जीवन जीने के आदर्श सूत्र हैं , महर्षि पतंजलि के अष्टांग योगसूत्र

य़ातायात और व्यायाम व व्यायामशाला
22-06-2022 10:18 AM
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जीवन जीने के आदर्श सूत्र हैं , महर्षि पतंजलि के अष्टांग योगसूत्र

आज हमें पलक झपकते ही मिलने वाली सुख-सुविधाओं और ऑफिस से जुड़े कामकाजों को करने के कारण, एक बड़ी मुश्किल यह खड़ी हो गई है की, हमारी शारीरिक गतिविधियां बहुत ही सीमित हो गई हैं! और चूंकि हमारा एक समान दिनचर्या का असर हमारे दिमाग पर भी होता है, इसलिए आजकल तनाव और अकेलापन भी एक बड़ी समस्या बन चुका है! लेकिन सीमित शारीरिक गतिविधियों वाले लोगों को यह जानकर बेहद प्रसन्नता होगी की, “हमारी सभी शारीरिक और मानसिक परेशानियों को दूर करने का नुस्खा पतंजलि के योग सूत्र में हजारों वर्षों पहले ही लिखा जा चुका है।” और इस नुस्खे का नाम है, "अष्टांग योगसूत्र"!
महर्षि पतंजलि ने योग को 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' (योगः चित्तवृत्तिनिरोधः) के रूप में परिभाषित किया है। उन्होंने 'योगसूत्र' नाम से योगसूत्रों का एक संकलन किया, जिसमें उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए, अष्टांग योग (आठ अंगों वाले योग) मार्ग को विस्तार पूर्वक बताया है। उन्होंने आठ अंगों को, यम (संयम), नियम (पालन), आसन , प्राणायाम (श्वास), प्रत्याहार (वापसी), धारणा (एकाग्रता), ध्यान और समाधि (अवशोषण) के रूप में परिभाषित किया। महर्षि पतंजलि के अनुसार, “चित्त की वृत्तियों के निरोध (योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः) का नाम ही योग है।” अष्टांग योग के अंतर्गत, प्रथम पांच अंग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार) 'बहिरंग' ,और शेष तीन अंग (धारणा, ध्यान, समाधि) 'अंतरंग' नाम से प्रसिद्ध हैं। यम' और 'नियम' वस्तुतः शील और तपस्या के द्योतक माने जाते हैं।
योग के अष्टाङ्गों का परिचय:
1. यम: अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरग्रहाः यमा : यम हिंदू धर्म में नैतिक नियम हैं, और इसे नैतिक अनिवार्यता ("क्या नहीं") के रूप में माना जा सकता है।
यम में निहित पांच सामाजिक नैतिकताएं:
(क) अहिंसा - अहिंसाप्रतिष्ठायांतत्सन्निधौ वैरत्याग: अर्थात अहिंसा से प्रतिष्ठित हो जाने पर उस योगी के पास से वैरभाव छूट जाता है। शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना।
(ख) सत्य -सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफ़लाश्रययत्वम्: अर्थात सत्य से प्रतिष्ठित (वितर्क शून्यता स्थिर) हो जाने पर, साधक में क्रियाओं, विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना और उनके फलों की आश्रयता आ जाती है।
(ग) अस्तेय - अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्: अस्तेय अर्थात चोर-प्रवृति का न होना!, अस्तेय के प्रतिष्ठित हो जाने पर सभी रत्नों की उपस्थिति हो जाती है ।
(घ) ब्रह्मचर्य - ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभ: अर्थात ब्रह्मचर्य के प्रतिष्ठित हो जाने पर वीर्य(सामर्थ्य) का लाभ होता है।
ब्रह्मचर्य के दो अर्थ हैं-
पहला:चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना।
दूसरा:सभी इन्द्रिय जनित सुखों में संयम बरतना।
(ङ) अपरिग्रह - अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोध :अर्थात अपरिग्रह स्थिर होने पर (वर्तमान और भविष्य के) जन्मों तथा उनके प्रकार का संज्ञान होता है। अपरिग्रह का अर्थ आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना होता है।
2. नियम: शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा: इन्हे शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान के नियम कहा जाता हैं ।
(क) शौच: पवित्रता, मन, वाणी और शरीर की निर्मलता।
(ख) संतोष : संतोष, दूसरों की स्वीकृति, किसी की परिस्थितियों को स्वीकार करना जैसे वे अतीत को पाने या बदलने के लिए हैं, संतुष्ट और प्रसन्न रहना।
(ग) तपस दृढ़ता, तपस्या, आत्म-अनुशासन , स्वयं से अनुशासित रहना!
(घ) स्वाध्याय: वेदों का अध्ययन, स्वयं का अध्ययन, आत्म-प्रतिबिंब, स्वयं के विचारों, भाषण और कार्यों का आत्मनिरीक्षण।
(ड़) ईश्वरप्रनिधान: ईश्वर का चिंतन (ईश्वर/परमात्मा, ब्रह्म , सच्चा स्व, ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए।
3. आसन: आसन एक ऐसी मुद्रा है, जिसे व्यक्ति कुछ समय के लिए आराम से, स्थिर, आरामदायक और गतिहीन रहकर धारण कर सकता है। आसन शरीर को साधने का तरीका होता है। पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। (स्थिरसुखमासनम्) पतंजलि के योगसूत्र में ने आसनों के नाम नहीं गिनाए हैं। लेकिन परवर्ती विचारकों ने अनेक आसनों की कल्पना की है। वास्तव में आसन हठयोग का ही एक मुख्य विषय है।
4. प्राणायाम: तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम: उस ( आसन) के सिद्ध होने पर श्वास और प्रश्वास की गति को रोकना सांस को सचेत रूप से नियंत्रित करने का अभ्यास ही प्राणायाम है। प्राणायाम को मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक माना गया है।
5. प्रत्याहार: महर्षि पतंजलि के अनुसार जो इन्द्रियां चित्त को चंचल कर रही हैं, उन इन्द्रियों का विषयों से हट कर एकाग्र हुए चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना ही प्रत्याहार है। यह बाहरी वस्तुओं से संवेदी अनुभव को वापस लेने की एक प्रक्रिया है। यह आत्म निष्कर्षण और अमूर्तता का एक चरण है। प्रत्याहार से इंद्रियां वश में रहती हैं, और उन पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है।
6. धारणा: धारणा का अर्थ एकाग्रता, आत्मनिरीक्षण ध्यान और किसी एक विषय को ध्यान में बनाए रखना होता है। मन को एकाग्रचित्त करके ध्येय विषय पर लगाना पड़ता है।
7. ध्यान: किसी एक स्थान पर या वस्तु पर निरन्तर मन स्थिर होना ही ध्यान है। जब ध्येय वस्तु का चिन्तन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है, तो उसे ध्यान कहते हैं। धारणा मन की एक अवस्था है, ध्यान मन की प्रक्रिया है। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।
8. समाधि: समाधि का शाब्दिक अर्थ, "एक साथ रखना, जुड़ना, मिलन, सामंजस्यपूर्ण संपूर्ण या ट्रान्स (trance) होता है! "यह चित्त की ऐसी अवस्था है, जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन, समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है। समाधि की भी दो श्रेणियाँ हैं :
१.सम्प्रज्ञात: सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मिता जुगत होती है।
२.असम्प्रज्ञात: असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है।
कैवल्य अष्टांग योग का अंतिम लक्ष्य माना गया है, और इसका अर्थ "एकांत" या "अलगाव", "अकेला या पृथक" होता है। यह प्रकृति से पुरुष का अलगाव , और पुनर्जन्म से मुक्ति , यानी मोक्ष है। विवेक उत्पन्न होने पर औपाधिक दुख सुखादि - अहंकार, प्रारब्ध, कर्म और संस्कार के लोप हो जाने से आत्मा के चितस्वरूप होकर आवागमन से मुक्त हो जाने की स्थिति को कैवल्य कहते हैं। वेदांत के अनुसार परामात्मा में आत्मा की लीनता और न्याय के अनुसार अदृष्ट के नाश होने के फलस्वरूप, आत्मा की जन्म-मरण से मुक्तावस्था को कैवल्य कहा गया है। हिंदू धर्मग्रंथों में शुक, जनक आदि ऋषियों को जीवन्मुक्त बताया गया है जो जल में कमल की भाँति, संसार में रहते हुए भी मुक्त जीवों के समान निर्लेप जीवन यापन करते है। योगसूत्रों के भाष्यकार व्यास के अनुसार, जिन्होंने कर्म बंधन से मुक्त होकर कैवल्य प्राप्त किया है, उन्हें 'केवली' कहा जाता है। बुद्धि आदि गुणों से रहित निर्मल ज्योतिवाले केवली आत्मरूप में स्थिर रहते हैं।

संदर्भ
https://bit.ly/3OpoYFu
https://bit.ly/3n7mccE
https://bit.ly/3O9z9yz

चित्र संदर्भ
1. अष्टांग योगसूत्र को दर्शाता एक चित्रण (youtube)
2. पतंजलि योगपीठ, हरिद्वार में आधुनिक कला का प्रतिपादन को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. अष्टांग योगसूत्र गाइड एक चित्रण (wikimedia)

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