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स्वतंत्रता के समय भारत कई समस्याओं का सामना कर रहा था और उन प्रमुख चुनौतियों
में से एक देश के सार्वजनिक स्वास्थ्य के मुद्दों को संबोधित करना था। मलेरिया और अन्य
वेक्टर (Vector) जनित बीमारियों ने लोगों के स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर खतरा पैदा कर
दिया था। इन कीटों को नियंत्रित करने और ऐसी बीमारियों के प्रसार को रोकने के लिए,
1948 में भारत में डाईक्लोरो-डाईफेनाइल-ट्राईक्लोरोइथेन" (Dichloro-Diphenyl-
Trichloroethane) (DDT) पेश किया गया था। डीडीटी ने जल्द ही भारत में अत्यधिक
लोकप्रियता हासिल कर ली और कृषि सहित कीट नियंत्रण क्षेत्र में व्यापक रूप से उपयोग
किया गया। हालाँकि, 1989 में, भारत ने स्वास्थ्य और पर्यावरण पर इसके हानिकारक
प्रभावों के विश्वसनीय वैज्ञानिक प्रमाणों के कारण कृषि में डीडीटी के उपयोग पर प्रतिबंध
लगा दिया था। हालांकि यह भी सच है कि 2015 में, स्थायी कार्बनिक प्रदूषकों पर स्टॉकहोम
कन्वेंशन (Stockholm Convention on Persistent Organic Pollutants) में, भारत ने
2020 तक कीटनाशक डीडीटी पर दुनिया भर में प्रतिबंध लगाने की समय सीमा का कड़ा
विरोध किया था, क्योंकि मलेरिया संक्रमण को कम करने में यह काफी प्रभावी है।
लेकिन हम आपको बता दे कि हम फसलों को रोगों से बचाने के लिए कीटनाशक,
पीडकनाशक आदि रसायनों का छिडकाव करते हैं। इनका कुछ भाग मिट्टी द्वारा भूमि में
रिस जाता है जिसे पौधे जड़ों द्वारा खनिजों के साथ ग्रहण कर लेते हैं। इन्हीं पौधों के
उपयोग से वे रसायन हमारे तथा जानवरों के शरीर में प्रवेश करते हैं तथा पौधों के लगातार
सेवन से उनकी सांद्रता बढ़ती जाती है जिसके परिणामस्वरूप जैव आवर्धन (Biological
Magnification) का विस्तार होता है।
जैव आवर्धन तब होता है जब डीडीटी जैसे जहरीले रसायन, जिनके अवशेष पर्यावरण में
विद्यमान रहते हैं और अप्रत्यक्ष रूप से जीवों द्वारा भोजन के माध्यम से उपभोग किए जाते
हैं। जब उच्च खाद्य श्रृंखला में एक जीव ऐसे रसायनों वाले निचले जीवों का सेवन करता है,
तो उच्च खाद्य श्रृंखला के जीव में यह जहरीले रसायन जमा हो सकते हैं। इस तरह से ये
विषाक्त पदार्थों या रसायनों की सांद्रता खाद्य श्रृंखला के हर पोषी स्तरों में बढ़ती जाती है।
सरल शब्दों में कहे तो जैविक आवर्धन से तात्पर्य विषैले एवं हानिकारक रसायनों का खाद्य
श्रृंखला में प्रवेश होना एवं पोषीय स्तर के साथ बढ़ते जाना तथा उच्च खाद्य जीवों में
स्थापित होना है। डीडीटी एक द्वितीय श्रेणी का कीटनाशक है जो मध्यम रूप से विषैला
होता है, जो एक बार किसी के शरीर में पहुंच जाए तो न तो खत्म होता है, न ही बाहर
निकलता है,अन्दर ही अन्दर इकट्ठा होता रहता है।
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि डीडीटी
पानी में अघुलनशील है। इसी वजह से अन्य पदार्थों की तरह शरीर से बाहर निकलने के
बजाए डीड़ीटी जीव-जन्तुओं के शरीर के वसा वाले हिस्सों में इकट्ठा होता रहता है। और फिर
जब कोई दूसरा जानवर उसे खाए तो उसके शरीर में जाकर इकट्ठा हो जाता है।
अध्ययनों ने साबित किया है कि डीडीटी का मानव और पशु स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता
है। इसकी कम से मध्यम खुराक (10 मिलीग्राम/किलोग्राम) के परिणामस्वरूप मतली, दस्त
और आंखों, नाक या गले में जलन हो सकती है, जबकि उच्च खुराक (16 मिलीग्राम/किग्रा)
से कंपकंपी और बेहोशी हो सकती है। यह कुछ मामलों में क्रोमोसोमल क्षति (chromosomal
damage) भी पैदा कर सकता है। हालांकि जैव आवर्धन एक प्राकृतिक घटना है, लेकिन कृषि
में उपयोग होने वाले अकार्बनिक कीटनाशक, कवकनाशी, उर्वरक और अन्य जहरीले रसायन,
खनन और औद्योगिक गतिविधियों से निकले जहरीले रसायन जैसी तीव्र गतिविधियों से जैव
आवर्धन की घटना बढ़ जाती है।
इस साल, वैज्ञानिकों की एक टीम ने चेतावनी दी कि हमने शायद पृथ्वी की रासायनिक
प्रदूषण सहन करने की सीमा का उल्लंघन किया है और अभी भी मनुष्यों को यह बात समझ
में नहीं आई है, क्यूंकि अभी भी नए रसायनों का उत्पादन तथा पर्यावरण में उनकी रिहाई
जारी है जिस कारण स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गई है। रासायनिक प्रदूषण एक बड़ी
समस्या है, जिसकी गहराई अभी भी स्पष्ट नहीं है क्योंकि कई रसायनों का अभी तक उनके
पर्यावरणीय प्रभाव के लिए बड़े पैमाने पर परीक्षण नहीं किया गया है और नियमित रूप से
निगरानी नहीं की गई है। यूरोपीय पर्यावरण एजेंसी का अनुमान है कि 70,000 से अधिक
रसायनों में विषाक्तता की जानकारी उपलब्ध नहीं है, और हजारों विभिन्न यौगिकों का हमारे
पास विषाक्तता डेटा उपलब्ध नहीं है, उभरते संदूषकों की उपस्थिति चिंताजनक है।
एक अध्ययन में पाया गया की उत्तरी जर्मनी (Germany) के 30 सफेद पूंछ वाले बाज़
पक्षिओं में भारी मात्रा में 85 प्रदूषक पाए गए, जिनमें फार्मास्यूटिकल्स (pharmaceuticals),
कीटनाशक और परफ्लोरोएल्किल और पॉलिफ्लोरोएल्किल पदार्थ (Perfluoroalkyl and
Polyfluoroalkyl Substances-PFAS) शामिल हैं। जबकि कुछ डीडीटी जैसे रसायन लंबे
समय से प्रतिबंधित है, फिर भी 40 से अधिक वर्षों के प्रतिबंधों के बाद भी अक्सर जंगली
जानवरों और पक्षियों में ये पाए जाते है। इस घटना का प्रभाव पक्षियों खासकर की उल्लू ,
बाज़ और गिद्धों पर भी पड़ा है। नॉर्वेजियन यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी
(Norwegian University of Science and Technology) के इकोटॉक्सिकोलॉजिस्ट
(ecotoxicologist) वीरले जैस्पर्स (Veerle Jaspers) कहते हैं, “पीएफएएस का उपयोग एक
विशेष चिंता का विषय है।“ जैस्पर्स ने नॉर्वे (Norway) में बाज और उल्लू में पीएफएएस
पाया, और प्रयोगशाला में उनके बहुत स्पष्ट प्रभाव देखे।
भारत के पक्षी भी इन खरतनाक रसायनों से अछूते नहीं हैं, राजस्थान के भरतपुर में
केवलादेव घाना राष्ट्रीय उद्यान की आर्द्रभूमि, वहां रहने वाले गिद्धों के लिए जानी जाती है।
लेकिन पक्षियों की यह प्रजाति संकट का सामना कर रही हैं। इनकी घटती जनसंख्या सबसे
ज्यादा चिन्ताजनक हैं। क्योंकि यह पक्षी अनेक प्रकार की पारिस्थितिकी सेवाएँ प्रदान करता
है। गिद्धों का प्रकृति में अतुलनीय योगदान है। अगर गिद्ध हमारी प्रकृति का हिस्सा न हो
तो हमारी दुनिया सड़े मांस का ढेर हो जाती। गिद्ध पर्यावरण के प्राकृतिक सफाईकर्मी पक्षी
होते हैं जो विशाल जीवों के शवों का भक्षण कर पर्यावरण को साफ़-सुथरा रखने का कार्य
करते हैं और हमे कई तरह की बीमारियों से बचाते हैं। इस प्रकार गिद्ध वास्तव में अनेक
संक्रामक रोगों का विस्तार रोकते हैं।
जब बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस (Bombay Natural History Society
(BNHS))) के एक पक्षी विज्ञानी विभु प्रकाश ने कुछ महीने पहले देखा कि पार्क के कुछ
हिस्सों में गिद्धों की संख्या लगभग 2,000 से घटकर कुछ ही जोड़े रह गई है, तो वह
चिंतित हो गये थे। उन्होंने बताया कि पार्क में पहले 350 तक गिद्धों के घोंसलों थे लेकिन
अब 10 से भी कम रहे गए हैं। दिल्ली में विज्ञान और पर्यावरण केंद्र (सीएसई (Center for
Science and Environment)) के साथ मिलकर, बीएनएचएस वैज्ञानिकों ने अब जानवरों के
शवों में डीडीटी और बीएचसी (BHC) जैसे घातक कीटनाशकों के उच्च स्तर की पुष्टि की है।
बीएनएचएस के निदेशक असद आर रहमानी कहते हैं, "मुझे लगता है कि हमारे गिद्ध
कीटनाशकों के जहर के कारण मर रहे हैं, लेकिन इस पर पर विस्तृत अध्ययन की
आवश्यकता है।"
जैसा की हम पहले पढ़ ही चुके हैं की जैव आवर्धन का विस्तार कैसे होता है और किस
प्रकार ये डीडीटी जैसे जहरीले रसायन अप्रत्यक्ष रूप से जीवों द्वारा भोजन के माध्यम से
उपभोग किए जाते हैं। परन्तु शोधकर्ता नायर के लिए यह कोई नई चिंता का विषय नहीं है,
जिन्होंने एक दशक से अधिक समय तक कीटनाशकों के अवशेषों पर काम किया है और
उन्हें केंचुओं से लेकर मनुष्यों तक हर जगह पाया। शोधकर्ताओं ने गिद्धों की मौत से पहले,
सारस क्रेन, कबूतर और चील को प्रभावित करने वाले कीटनाशक पाए थे। 1990 में,
विश्लेषण के लिए नायर ने पाया की गिद्ध ऊतक के नमूनों में कबूतरों की तुलना में चार
गुना अधिक कीटनाशक पाया गया है। ये कीटनाशक रसायन अंतःस्रावी अवरोधक कहलाते हैं,
हार्मोन व्यवहार को प्रभावित कर सकते हैं तथा यह प्रजनन व्यवहार को भी बदल सकते हैं
और पुरुषों को मादा या बच्चे ना पैदा करने योग्य बना सकते हैं।
ये प्रतिरक्षा प्रणाली को
बाधित कर सकते हैं और सामान्य कोशिकाओं को कैंसर में बदल सकते हैं। गिद्धों की
आबादी में थोड़ी सी भी गिरावट उस नाजुक संतुलन को बिगाड़ सकती है जिस पर खाद्य
श्रृंखला बनी है। समय है की इस विषय पर सही दिशा में कदम उठाये जाए क्यूंकि ज़रा
सोचिये यदि इतने बड़े पक्षी कीटनाशक विषाक्तता से मर सकते हैं तो उन सभी छोटे पक्षियों
का क्या ही होगा जो अधिक छिड़काव वाले खेतों में उड़ते हैं? और इस सवाल का जवाब
अभी तक कोई नहीं जानता।
संदर्भ:
https://bit.ly/3dWmBxC
https://bit.ly/3SKVJ22
https://bit.ly/3M7NhYZ
चित्र संदर्भ
1. हाथ में गिद्ध को बिठाये व्यक्ति को दर्शाता एक चित्रण (Flickr)
2. डाईक्लोरो-डाईफेनाइल-ट्राईक्लोरोइथेन को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. (DDT) के भ्रामक प्रचार को दर्शाता एक चित्रण (Flickr)
4. मृत पड़े गिद्ध को दर्शाता एक चित्रण (Flickr)
5. रसायन का छिड़काव करते किसान को दर्शाता एक चित्रण (Flickr)
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