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वर्तमान पीढ़ी का सदस्य होने के नाते हमारा यह कर्तव्य है कि हम पर्यावरण के संरक्षण का विशेष रूप से ध्यान रखें, ताकि भविष्य की पीढ़ियां भी पर्यावरण के विभिन्न संसाधनों का उपयोग कर सकें तथा इसके महत्व को समझ सकें। किंतु वर्तमान समय में मनुष्य द्वारा पर्यावरण को विभिन्न तरीकों से अत्यधिक दूषित किया जा रहा है। उदाहरण के लिए कपड़ा उद्योग को ही देंख लें। कपड़ा उद्योग में संलग्न विभिन्न इकाइयों द्वारा कपड़ा अपशिष्ट का उचित प्रबंधन किए बिना ही उसे इधर-उधर फेंक दिया जाता है, जिससे प्रदूषण की समस्या को बढ़ावा मिल रहा है।
भारत में हर साल लगभग 7800 किलो टन कपड़ा अपशिष्ट एकत्रित होता है। इसका एक बड़ा हिस्सा (लगभग 51%) भारतीय उपभोक्ताओं द्वारा उत्पन्न किया गया है। इसमें पूर्व-उपभोक्ता अपशिष्ट और आयातित अपशिष्ट का हिस्सा क्रमशः 42% और 7% है। हमारे भारत में विश्व में होने वाले कुल कपड़ा अपशिष्ट का 8.5% हिस्सा उत्पन्न किया जाता है। और कपड़ा अपशिष्ट के केवल 59% हिस्से को ही पुन: उपयोग और पुनर्चक्रण के माध्यम से कपड़ा उद्योग में वापस शामिल किया जाता है। सख्त नियमन, अनौपचारिक अंवेषण प्रणालियों की कमी तथा तकनीकी बुनियादी ढांचे की कमी आदि के कारण भी अपशिष्ट का उचित रूप से प्रंबधन नहीं हो पाता है। भारत में कपड़ा अपशिष्ट नगरपालिका के ठोस कचरे का तीसरा सबसे बड़ा स्रोत है। यह मुद्दा पूर्ण रूप से पर्यावरण संकट से जुड़ा हुआ है, हालांकि अनेकों उपायों की मदद से इसमें बदलाव लाया जा सकता है। उदाहरण के लिए भारत के सबसे बड़े कपडा विक्रेता में से एक, ‘फैब इंडिया’ (Fabindia) द्वारा गुदरी तकनीक का उपयोग किया जा रहा है, जिसमें दर्जी और कपड़ा कारखानों से कपड़े के बचे हुए टुकड़ों को एकत्रित किया जाता है। अस्वीकृत, बचे हुए और अनुपयोगी टुकड़ों को सिला जाता है और अन्य कपड़ों के ऊपर पैच वर्क (patch work) के रूप में अलंकृत किया जाता है।
कपड़ा या परिधान अपशिष्ट को आम तौर पर प्री कंज्यूमर (Pre consumer) और पोस्ट कंज्यूमर (Post consumer) अर्थात उपयोग किए जाने से पूर्व तथा उपयोग किए जाने के बाद के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। प्री कंज्यूमर कपड़ा अपशिष्ट में धागा, कपड़ा और कपड़े सिलने वाली इकाइयों (Apparel manufacturing industries) का उपोत्पाद (By-product) शामिल होता है। पोस्ट कंज्यूमर अपशिष्ट मुख्य रूप से घरेलू स्रोतों से उत्पन्न होता है और इसमें ऐसे कपड़े शामिल होते हैं, जिनकी लोगों को आवश्यकता नहीं होती है। हालांकि लोगों के द्वारा ऐसे कपड़ों को कभी-कभी दान में दे दिया जाता है, लेकिन ज्यादातर इन कपड़ों को कूड़े दान में फेंक दिया जाता है। जबकि इन दोनों प्रकार के अपशिष्टों का उचित रूप से पुनर्चक्रण करके अत्यधिक लाभ भी प्राप्त किया जा सकता है।
पुनर्चक्रण की अवधारणा भारतीय लोगों के लिए नई नहीं है। पारंपरिक कांथा कढ़ाई तकनीक की उत्पत्ति पुनर्चक्रण की ही एक प्रक्रिया है, जिसमें उपयोग किए गए सूती कपड़े को जोड़कर निचली सतह बनाई जाती है, जिसके ऊपर कई परतें बनाई जाती हैं। इसमें रंगीन धागों का ख़ूबसूरती से प्रयोग करके स्थानीय दृश्यों,फूल-पत्तियों आदि को काढ़ा जाता है।
समय के साथ इस शिल्प ने व्यावसायिक रूप से अत्यधिक उपलब्धि हासिल की तथा इसके उपयोग से साड़ी, सूट, बैग, पर्स, तकिए, चटाई और कई अन्य उत्पाद बनाए जाने लगे। इस्तेमाल किए गए पुराने कपड़े की कोमलता के कारण, इस शिल्प के द्वारा रजाइयां और चादरें भी तैयार की जाने लगी। इसी प्रकार भारत में वाघरी व्यापारियों ने पोस्ट कंज्यूमर कपड़ा अपशिष्ट का पुन: उपयोग और पुनर्चक्रण करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस योजना के तहत महिला कार्यकर्ताएं घर-घर जाकर वस्तु-विनिमय प्रणाली के माध्यम से कपड़े एकत्रित करती हैं। फिर ये महिलाएं एकत्र किए गए कपड़ों, जिनमें सभी प्रकार के उपयोग किए गए कपड़े जैसे कि सलवार कमीज,साड़ी, दुपट्टे आदि शामिल होते हैं, को व्यापारियों को बेचती हैं। यह कपड़े उन लोगों को बेहद कम कीमतों पर बेचे जाते हैं, जो नए कपड़े खरीदने में असमर्थ हैं। इस व्यापार ने भारत में आर्थिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने में भी मदद की है। उदाहरण के लिए एक आदमी पुरानी शर्ट को 6 या 7 रुपये में खरीदता है तथा उसे साफ करके और उसकी मरम्मत करके उसे 8 से 10 रुपये में बेच देता है।
एक सप्ताह में 150 से 200 कपड़ों के कारोबार के साथ, एक परिवार प्रति माह 2000 रुपये तक कमा सकता है । भारत में उपयोग किए गए ऊनी कपड़ों से ऊनी कंबल बनाने का एक बड़ा उद्योग भी मौजूद है। यह उद्योग न केवल देशभर से कपड़ा अपशिष्ट प्राप्त करता है बल्कि अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए पुराने कपड़ों का आयात भी करता है।
भारत की अधिकांश आबादी अभी भी गांवों में रहती है और पारंपरिक शिल्प और कृषि पर निर्भर है। हथकरघे पर काम करने वाले शिल्पकार और कारीगर आमतौर पर समूहों में रहते हैं, जिनमें वे अपने पूर्वजों से विरासत में मिली परंपराओं और कौशल के आधार पर अपना व्यवसाय करते हैं। ये समूह न केवल उत्पादन केंद्रों के रूप में कार्य करते हैं, बल्कि खरीदारों को अपनी ओर आकर्षित भी करते हैं, तथा शिल्पकारों को अपने कौशल का पोषण करने और अपनी पहचान बनाए रखने में मदद करते हैं। भारत के छोटे शहरों में कपड़ा अपशिष्ट के पुनर्चक्रण में योगदान देने वाले कई अन्य समूह भी हैं। उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के साथ-साथ मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में भी कारीगर कपड़ा और परिधान उद्योग में विभिन्न प्रक्रियाओं के दौरान बचे हुए कपड़े का उपयोग रस्सी, दरी, छोटी चटाई, गलीचा आदि बनाने के लिए कर रहे हैं। हमारे शहर रामपुर और बिहार के कुछ हिस्सों में भी उद्योग समूह कपड़े के कटे हुए टुकड़ों को अधिरोपण के रूप में इस्तेमाल करते हैं। उत्पादों का निर्माण मुख्य रूप से मौजूदा बाजार के आधार पर किया जाता है। इसकी मदद से धार्मिक और औपचारिक अवसरों पर उपयोग किए जाने वाले सजावटी टेंटों, समुद्र तट और बगीचे की छतरियों, लैंप शेड्स और वॉल हैंगिंग (दीवार के लिए सजावटी सामान) जैसी वस्तुओं का निर्माण किया जाता है।
वित्त पोषण, डिजाइनों का विकास, पर्यावरण और विकास पर शोध, शिक्षा और प्रशिक्षण के साथ जन जागरूकता को बढ़ावा देना आदि कुछ ऐसे उपाय हैं, जिनकी मदद से कपड़ा अपशिष्ट का उचित रूप से प्रबंधन किया जा सकता है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3LsOoE2
https://bit.ly/3JPHpUJ
https://bit.ly/3TeXg26
चित्र संदर्भ
1. कपड़ा अपशिष्ट के पुनर्चक्रण को संदर्भित करता एक चित्रण (PIXNIO)
2. कपड़ा अपशिष्ट को संदर्भित करता एक चित्रण (Flickr)
3. कपड़े सिलने वाली इकाइयों को संदर्भित करता एक चित्रण (Flickr)
4. कपडा फैक्ट्री को संदर्भित करता एक चित्रण (Flickr)
5. सेकंड हैंड कपड़ों की कतार को संदर्भित करता एक चित्रण (Flickr)
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