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इतिहासकारों और पुरातत्वविदों ने लंबे समय से धातुओं की खोज और धातु विज्ञान के आविष्कार को
मानवता के इतिहास में एक क्रांतिकारी कदम के रूप में देखा है। धातुओं की खोज और प्रयोग का मानव
जाति के इतिहास में काफी महत्व है। धातुओं से मनुष्य को एक ऐसी सामग्री मिल गई जो पत्थर से
अधिक टिकाऊ थी और जिसका प्रयोग विविध प्रकार के औजारों, उपकरणों और हथियारों को बनाने के
लिए किया जा सकता था और इस प्रकार बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती थी।
सर्वप्रथम जिस धातु को ढूँढ निकाला गया और जिसका उपयोग औजार बनाने के लिए किया गया वह
ताँबा थी। बाद में मनुष्य ने खानों से ताँबा निकालना सीखा। ऐसे ताँबे का उपयोग 4500 ई.पू. में दक्षिण
इराक के सुमेर में आरंभ हुआ। तांबे को 7 वीं सहस्राब्दी ईसा पूर्व में कलाकृतियों के रूपों में इस्तेमाल
किया जाने लगा, इसे अयस्क से निकाला गया था। इस निष्कर्षण प्रक्रिया को गलाना (smelting) कहा
जाता है। ऑस्ट्रेलियाई आल्प्स में मारे गए एक व्यक्ति के ममीकृत शरीर (3300-3200 ईसा पूर्व) के
साथ एक तांबे की कुल्हाड़ी मिली थी। इसलिए माना जाता है कि उस समय धातु के शुरुआती उपयोग की
कोई आर्थिक भूमिका नहीं थी, क्योंकि अधिकांश धातु की कलाकृतियां या तो पोशाक का सामान थी या
अनुष्ठान की वस्तुएं थीं। उस समय देशी तांबे में अशुद्धता नहीं होती है, इसलिए इसे हथौड़े से आकार
दिया जा सकता है। धीरे - धीरे इनके औजार, हथियार और बर्तन बनने शुरू हो गए, इसके
परिणामस्वरूप व्यापार का विकास शुरु हुआ जिससे विभिन्न देशों के लोग निकट आए।
लोगों ने ताँबे के साथ टीन व जस्ते को मिलाकर काँसा नामक मिश्र धातु बनाना प्रारंभ कर दिया। काँसा
ताँबे से अधिक उपयोगी साबित हुआ। वह ताँबे से अधिक सख्त होता है इसलिए मजबूत औजारों,
हथियारों तथा उपकरणों को बनाने के लिए अधिक उपयोगी होता है। इतिहास का वह युग जिसमें
मनुष्य हथियार, बरतन आदि के लिए काँसे का प्रयोग करने लगा था, कांस्य युग के नाम से जाना जाता
है। प्रारंभिक कांस्य युग में भाले और कुल्हाड़ियों जैसी वस्तुओं को आकार देने के लिए पत्थर और
मिट्टी के सांचों का उपयोग किया जाता था। कांस्य निर्माण प्रक्रिया के दौरान तांबे के साथ मिश्रित
आर्सेनिक मिलाया जाता था। दरअसल, इंग्लैंड, आयरलैंड और चीन में पुरातत्वविदों को कुछ हलबर्ड्स
(halberds) (एक युद्ध-कुल्हाड़ी और भाले के संयोजन से बना एक विशेष प्रकार का हथियार) मिले जो
बड़ी मात्रा में आर्सेनिक के साथ मिश्रित तांबे से बने हुए थे। साथ ही साथ कांस्य बनाने के लिए टिन
टिनस्टोन या कैसिटराइट (tinstone or cassiterite) अयस्क से प्राप्त किया जाता था। प्रागैतिहासिक
कांस्य के लिए टिन सार्डिनिया (Sardinia), ब्रिटनी (फ्रांस) (Brittany (France)), कॉर्नवाल (इंग्लैंड)
(Cornwall (England)), ईरान (Iran) या बोहेमिया (Bohemia) से लाया गया था। इसलिए यह कोई
आश्चर्य की बात नहीं है कि 800 ईसा पूर्व तक, टिन एक कीमती धातु के रूप में धातुओं की सूची में ऊपरी
स्थान पर दिखाई देता है, साथ ही सोना, चांदी, लोहा, हाथी की खाल, हाथी दांत और बैंगनी रंग के कपड़े
जैसी विलासिता की चीजें भी कीमती वस्तुओं में शामिल थी।
किसी भी उन्नत सभ्यता के विकास में, धातु और खनिजों का व्यापार में प्रमुख स्थान होता है। हड़प्पा
सभ्यता इसका एक प्रमुख उदाहरण है।
हड़प्पावासी आपसी संबंधों और व्यापार नेटवर्क की एक व्यापक और जटिल प्रणाली में शामिल थे,
जिससे कांस्य शिल्प और तांबा-कांस्य मिश्र धातु प्रौद्योगिकी के विशेष पुरातात्विक-धातु विश्लेषण,
अर्ध-कीमती पत्थरों सहित विभिन्न धातुओं और खनिजों के लेनदेन की सुविधा मिलती थी। इस प्राचीन
सभ्यता के अन्य देशों के साथ व्यापारिक संबंध थे। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में खुदाई में मिले सोने,
चांदी, तांबे और अन्य कीमती पत्थरों को विदेशों से मंगवाया गया होगा, क्योंकि तब तक वे यहां नहीं
पाए जाते थे। हड़प्पा सभ्यता के पुरातात्विक वैज्ञानिकों के दीर्घकालिक महत्वपूर्ण सर्वेक्षण में धातु के
उपयोग, तांबा गलाने की प्रक्रिया, कांस्य शिल्प और तांबा-कांस्य मिश्र धातु प्रौद्योगिकी के विशेष
पुरातात्विक-धातु विश्लेषण और हड़प्पावासियों के धातु और खनिज लेनदेन के व्यापार के विषय में कई
जानकारियां शामिल हैं। मुख्य लेख में, जे.एम. केनोयर (J.M. Kenoyer) और आरएच मीडो (R.H.
Meadow ) के द्वारा पिछले 70 वर्षों में हड़प्पा पुरातात्विक खोजों और व्याख्याओं का एक
कालानुक्रमिक सारांश लिखा हुआ हैं, जो कुछ प्रमुख बदलावों को उजागर करते हैं। लेखकों द्वारा प्रदान
किए गए यह व्यापक उद्धरण शोधकर्ताओं के लिए काफी उपयोगी हैं।
एक पुरातात्विक अध्ययन द्वारा ए.के. बिस्वास (A.K. Biswas) ने बताया कि तांबे, सोना, चांदी, सीसा,
टिन, लोहा और जस्ता जैसी धातुओं और हीरे जैसे खनिजों का ज्ञान प्राचीन भारतीय में पहले से था,
प्राचीन भारत में वुट्ज (Wootz) इस्पात बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला विशेष फाइबर-
प्रबलित रिफ्रैक्टरी क्रूसिबल (fiber-reinforced refractory crucible ) आज भी एक वैध तकनीक है।
हड़प्पा के कई तांबे के औजार कास्टिंग (casting) विधि से बनाए गए थे और बर्तनों को हथौड़े से कांसे की
एक शीट से बनाया गया था। लेखों में प्रारंभिक हड़प्पा स्थलों पर कांस्य-निर्मित अवशेषों के साथ,
लगभग 3000 ईसा पूर्व मिश्र धातु और धातु विज्ञान के उद्भव को दर्शाता गया है। डी.के. चक्रवर्ती बताते
है कि सिंधु सभ्यता में टिन का धातु विज्ञान अच्छी तरह से विकसित था। केनोयर और मिलर
(Kenoyer and Miller) का एक लेख हड़प्पावासियों द्वारा अपने परिपक्व चरण (2700-1900 ईसा पूर्व)
के दौरान धातुओं के उपयोग के बारे और मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, लोथल से प्राप्त धातु कलाकृतियों के
तकनीकी विश्लेषण के आधार पर प्राचीन भारतीय धातु विज्ञान के स्तर को दर्शाता है। इसमें धातुओं के
संभावित स्रोतों और उनकी प्रसंस्करण तकनीकों से लेकर कास्टिंग तक की बातें शामिल हैं। डी.पी.
अग्रवाल और आर. शेषाद्री का लेख कला और शिल्प की विभिन्न धातु वस्तुओं के आधार पर,
हड़प्पावासियों की पुरातात्विक-धातु परंपरा, अत्यधिक परिष्कृत और उन्नत उत्पादन तकनीक को
चिह्नित करता हैं। एम.के. धवलीकर ने अपने लेख 'मेलुहा (Meluha) में तांबे के व्यापार की भूमिका को
दिखाया है; उन्होंने बताया है की हड़प्पा सभ्यता के व्यापार में धातुओं और खनिजों का कितना
महत्वपूर्ण स्थान था।
यूपी के बागपत जिले में सिनौली गांव से 2018 की खुदाई में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को मिले
पुरावशेष और प्रमाण बेहद चौंकाने वाले थे। यहाँ लगभग 2000 ईसा पूर्व की अवधि में रथों के भौतिक
साक्ष्य की खोज की, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण टीम का अनुमान है कि साइट से प्राप्त दुलर्भतम
पुरावशेषों में कुछ ऐसी चीजें सामने आई हैं जिससे ये अनुमान लगाया जा सकता है कि हथियार
क्राफ्टिंग में धातु विज्ञान की परिष्कृत तकनीकों का उपयोग किया गया है। रिपोर्टों के अनुसार, परिष्कृत
हथियारों, आभूषणों, मिट्टी के बर्तनों और अन्य सामग्रियों के साथ शाही कब्रगाहों की खुदाई से पता
चलता है कि उस क्षेत्र में एक अत्यधिक परिष्कृत 'योद्धा वर्ग' सभ्यता थी। सनौली की खुदाई में सबसे
बड़ी खोज के रूप में युद्ध रथ सामने आया है, जो लकड़ी से बना था और जिसके पहियों को तांबे के
रूपांकनों से सजाया गया है जो सूर्य की किरणों का प्रतीक है। हालांकि विशेषज्ञ अभी इस बारे सुनिश्चित
तौर पर नहीं कह सकते कि रथ बैलों द्वारा खींचे गए थे या घोड़े, लेकिन उनका मानना है कि यह शायद
घोड़े द्वारा खींचे गए थे। इस राथ का जो आकार है उससे ये प्रमाणित होता है कि उस जमाने में भी इस
तरह की आधुनिक तकनीक मौजूद थी। साथ ही इस तरह के रथ और अन्य उपकरण का जिक्र
महाभारत, ऋग्वेद और रामायण में भी किया गया है। यहां एक ‘शाही कब्रगाह’ में आठ कब्रें, जिसमें से
तीन खाटनुमा ताबूतों में हैं और उनके साथ हथियार, विलासिता का सामान और पशु-पक्षियों के साथ
तीन रथ दफनाए गए मिले हैं। ताबूतों को भी तांबे के रूपांकनों से सजाया गया है जिसमें पीपल के पत्ते के
आकार के मुकुट, फूलों के रूपांकन शामिल हैं।
उपमहाद्वीप में पहली बार ऐसे दफन स्थल मिले हैं
जिसने भारतीय पुरातत्व के इतिहास में नया मोड़ दिया है क्यूंकि हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और धोलावीरा में
दफन ताबूत के विपरीत इनमें तांबे की सजावट थी। ‘सनौली कब्रगाह संस्कृति’ ईसा पूर्व 1800-2000
साल पुरानी (ताम्र-कांस्य युग) और सिंधु घाटी सभ्यता की समकालीन मानी जा रही है। हालांकि, ये
खोजें महाभारतकालीन हैं या नहीं, यह साबित करने के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने और जांच व
बहस की जरूरत बताई है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3QMTE4y
https://bit.ly/2OmpfeF
https://bit.ly/3Ds2aTj
https://bit.ly/3QJJRMv
चित्र संदर्भ
1. धातु को गलाने के दृश्य को दर्शाता एक चित्रण (Science Photo Library)
2. कीमती धातु और रत्न संग्रह को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
3. सिंधु घाटी में पाए गए हड़प्पा के वजन मापकों, (राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली) को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
4. हड़प्पा (सिंधु घाटी) कांस्य रथ को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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