकाल ने पूरे मामलुक काल की कला और वास्तुकला को परिभाषित किया। बुर्जी मामलुक सुल्तानों ने अपने बहरी पूर्ववर्तियों द्वारा स्थापित कलात्मक परंपराओं का पालन किया। इस दौरान बनाए गए मस्जिद के फर्नीचरों के उल्लेखनीय उदाहरणों में बक्से और धातु की अलमारी शामिल हैं जिन्हें क्रमशः संदूक और कुर्सी के रूप में जाना जाता है। काहिरा के इस्लामिक कला संग्रहालय में सुल्तान ‘काला’ उन’ के द्वारा बनवाई गई ऐसी ही एक कुर्सी आज भी संरक्षित है। इस समय तक मामलुक काल के द्वारा बनाए गए संदूक चार छोटे पैरों के साथ छोटे बक्सों में बदल गए जिनके ऊपर पीतल की तथा अंदर की तरफ चांदी और सोने की परत चढ़ाई गई थी। इनके ऊपर कुरान की आयतें भी उकेरी गई थी। 14वीं शताब्दी आते-आते इनके आकार में परिवर्तन हुआ और इन संदूको को गोलाकार भी बनाया जाने लगा जिन पर आयतें भी लिखी होती थी। इसके बाद न्यायाधीशों के लिए ऊपर बैठने हेतु लकड़ी के मिनबार बनाए गए। आज भी उत्तरी अमेरिका के कैरौअन (Kairouan of America) की बड़ी मस्जिद में इसी प्रकार की जीवंत मिनबार मौजूद है। जिसके बारे में माना जाता है कि इसे इराक (Iraq) में बनाया गया और फिर उत्तरी अमेरिका भेजा गया।
स्पेन (Spain) में स्थापित होने वाला पहला इस्लामी राजवंश स्पेनी यूमेय्यद का था। 11वीं शताब्दी के अंत में, दो बर्बर जनजातियों, अल्मोराविड्स (Almoravids) और अल्‍मोहद्स (Almohads) ने मघरेब और स्पेन के प्रमुख क्षेत्र पर कब्जा कर लिया, जिसके परिणामस्‍वरूप इस कला पर मघरेबी प्रभाव पड़ा। 14वीं शताब्दी के अंत तक इस्लामिक स्पेन के ग्रेनाडा शहर में, नासिरिद राजवंश का शासन रहा। अल-अंडालस मध्य युग का एक महान सांस्कृतिक और महत्वपूर्ण कलात्मक केंद्र था। उस दौरान वस्तुओं के निर्माण में कई तकनीकों का इस्तेमाल किया गया था। बक्सों और संदूकियों के निर्माण के लिए हाथी दांत का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता था। अरबी शब्द तारसी या 'इनक्रस्टेशन'(incrustation) से निकले स्पैनिश(Spanish) शब्द टेरासिया (taracea) के रूप में जानी जाने वाली इस तकनीक को इस्लाम में नसरिद के नाम से जाना जाता है जो लकड़ी के काम का एक अच्छा उदाहरण है। इस प्रक्रिया में सजावटी अवयव हाथी दांत और लकड़ी को काटा जाता है, और फिर हाथी दांत को लकड़ी की सतह पर लगाया जाता है। यह तकनीक तर्सिया तकनीक से भिन्न है जो चौदहवीं शताब्दी के मध्य में इटली (Italy) में विकसित हुई थी, जहां विभिन्न सामग्रियों की छड़ों से जुड़े ब्लॉकों का निर्माण किया जाता है और टाइलों का उत्पादन करने के लिए पतले लंबवत स्लाइस को काटा जाता है।
10वीं शताब्दी में ईरान और भारत के उत्तर में ताहिरीद, समानीद, गजनवीद और घुरिद सत्ता के लिए संघर्ष कर रहे थे और कला इस संघर्ष का एक महत्वपूर्ण तत्व थी। वर्तमान मंगोलिया से, 10वीं शताब्दी के अंत में तुर्क मूल के खानाबदोश सेजलुक इस्लामी इतिहास के मंच पर दिखाई दिए। 1194 में ईरान से विलुप्‍त होने से पहले उन्होंने 1048 में बगदाद पर कब्जा कर लिया। 13वीं शताब्दी के दौरान तीन ईरानी काल इल्खनीद (Ilkhanids), द गोल्डनहोर्डे (The Golden Horde) और तैमूरिड (Timurids) हैं।
इधर मुगल दरबार में पश्चिमी और अलंकृत इस्लामी फर्नीचर प्रयोग किए जाते थे इस दौरान विभिन्न शैलियों के सिंहासन और चरणों की चौकी, नीची मेजें, और कई प्रकार के बक्से और ताबूत तैयार किए गए थे। बक्सों के ढक्कन को विशिष्ट सर्पिल अलंकरण से सजाया गया था जिन पर दिनांक भी अंकित होती थी । सूफी शेख निज़ामअल-दीन औलिया, जिनका स्मारक दिल्ली में है की कब्र के लिए 1608-1609 में बनाई गई छतरी पर मोती की एक सजावट की गयी है । राजस्थान का फर्नीचर अपने महलों और हवेलियों के अनुरूप था, जो उन्हीं के समान जटिल डिजाइन और नक्काशी प्रदर्शित करते हैं। लेक्चरन (lecterns), कुरान स्टैंड, पगड़ी स्टैंड, दराज और टेबल जैसे फर्नीचर बनाने के लिए और उन पर जटिल सजावट करने के लिए कई उच्च परिष्कृत तकनीकों का विकास किया गया।
महीन उदाहरणों में हाथीदांत और मदर-ऑफ-पर्ल (नैकरे) (mother-of-pearl (Nacre)) के साथ-साथ एबोनी (ebony ) और अन्य कीमती लकड़ियों का उपयोग जड़ाई के रूप में किया गया। इन फर्नीचर पर खुदाई के द्वारा नक्काशी का विवरण भी मिलता है।
भारत में स्थानीय तरीकों और फर्नीचर डिजाइन के अभ्यास ने धीरे-धीरे विदेशी शैलियों और उनके प्रभावों को अपनाया, जिसके परिणामस्वरूप एक अनूठी शैली का निर्माण हुआ। 7वीं शताब्दी में इस्लाम के आगमन के साथ-साथ 16वीं शताब्दी में उपमहाद्वीप में मुगल सम्राटों का आगमन हुआ । इसके साथ ही, 16वीं और 17वीं शताब्दी में डच और पुर्तगाली उपनिवेशवादियों के साथ पश्चिमी डिजाइन प्रभाव दक्षिण में आया।
16वीं-17वीं शताब्दी के दौरान भारत में पुर्तगालियों और डचों के आगमन के साथ सजावटी फर्नीचर ने एक नया रूप ग्रहण किया। इंडो-पुर्तगाली और इंडो-डच शैलियाँ लकड़ी के काम के पश्चिमी अभ्यास और भारतीय नक्काशियों और डिजाइनों की पेचीदगियों के सहज एकीकरण के माध्यम से उभरीं। परिणामी फर्नीचर की अपनी विशिष्ट विशेषताएं थीं जो सांस्कृतिक मिश्रण की भावना व्यक्त करती थीं । इस प्रकार का फर्नीचर न केवल उपयोगितावादी था बल्कि इसमें विभिन्न कलाकृतियों को भी स्थान दिया गया था ।
1858-1947 तक भारत में ब्रिटिश इंपीरियल (British Imperial) शासन ने विक्टोरियन (Victorian) और एडवर्डियन (Edwardian) जैसी डिज़ाइन शैलियों की शुरुआत की, साथ ही यूरोपीय आंदोलनों जैसे सौंदर्यबोध, जो एक एंग्लो-इंडियन (Anglo-Indian) शब्दावली और इंडो-सारासेनिक जैसी संकर शैली को जन्म देने के लिए जाने जाते हैं, भारतीय डिजाइन के साथ विलय हो गए। 1920 से 1940 के दशक तक, आधुनिकतावाद ने आर्ट डेको (Art Deco) और बॉहॉस (Bauhaus) शैलियों के साथ पूर्व-स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के बाद के भारत के बीच पुल का निर्माण किया।

संदर्भ:
https://bit.ly/43AGfnF
https://bit.ly/43CxDgg

चित्र संदर्भ
1. पारंपरिक इस्लामिक फर्नीचर को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. अय्यूबिद इस्लामी कला को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. खलीली संग्रह इस्लामी कला को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. महदीए संग्रहालय में नक्काशीदार लकड़ी के फर्नीचर को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. महदिया संग्रहालय में इस्लामिक सेक्शन को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)

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