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रामपुर स्थित रज़ा पुस्तकालय में ऐतिहासिक मूल्य के अनेक संग्रहों को संरक्षित रखा हुआ है, ये मंगोल, फ़ारसी, मुग़ल डेकाणी, राजपूत, पहाड़ी, अवध और ब्रिटिश स्कूल ऑफ़ पेंटिंग (British Schools of Paintings) की दुर्लभ लघु, चित्र, और सचित्र पांडुलिपियों से समृद्ध है। पुस्तकालय में चित्र और लघुचित्रों के 35 एल्बम (Albums) हैं, जिनमें ऐतिहासिक मूल्य के लगभग 5000 चित्र हैं। इन एल्बमों में अकबर के शासनकाल के शुरुआती वर्षों का एक अनूठा एल्बम ‘तिलिस्म’ भी है, जिसमें 157 लघुचित्र शामिल हैं जो कि समाज के विभिन्न तबके के जीवन को चित्रित करते हैं। ज्योतिषीय और जादुई अवधारणाओं के अलावा, शाही बैनर (Banner) में से एक में कुरान की आयतें हैं और इस प्रतीकात्मक तिमूरिद (Timurid) बैनर को सूरज और शेर के साथ भी चित्रित किया गया है, जबकि अन्य में राशि चक्र के संकेत मिलते हैं। एल्बम में अवध नवाबों की मुहरें भी हैं, जो यह इंगित करता है कि यह वहां उनके कब्जे में था। पुस्तकालय संग्रह में संतों और सूफियों के चित्र वाला एक एल्बम भी संग्रहीत है।
मुगल शैली में 17वीं शताब्दी में विशेष रूप से चित्रित एक बहुत ही मूल्यवान एल्बम ‘रागमाला’ विभिन्न मौसमों, समय और भावों के अलावा, सुंदर परिदृश्य, देवी और देवता, पुरुष और महिला दोनों युवा संगीतकारों के माध्यम से 35 रागों और रागिनियों को चित्रित करता है। कुछ एल्बमों में मंगोल तिमूरिद और रानियों सहित मुगल शासकों के चित्र हैं जिनमें चिंगेज़ हुल्कू, तिमूर, बाबर, हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगज़ेब, मुहम्मद बहादुर शाह ज़फ़र, गुल, गुल बदन बेगम, नूरजहाँ, बहराम खान, इतिमाद-उद-दौला, आसफ खान, बुरहान-उल-मुल्क, सफदर जंग, शुजा-उद-दौला, आसिफ-उद-दौला, बुरहान निजाम शाह द्वितीय, अबुल हसन तना शाह आदि शामिल हैं। संग्रह के अलावा ईरानी राजा और राजकुमारियों जैसे कि इस्माइल सफवी और शाह अब्बास की तस्वीरें शामिल हैं। इनमें एक लघु चित्र मौलाना रम शिराजी का भी है। लघु चित्रों की दुनिया इतिहास, धर्मग्रंथों और युगों से लोगों के जीवन का बहुरूपदर्शक है। लघु कला प्रेम का एक गहन श्रम है जिसे विविध प्रकार की सामग्रियों जैसे- ताड़ के पत्ते, कागज, लकड़ी, संगमरमर, कपड़े आदि की एक श्रृंखला पर चित्रित किया गया है। लघु चित्रकारी नाजुक हस्तनिर्मित चित्रकारी है, जो सामान्य पेंटिंग की तुलना में आकार में बहुत छोटी होती हैं। यह भारत की एक प्राचीन कला है और इसे सिखाने के लिए विभिन्न स्कूल भी खोले गए थे, जिनमें राजपूत, दक्खन और मुगल शामिल थे। ये आमतौर पर लकड़ी के मेज, हाथीदांत पैनल (Pannel), कागज, संगमरमर और चमड़े, दीवारों और यहां तक कि कपड़े पर भी बनाए जाते हैं। भारत में सबसे प्राचीन लघु चित्र 7वीं शताब्दी ईस्वी पूर्व से प्राप्त किये जा सकते हैं, जब वे बंगाल के पाल वंश के संरक्षण में फले-फूले। बौद्ध ग्रंथों और शास्त्रों को बौद्ध देवताओं की छवियों के साथ 3 इंच (Inch) चौड़े ताड़ के पत्ते की पांडुलिपियों पर चित्रित किया गया था। पाल कला को अजंता में भित्ति चित्रों के कोमल और धुंधले रंगों और वक्रदार रेखाओं द्वारा परिभाषित किया गया था।
जैन धर्म ने लघु चित्रकला की पश्चिमी भारतीय शैली के लघु कलात्मक आंदोलन को प्रेरित किया। यह रूप 12वीं -16वीं शताब्दी ईस्वी से राजस्थान, गुजरात और मालवा के क्षेत्रों में प्रचलित था। जैन पांडुलिपियों को अतिरंजित शारीरिक विशेषताओं, उत्तेजक रेखाओं और उज्जवल रंगों का उपयोग करके चित्रित किया गया था। 15वीं शताब्दी में फारसी प्रभावों के आगमन के साथ, कागज ने ताड़ के पत्तों की जगह ले ली, जबकि शिकार के दृश्य और विभिन्न प्रकार के चेहरे समृद्ध एक्वामरीन ब्लूज़ (Aquamarine Blue) और स्वर्ण के उपयोग के साथ दिखाई देना शुरू हुए। भारत में लघु कला वास्तव में मुगलों (16वीं -18वीं शताब्दी ईस्वी) के तहत समृद्ध हुई, जोकि भारतीय कला के इतिहास में एक समृद्ध अवधि को परिभाषित करती है। चित्रकला की मुगल शैली धर्म, संस्कृति और परंपरा का सम्मलेन थी। फारसी शैलियों ने स्थानीय भारतीय कला के साथ संयुक्त होकर एक उच्च विस्तृत, समृद्ध कला का निर्माण किया। सम्राट अकबर के शासनकाल के दौरान, महल के जीवन और राजसी गौरव की विभिन्न उपलब्धियों का दस्तावेजीकरण एक प्रमुख विशेषता बन गया। उनके बाद सम्राट जहाँगीर के शासनकाल में प्रकृति के कई तत्वों की शुरूआत के साथ-साथ शैली में अधिक परिशोधन और आकर्षण देखा गया। बाद के चरण में इन चित्रों के भीतर यूरोपीय चित्रों की तकनीकें जैसे छायांकन और परिप्रेक्ष्य को भी पेश किया गया। औरंगजेब के शासनकाल में घटे हुए संरक्षण के कारण, मुगल लघु चित्र में पारंगत कई कलाकार दूसरी रियासतों में चले गए। इसके बाद, राजपूत लघु चित्रकला आधुनिक राजस्थान में 17वीं -18वीं शताब्दी में विकसित हुई।
मुगल लघु कला जिसने शाही जीवन को चित्रित किया, के विपरीत, राजस्थानी लघुचित्र भगवान कृष्ण की प्रेम कहानियों और रामायण और महाभारत जैसे पौराणिक महाकाव्यों पर केंद्रित हुई, जिन्हें पांडुलिपियों और हवेलियों और किलों की दीवारों पर सजावट के रूप में बनाया गया। राजस्थानी लघु कला के कई विशिष्ट विद्यालय स्थापित किए गए, जैसे मालवा, मेवाड़, मारवाड़, बूंदी-कोटा, किशनगढ़ और अंबर के स्कूल। लघु चित्रों की पाल शैली से शुरू होकर, कई शताब्दियों के दौरान भारत में लघु चित्रों के कई स्कूल विकसित हुए थे। ये विद्यालय भारत के विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक वातावरण के उपज थे। यद्यपि लघु चित्रों के ये विद्यालय एक-दूसरे से प्रभावित थे, फिर भी उनकी अपनी अलग विशेषताएं थीं। लघु चित्रों के कुछ महत्वपूर्ण स्कूलों का उल्लेख नीचे दिया गया है:
पाल विद्यालय :
प्राचीन भारतीय लघु चित्रकलाएं 8वीं शताब्दी के पाल विद्यालय से संबंधित हैं। चित्रकारी के इस विद्यालय में रंगों के प्रतीकात्मक उपयोग पर जोर दिया गया था और अक्सर विषयों को बौद्ध तांत्रिक अनुष्ठानों से लिया जाता था। वहीं बुद्ध और अन्य देवताओं की छवियों को ताड़ के पत्तों पर चित्रित किया गया था और अक्सर बौद्ध मठों (जैसे नालंदा, सोमपुरा महाविहार, ओदंतपुरी और विक्रमशिला) में प्रदर्शित किया जाता था। इन लघु चित्रों ने दूर-दूर से आए हजारों छात्रों को काफी आकर्षित किया। इस प्रकार, ये कला दक्षिण-पूर्व एशिया में फैल गई और जल्द ही, चित्रों की पाल शैली श्रीलंका, नेपाल, बर्मा, तिब्बत आदि स्थानों में लोकप्रिय हो गई।
उड़ीसा विद्यालय :
उड़ीसा स्कूल ऑफ मिनिएचर पेंटिंग (Orissa School of Miniature Painting) 17वीं शताब्दी के दौरान अस्तित्व में आया था। हालांकि 17वीं शताब्दी के दौरान कागज का उपयोग भारत में व्यापक था, उड़ीसा स्कूल ऑफ मिनिएचर पेंटिंग ने अपनी परंपरा को बनाए रखते हुए इस जटिल कला के रूप को प्रदर्शित करने के लिए ताड़ के पत्तों का उपयोग किया।
जैन विद्यालय :
भारत में लघु चित्रों में से एक, जैन स्कूल ऑफ पेंटिंग ने 11वीं शताब्दी ईस्वी में प्रसिद्धि प्राप्त की जब ‘कल्प सूत्र’ और ‘कालकाचार्य कथा’ जैसे धार्मिक ग्रंथों को लघु चित्रों के रूप में चित्रित किया गया।
मुगल विद्यालय :
भारतीय चित्रों और फ़ारसी लघु चित्रों के समामेलन ने मुगल स्कूल ऑफ़ मिनिएचर पेंटिंग (Mughal School of Miniature Painting) को जन्म दिया। दिलचस्प बात यह है कि फारसी लघु चित्र चीनी चित्रों से काफी हद तक प्रभावित हुए थे।
राजस्थानी विद्यालय :
वहीं मुगल लघु चित्रों के पतन के परिणामस्वरूप राजस्थानी विद्यालय का उदय हुआ। राजस्थानी स्कूल ऑफ पेंटिंग को उनके द्वारा बनाए गए क्षेत्र के आधार पर विभिन्न विद्यालयों में विभाजित किया जा सकता है। मेवाड़ विद्यालय, मारवाड़ विद्यालय, हैडोटी विद्यालय, धुंदर विद्यालय, कांगड़ा और कुल्लू स्कूल ऑफ आर्ट सभी राजस्थानी स्कूल ऑफ पेंटिंग का हिस्सा हैं। मुगल सम्राटों की तरह, राजपूत शासक भी कला के प्रेमी थे और इसके चलते उन्होंने लघु चित्रों को अपना संरक्षण दिया था।
पहाड़ी विद्यालय :
पहाड़ी चित्रकला की लघु चित्रकला 17वीं शताब्दी में सामने आई थी। इन चित्रों की उत्पत्ति उत्तर भारत के राज्यों में हिमालय क्षेत्र में हुई थी। मुगल स्कूल और राजस्थानी स्कूल ऑफ मिनिएचर पेंटिंग्स से प्रभावित, जम्मू और गढ़वाल क्षेत्रों में 17वीं से 19वीं शताब्दी में चित्रों की पहाड़ी शैली विकसित हुई थी। पहाड़ी स्कूल ऑफ पेंटिंग्स ने विभिन्न अन्य विद्यालयों को जन्म दिया। पहाड़ी चित्रों के तहत चित्रकारी के सबसे महत्वपूर्ण विद्यालय हैं: गुलर विद्यालय, बसोहली विद्यालय, गढ़वाल विद्यालय, चंबा विद्यालय और कांगड़ा विद्यालय।
वर्तमान समय में, बहुत सारे संरक्षित लघु चित्र संग्रहालयों और पुराने राजस्थानी किलों में पाए जाते हैं। हालांकि भारत में कुछ क्षेत्रों में कभी-कभी शाही परिवारों के संरक्षण में, कला की इन शैलियों का अभ्यास अभी भी किया जाता है, लेकिन इनका स्तर वह नहीं है जो मूल चित्रों के जैसा था। साथ ही इनके अभ्यास में कमी देखी जा रही है, लेकिन लघु कला का इतिहास में एक विशिष्ट स्थान है।
संदर्भ :-
https://www.jagranjosh.com/general-knowledge/do-you-know-that-how-indian-art-of-miniature-painting-evolves-1532003322-1
https://www.culturalindia.net/indian-art/paintings/miniature.html
https://www.artisera.com/blogs/expressions/miniature-paintings-of-india-chronicling-history-through-the-ages
http://razalibrary.gov.in/MiniaturePaintings.html
चित्र सन्दर्भ :
मुख्य चित्र में राजस्थानी लघुचित्र का एक उदाहरण दिखाया गया है। (Publicdomainpictures)
दूसरे चित्र में जहांगीर के दरबार का लघु चित्र दिखाया गया है। (wikimedia)
तीसरे चित्र में अकबरनामा में दर्ज़ मुग़ल लघुचित्र का उदाहरण है। (wikimedia)
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