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आज भी यदि आप भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में (सर्दियों के दौरान) घूमने के लिए जाएं तो, आपको वहां की गुनगुनी धूप में अपने बच्चों या परिवार के लिए सुंदर ऊनी बनियाइन (स्वेटर) या टोपी बुनती हुई पहाड़ी महिलाएं अवश्य दिख जायेंगी। और यदि आप जिज्ञासु प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं, तो आपके मन में यह प्रश्न भी उठ सकता है कि इतने दूर दराज के पहाड़ी क्षेत्रों में यह महिलाएं इतनी सुंदर "बुनाई" करना आखिर कैसे सीख गई?
हाथ से बुनाई का अभ्यास हजारों वर्षों से किया जा रहा है। हालांकि, इस कला का आविष्कार ‘कहां और कैसे’ हुआ, यह आज भी एक रहस्य बना हुआ है। कुछ लोगों का मानना है कि बुनाई की शुरुआत तब हुई थी जब आदिम मानव ने पहली बार जड़ों से जाले बनाना सीखा था। लेकिन कई अन्य लोग यह मानते हैं कि अरब खानाबदोश इस शिल्प को यूरोप ले आए । वहीँ कुछ लोगों का कहना है की यह कला फारस (Persia) में उत्पन्न हुई थी।
वस्त्र बुनना शुरू से ही महिलाओं का मुख्य रूप से पेशा रहा था। बुने हुए टुकड़ों के सबसे पुराने अवशेष ,मोज़े के रूप में पाए जाते हैं। मोज़े और स्टॉकिंग्स (Stockings) इसलिए बुने गए थे क्योंकि उन्हें पैर के आकार के हिसाब से बनाना जरूरी था।
कुछ अभिलेख इंगित करते हैं कि स्वेटर (Sweater) पहली बार 17वीं शताब्दी में बुने गए थे। आज बुनाई का सबसे पहला उदाहरण मिस्र में पाए जाने वाले बुनाई द्वारा बनाए गए मोज़े का एक जोड़ा है, जिसे 1100 ईस्वी पूर्व का माना जा रहा है। इन शुरुआती मोजों पर नलबंधन (Nalebinding ) में काम किया जाता था, जो एक प्राचीन शिल्प था जिसमें गांठें और लूप बनाकर कपड़े बनाने के लिए धागे का इस्तेमाल किया जाता था। यह काम लकड़ी या हड्डी की सुई से किया जाता था।
मध्ययुगीन काल के दौरान, शिल्प उद्योग संघों द्वारा नियंत्रित किया जाने लगा था। इस दौरान बुना हुआ वस्त्र धनी वर्ग द्वारा पहना जाता था। 16वीं शताब्दी तक बुनाई एक शिल्प के रूप में विकसित हो चुकी थी। एलिजाबेथ युग (Elizabethan Era) के दौरान ब्रिटेन में बुनाई स्कूल स्थापित किए गए थे जहां बुनाई सीखने के बाद बुने हुए स्टॉकिंग्स ने गरीबों के लिए आय का प्रमुख श्रोत प्रदान किया। ये स्टॉकिंग्स जर्मनी, हॉलैंड और स्पेन को निर्यात किए गए थे।
स्कॉटलैंड(Scottland ) के इतिहास में बुनाई काफी महत्वपूर्ण है। 17वीं और 18वीं शताब्दी के दौरान स्कॉटलैंड में पूरे के पूरे परिवार परिधानों की बुनाई के कार्य में शामिल होते थे। स्कॉटलैंड के द्वीपों के मछुआरों के लिए स्वेटर काफी महत्वपूर्ण होते थे। फ्रांसीसी-नेपोलियन युद्धों के दौरान महिलाओं ने सैनिकों के लिए मोज़े और दस्ताने बुनने का काम किया। यह अभ्यास प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध में भी जारी रहा।
दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग तरह की बुनाई शुरू हुई। ब्रिटेन के उत्तर में द्वीपों के एक समूह पर दो-रंग की बुनाई या निष्पक्ष टापू (fair isle) की बुनाई शुरू हुई। इस जटिल पैटर्न का पहला उदाहरण 1850 के आसपास बुना हुआ माना जाता है। जर्मन बुनाई का भी एक लंबा इतिहास रहा है। जर्मनी में बुनाई करने वालों द्वारा अक्सर चार या पांच सुइयों का उपयोग किया जाता था। भारतीय उपमहाद्वीप में बुनाई का आगमन ब्रिटिश राज के दौरान हुआ था। ईसाई मिशनरियों ने इस कौशल को फैलाने में मदद की।ब्रिटिश काल में लड़कियों को स्कूलों में बुनाई सिखाई जाती थी। धीरे-धीरे, यह महिलाओं के बीच भी लोकप्रिय हो गया और इसने कताई को भी पीछे छोड़ दिया, क्योंकि अधिक लोगों ने हाथ से बुने हुए स्वेटर और मोजे पहनना शुरू कर दिया।
19वीं सदी में पंजाब में लोगों को, जब सर्दी बहुत ज्यादा होती थी, तब भी स्वेटर पहनने की आदत नहीं थी। अमीर लोग पश्मीना शॉल पसंद करते थे और गरीब ऊनी लोइयों का इस्तेमाल करते थे। सर जॉर्ज वाट और पर्सी ब्राउन (George Watt & Percy Brown) ने 1903 की 'दिल्ली प्रदर्शनी' की अपनी सूची में देखा कि 'मिशनरियों के प्रयासों से पहले भारत में बुनाई अज्ञात थी अर्थात लोगों को इसके बारे में पता नहीं था। लेकिन समय के साथ इसे ज्यादातर महिला स्कूलों में पढ़ाया जाने लगा और लड़कियों ने शुरू में मोज़े बुनना सीखा।
19वीं सदी की तीसरी तिमाही के बाद से किताबों और गजेटियर (Gazetteer) में जुराबों का उल्लेख मिलता है। गुजरते समय के साथ बुनाई पंजाब की पहाड़ियों (अब हिमाचल प्रदेश) तक भी फैल गई। वहां भी बुनाई लाने का श्रेय मिशनरियों को दिया जाता है। लाहौल के केलांग में रेव हेडे (Rev. Headey) के नेतृत्व में मोरावियन मिशन (Moravian Mission) की स्थापना 1854 में की गई थी। उन्होंने पियो (रिकांग पियो) और क्येलांग में स्कूल भी स्थापित किए, जिनमें 10 लड़कियां थीं और जिन्होंने गायन, बुवाई और मोज़े बुनना आदि सीखा। लड़कियों ने दस्ताने और मोज़े बुनना सीखा। मिशन ने स्थानीय लोगों के बीच भी बुनाई को लोकप्रिय बनाया और धीरे-धीरे इस क्षेत्र में अधिक से अधिक लड़कियों ने इसे अपना लिया।
भारत में हाथ से बुनाई के साथ-साथ मशीन से बुनाई की भी शुरुआत हुई। बुनाई की मशीन के आविष्कार के माध्यम से हुई औद्योगिक क्रांति ने बुनाई के हस्तशिल्प पर अधिकार प्राप्त कर लिया। 16वीं शताब्दी के अंत में जैसे-जैसे यूरोप में प्रौद्योगिकी उन्नत हुई, वैसे वैसे बुनाई का ढांचा भी विकसित हुआ। 18वीं सदी में मशीन से बुने हुए मोज़ों की जगह कपड़े के मोज़ों ने ले ली। सियालकोट में पहली बार मशीन से बुने हुए ऊनी कपड़े बनाए गए। 20वीं सदी की शुरुआत में लुधियाना उत्पादन का एक प्रमुख केंद्र बन गया और 1911 तक, शहर में मोजे बनाने के लिए 150 और स्वेटर बनाने के लिए यहां पर आठ मशीनें लग चुकी थीं।
अब तक हाथ की बुनाई इन बुनाई मशीनों के साथ प्रतिस्पर्धा करने की अपनी क्षमता खो चुकी है। और एक शिल्प कला के रूप में बुनाई की प्रथा मंद पड़ गई और इसे एक शौक के रूप में जीवित रखा गया। आज बाजार तेजी से परिपक्व हो रहा है और बढ़ी हुई उत्पादकता के लिए पूरी तरह से कम्प्यूटरीकृत बुनाई मशीनों (Computerized Flat Knitting Machines) में निवेश किया जा रहा है। ये मशीनें जैक्वार्ड (Jacquard), इंटारसिया (Intarsia) और ट्रांसफर (Transfer) जैसी विभिन्न डिजाइन तकनीकों में फैशन वाले स्वेटर और पुलओवर बनाने के लिए आदर्श मानी जाती हैं।
भारत में बुनाई उत्पादों के बड़े निर्यातक बाजार रहे तिरुपुर और लुधियाना दोनों ही बुनाई के केंद्र माने जाते हैं, लेकिन दोनों बाजारों की व्यावसायिक प्राथमिकताओं में काफी अंतर है। जहां तिरुपुर निर्यात पर अपना ध्यान केंद्रित करता है, वहीँ लुधियाना ने भारतीय घरेलू बाजार की बढ़ती भूख को सफलतापूर्वक शांत किया है।
संदर्भ
https://bit.ly/3j3FRvd
https://bit.ly/3FtuaFv
https://bit.ly/3YmeBs1
चित्र संदर्भ
1. बुनाई करती महिलाओं को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. पहाड़ी महिला बुनकर को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. बुनाई करती इटालवी महिला को दर्शाता एक चित्रण (Look and Learn)
4. ऊनी बुनाई के सामान को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. बुनाई करती वृद्ध महिला को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
6. कम्प्यूटरीकृत बुनाई मशीन को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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